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ज्योति रीता की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रकाशित

by Anhadkolkata
March 28, 2025
in कविता
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ज्योति रीता

ज्योति रीता की कविताओं में एक ऐसी ताजगी है जो न केवल आकर्षित करती है बल्कि हमें उकसाती भी है। इनकी कविताएँ पढ़कर लगता है कि अपने जीवन और अपने संसार में इन्होंने स्त्रियों के दर्द को बहुत गहरे महसूस किया है। यही कारण है कि स्त्री का प्रेम भी इनके यहाँ व्यंग्य का रूप धारण कर आता है – जो विचलित या इरिटेट भी करता है। आप न चाहते हुए भी इन कविताओं को इग्नोर नहीं कर सकते। लेकिन इस कवि की पहचान स्त्री का दर्द और प्रेम ही नहीं है – देश और दुनिया  की खबरें और अखबरें भी आप इनकी कविताओं में देख सकते हैं –

सभ्यताओं के दामन पर छिड़का जा सके इत्र
मनुष्यता की हो खेती
जिसमें सबकी हो बराबर की भागीदारी

मालिक याकि मज़दूर
सबके कोष में जाए भरपेट अनाज
सबके कुएं में हो पानी

अनहद कोलकाता द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत ज्योति रीता की कविताएँ प्रकाशित करते हुए हमें खुशी है।
आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।

 

 

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◼️हमारे बीच की भाषा मौन है ।।

हमारे बीच की भाषा मौन है
चुप्पी ज़ुबान है

बंद आंखों से सुनती हूँ
तुम कहते हो कुछ शब्द /जो प्रेम में आकंठ हैं

वक्त ढूंढते रहे हम ताकि हो सके संवाद
अधूरेपन को किया जा सके पूरा

कहना आसान था /चुप रहना ज्यादा सहज

तस्वीर के एकांत में हम करते रहे बातें
धुप्प अंधेरा हो तो दिखता है तुम्हारा हाथ

दूर बजता है कोई राग
पुकारता है कोई नाम

यह प्रेम गीत गाने का समय है
तुम करते रहे समाज सुधार की बातें

आधी आधी रात तक जागते रहे
पढ़ते रहे फ़ूको का दर्शन

गर इजाज़त हो

तुम्हारे सीने की ऊसर ज़मीन पर प्रेम बीज बोना चाहती हूँ

हमने बहुत दिनों तक सुबह होने का इंतजार किया है।।

कितना जानते हो तुम स्त्रियों को

कितना जानते हो तुम स्त्रियों को

हाँफते पसीने से तरबतर
जब तुम आसमान से उतरकर
पीठ-करवट चैन से सोते हो

स्त्री घुटने पर सर रख रात-रात भर रोती है
घुटन में नोचती है चमड़ी
खींचती है बाल
चरमराती है देह
सूखते हैं होंठ

उसी वक़्त खोल देती है
सड़क किनारे की ओर बंद पड़ी खिड़की
तमाम फसादों को चुन्नी में लपेटकर भागती है नई सड़क पर
चुन लेना चाहती है कोई नई माँद
याकि कोई नया प्रेमपात्र
जो देह से ज़्यादा मन पर चरस बोता है

बदन से छाल छिलवाती स्त्री खोजती है कोई मलहम
कोई ज़नाना मर्द
जो होंठ-गर्दन पर दाग़ से पहले
उगा दे तलवों पर सफ़ेद गुलबहार के फूल

खुशबू से महका दे बदन
ह्रदय की दीवार पर रख दे अपना हाथ
पलकों पर छोड़ दे कुछ स्वप्न
ज़िबह से पहले पिला दे घूंट भर पानी

चरमोत्कर्ष के वक़्त तक छोड़े ना उसका केश
शिथिलता की अवस्था में छाती से लगा चूम ले माथा
और धीरे से पूछे ज़ियारत (तीर्थयात्रा) उसकी

कितना जानते हो तुम स्त्रियों को
इतिहास में स्त्रियों को जितना लिखा गया उसमें आधा झूठ था

नाफ़रमानी स्त्री छुपाती रहीं नाभि में रहस्य
नापती रहीं हाथ के बित्ते से निगेटिव रील

36-26-36 के क्रूर आंकड़े में फंसी स्त्री
कठुवाई रही

अब जब स्त्री काठ से मांस-मज्जा में परिवर्तित हुई है

मांगती है हिसाब
करती है सवाल

तब तुम ग्रीवा में दर्द महसूसते हो

हमें खेद है।।

 

◼️ताप का पैरामीटर

हम उनके सराय खाने से बाहर आ चुके थे
अब हमारे लिबास से उनकी बू नहीं आती

अपनी ही देह-गंध को ताबीज़ में लपेटकर गले में बांध लिया है
ताप का पैरामीटर अब हमेशा गिरा रहेगा

तुम्हारे बनाए ताबूत की चाबी अब हमारे हाथ है
तुम्हारे तार घर का चपरासी भी कई दिनों से छुट्टी पर है

तारे तोड़कर लाने की बात पर अब हम नहीं इतराएंगे
सामने की कुर्सी पर बैठकर तमीज़दार बनने का अभिनय मात्र दिखावा है

समाज ने तुम्हें कहा- पुरूष!
पुरूष बनने के काबिज़ में देते रहे स्याह दाग़

कई-कई निशानियाॅं छोड़ गए हो तुम
छाती पर पड़े तुम्हारे पद चिन्ह तुम्हारी बर्बरता की पहली निशानी है

रंडियों के तायफ़ा में जन्म लिया बच्चा तुम्हारे ही महल के चूने पत्थर से जना है
कल महल के बाहर दल्ला बना देख मुस्कुराते हुए दियासलाई मांग लेना

जम्हूरियत तुम्हारे हिस्से है
नाट्य मंच और कुर्सी भी तुम्हारे हिस्से है

किसी दिन टीले पर अकेली खड़ी हो
नारेबाजी करते हुए
कलम का ज़ोर आजमाएंगे

तुम बंद करो ताल ठोकना
ताली बजाने हेतु हथेली सलामत रहे ।।

 

◼️यह देश हमारा है।।

एक विशाल पुस्तकालय में किताबें उदास पड़ी थीं
जमी धूल उनका उपहास था

बेचैन युवा
शांत मन की तलाश में पलट रहा था किताब
भींच कर मुट्ठी थाम रहा था क़लम
कागज़ से मिटा रहा था विभेद की रेखाएँ
यह शुरुआत अच्छी थी

देश की बेचैनी तुम्हारे बोलने से है
तुम अपना सिर ओखली में डालकर
मूसल का इंतज़ार आख़िर कब तक करोगे

तुम ही अकेले नहीं थे
शहर अकेला था
यहां की भीड़ अकेली थी

दाँत भींचकर
बालकनी में खड़े होकर चीखने से बदलाव कब हुआ है
सीढ़ी का इस्तेमाल उतरने के लिए कब करोगे

कानून की देवी ही क्यों खड़ी है हर अदालत में
आँखों पर पट्टी बांधे
तराजू पकड़ी स्त्री चाहती है अब बदलाव

सभ्यताओं के दामन पर छिड़का जा सके इत्र
मनुष्यता की हो खेती
जिसमें सबकी हो बराबर की भागीदारी

मालिक याकि मज़दूर
सबके कोष में जाए भरपेट अनाज
सबके कुएं में हो पानी

बच्चों के हाथ में जूठे कप प्लेट की ज़गह हो किताबें
पढ़ने के बाद तलने ना पड़े पकोड़े
हाथों में ना हो पत्थर ना धर्म का कोई झंडा

देश की लंबी गहरी सांसो में ज़हर की ज़गह हो ऑक्सीजन
टाइम से ऑफिस के लिए निकलते हों युवा

एक युवा स्त्री निगल लेना चाहती है अपनी ग्रीवा में समस्त पुरुष सत्ता
ताकि जन्म दे सके समरूप सत्ता

बने नया इतिहास
लिखी जाए नई इबारत

देश न जाने कब से कराह रहा है
वह चाहता है एक नया मज़बूत स्तंभ

एक बूढ़ी स्त्री लड़खड़ाते तेज कदमों से चलती हुई कहती है – जय हिंद!

यह देश हमारा है
हमारे बच्चों का है_____

 

◼️ यह स्त्रियों के बिगड़ने का माकूल समय था ।।

स्त्रियों को बहुत पहले बिगड़ जाना था
स्त्रियों ने बिगड़ने में बहुत वक्त लगा दिया

साहित्य से संगत करती स्त्रियाँ बुरी थीं
उंगलियों में कलम फँसा कर चलती स्त्री भयावह लगती

तर्क-वितर्क करती स्त्री पर दबी जुबान से लोग हँसते
तनकर चलती स्त्रियों पर फब्तियाँ कसते

अलस्सुबह काम पर जाकर शाम घर लौटती स्त्री
जाने कितनों की भाभियाँ हो जातीं

चेहरे पर गुस्से का आवरण ओढ़ते-ओढ़ते
जब थक जातीं
मुस्कुरा देतीं
तो ना जाने कितनों के रास्ते खुलते

हर रिवाज़ को एड़ी से कुचलकर पीठ पर धप्पा कहती स्त्री बेनज़ीर थी

आफत थीं वे स्त्रियाँ
जो हजारों कोड़ों के बाद भी सर उठाए खड़ी थीं

अचंभित थे वे लोग
जो पौरूष बचाने आए थे
ईमान की बात कहकर बिस्तर तक खींचने को आतुर थे

एहतियातन स्त्रियों ने दो-चार और बिगड़ी स्त्रियाँ को सखी बना लिया था

रात अंधेरे बैठकर बदलने लगी थी इतिहास
उसी वक्त लालटेन के सीसे के चटकने की आवाज़ आई

कातिब बनने की स्थिति में रोशनी से मरहूम हुईं
क़लम की निब को पेशाबघर में बहा दिया गया

जनाना कमरे तक कुशल क्षेम पूछने कोई नहीं गया
जनानियाँ इसे अपना साझा दुःख बतातीं

गलीज़ बदजात स्त्रियाँ रात्रि में बिस्तर से अर्धनग्न अवस्था में किले से बाहर आ गई थीं

सारी स्त्रियों ने एक साथ ताज अपने सिर रखकर स्वयं को तख़्त में तब्दील किया था

यह स्त्रियों के बिगड़ने का माकूल समय था

स्त्रियों को तो बिगड़ना ही था
स्त्रियों ने बिगड़ने में बहुत वक्त लगा दिया ।।

 

◼️ ज़िंदगी के ककहरे में उलझी लड़की

ज़िंदगी के ककहरे में हमेशा उलझी रही
जिंदगी का पहाड़ा और भी बोझिल था

अंकगणित के हिसाब ने बेतरह उलझाया
सूत्र याद नहीं रख पाई
फॉर्मूलों पर चलना नागवार गुज़रा

कक्षा सातवीं में पढ़ाया गया हृदय कैसे कार्य करता है?
स्कूल के बाद माँ समझाने लगी थी
पुरुषों के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से होकर जाता है
खाना बनाना सीख लो

कॉपी के पिछले पेज पर हृदय की तस्वीर बनाकर नुकीले तीर से चीरते हुए उसे इरादतन कठोर बनाती रही

परंतु
साहित्य को पढ़ते हुए हृदय से नाजुक बनी रही
रसखान, मीरा, जायसी को पढ़ते हुए सूफ़ियाना हुई

विज्ञान की मैडम ने पढ़ाया था रोटी चबाने के बाद मीठा स्वाद छोड़ती है मुँह में
रोटी का मीठापन बचाते हुए ज़िंदगी का पानी खारा होता गया

इतिहास की तारीख़ का पन्ना पलट नहीं पाई
इतिहास की कक्षा में हमेशा सोई रही
कब बाबर आए / कब अकबर गए
कब पानीपत की लड़ाई हुई
मुग़लों ने कब और कहाँ साम्राज्य स्थापित किए
भूल चुकी हूँ

गाॅंधी के बिहार आगमन पर मैं जाग गई थी
गाॅंधी की चंपारण यात्रा बेशक याद है मुझे

राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर और भगत सिंह की ब्लैक एंड वाइट तस्वीर किताबों में रखती हूँ

वह अंतिम गोली
अल्फ्रेड पार्क
जनसैलाब
सब याद है मुझे

जाते हुए कलम की निब का एक टुकड़ा मेरी हथेली पर छोड़ते हुए चंद्रशेखर ने कहा – अगर तुम्हारे लहू में रोष नहीं है तो वह पानी है_____

उसी निब से अब मैं कविताएँ लिखती हूँ।।

 

■ हम महज़ किसनई किस्से हैं।।

सत्ता को हमारे हाथ प्रिय थे
सत्ता को हमारी मेहनत प्रिय थी
सत्ता हमारे पसीने की गंध में बौराई हुई थी

उन्हें हमारी फटी एड़ियां पसंद थी
हमारे रूखे हाथ पसंद थे

हमारी चमड़ी जितनी काली हो रही थी
सत्ता मद में उतना ही पागल हुआ जा रहा था

हम जितने अन्न उपजा पा रहे थे
सत्ता का पेट उतना ही बड़ा हो रहा था

हम दिन-रात की मेहनत के बाद भी रोटी के मोहताज हो रहे थे
हमारे हिस्से की रोटी कुर्सी पर बैठकर कोई और तोड़ रहा था

हमारे कुएं का पानी दिन-ब-दिन सूखता जा रहा था
जिस वक़्त हम प्यासे तड़प रहे थे
उसी वक़्त सत्ता स्वीमिंग पूल में उतरा था

हमारे बच्चों के हड्डियां अब कोई भी गिन सकता है
हम महज़ किसनई किस्से हैं

सत्ता कोई कलाकार है
वह कलमा पढ़ता है
हम मंत्रमुग्ध हों कसाफ़त में फँसते चले जाते हैं

वह हमारी छप्पर पर माचिस लिए बैठा है
वह शिल्पकार है
वह हमारे तराशे पत्थरों पर रंग चढ़ाता है
उनका बाज़ार फ़राज़ है

वह छाया की आस में पेड़ काट देना चाहता है
उसके लक्षण जोंक के से हैं
वह हमारा रक्त चूस कर हमारी ओर टुकड़ा फेंकता है
हम उनके दिए टुकड़े को चुभलाते हैं

अब वक्त है
वह हमारी देहरी पर हाथ जोड़े खड़ा है
हम ऐतिहासिक तिलक का थाल लिए निहाल हुए जा रहे

हैं ।।

 

◼️गाभिन स्त्रियां

जब स्त्री मजबूती से ज़मीन पर पैर टिका रही थी
तब पुरुष ने पैर को कमजोर पाया

स्त्री घर से निकल रही थी
घर की स्थाई नींव जाने कौन हिला रहा था

गाभिन स्त्री चढ़ रही थी ट्रेन, बस, ऑटो
दौड़ रही थी सड़कों पर
पुरुष के पैर भारी थे

गहगहाई स्त्री नींद के चरम बिंदु पर छू रही थी तिलिस्मी दरवाज़ा
तुम खुली ऑंखों से गांधारी थे

रात के प्रथम पहर में संकर-राग गाकर दीवार का टेक लेती स्त्री
तुम्हारे लिए प्रश्न थी

तुमने बिना पल गंवाए कई-कई प्रश्न किए
स्त्री उत्तर में बस मुस्कुराई

स्त्री देर रात संगीत-शास्त्र में शिव का धनुष तोड़ रही थी तुम हकबकाए मुद्रा में भांग फाॅंक रहे थे

हाकिम मिथ्या प्रलाप में लीन था
स्त्री संसद के देहरी तक पहुंच चुकी थी
ग़श खाकर मूर्छित गवैया पलक झपकाना भूल गया था

ग्रीवा का दर्द महसूसते हुए
तुमने कहा – अगली पंक्ति तुम्हारे लिए है

चामर इस ओर घुमा दिया गया
अब बताओ – तुम्हारा गलनांक क्या है?

 

■ हॅंसती हुई स्त्रियाँ

हँसती हुई स्त्रियाँ कितनी खूबसूरत लगती हैं
परंतु स्त्री को हँसने से हमेशा रोका गया

एक दिन स्त्री हँसती हुई रसोई से बाहर आ गई
बैठकखाने के बीचो-बीच हाथ मार कर हँसते हुए बोली- तुम्हारी सत्ता हमारे हँसने से भी हिलती है क्या
वह हँसी पुरुषसत्ता पर ज़ोरदार तमाचा था।।

_________________________

वह पुरुष अलग थे
जिन्होंने हँसती स्त्री के साथ हँसने का वक्त निकाला
उनकी हँसी देखकर निहाल हुए
बांहों में भर कर उन्होंने कहा- मेरी जान! ऐसे ही हँसती रहा करो
तुम हँसते हुए बेहद ख़ूबसूरत लगती हो।।

 

◼️प्रेम में भाषा।।

जब तुम भाषा की बात करते हो
मैं तुम्हारी ऑंखें देखती हूँ
बस तुम्हारी ऑंखें
असंख्य भाषाओं से क़ैद तुम्हारी आँखें

जो मौन तरलता की चुप्पी साधे कहती हैं-
इन भाषाओं को प्रेम पर ख़रचना

मैं मूक झुकी आँखों से जता देती हूँ सहमति

तुमने हथेली पर रखकर ख़ामख़ाह भाषा को डूबने से बचाया है।।

तुम मेरे प्रदेश में कोई सघन जंगल हो।

जिस वक्त तुमने मोड़ी थी देह
दुनिया का अंत होना था उसी दिन

सारे बारूद को फट जाना था
सारी स्त्रियों को विरह में जल जाना था

छाती पीटते हुए हृदय द्वार धराशाई हो जाना था
उसी शाम मयखाने की सारी बोतलों को टूट जाना था

जिह्वा पर कुछ रखने से पहले ही कट जाना था
घर उजाड़ के बाद मन को यायावरी हो जाना था

सफ़ेद कमल के पीठ को मुरझा जाना था
कोंचना था हँसी को / दुख को लतर जाना था

तुम कोल प्रदेश से आए थे
तुम्हारी भाषा बोली में स्वर्ण रेखा की महक थी
महुआ चुन कर डाली में भरते हुए तुमने अचानक पकड़ा था हाथ
तुम मेरे प्रदेश में कोई सघन जंगल हो
जिसमें अनेकानेक जंगली फूल खिले हैं

तोड़ लिया था डाल कर के सारे अधखिले फूल
जी पर चढ़ते ही स्वाद
तुमने दर्ज़ किया था संतुष्टि

अब तुम त्यागपत्र में चाहते हो मेरा अंगूठा।।

***

ज्योति रीता

जन्म- 24 जनवरी (बिहार)

शिक्षा- हिंदी साहित्य में परास्नातक, बी.एड., एम.एड.।

रचनाओं का प्रकाशन- प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार कविताओं का प्रकाशन।

प्रकाशित पुस्तक – “मैं थिगली में लिपटी थेर हूॅं” (कविता संग्रह) 2022 में प्रकाशित। अतिरिक्त दरवाज़ा (कविता संग्रह) 2025 में प्रकाशित।

सम्प्रति – शिक्षा विभाग (बिहार सरकार)।

ई-मेल : jyotimam2012@gmail.com

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