
‘मूर्खों की शौर्य गाथा में
कभी ईश्वर इतना मजबूर नहीं था’
इन पंक्तियों को लिखने वाली कवि गुंजन उपाध्याय पाठक के सरोकार गहन रूप से समय के सरोकार से जुड़े हुए हैं। उनके यहाँ प्रेम और उदासी भी कहीं न कहीं समय की नब्ज टटोलते प्रतीत होते हैं। किस तरह सरल भाषा में अपनी बात को पूरी ताकत के साथ अभिव्यक्त किया जा सकता है – प्रस्तुत कविताएँ इसका सही उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इनकी कविताओं को पढ़कर हर पाठक अपनी-अपनी दृष्टि से राय बनाएगा लेकिन शव यात्रा में स्वर्ग की कल्पना का मौजूद होना भी इनकी कविता में एक व्यंग्य की तरह आया है। अनहद कोलकाता इस युवा कवि की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए आभार व्यक्त करता है साथ ही पाठों से अनुरोध भी कि आप अपनी प्रतिक्रियाओं से जरूर अवगत कराएँ।
- संपादक
स्त्रियों की स्थिति
किसी के पास उतना वक्त नहीं था कि
उसे सुन पाता
या फिर उसकी कहन में ही दोष था
चीखती तो सिसकी तक सूखी रहती
उसके सहस्त्रों हाथ,
हजारों जांघ, सैकड़ों गर्दन,
न जाने कितनी पिंडलियां,
कितने ही स्तन
कितने ही योनियां थी कि
कभी वह स्त्री रही होगी पर
आश्चर्य हो सकता था
वह एक साथ हजारों पुरुषों को निगल सकती थी
अपने हाथों से अपनी छातियों पर मारती
अकुलाहट होंठों तक न छलकती
नाभी को कितनी ही बार तेज चाकू से काटा
न जाने कैसे कोई एक ख़्वाब सिहरता रह गया
वह मौत मौत चीखती
जिंदगी उसके लम्हों में इजाफा करती
पिछले कुछ सालों से वह दैत्य हो चुकी थी
उसकी ख्वाहिशें
बरगद की जड़ों की तरह
गाढ़ी होकर
सीने में धंसती जाती
वह हार जाती
और सब स्त्रियां डिस्काउंट में
उसकी साध पाते
आजकल स्त्रियों की स्थिति
पहले से बेहतर है
कहते हुए लोग उसकी उपमा देते।
दुर्लभ
अब तक
उनकी क्षुधा शांत करने का अभियोग
पूरा नहीं हो सका था
अब तक
नर पिपासुओं को पहचाना नहीं जा सका था
हर बार की तरह
ये नए आदेशों के साथ
नए ढंग से चूस रहे थे खून
अब तक
कभी पूर्णिमा का चांद इतना लाल नहीं था
फिसल कर
किसी का माथा
किसी के पैरों तले यूं रौंदा नहीं गया था
यूं सरे आम
बिना किसी युद्ध घोषणा के
नहीं सहा गया था दर्द
अपनों को यूं दर्द के गहरे भंवर में रखने का
प्लेटफॉर्म की हलचल में
निगल लेने को कितने ही लोगों को
जीवन में नदी का किनारा
सिर्फ भगदड़ और प्रदूषण का पर्याय रहा हो
मूर्खों की शौर्य गाथा में
कभी ईश्वर इतना मजबूर नहीं था
कि पिए रक्त और रक्त और रक्त
औरतों की स्मृतियां
सिर्फ कुछ जीबी की नंगी फिल्मों में समेटी गई हो और इस तरह
यह एक दुर्लभ संजोग था
जहां दुर्लभ नक्षत्र में
हमारा दुर्लभ राजा बड़ी हड़बड़ी में
साफ कर देना चाहता हो मलबा
न जाने कितने ही जोड़ी जूते चप्पल शाल और चादर और न जाने कितने ही
आधार कार्ड
उसके दुर्लभ स्वप्न में खटखटाते हो दरवाजे
और इस तरह बेकसूर लोग
असभ्य सत्ता के मेंटरिंग में खो रहे हो
मनुष्य होना।
एक और दिन
माघ की किसी रात जब बरसता है मेह
इक टीस सी उठती है
अश्रु और आकांक्षाएं थमती नही हैं
पूरा पलंग जैसे एक ग्लोब हो
देशांतरो के अंतर को वह
करवटो से नापती है
दूर कहीं टिटहरी
छन्न छन्न बरसते मेह के दुख से भींझती है
और सबकुछ शांत और अक्षुण्ण दिखता हुआ भी
कहीं न कहीं सकपकाया हुआ सा
तड़पता रहता है
कितनी निरीह हैं ये बूंद
जो सावन भादों की तरह नही करती है क्लेम कि
पिया लौट आए परदेश से
या फिर बाबुल का बुलावा आए झूलों के लिए
ये सिसकती हैं
और उन्मादित ज्वार को
रूमाल से भींगाकर
भुलाने के जतन करते हुए
गिनती हैं अभी और कितने दिन बाकी है फरवरी के
इस बार निर्मोही ने
एक और दिन की सौगात दी है
बिसूरने के लिए
या सचमुच बसंत ने अपनी
मूड स्विंग के भरोसे
रख छोड़ा है एक दिन
इस बार लौट आया है प्रेम
और ठूंठ पड़े पेड़ पर सेमल के फूल भी
कल हम तुम चांद फूल सब गवाही बने थे
हमारे सर्वश्रेष्ठ अभिनय के
जब हम बेसबब से लिपट जाना चाहते थे एक दूसरे से और मुस्कुराते हुए कर दिया था विदा
रात ने अपने अंदाज से
धुल दिया था सबकुछ पारदर्शी रंगो में
और कुम्हलाती चाहनाए पकड़ी गई थीं
माघ की किसी रात जब
बरसता है मेह
इक टीस सी उठती है।
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
ऐ शहरे अजीमाबाद
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
कितना कुछ तो था तुम्हारे दामन में
जब अंदेशों के कृष्ण विवर में
खींचे पांव चली जा रही थी
भटकती हुई
ढूंढती /खीझती
बेदिली से बंधी हुई उस आकर्षण में
एक हाथ से समेटा दूसरे हाथ को और
बेखुदी में चूम लिया
पलक झपकते ही
गुलाबी नीली उजली पीली गोलियां
बन गए थे शब्द
उन्मत आकाश से बरसते कोहरे ने
ढाप लिया था जनवरी की शाम को
और फरवरी झर चुके फूलों की स्मृतियों पर सिहर उठा और तुम रो पड़े थे
ऐ शहरे अजीमाबाद
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
कितना कुछ तो था तुम्हारे दामन में
बस कोई वचनबद्धता नही थी
कुछ बेमोल लम्हें थे
और था इंतजार का पारदर्शी रंग
गुलाबो के जेहन में अंदेशों की चीटियां थी
ऐ शहरे अजीमाबाद
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
कितना कुछ तो था तुम्हारे दामन में
जब थक गई थी उदासी
और पूछा था सवाल
वेश्याओं के भी तो होते होंगे प्रेमी
क्या मेरी चाहना का ज़वाब भी है तुम्हारे पास
और तुम गुमशुम मेरी ओर देखते रहे थे
ऐ शहरे अजीमाबाद
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
कितना कुछ तो था तुम्हारे दामन में
जिस शहर के माथे रहा
सारे ख्वाबों के चिथड़ो का पता
और जिसने मासूमियत के बदले दिए अवसाद
वही आज लौटता है जैसे
गया में किए हुए पिंडदान का ऋण
मोक्ष की संकल्पना में कुछ सपने दागदार
और तुम हैरत से भरे रहे
ऐ शहरे अजीमाबाद
तुम्हारी मुहब्बत का शुक्रिया
कितना कुछ तो था तुम्हारे दामन में।
शव यात्रा
मेरी शव यात्रा थी
मैं शामिल थी उस यात्रा में
मैं वही डोम जिसके हाथों मुक्ति लिखी थी मेरी
मैं वही पंडित जो बुदबुदाता रहा था मंत्र
मैं अपनी संतति के आंखो से झरती भी रही
अनेकानेक बार ऐसी यात्राओं के बाद
मैं देखती रही फोड़ते हुए
मेरे नरमुंड को बेतहाशा लाठी से
और इक मात्र स्वर्ग की कल्पना ने
बनाये रखा मुझे धैर्यशील।
***
कवि परिचय
गुंजन उपाध्याय पाठक
पटना (बिहार)
पीएचडी (इलेक्ट्रॉनिक्स) मगध विश्वविद्यालय
सदानीरा, समकालीन जनमत, इंद्रधनुष , दोआबा ,हिन्दवी, पोएम्स इण्डिया, स्त्रीकाल आदि में भी कविताओं का प्रकाशन
gunji.sophie@gmail.com
#8544155342