
“शरीर में श्वेत रक्त कणिकाओं का घटना या बढ़ जाना
नही बता सकता है सपनों के मरने की दर
और उसे जिन्दा रखने की आदमी की जद्दोजहद को
कोशिकाओं के मरने से पहले
मरता है कितने सूक्ष्म भावों का संसार भीतर
और न जाने कितने रेशे उलझकर बदल देते हैं
डी एन ए की संरचना को धीरे-धीरे…”
उपरोक्त पंक्तियाँ युवा कवि गरिमा सिंह की लिखी हुई हैं जो न केवल उनके कवित्व की क्षमता की ओर इशारा कर रही हैं बल्कि उनके अंदर मौजूद विज्ञान एवं कविता के परपस्पर संगुंफन को भी अभिव्यक्त कर रही हैं। उनके पास प्रेम और बिछोह के जो अनुभव हैं वे उनकी संवेदनशीलता को तो व्यक्त करते ही हैं उन्हें मनुष्यता का कवि भी सिद्ध करते हैं। दुहराने की जरूरत नहीं कि वर्तमान समय में सबसे अधिक आहत प्रेम और मनुष्यता ही है जिन्हे बचाने की शिद्दत से जरूरत है। एक खतरनाक और जादुई समय में गरिमा की इन कविताओं को पढ़ना सुखद है और आश्वासन भी देता है कि हिन्दी कविता का भविष्य अज्जवल है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत गरिमा सिंह की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए हमें बेहद खुशी है। इस अवसर पर हम कवि को हार्दिक बधाई दे रहे हैं।
आपकी राय का इंतजार तो रेहा ही।
- संपादक
सीमा-रेखा
प्रेमियों ने हमेशा खींची हैं रेखाएं
पत्नी और प्रेमिका के बीच
भारत और अफगानिस्तान की तरह
जो उलझीं हैं अदृश्य सरहदों पर जाल की तरह
जिसे पार करने की कोशिश में प्रेमिकाएं बाँट दी गईं
जमीन के टुकड़े की तरह
प्रेमियों ने रक्षा की अपने सरहदों की
और खींचते रहे रेखायें
बचाने को अपना देश
और हर बार मुठभेड़ में मारी गई प्रेमिकाएं
पड़ोसी देश के सैनिकों की तरह
रेखाएं खींचने वाले प्रेमी भरे रहे
देश रक्षक की भूमिका से
वे स्त्रियाँ जो प्रेमिकाएं थीं
कभी नहीं बन सकी पत्नियाँ
जबकि सारे प्रेमी लौट आये
पति बनकर अपने आजाद देश को
सीमा पर सिर्फ रेखाएं हिलती रहीं
पानी पर खींच दी गई लकीर की तरह
वे स्त्रियाँ जो पत्नियाँ थीं
प्रेमिका बनने की इच्छा में
अपने ही देश में किसी गृहयुद्ध में मार दी गईं
पुरुष पति प्रेमी होकर भी रेखा के पार नहीं गये
उन्हें मिला परमवीरचक्र और प्रेम उलझा रहा
रेखाओं और समझौतों के बीच
अब जब रेखाएं दीवारों में बदल चुकी हैं
और जाने के सभी ख़ुफ़िया रास्ते बंद हैं
स्त्रियाँ तैयार कर रहीं हैं अपने लश्कर
अपने ही देश की सीमा- रेखा के खिलाफ
और जानती हैं कि स्त्री के हिस्से का बचा युद्ध
लड़ेंगी स्त्रियाँ ही अपने और तुम्हारे खिलाफ।
नमक का दुःख
स्त्री देह के एक तिहाई नमक के
भार तले सदियों से दबे तुम
कभी नहीं जान सकते
नमक ढोने के दुःख के बारे में
और यह भी कि नमक के पहाड़ से
कभी नदियाँ नहीं निकलेंगी
देह पर नमक का ढेर तुम्हारे ताप से
ऊसर बनता जा रहा और रेह बढ़ती जा रही
धीरे धीरे छीज रहा है शरीर
किसी नमकीन परत सी
और तुम जीभ लपलपाते स्वाद से अनजान
एक दिन दब जाओगे नमक के पहाड़ तले
देह का नमक तलाशते हुए
उठता जायेगा नमक तुम्हारी देह के भीतर
और घाव से तुम चीखते हुए
जान पाओगे नमक ढोने का असीम दुःख
तब मैं तुम्हे इसी नमक में गल जाने का
श्राप देकर इतिहास में जिन्दा रखूंगी ।
छलावे के बाद
तुम्हारे छल के पंजे में दबोचा गया मन
अब डरता है मुस्कुराने से भी
हँसने पर डर जाती है मन की नन्हीं चिड़िया
और दुबक जाती है भीतर कहीं
अब मै नहीं बनाउंगी किसी के लिए
कभी इलायची वाली चाय
जिसका घूँट मेरे गले में विष की तरह अटका है
इस एक जन्म के पाप से मुक्त होने के लिए
कई जन्म लूंगी इसी नरक में
और तुम्हे कोसते हुए नहीं अघाउंगी
कविता में प्रेम की जगह घृणा लिखूंगी
और बता पाउंगी कि प्रेम और सम्मान का पात्र
तुम्हारे जैसा पुरुष कभी नहीं हो सकता
बगीचे में खिले फूलों को घृणा से नोचते हुए
याद करुँगी तुम्हारा बदसूरत चेहरा
जहाँ भी लिखा होगा तुम्हारे नाम का कोई अक्षर
उस जगह पर थूक दूंगीं बची –खुची नफ़रत के साथ
मैं जिन्दा रहूँगीं
अधमरे ईश्वर से तुम्हारे सर्वनाश की
कामना करते हुए तुम्हारे बाद भी
प्रसाद की किसी नायिका की तरह
नहीं करूंगी कभी आत्मोत्सर्ग
तुमसे घृणा करते हुए विरेचन कर दूंगी
अपने हिस्से का सारा पश्चाताप |
प्रेम का अंत
1
तुम्हारे प्रेम में दिन उतर रहा है
पहाड़ से बर्फ की कोट पहनकर
धीरे धीरे सफेद पड़ रही है मेरी देह
बर्फ की तरह
मैं जिन्दा रहना चाहती हूँ प्रेम में पानी बनकर
और यहाँ दूर तक नहीं है आंच
मुझे जिन्दा रहने के लिए
काटनी पड़ सकती है अपनी अंगुलियाँ
और थोड़ी देर में बर्फ का पहाड़
लाल नदी में बदल जायेगा |
2
तुम्हारे शहर से गुजरते हुए
मनपसंद बगीचे से गुजरती हूँ और जानती हूँ
फूलों के खिलने के मौसम के बारे में
और ये भी कि
कितनी बूँदें सींच सकती हैं जड़ें
कितनी धूप में नहीं उड़ेंगे फूलों के रंग
तुमसे प्रेम करते हुए जाना कि
नई कोपलों का रंग फूलों से अलग नहीं
जो बदल जाती हैं हरे रंग के जादू में
और टिकी रहती हैं फूलों के बाद भी |
3
मेरे कपड़ों पर अनगिनत धब्बे हैं
किसी कत्ल के नहीं
तुम्हारे इंतजार की एक कील
मेरी आत्मा अब भी धंसी है कहीं गहरे
मैं साफ करने के लिए धब्बे
उस पर रगड़ रही हूँ नमक
अब इस घाव से ज्यादा असहनीय है
तुम्हारे प्रेम का निशान और
मैं नहीं चाहती मेरी मृत्यु के बाद
मेरी शिनाख्त इन्हीं धब्बों से हो |
4
जो नदी हमारी आँखों में बहती थी
जिसके किनारे बैठकर हम लकीरों से
तय करते थे अपना भविष्य
उसी के किनारे आज खड़े है अनजान बनकर
एक दूसरे के सिर पर मढ़ते हुए अपराध
मैं तुम तक पहुंचने के लिए नहीं बनाउंगी पुल
मैंने देखा है हवा में लहराते विदा के हाथ
और मेरी हथेलियों से भी निशान
फिसल गये हैं नदी के पानी में
शकुन्तला की अंगूठी की तरह
और अफ़सोस ; इस नदी में मछलियाँ भी
नहीं पाई जाती मेरे दोस्त |
इस दौर से गुजरते हुए
उन दिनों जब अल्हड़ सी थी जिन्दगी
आँखों में तिरते थे मासूम ख्याल
बल्लियों उछलता था मन
हर शाम लेकर आती थी उजास
और पलकों भर ख्वाब
कहाँ थे आजकल के ढेरों सवाल
जिनसे अब आँखे हो रहीं है लाल
डॉक्टर ने कहा है –
सूख रहा है आँखों का पानी
में जानती हूँ ऐसे ही सूख रही है मन की नदी भी
बची है केवल जगह- जगह रेत
डॉक्टर कभी नहीं जान पायेगा
मन पर खुद गये घावों की गहराई
थर्मामीटर में चढ़ता पारा
नहीं बता सकता है मन का ताप
और खून का अचानक गाढ़ा होना
नहीं बता सकता है जीवन में प्रेम की कमी को
तमाम एक्सरे और ई सी जी के बाद भी
पथराये हुए भावों के निशान उकेरे नही जा सकते
शरीर में श्वेत रक्त कणिकाओं का घटना या बढ़ जाना
नही बता सकता है सपनों के मरने की दर
और उसे जिन्दा रखने की आदमी की जद्दोजहद को
कोशिकाओं के मरने से पहले
मरता है कितने सूक्ष्म भावों का संसार भीतर
और न जाने कितने रेशे उलझकर बदल देते हैं
डी एन ए की संरचना को धीरे-धीरे
कवि पाश ने लिखा है –
‘सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना’
मै इस समय एक खतरनाक दौर से गुजर रहीं हूँ
जीने की कोशिश में रोज थोड़ा-थोड़ा मर रही हूँ
अपने शहर की तमाम स्त्रियों की तरह |
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कवि परिचय
गरिमा सिंह : हिंदी साहित्य में नेट / जेआरएफ, मूलतः जौनपुर जिले से, वर्तमान में राज्य कर अधिकारी के पद पर कार्यरत. कविताओं का संग्रह ‘चाक पे माटी सा मन’ प्रकाशित. त्रिपथ व कई साझा संग्रहों और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं वागर्थ; हंस ‘कृतिबहुमत प्रयागपथ ;में रचनाएँ प्रकाशित. संपर्क : garimasingh9648@gmail.com