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Home कविता

वंदना मिश्रा की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

by Anhadkolkata
March 11, 2025
in कविता
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वंदना मिश्रा

वंदना मिश्र की कविताओं में उन‌ मामूली स्त्रियों के दुःख दर्ज हैं जो‌ हरदम हमारे आस-पास रहकर हमारे जीवन को आसान बनातीं हैं। यूं तो स्त्री विमर्श के नाम पर क्या कुछ नहीं लिखा जाता। फिर भी ऐसा लगता है कि हाशिए पर जीने वाली स्त्रियां सदियों से एक तरह ” लापता लेडीज” ही हैं। सवाल यह है कि ये हमारे आंखों से ओझल हैं या जान बूझकर ओझल कर दीं गईं हैं। इन पर कौन‌ लिखेगा। यह सही है कि कविता उनके जीवन को बदल नहीं सकती लेकिन शब्दों के हस्तक्षेप से उनके जीवन का यथार्थ अलिखित तो नहीं रह पाएगा। इस दृष्टि से वंदना मिश्र का रचना कर्म समकालीन स्त्री कविता में अपना अलग महत्व रखता है। यहां यह भी कह देना जरूरी है कि पीड़ा की अभिव्यक्ति में सहजता होती है। दर्द का कोई व्याकरण नहीं होता। वंदना मिश्र बड़ी सहजता से स्त्री मन को उकेरतीं हैं। इन‌ कविताओं से गुजरते हुए आप भी ऐसा महसूस करेंगे। स्त्री रचनाशीलता को समर्पित इस उपक्रम में इन कविताओं को प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है।

  • अनहद कोलकाता

मेरे घर की औरतें

अम्मा क़सम
कब से याद कर रही थी अपनी
उन मामी का नाम

बहुत ज़ोर डालने पर
याद आया कि
उन्हें ‘परभु बो ‘ कहा जाता था

माँ की चचेरी भाभी थी ।
बचपन से उन्हें
बिना ब्लाउज़ के सीधे पल्ले में
सिर ढके देखा था
दाँत निकले थे उनके
चेहरा सुंदर
तो कत्तई नहीं कहा जा सकता था ।

बिना ब्लाऊज़ पेटिकोट के
मोटी धोती में काम करते ही देखा
वही मक्के की रोटी तोड़ कर
हमारे कटोरे के दूध में मसलती थी
वही हमें हाथ पैर में
तेल लगा सुलाती थी
वो ससुराल आते ही
विधवा हो गई थी ।

माँ बताती थी कि
मामा को समय नहीं देती थी
काम के कारण
तो उन्होंने शाप दिया था
कि “इसी तरह बस
काम ही करती रहोगी
तुम जीवन भर ।”
मामा के दिए शाप को
निभाते रहे सब लोग
वो काम  ही करती रही ।

वो इतनी नामालूम सी थी
हम सबके लिए कि
कविता को मार्मिक
बनाने के लिए भी
मैं उनसे जुड़ी कोई घटना
नहीं बता सकती ।

मेरे ही घर की वो औरतें
जो मर खप गई
अपना दुख सहते सहते
कह नहीं सकी
एक एक कर याद आती हैं ।

उस समय सामान्य सी लगती वे
आँखें लाल कर कर
माँगती हैं मुझसे
अपने दुखों के जवाब
मैं शामिल नहीं थी
उस समय  सामान्य लगते
कुकर्म में
पर क़लम हाथ में लेने का
दंड दे कर रहेंगी
वे मुझे लगता है ।

शिकायती स्त्रियां

ऐसी शिकायतें करने वाली स्त्रियां
कैसे घर बार बसाएंगी !
“मैंने प्यार से देखा ,
उसने नज़रे हटा ली ।”

कहा गया
ऐसे  ही प्यार करते हैं
पुरुष।

“उसने चुपचाप खा लिया
मैं प्रशंसा के लिए तरसती रही ।”

ऐसे ही खाते हैं पुरुष
नुक्स तो नहीं निकाला
शांत रहो
सुनती नहीं उस
आध्यत्मिक स्त्री का प्रवचन
उम्मीद कष्ट देती है ।
फूल ,तारीफ़ और शुभ दृष्टि की
उम्मीद मत करो ।

बस फूल सी कोमल
और हल्की
बनी रहो ।

चित्र :एक

लौट रही है ऑफिस से  स्त्री
मन में दिन भर की कड़वाहट भरे
तानें ,प्रतिस्पर्धा और सभ्य लोगों की
असभ्यता सहते
जवाब देती और मुंहजोर कहाती

थोड़ा सा ऑफिस साथ आता है
जिसे झटकर छुड़ा नहीं पाती
आप कहते हैं घर में
ऑफिस की समस्या मत सुनाओ

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चित्र : दो

जा रही है ऑफिस स्त्री
टिफिन, चाय ,बच्चों का होमवर्क
कराते हुए
आधी नींद बिस्तर पर छोड़ कर
आज फिर अपना लंच बॉक्स
मेज़ पर भूल आई
आप कहते हैं
ऑफिस में
घर की समस्या मत लाओ

पिताजी मेरे आदर्श थे

पिताजी मेरे आदर्श थे
लंबे, ऊंचे चमकते ललाट वाले
सारे ज्ञान से भरे

पूछो जरा सा प्रश्न
और संदर्भ सहित उड़ेल देते थे सारा प्रसंग
हम हतप्रभ ,चमत्कृत
सारा कुछ जानते हैं पिता !

और माँ ?
माँ तो भेज देती थी सदा पिता के पास
जैसे विश्व कोष हो वह
और कभी निराश नहीं किया उन्होंने ।

धीरे-धीरे माँ  के पास
जाना ही छोड़ दिया हमने ।

माँ अपनी रसोई में अकेली पड़ती गई ।
कभी  पार नहीं की उसने बैठक की दहलीज़
और कभी दुख भी नहीं प्रकट किया
अलग-अलग खुश रहे दोनों ।

तब मैं पिता की तरह पति चाहती थी  ।

बड़ी होती गई मैं
माँ के शब्दों में ताड़ सी और साथ-साथ
पिता से अलग भी सोचने लगी ।

और माँ की तो विचारधारा  थी ही नहीं जैसे

अब पिता के प्यार के बावज़ूद
मैं उनकी तरह पति नहीं चाहती थी
मुझे चाचा ज्यादा उपयुक्त लगे ।
जो रसोई में रहते थे चाची के साथ
और झगड़ते थे  बैठक में दोनों
तुरंत आए  अख़बार के  मुखपृष्ठ के लिए .

बराबरी 

तुम्हारे मन में
ग्लानि की
छोटी छोटी
खूटियाँ हैं ।
तुम्हारे  कर्म
उन पर
अनचाहे टँग जाते हैं ।
सपाट मन वालों से
बराबरी
क्या ही करोगे तुम !

अंतिम लक्ष्य

आज लौटे थे पिता
फिर शिकस्त खा कर
फिर नहीं जमा रिश्ता बेटी का
पानी का गिलास ले कर
सिर झुकाए
जाती है
बिना कुछ किए ग्लानि से भरी है बेटी
नज़र नहीं मिला रहे दोनों
एक दूसरे से
चाय का घूँट भरते हुए कड़वाहट
निगलने की कोशिश करते हुए ,

क्या कह दिया बेटी ने !
कि अचानक चमक उठता है
पिता का चेहरा
आश्चर्य से भर उठती है माँ
सिर पर हाथ फेरते हैं स्नेह से पिता
और गले से लग जाती है बेटी ।

बिना किसी वादे के दोनों
मुक्त हो जाते हैं ग्लानि से
नई मंजिल की तरफ़ बढ़ते हैं
माँ निहाल हो देखती है।

“विवाह ही तो अंतिम लक्ष्य नहीं “
बस यही तो कहा था बेटी ने !

गुलाबी मौसी

जब से होश संभाला
उन्हें झुर्रियों की झोली ही पाया

बाल विधवा थी ‘गुलाबी मौसी’
क्या मज़ाक  कि
जिसके जीवन से
सभी रंग को ख़ारिज होना था
उनका नाम
रख दिया गया था ‘गुलाबी ‘।
कभी ससुराल की दहलीज़ पर
क़दम नहीं रखा ।

हम उन्हें
कभी  ‘रोज़ी ‘मौसी कहते, कभी ‘पिंकी’
माँ से 20 बरस बड़ी रही होगी शायद

माँ को तो,
अपनी  माँ की याद ही नहीं थी
गुलाबी मौसी ने ही पाला था उन्हें
(जिन्हें माँ ‘ बहिन ‘कहती थी )

बिना माँ -बाप के पले- बढ़े
पिता जी की लापरवाहियों को
प्यार से ढक देती थी मौसी
अपने पास रखी
नई नकोर साड़ी और गहने से

कहती समाज में सबको दिखा
देखो’ वकील साहब ‘की पसंद अच्छी है
पत्नी के लिए
कितना सुंदर सामान लाएं हैं ।
अब सब समझ जाएं तो उनकी बला से
कौन लड़ सकता था उनसे ।

सबकी इज़्ज़त
यूँ ही सम्भालती थी
सबका काज परोजन ।

जब से होश संभाला
उन्हें सफेद किनारी वाली
साड़ी में ही देखा
बालों को लपेट कर जूड़ा सा
बना लेती ,

सगा भाई कोई था नहीं
पर थे
सगों  से बढ़ कर
मौसी हम लोगों के लिए उनसे लड़ती
हमारे ‘जमैथा ‘जाने पर ।

और उनके बच्चों के लिए हमसे लड़ती
हमारे घर आने पर ।

किसी के न होने के ज़माने में
हम सबकी थी वो ।

नाना बहुत समझाने पर
जीते जी अपने खेतों पर
उनका हक़
लिख गए थे
पर बेचने और किसी को देने का नहीं
वो बाद में आधा- आधा
मिला  दोनों चचेरे मामाओं को ।

अपनी रुपयों की थैली छिपा कर रखती
खाना कम खाती
पैदल चलती दूर तक
धूप धूप घूमती खेतों में
मज़दूरों से लड़ती झगड़ती
ज़रा ज़रा से पैसों के लिए
दो धोती से काम चला लेती ।

शादियों में माँ के लिए चौक
और दुल्हन के लिए
गहने कपड़े लाती मौसी
रस्मों पर छिप छिप जाती
अपशगुन के भय से ।
लाख कहने पर भी कटती सी थी
माँ के बाद गई
कहती “ मौत को भी मैं पसंद नहीं “

अपने लिए कभी कोई सुविधा नहीं ली
हमें जितना देती
और -और चाहते
हम कहते
बड़ी कंजूस हैं गुलाबी मौसी

भाई चिढ़ाते
“तुम्हारे भोज में क्या क्या बनेगा मौसी ?
पैसा लगाएंगे हम लोग
अभी दे दो न “
तुनक कर कहती वो
“हम अपना इंतज़ाम कर के जाएंगे “

सचमुच अंतिम समय में
सबकी सदाशयता को ठुकरा
उनके तकिया के नीचे से
क्रिया कर्म और सब कार्यक्रम के लिए
मिले पैसे एक चिट के साथ
सोचती हूँ
कितना कम भरोसा था उन्हें
हम सब पर ।

‘गुलाब दिवस’ पर
जब सब डूबें हो
गुलाब के प्रेम में
मुझे हर बार
क्यों याद आ जाती हैं ?
गलाबी मौसी !

मनराखन बुआ

मनराखन बुआ ,ऐसा ही नाम सुना था
उनका बचपन से
पर उनके सामने बोलने पर डाँट पड़ी
तब समझ आया कि ये उनका असली नाम
नहीं था
असली  नाम क्या है बुआ
पूछने पर शरमाई थी वो
‘का करबू बच्ची जाए दा’
अम्मा ,चाची की ‘जिज्जी’
और भाइयों की’ बहिन’
खोज खोज खाज कर पता लगा
सुरसत्ती  (सरस्वती) नाम है

फूफा कभी गए थे कमाने  तब के बम्बई
और कमाते ही रहे
बुआ मायके की ही रह गई

ससुर के विदाई के लिए आने पर
घर की चौखट पकड़
बोली “चार भाई की जूठी थाली
धो कर भी पी लूँगी तो पेट भर जाएगा
बाबा मत जाने दो
किसके लिए जाऊ”
ससुर अच्छे दिल के थे
बोले” ठीक है बहू पर
काज परोजन आना है तुम्हें”

तब से सास से लेकर
चार देवरानी ,तीन जिठानी ,दो ननद
सबकी जचगी में बुलाई गई बुआ
शादियों में  बिनन -पछोरन बिना उनके कौन करता
हाँ नई बहू और दामाद से पुरानी साड़ी में
कैसे मिलती सो दूर ही रखा गया
फिर काम से फुरसत कहाँ थी
अम्मा -चाची भी न
जाने क्यों नाराज़ हो जाती हैं
ये भी कोई बात है?

हाड़ तोड़ काम किया तो पेट भर खाया

पहुँचा दी गई फिर मायके

‘हिस्सा’ जैसा शब्द सुना ही नहीं था उन्होंने

उनके बच्चों की हर जरूरत पर
पहुँची
मनरखने
और नाम ही ‘मनराखन ‘पड़ गया

मज़ाक का कोई असर नहीं होता था उन पर
एक दिन बोली “विधना जिनगी ही मजाक बना दिहेन त का मजाक पर हँसी  का रोइ बच्ची ! ”

हर ज़रूरत पर मन रखने पहुँची बुआ का
‘मन रखने ‘भी कोई नहीं आया
अंत समय में ।

****

कविता संग्रह –  कुछ सुनती ही नहीं लड़की,  कितना जानती है स्त्री अपने बारे में,  खिड़की जितनी जगह

गद्य साहित्य –  सिद्ध नाथ साहित्य की abheevnjna शैली पर संत साहित्य का प्रभाव, महादेवी वर्मा का काव्य और बिम्ब शिल्प, समकालीन लेखन और आलोचना

संपर्कः
Professor Vandana mishra
G.D. Binani.P.G.college
Mirzapur -231001 u.p.
9415876779, 8081962754

Tags: Vandna Mishra/वंदना मिश्रा :कविताएंइस सदी की कविताएँकविताकविता और स्त्रीविमलेश त्रिपाठी अनहद कोलकाता
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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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