
तृष्णा बसाक बांग्ला साहित्य जगत की एक जानी-मानी और चर्चित कवि एवं कथाकार हैं। उनके लेखन की समृद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस अल्प वय में ही उन्होंने 9 से अधिक उपन्यास और कई कविता संग्रह के साथ एकाधिक चिंतन परक पुस्तकें साहित्य-जगत को दिया है। उनकी प्रस्तुत कविताओं में बांग्ला भाषा की लय और अभिव्यक्ति क्षमता को लक्षित किया जा सकता है। उनकी कविताओं का प्रतिरोध किस तरह कवित्व में ढलकर उल्लेखनीय हो जाता है यह देखने समझने और दर्ज करने की बात है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अनहद कोलकाता द्वारा एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रकाशित ये कविताएँ आपको न केवल एक नए स्वाद से परिचित कराएंगी वरन आपको उद्वेलित भी करेंगी। अनहद कोलकाता कवि की इन कविताओं का स्वागत करता है और यह विश्वास दिलाता है कि आगे भी हम तृष्णा जी की रचनाएँ यहाँ पढ़ सकेंगे।
- संपादक
पुनश्चः ये कविताएँ मूलतः बांग्ला में लिखी गई हैं जिनका अनुवाद लिपिका साहा ने किया है। संपादक का दायित्व यहाँ सिर्फ संपादन का रहा है।
सौप्तिक पर्व
मृत्यु की भगिनी सम भयंकर एक अस्त्र
मेरे हृदय को भेद गया
क्या करूँ मैं समझ न आया
हृदय ने अनन्त काल की एक वेदना को
जाने कैसे कृष्णवट की भांति संजोकर रखा है।
मुझे कहीं जाना नहीं, जाना था भी नहीं
वह घोर युद्ध
मेरी स्मृति में थी
याद है मुझे एकबार युद्ध के मध्य
सैनिक कैसे अल्प क्षण के लिए सो गए थे
और सुप्त वे किसी चित्र की भाँति दिख रहे थे
रात्रिकालीन युद्ध में पदातिक दिखा रहे थे बाती
रथ, अश्व, गज, सर्वत्र ही दीप
तथापि कितना अंधकार, निःसीम अंधकार !
वेश्या शिविर भी दूर नहीं कर सके उस तमिस्रा को
याज्ञसेनी, तुम तो जगी थीं
प्रतिशोध स्पृहा ने जगाए रखा था तुमको
इतने वर्षों बाद, कितने ही निद्रा, जागरण, विभ्रम पार करके
शायद तुम उत्तर दे सको,
क्यों तुम्हारे पातालस्पर्शी केश ढंक नहीं सके इन शवों को !
मेकिंग आँफ बार्बी
बोलती है माँ, ‘ बन सकेगी तू, कर पाएगी वैसा ही?
सुनहरे बालों, नीलाभ नयनों से जैसा करती है बार्बी ?
ढल जाएगी ना, लाडो मेरी, साँचे में हूबहू जैसे हो बार्बी?
देखा नहीं तूने, अंधी गलियों के जलसों में भी होते हैं अब रैम्प,
अभी के लिये ही सही, तू बन जा ना किसी में भी चैम्प !
शेफ बन या सौन्दर्य विशारद या पकड़ना हो स्टेथो
कभी न बनना मेरी तरह धूर गंवार तू तो
सुन मेरी बच्ची, जिस पेशे में भी खोलेगी अपने म्यान
हर पूजा का एक ही मंत्र, तेरे कमर की नाप !
उसी मंत्र से ब्रह्माण्ड बहकाये जाती विनोदिनी बार्बी
बुद्धू लड़की जाने कब तू छोड़ेगी ये खाना दाल- रोटी
बन पाएगी ना, बन तो जाएगी ना, वैसी ही, जैसी है डॉल बार्बी?
शान्ति और कल्याण
इन दिनों मेरा कोई चेहरा रहा ही नहीं
अब मेरी कोई चीख भी नहीं
सब हो चुका है शान्त
चारों ओर है शान्ति और कल्याण
सेतु सभी हैं अब सुरक्षित ही
हे अग्नि, करो उत्सव, बीच इस नगर-बवाली
हे मृत्तिका, उत्सव धरो तुम, शहादतवाली
जान लो, अब कोई चेहरा नहीं रहा मेरा
न कोई चीख बची है मेरी !
पुन:-
क्योंकि जानती है मिट्टी ही, माटी जान चुकी है सब
जितने भी तुम कर लो बवाल यहँ-वहाँ
डिक्की में भरी लाशें और खलिहान में भरे धान
पैरों तले नाचे साला भगवान !
गिरीधारी
मैं इस बसन्त की कोई नहीं गिरीधारी
यदि पूछोगे पिछले जन्मों के बारे में
तब मैं कदम्ब के फूल की भांति
चूर-चूर होकर घुल जाना चाहती हूँ हर जनम में
जानती हूँ मैं, कदम्ब के इन कणों में भी बजती है बांसुरी
वही सुर ढूंढ लेगा मुझे
तब तुम सब मुझे जातिस्मर कहोगे।
मंदिर की सीढ़ीयों से जिनलोगों ने
दुत्कार कर भगा दिया था मुझे
वे ही बनायेंगे मेरी मूरत
मेरी पथरीली आँखे लेकिन तलाशती रहेंगी सिर्फ तुम्हें।
जो कहूँ ईश्वर कहूँ
जो कहूँ ईश्वर कहूँ, पिशाच सिद्ध हूँ
लाश का कत्ल कर दलाली खाऊँ
निगलूँ आयु निगलूँ स्नायु खा लूँ मन-मेधा
जतन से गायब कर दूँ जितने थे दस्तावेज।
खत्म होने पर बगीचे आम, चूसना गुठली बेकार
यह दुनिया है हत्याशाला, नहीं कहीं पारावार
लाशघर में स्वर्गसुख, रसिक ही ये जाने
बेकार ही चक्कर काट मरना, घातक की तलाश में
दर्पण में देखो जरा एकबार मुड़ के
पुराने शोणित की गन्ध बसन्त-समीर में।
बेचो हाड़, बेचो मांस, बेचो मोहछाया
प्रेत के ही दाँत में तथापि लगी रहती है माया
जो कहूँ ईश्वर कहूँ तंत्रसाधना में
भ्रान्तिपुर में डूबने को, लाशें बहती जाएं!
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तृष्णा बसाक
जन्म : 29 अगस्त,1970, कोलकाता ।
जादवपुर विश्वविद्यालय की एम. टेक. तृष्णा बसाक ने साहित्य को ही अपनी दुनिया चुनी । अब तक 9 उपन्यास, कई कहानी संग्रह एवं कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इला चंद स्मृति पुरस्कार, सोमेन चन्द स्मुति पुरस्कार आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकी हैं । तृष्णा बसाक मैथिली से बांग्ला में अनुवाद भी करती हैं ।