
स्पेस
उर्मिला शिरीष
मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावें
जैसे उड़ जहाज को पंछी पुनि जहाज पे आये।
(सूरदास)
आज चौथा दिन था जब वे मुझे नजर नहीं आई वरना वे सामने के झूले पर चुपचाप बैठी सरोवर में उठने वाले तीन रंग के फॅव्वारों को देखती रहती थी। उनका छोटा सा कुत्ता जो उनके बगल में बैठा होता या जमीन पर अलमस्त पसरा होता, अपने परिचित कुत्तों को देखकर वह पूंछ हिलाता, उनके पास जाने की जिद करता और अपरिचित कुत्तों को देखकर गुर्राता या मुँह छुपाकर चुपचाप पीछे को खिसक लेता। यह समय आमतौर पर कुत्तों को घुमाने का, उनके साथ खेलने का होता। कुछ माँएं अपने छोटे-छोटे बच्चों को साईकिल चलाना सिखा रही होती तो कुछ अपने बच्चों को बाॅलीवाल खेलने के लिए प्लेग्राउण्ड में छोड़कर स्वयं वाॅक कर रही होती। उधर कोने पर बने स्विमिंग पुल में तेज आवाज में संगीत चल रहा होता। परिवार के परिवार अपना-अपना ग्रुप बनाकर स्विमिंग पुल में नहा रहे होते या मस्ती करते हुए डांस कर रहे होते। उनके समवेत ठहाके दूर-दूर तक सुनाई देते। बाहर साईड में बने ओव्हन में खाने की चीजें (चिकन)फ्राय हो रही होती। चारों तरफ जलती रोशनियों से पूरा एरिया जगमगा रहा होता। आसमान
में हर दस मिनट में हवाई जहाज उड़ते दिखते। हेलीकाॅप्टर लोगों को अपने हरे-भरे समृद्ध शहर की सैर करवा रहा होता। हर तिकोनी और कहीं-कहीं गोलाकार सड़क दूसरे तीसरे अपार्टमेंट से जुड़ी थी। पीछे का सर्कल अलबत्ता बड़ा था जहाँ अपार्टमेंट वालों की गाड़ियाँ खड़ी होती। घनी झाड़ियों की बाउण्ड्री भी रास्तों को बंद रखती थी। गुड़हल के फूल चारों तरफ लगे थे। वे फूलते थे, फूले रहते थे और शाखों पर ही मुरझाकर गिर जाते थे मगर कोई बड़ा-बुजुर्ग अथवा बच्चा उनको हाथ नहीं लगाता था। एक कोने में जाकर अंधेरा हो जाता था क्योंकि वहाँ कोई स्ट्रीट लाईट नहीं थी,वहाँ अपार्टमेंट के फ्लैट भी खाली पड़े थे। मैंने बाहर भीतर आगे पीछे की सड़कों पर उन्हें खोजा मगर वे कहीं भी दिखाई नहीं दी। उनका कुत्ता भी नज़र नहीं आ रहा था। कितनी बड़ी मूर्खता की थी मैंने कि कभी न तो उनसे उनका नाम पूछा था न अपार्टमेंट (फ्लैट)नंबर। कोई उन्हें जानता भी होगा या नहीं।
मझोले कद की, सांवले रंग की, सामान्य से नाक-नक्श वाली वे अपने छोटे-छोटे अधपके बालो के कारण अलग ही नजर आती थी। गोरों के बीच उनकी कद-काठी रंग-रूप अलग से पहचानी जा सकती थी पर यहाँ रंग-रूप, देह के आकार-प्रकार, वजन यानी दुबले-पतले होने,पहनावे को लेकर कोई भी टिप्पणी नहीं करता था। यहाँ तक कि समलैगिक जोड़े भी जिम में आते थे। वाॅक करते थे, हम जैसे भारतीय उन्हें गौर से देखकर घिन करते थे पर जाहिर नहीं होने देते थे। उनकी मुस्कराहट का जवाब भी मुस्काराहट से देना पड़ता था। डायना मेरा हाथ पकड़कर अलग ले जाती माँ, इनके दूर रहना है। रात के दो बजे भी लोग झूलों पर बैठे होते या अपने कुत्तों को घुमा रहे होते। रात की शिफ्ट में काम करने वाले आ जा रहे होते इसलिए समय यहाँ काम और शिफ्ट में बंटा था और ये स्थान सबके लिए समान रूप से खुला तथा सुरक्षित था।
क्या साऊथ इण्डियन थी? मैं मन ही मन अंदाज लगा रही थी। एक दिन निराश होकर थक-हारकर वापस लौट रही थी कि संयोग से लिफ्ट में मुझे एक भारतीय महिला मिल गयी।
‘‘थर्ड या फोर्थ फ्लोर?‘‘ उसने लिफ्ट का बटन दबाते हुए मुझसे पूछा।
‘‘थर्ड फ्लोर! थैंक्स!‘‘
‘‘आप किस फ्लोर पर हैं?‘‘
‘‘मैं फोर थ्री वन फाइव में हूँ। फोर्थ फ्लोर।‘‘
‘‘आप कब से हैं यहाँ?‘‘
‘‘अभी शिफ्ट किया है। फोर टू वन वन में।‘‘
‘‘कहाँ से आ रही हो?‘‘
‘‘बंगलौर से। मेरे हस्बैण्ड की जाॅब यहीं पर है। वो अमेरिकन हैं।‘‘
‘‘क्या आपके आसपास कोई और इंडियन फैमिली है?‘‘
‘‘हाँ मेरे सामने वाले फ्लैट में कोई मिस्टर पिल्लई रह रहे हैं।‘‘
वह अपना सामान लिफ्ट से बाहर निकाल रही थी। उसने मुस्कराकर मुझसे वाॅय कहा और चली गयी। अपने देश के लोगों को देखकर कितना अच्छा लगता है, की फीलिंग मेरे भीतर कतई नहीं थी। मैं यहाँ के महौल में रच बस गयी थी। घण्टो घूमना,झूले पर बैठकर लंबी-लंबी सांसे लेना, फोन पर बातंे करना, डायना जब तक साईकिल चलाती या अपने डाॅग को घुमाती मैं तब तक योग व्यायाम करती। और फिर चारों तरफ घूमते हुए लोगों से हाय-हलो करते हुए फ्लैट में वापस जाना। डायना मुझे पिक्चर दिखाने ले जाना चाहती थी पर अभी मैं दूसरी ही मनः स्थिति में थी। मेरा मन उनके चेहरे और आँखों में बसा था। मैं पता नहीं क्यों उनको लेकर अजीब सी घबराहट और संशय से भर गयी थी।
अनायास ही मैं उस लड़की के बताये गये फ्लैट के सामने जाकर खड़ी हो गयी। यह फ्लैट गोरों का तो नहीं था क्योंकि वे अपने दरवाजे पर फूलों का गुच्छा जरूर लगाते हैं। फूलों के प्रति गोरों का अनुराग काबिले-तारीफ है। यहाँ के किसी भी फ्लैट में घंटी नहीं थी। इसिलए मैंने हल्के से दरवाजा खटखटाया।
‘‘यस… कौन?‘‘
‘‘मिस्टर पिल्लई‘‘
‘‘जी। आप?‘‘
‘‘मैं शर्मिला… फ्लैट नं. फोर थ्री वन फाइव में रहती हूँ।‘‘
‘‘जी बतायें।‘‘
‘‘मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।‘‘
‘‘किससे…. किस सिलसिले में…।‘‘ पिल्लई ने आधे-अधूरे वाक्य बोले।
‘‘मिसेज पिल्लई।शायद आपकी माँ, क्या यहीं रहती हैं।‘‘
‘‘यस, वो मेरी माँ ही हैं।‘‘
‘‘ओह.. थैंक गाॅड! क्या मैं मिल सकती हूँ।‘‘ मैंने लगभग कृतज्ञता से भरकर कुछ-कुछ गिड़गिड़ाते हुए कहा। अंदर के कमरे में टी.व्ही. चल रहा था। कोई काॅमेडी प्रोग्राम आ रहा था। जानती हूँ यहाँ प्राईवेसी सबसे बड़ी चीज होती है। यदि आप सभ्य है तो प्राईवेसी की इज्जत जरूर करते होंगे लेकिन आप किसी भी वक्त जाकर खड़े हो जायेंगे तो अशिष्ट माने जायेंगे। यह अशिष्टता मैं कर चुकी थी। शायद इसलिए कि मेरे भीतर उनको लेकर अज्ञात भय, चिंता और मिलने का भाव मुझे बैचेन कर रहा था।
‘‘आई एम साॅरी आपको डिस्टर्ब किया।‘‘
‘‘कोई बात नहीं मैडम।‘‘
‘‘आपकी माँ अक्सर घूमते हुए दिख जाती थी। दो तीन दिन से दिखाई नहीं दी तो सोचा जाकर मिलना चाहिए। तबियत तो ठीक है न।‘‘ मैं आत्मीय होने का कोशिश कर रही थी!
‘‘मम्मी को फीवर है, मैं बोलता हूँ।‘‘
‘‘मैं शाम को आती हूँ रहने दीजिए।‘‘ कहने को तो कह दिया मगर मैं उनसे बिना मिले नहीं जाना चाहती थी।
यहाँ सारे फ्लैट्स एक जैसे हैं। छोटा साकिचन, वाश एरिया,डायनिंग टेबल फिर ड्राइंग रूम। एक कमरा दांयी तरफ दूसरा उसके ठीक सामने। बाजू में कवर्ड वाॅशिंग मशीन। पीछे के खुले जालीदार बरामदे में सामान रख सकते हैं। गमले रखे जा सकते हैं, कपड़े सुखा सकते हैं। शहर का खूबसूरत एरिया इस बरामदे से दिखाई देता है। यहाँ बैठकर कोई बोर नहीं हो सकता। पिल्लई ने अपने घर को बहुत सलीके से सजा रखा था।
‘‘आप बैठिए।‘‘ मैं सोफे पर बैठ गयी।
हालांकि यहाँ जो लोग फ्लैट छोड़कर जाते है वे एक से बढ़कर एक खूबसूरत, मँहगा सामान छोड़ जाते है। कोई भी आकर उस छोड़े गये सामान को ले जा सकता है।कमरों में बेशुमार सामान भरा था। डायनिंग टेबल पर फ्रुट्स, जैम, अचार तथा जूस की बोटलें रखी थी। फ्लावर पाॅट्स में ताजे फूलों का गुलदस्ता रखा था।
मैं दिल पर हाथ रखकर बैठी थी उनकी प्रतीक्षा में। दसेक मिनट बाद वे आई। मुश्किल से चल पा रही थी। उनका चेहरा एकदम काला हो गया था। आँखें धँस गयी थी। बाल उलझे हुए थे। बांयी कनपटी पर नीला निशान पड़ा था जो फूलकर घूमड़ बन गया था।
‘‘क्या हुआ? आप दो तीन दिन से दिखी नहीं तो मैं मिलने आ गयी।‘‘
‘‘तबियत ठीक नही है।‘‘
‘‘आँख के नीचे क्या हुआ?‘‘
‘‘कुछ नहीं। कहते हुए उन्होंने दो उंगलियों से उस नीले पड़ गये घूमड़ को हल्के से सहलाया।
कंपकंपाहट औरझनझनाहट से उनकी देह कांप रही थी। आंसुओं को जब्त करने में उन्हें अपने जबड़े भींचने पड़ रहे थे। कैसे बताती कि कल रात बहू नैना ने पानी की बोटल फेंककर मारी थी। क्योंकि बेटा उसको गालियाँ दे रहा था। वह बेटे की गालियों का बदला माँ से ले रही थी। जब से वे यहाँ आई हैं तब से दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा है। गालियाँ, मार-पीट, चीख-चिल्लाहट, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और घर के अंदर ही नहीं बाहर तक झगड़े हो चुके हैं। एक बार तो बेटे को पुलिस बुलानी पड़ी थी। नैना बेटे की हर समय बुराईयाँ करती है। जबकि वे जब से आई हैं देख रही है सुबह से उठकर बेटा ही बर्तन धोता है, क्लीनिंग करता है, वाशिंग मशीन में कपड़े डालता और निकालकर तह बनाकर रखता है फिर उसका नाश्ता बनाता है। बच्ची को तैयार करके छोड़ने जाता है फिर आॅफिस। शाम को सारे काम करके थककर बेहाल हो जाता है। उनका कलेजा फटने लगता है।भारत में उनके साथ कितने ठाट से रहता था। और यहाँ…. यहाँ तो वह नौकर बनकर रह गया। झाडू, बर्तन, कपड़े धोना, खाना बनाना क्या इसके लिए लाखों रुपये की डिग्री दिलाई थी। यह मैंने क्या कर दिया अपने बेटे की जिंदगी के साथ। वे रात रातभर तड़पती और आँसू बहाती। एक बार उन्होंने देखा बेटा उसके जूते के तस्मे बांध रहा है; ये मेरा सर्वेंट हंै। नैना उनको दिखाते हुए हॅस रही थी। एक दिन अचानक बाहर से आई तो देखती है क्या है बेटा साष्टांग की मुद्रा में बैठा है,नैना ने पहलेउसकी पीठ पर लात मारी और फिर उसके सिर पर चप्पलें मारने लगी। वे दौड़ी-दौड़ी गयी और चप्पल छीनकर फेंक दी।‘यह सब क्या है।‘ वे जोर से चिल्लायी थी। ‘‘आपका बेटा गालियाँ दे रहा था मुझे।‘ मैं उसे पनिश कर रही थी। वे सिर पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगी थी। ये लड़का आदमी है या गुलाम। क्यों सहन करता है। क्यों! क्या मजबूरी है। पालतू कुत्ता बन गया है। जो बातें कभी किताबों में पढ़ती थी या फिल्मों में देखती थी वही बाते उनके सामने उनके बेटे के घर में उनके साथ हो रही थी।
‘‘बेटा एक बात कहें बुरा न मानो तो।‘‘
‘‘कहो न। सीधे-सीधे बोलो ना।‘‘
‘‘पहले नैना ऐसी न थी इस बार बहुत बदल गयी है।‘‘
‘‘क्या आप भी यहाँ सास बनकर आई हो?‘‘ वह झॅुझलाकर बोला था।
‘‘नहीं। वह कुछ भी नहीं करती। बारह बजे सोकर उठना फिर कुत्तों को घुमाने ले जाना, मन हुआ तो खाना बनाना अन्यथा वीडियों या फिल्में देखना। ये सब क्या है?तुम लोगों की जिंदगी इतनी अराजक क्यों है। एक-दूसरे को कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ते हो।‘‘
अम्मा, यहाँ की लड़कियों से आप कुछ बोल नहीं सकते। वे स्वयं को श्रेष्ठ समझती है और इसके यहाँ तो इसकी नानी का राज चलता था। पूरी डिक्टेटर थी। सारे आदमियों को अपने इशारों पर चलाती थी वही इसके खून में है। वह चाहती है मैं भी वैसे ही रहूँ। वह बाहर का काम करे मैं घर संभालूँ।‘‘
‘‘पर तुम्हें कुछ तो बोलना चाहिए। यह उसकी सेहत के लिए भी ठीक होती है। देखो कितना वेट बढ़ गया है और तुम्हारी इतनी बुराई क्यों करती है।‘‘
‘‘उसको लगता है मैं उतना पैसा कमाकर नहीं दे रहा हूँ जितने की वह अपेक्षा रखती थी। उसको लगता है। कि मेरा जाॅब, मुझको मिलने वाले फायदे उसके करण है इसलिए वह हमेशा मेरे ऊपर प्रेशर बनाकर रखती है। वह हमारी या आपकी भावनाएँ नहीं समझती है वह अपना फायदा, अपनी सुख सुविधाएँ देखती है।‘‘
हे भगवान। यह मैंने क्या किया। किस मनहूस समय में मेरे दिमाग में बेटे को विदेश में नौकरी पर भेजने का ख्याल आया था। हमारे लिए विदेश यानी अपार पैसा, सुख सुविधाएँ,स्वर्ग से भी संुदर धरती, गोरे चमकते चेहरे वाले लोग पर यहाँ की दुनिया तो एकदम अलग ही धरातल पर खड़ी है! इसके पीछे को संघर्ष अंधेरा अवसाद, दवाब और संवेदनहीन रिश्तों का संसार तो किसी को दिखाई ही नहीं देता है।
‘‘तुम अपना काम खुद किया करो। आज से मैं तुम्हारा कोई काम नहीं करूँगा।‘‘
‘‘माँ ने पट्टी पढ़ा दी है। ममींज थाॅम हाँ तो हाँ।‘‘ वह बेटे पर चिल्ला रही थी।
‘‘एक टाइम का खाना तुम बनाओगी।‘‘
ओ.के.। वह सामान पटकती और बाहर निकल जाती। न उनसे बात करती न उनके कमरे में आती। कभी-कभी नैना उन्हें परेशान करने के लिए कमरे का दरवाजा बंद कर देती। वे चिल्लाती गिड़गिड़ाती तब बहुत देर बाद दरवाजा खोलती। क्यों बेटा। ऐसा क्यों करती हो मेरे साथ?‘‘ वे प्यार से पूछती।
‘‘आप मेरी माँ नहीं हो। मेरी माँ यहाँ (हृदय पर हाथ रखकर) है। ओ.के.।‘‘
‘‘बिल्कुल। मैं तुम्हारी बात का सम्मान करती हूँ।‘‘ वे टालने की कोशिश करती। बाहर से मुस्कराती भीतर से रोती हुई।
फिर वह अंदर जाकर उनके कपड़े उठाकर उनके बैग में पटक देती- यह मेरी माँ का कमरा है मेरी माँ का क्लाजिट है।आपने हर जगह कब्जा कर लिया है।‘‘
‘‘और मेरा..?‘‘ वे कैसे बताये कि ये जो फ्लैट खरीदा है उसमें पिचहत्तर प्रतिशत उनका पैसा लगा है। सारी ग्रेचुटी और जी.पी.एफ. का पैसा निकालकर बेटे को दे दिया था, कि यहाँ बड़ा मकान लेने की जरूरत है। तुम्हेंवहींरहना है तो एक फ्लैट खरीद लो। मुझे जरूरत नहीं है।यही मकान तो संभाला नहीं जाता।‘‘
‘‘सुन…. आगे से बकवास की तो मुक्का मारूँगा जबड़े पर। तुझे मालूम है न यह अम्मा का दिलाया मकान है। ये जो ज्वैलरी कपड़े पहनती है न तू वो भी अम्मा का दिया हुआ है। वो वापस क्यों नहीं करती।‘‘
‘‘यह मेरा घर है।‘‘ वह जोर से चिल्लायी थी।
‘‘तूने पैसा लगाया था या तेरी माँ ने। जब से आया हूँ केवल पैसा बर्बाद हुआ है। पहले तेरी माँ की सेवा में लगा रहा दो साल तक। जाॅब तक छूट गयी थी तुम माँ बेटी के कारण। फिर तेरे ये कुत्ते बिल्ले और अब तू.. सारा गोल्ड बेचना पड़ा था और अम्मा के पास क्या बचा?‘‘
‘‘मुझे क्या पता।‘‘ वह कंधे उचकाकर कहती। और उस दिन तो हद हो गयी थी। तीन दिन का कचरा इकट्ठा हो गया था। बाहर डस्टबीन तक उठाकर नहीं रखती थी। बेटा आकर लेटा ही होगा कि उसने उसके सिर पर मुक्के मारने शुरू कर दिए।
‘‘क्या हुआ?‘‘
‘‘मेरी आइसक्रीम! तुमने मेरी आईसक्रीम क्यों खाई।‘‘
‘‘मैं लाया था।‘‘
नैना ने बाकी बची सारी आईसक्रीम दीवार पर दे मारी। चारों तरफ आईसक्रीम फैल गई थी। बेटे ने गारवेज बैग उठाकर उसको दे मारा और उसने पानी की बोटल उठाकर फेंकी जो उनके गाल के ऊपर आकर लगी। बस फिर क्या था बेटे ने जोर का तमाचा उसके गाल पर दे मारा, ‘‘बिच। मेरी माँ पर हाथ उठायेगी। मेरी माँ पर। जो तुझसे कुछ नहीं बोलती। तुझसे एक गिलास पानी तक नहीं मांगती। अपना काम खुद करती है। मारना है तो मुझे मार। आ..।‘
नैना जोर-जोर से चीख रही थी। दरवाजों पर लात घूँसे मार रही थी।
वे दूर बैठी देखती रह गयी। लगा प्राण उड़ गये हैं। एकदम स्तब्ध। खौफ से थर-थर कांपती हुई। यह सब क्या है? वे हिल नहीं पा रही थी। बस आँसू बह रहे थे।
साॅरी अम्मा। माफ कर दो। मैं हाथ नहीं उठाना चाहता था पर ये मुझे उकसाती है। चैबीस घंटे मेरे पीछे पड़ी रहती है। आप देख रही हो।‘‘
नैना रोती जा रही थी और गालियाँ देती जा रही थी। उसे लग रहा था वे बेटे को रोकेगीं। गालियाँ देगी। उसका पक्ष लेगी। मगर उसे क्या पता था कि वे बुरी तरह से डर गयी थी कि कहीं गुस्से में आकर नैना उन्हें ही धक्का न मार दे। अगर उसने धक्का मार दिया तो बेटा तो उसे मार ही डालेगा। वह बर्दाश्त नहीं कर पायेगा।
वे देर तक अपनी जगह बैठी रही बस निःशब्द आँसू बह रहे थे।
दो घंटे बाद दोनो चुप हुए। बेटा काम पर निकल गया था और वो अपने कमरे में बंद हो गयी थी। वे अपना मोबाईल और चाबी लेकर बाहर निकल गयी थी। बाहर लाईटें जल रही थी। लोग घूम रहे थे। एक झूले पर दो महिलाएँ बैठी थी। छोटे लाॅन में चार पाॅंच कुत्तों सहित महिलाएं और बच्चे मस्ती कर रहे थे। वे कोने वाले झूले पर जहाँ अंधेरा रहता था जाकर बैठ गयी। देखा आसपास कोई नहीं था। अब वे जोर-जोर से फफककर रो रही थी। मैंने बेटे की जिंदगी बर्बाद की है। मुझे था विदेश का आकर्षण। विदेश मे ंनौकरी करने की महत्वकांक्षा! भगवान मुझे कभी माफ नहीं करेंगे। कभी भी नहीं। अब मैं कहाँ जाऊँ। क्या करूँ? फर्राटेदार क्या सामान्य बोलचाल की अंग्रेजी भी नहीं आती है कि कहीं जाकर काम कर सकूँ। अकेले आने-जाने में डरती है। बस का कोई ज्ञान नहीं है। अब क्या होगा? ये तो कभी भी कोई भी काण्ड कर बैठेगी। बेटा अपना धैर्य खो बैठता है। घरेलू हिंसा में किसी दिन पुलिस पकड़कर ले गयी तो? अब वह भारत भी नहीं लौट सकता है। कुछ भी तो नहीं छोड़ा।इस लड़की के प्यार में पागल बेटे ने न तो परिवार के बारे में सोचा था, न उसके खानदान के बारे में बताया था नैन्सी से नैना बनी ये लड़की असल में कहाँ से आई थी और किस धर्म, किस वर्ग तथा किस समाज से ताल्लुक रखती थी, यह भी खोजने की कोशिश नहीं की थी। इसके आॅफिस में काम करती थी, वहीं इससे परिचय हुआ, परिचय प्यार में बदल गया था। उसके साथ उसकी माँ और भाई रहता था। भाई सेना में भर्ती हो गया था और माँ बाद में अपने घर जार्जिया लौट गयी थी, लेकिन बीमारी के समय इसी के पास आकर रही थी।बेटा सेवा करते-करते थक गया था बल्कि उसका जाॅब तक चला गया था, लेकिन नैना पर कोई असर नहीं पड़ा था। वह कहती तुम मेरी वजह से इस देश में हो। तुम इंडियन लड़के अपने मतलब से यहाँ की लड़कियों से शादी करते हो। जब तुम्हारे स्वार्थ पूरे हो जाते हैं तो उनको छोड़ देते हो। मैं। ऐसा नहीं होने दूँगी। मैं अपना इस्तेमाल नहीं होने दूँगी।‘‘ वह ये सारी हरकतें और मनमानी करती थी जो किसी भी इंसान के बर्दाश्त के बाहर होती थी। यह बेटे का पागलपन था कि उसने उनको भी यहाँ बुला लिया था, जिसकी सजा वे भुगत रही थी। उन्हें यहाँ बुलाने केक लिए बेटे ने कितना पैसा खर्च किया था। तीन बार बीजा रिजेक्ट हो गया था। चैथी बार में बीजा मिला था तब लग रहा था जैसे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही हो लेकिन यह बीजा ही उनके लिए गले की हड्डी बन गया था। नैना को लगने लगा था अब वे यहीं रहेंगी, जो उसे बर्दाश्त नहीं था। सोचते-सोचते उन्हें लग रहा था कहीं दमाग की नसें न फट जायें या हार्ट अटैक न आये। पति होते तो क्यों उसे यहाँ आना पड़ता। क्या होगा मेरा। वे रोते हुए स्वयं से ही बातें कर रही थी। जब रोकर थक गयी तो चेहरा पौछकर झूले पर ही अधलेटी हो गयी। तभी एक लंबी परछाई उन्हें अपने ऊपर से गुजरती हुई लगी।
नैना थी। उसका गाल सूज गया था। आँख में भी चोट लगी थी। रो रोकर उसकी दोनों आँखे सूज गयी थी। वह गुस्से में उनकी तरफ देख रही थी। बिना कुछ कहे वह उनके बगल में बैठ गयी। डाॅगी की चैन उसके हाथ में थी। क्षणभर के लिए डर के मारे उनकी पूरी देह में झुरझुरी दौड़ गयी। यहाँ एकांत है। अंधेरा है, क्या पता उन्हें मार ही न दे।
‘‘ये क्या आपके बेटे ने ठीक किया? वह गंदी जवान बोलता है। गालियाँ देता है। वह मेरी माँ को,नानी को गालियाँ देता है। वह मुझे मारेगा तो मैं आपको मारूँगी। वह मुझे टार्चर करेगा तो मैं आपको टार्चर करूँगी। आप अपने बेटे का फेवर लेती हो। मेरा नहीं। आप सब एक हो, मैं अकेली।‘‘
वे क्या कहती उनकी जवान तो तालू से चिपक गयी थी।
‘‘चुप क्यों हो कुछ बोलो ना।‘‘ नैना चिल्ला रही थी!
‘‘तुम उसे अपना नौकर समझती हो, पति नहीं।‘‘
‘‘यही मान लीजिए।‘‘
‘‘पति-पत्नी के बीच प्यार, सम्मान और विश्वास होता है।‘‘
‘‘आपकी नानसेंस बकवास मुझे नहीं सुननी।‘‘
वे उठकर जाने लगी। लेकिन अकेले जाने में उन्हें डर लग रहा था। क्या पता धक्का ही न मार दे या किसी चीज से चोट पहुँचा दे। वे उठकर घूमने का नाटक करने लगी। वह पीछे-पीछे चल रही थी। बेटे ने कहा था कि ‘‘अम्मा इसके साथ घूमने मत जाना। जाओ भी तो दूर-दूर चलना ये कुछ भी कर सकती है। खासकर सीढ़ियों पर इससे दूर ही रहना।‘‘
‘‘क्या सचमुच…।‘‘ उन्होंने आसमान की तरफ देखा जैसे पति को कुछ कह रही हो।उन्होंने मन ही मन तय किया वे तब तक कमरे में नहीं जायेंगी जब तक कि बेटा नहीं आ जाता।
नैना वहाँ से हिली नहीं।
‘‘तुम दोनों के झगड़े में मैं कहाँ से आ गयी? मैं तो तुम्हें प्यार करती थी, करती हूँ। तुम फैमिली मेम्बर हो, फिर यह अलगाव और नफरत क्यों। मैं अपने अकेलेपन से, दुःख से बचने के लिए तुम्हारे पास आई थी। तुम्हें जो करना है अपने पति के साथ करो।‘‘
‘‘आप उसका फेवर करती हो। बूमन प्लस बूमन। हमको एक होना चाहिए। तभी ये मर्द सुधरेंगे। यहाँ इंडिया की नहीं अमेरिका की सोच चलेगी।‘‘
‘‘और आदमी। मेरा बेटा? वो किसकी सोच पर चले।‘‘
अब समझ में आया कि मिसेज बत्रा यहाँ आने के लिए क्यों मना करती थी। क्यों फूट-फूटकर रोती थी। क्या उनकी बहू भी उन्हें मारती-पीटती थी? डर के कारण किसी को बता नहीं पाती थी बेचारी। कैसे गिड़गिड़ा रही थी- बहिन जी, मुझे नहीं जाना। मैं अकेली बनी रहूँगी। बेटे को समझा दो। कोई तो रोक लो मुझे। तब वे मिसेज बत्रा को उपदेश देती थी लेकिन आज! आज उन्हें मिसेज बत्रा की रूलाई से कांपती उनकी कमजोर काया, दयनीय, बेवस चेहरा याद आ रहा था!
अब तक बेटा आ गया था। तनाव की रेखाएँ उसके माथे पर साफ दिख रही थी।
‘‘इसने कोई बकवास तो नहीं की?‘‘
‘‘नहीं। अच्छा हो कि तुम हम दोनों के बीच में न पड़ो।‘‘
‘‘आप कोई भी बात छुपाना नहीं अम्मा।‘‘
‘‘आपने क्या-क्या नहीं किया!इसको कैसे समझाऊँ! आप चिंता मत करों अम्मा अब तो मैंने सोच लिया है कि इसने आपसे बदतमीजी की और मैंने इस पर लात-घूँसे बरसाये। दुष्ट है। इसकी किसी एक आदमी से नहीं बनती। इसकी नज़रों में सारे रिश्तेदार खराब है। सारी फ्रेंड्स खराब है। अपनी माँ को मुक्के मारती थी। एक दो बार तो मैंने बचाया था। तू अपनी माँ के साथ जो करती थी क्या वही सब मेरी माँ के साथ करेगी…?‘‘ बेटे का गुस्सा अब भी उतरा नहीं था।
‘‘हाँ करूँगी।‘‘ वह मुँह बनाकर बोली।
‘‘सच अम्मा, मेरा जीवन नरक बन गया है। न मैं यहाँ का हूँ, न वहाँ का। कई बार लगता है अपने को खतम कर लूँ। ये मनहूस मेरे जीवन में जबसे आई है सर्वनाश ही हो रहा है। और आप, आपकी जिंदगी तो नरक बन गयी है यहाँ आकर। मैंने कहा भी था कि अम्मा इतनी जल्दबाजी मत करो। पहले यहाँ आकर देख लो, समझ लो, पर आपको भी यहाँ आने का भूत सवार था।‘‘
‘‘वहाँ मैं किसके भरोसे रहती बताओ।‘‘
‘‘यहाँ किसका भरोसा है? इसका? जो आपकी जान की दुश्मन है।‘‘
‘‘बेटा, जितना ज्यादा तुम हमको लेकर इससे झगड़ा करोगे उतना ही वह हमारी दुश्मन बन जायेगी। क्या करें हम? कहाँ जायें? कोई काम तलाशते हैं। देखो कोई इंडियन स्टोर होगा।‘‘
‘‘इस उम्र में काम करोगी? यहाँ। यहाँ टाॅयलेट साफ करने पड़ते हैं, कर पाओगी? आप भी क्यांे मेरी फजीहत करवाने पर तुली हो! सबको पता चलेगा तो मुझ पर लानत फेकेंगे!‘‘‘‘
‘‘पर समय काटने के लिए कुछ तो करना ही होगा।‘‘
वे रातभर करवट बदलती रही थी। दूसरे कमरे में दोनो के बीच बहस चल रही थी। उनकी तीखी खराश भरी आवाजें सुनाई दे रही थी। क्या बेटा रातभर सोता नहीं है? नैना तो उसके जाने के बाद सोती रहती है। और बेटा वो तो कठपुतली बन गया है।
वे चुपचाप उठी और धीमे-धीमे अपनी किसी सहेली से बात करने लगी- ‘‘यहाँ मन नहीं लग रहा है? कोई परिचित हो तो उसका नाम और नंबर भेज दो। बस कभी कभार बात कर लिया करूँगी।‘‘
‘‘नहीं, नहीं मैं ठीक हूँ। वहाँ की खासकर ‘इनकी‘ बहुत याद आती है काश वे होते तो दुनिया में कहीं भी हम दोनों रह लेते।‘‘
फोन रखते ही उनकी रूलाई फूट पड़ीं। मुँह में दुपट्टा दबाकर हिलक हिलककर रोने लगी। रोते-रोते कब नींद लग गयी पता ही नहीं चला। जब नींद खुली तो अपने आपको तेज बुखार में कंपकंपाते पाया।
भय, दुःख और बेटे की चिंता ने उन्हें मानसिक रूप से तोड़ दियाा था।
वे पता नहीं किस अज्ञातभय से अंदर चली गयी थी जबकि मैं उनसे और बातें करना चाहती थी!
मैं बार-बार ताकझाक करके उसी रूम की तरफ देख रही थी जिसमें वे थी।
थोड़ी देर बाद वे भीतर से निकलकर आई और लगभग कराहते हुए घुटनों को पकड़कर बैठ गयी। उनकी आँखें देखकर लग रहा था कि वे अपनी सिसकियाँ और आँसू निकालकर, चेहरा पोंछकर आई हैं।
‘‘आपको देखा नहीं तो हालचाल पूछने चली आई।‘‘ मेरे दुबारा कहने पर भी वे चुप रही। फटी-फटी आँखों से मेरी तरफ देख रही थी। भय का साया उनकी आँखों में ठहरा हुआ था।
‘‘अब आपकी तबियत कैसी है?‘‘ मैंने दुबारा पूछा।
‘‘ठीक है।‘‘ उनकी निगाहें दरवाजे पर लौट-लौट जाती थी।
‘‘घबराइए मत अम्मा। वो कुछ नहीं कहेंगी। अच्छा ही है कि आंटी से आपका परिचय हो गया है। आप बात तो कर पाओंगी।‘‘ बेटे ने उनका भय दूर करते हुए कहा ‘‘ये मेरा मोबाइल नंबर है। आप चाहें तो बात कर सकती हैं। मैं सुबह शाम घूमने जाती हूँ तब आप मेरे साथ आ सकती हैं। आपको किसी भी प्रकार की जरूरत हो तो बेझिझक होकर बताइए।‘‘ मैं भूल गयी थी कि वे अपने देश में नहीं है बहू-बेटे के पास हैं और मैं भी बहू बेटे के पास हूँ। पर उनकी बिडम्बना देखिएऔर मेरा भाग्य कि मेरी बहू विदेशी होकर भी मेरे साथ दोस्तों की तरह रहती है। मेरी पसंद नापसंद का ख्याल रखती है। अपना नाॅनवेज फूड बनाकर सारा प्लेटफार्म साफ करके देती है। मेरे पूजा स्थल को कभी हाथ नहीं लगाती बल्कि जब भी मैं मंदिर जाना चाहती हूँ वह मेरे साथ जाती है। दर्शन करती है। दान करती है। वहाँ का प्रसाद खाती है। मेरी लायी साड़ी, सलवार-सूट, प्लाजो, चूड़ियाँ, बिछिया, पायल और मंगलसूत्र पहनती है।
और नैना…….। ये नैना किस मिट्टी की बनी है। नाम बदलने से इसका स्वभाव तो नहीं बदला है।
वे शायद कम ही बोलती है या भय के कारण उन्हें कम बोलने पर बाध्य कर दिया है। इस घर में कुछ तो है भय, आतंक, अकेलापन या मनहूसियत।
मैं बाहर निकली तो अजीब सा दर्द मेरी छाती में लहक रहा था। उन्हें अकेले छोड़ते हुए मैं उद्विग्न हो रही थी। लग रहा था दौड़कर जाऊँ और उन्हें अपनी छाती से चिपका लूँ। उनके चेहरे की मालिश कर दूँ। उनके बाल संवार दूँ। उन्हें अच्छी सी चाय बनाकर पिला दूँ।
‘‘जब भी मन हो मेरे घर आ जाया करिए। मैं भी अकेली रहती हूँ डायना (मेरी बहू) भी काम पर चली जाती है।‘‘ मैंने दरवाजा खोलकर झाँकते हुए केवल इतना ही कहा।
उन्होंने न हाँ कहा, न ना कहा। बस मेरी तरफ टकटकी लगाकर देखती रही।
‘‘माँ आप क्यों दुःखी हो।‘‘ डायना मुझसे पूछ रही थी- ‘क्या हुआ? आप किससे मिलने गयी थी?‘‘
मैंने डायना को सारी कहानी सुना दी।
‘‘पुलिस में कम्प्लेंट कर दें।‘‘ सारी बातें सुनकर डायना सोच में डूब गयी।डायनामहिला अधिकारों, जातिगत, भेद, रंगभेद को लेकर कोई भी टिप्पणी करना पसंद नहीं करती है। वह पुलिस, कानून, अधिकारों की अच्छी खासी जानकारी रखती है। उनकी बहू को पनिशमेंट मिलना चाहिए। डायना का एकमात्र यही सुझाव ही था!
‘‘पर उनका बेटा परेशान हो जायेगा।‘‘
डायना मेरी भी बात से सहमत थी। मगर वह समानता के सिद्धांत को मानने वाली माता-पिता का सम्मान और ध्यान रखने वाली लड़की है जिसके मन में सेवा और करुणा का भाव आपादमस्तक भरा था।
शाम को मैं घूमने निकली तो देखा वे झूले पर बैठी थी।
‘‘अब कैसी तबियत है?‘‘
‘‘ठीक है।‘‘
‘‘आप यहाँ खुश नहीं हैं?‘‘
‘‘मैं इन दोनों के कारण दुःखी हूँ।‘‘
‘‘उनको उनके हाल पर छोड़ दीजिए।‘‘
‘‘बेटा उम्र से पहले ही बूढ़ा लगने लगा है। मैं उसके साथ रहना चाहती हूँ। मुझे उसके साथ रहने में तसल्ली मिलती है, जीने का हौसला मिलता है। लगता है उसके लिए जीना है वरना बचा क्या है जिंदगी में। क्या-क्या सोचा था और क्या निकला।‘‘
‘‘यह उसकी नियति है और ऐसा न हो कि आपका बेटे के साथ रहने का मोह ही उसे दुःखों में न डाल दे। मेरे पिता समझाया करते थे कि, बच्चे परिन्दों की तरह होते हैं उड़ना सीखते ही अपना नया ठिकाना बना लेते हैं। आप बेटे को परिन्दा रहने दीजिए।‘‘
‘‘मैंने मना किया था कि इससे शादी मत करो पर जब तक वो मानता देर हो चुकी थी। चार साल उसकी बीमार माँ की सेवा की उसके चक्कर में दो जाॅब छूट गयेथे।अब ये परेशान कर रही है। इसमें तो दया और प्रेम है ही नहीं। मन घबराता है कि कोई अनहोनी न हो जाये।‘‘ कहकर वे रोने लगी।
मैं उनके कंधे थामकर बैठ गयी।
उसने हम दोनों को लेकर कितने सपने देखे थे। वह अपने माता-पिता केक लिए कितना कुछ करना चाहता था। लेकिन यहाँ आकर उसका भाग्य की बदल गया। एक के बाद एक नुकसान।
वहाँ का एक-एक सामान बिक चुका है गोल्ड, मकान, एफ.डी. अब लगता है मुझे कुछ हो गया तो मेरी पेंशन का जो सपोर्ट है वो भी खत्म हो जायेगा।
‘‘ऐसी नौबत आयेगी ही क्यों आपका बेटा मेहनती है सब कर लेगा।‘‘
‘‘पहले इसकी माँ फिर रिश्तेदार और अब ये…। बहुत सारी बातें तो मैंने बेटे से छुपा ली हैं। एक बार इसने मुझे बाहर धकेल दिया था। मैं दो-तीन घंटे गैलरी में बैठी रही थी। पड़ौसी ने आकर दरवाजा खुलवाया था। एक बार मेरे बर्तन उठाकर फेंक दिए थे। रोजमर्रा की ऐसी बातें हैं कि मुझसे सहन नहीं होती। यहाँ कोई बात करने वाला नहीं है। पागलों की तरह एक कमरे में बंद रहो। बेटे की खातिर वह सब भी बर्दाश्त कर रही हूँ। मार खा रही हूँ….।‘‘
‘‘आप स्वयं क्यों नहीं विरोध करती और आती क्यों हैं यहाँ?‘‘
‘‘मैं वहाँ अकेली हूँ तो यहाँ आना पड़ता है।बेटे की भी चिंता रहती है। पति की मृत्यु के बाद मकान बेचकर ये फ्लैट ले लिया था।‘‘
‘‘आपकी बहिन, भाई माँ, कोई तो होगा।‘‘
‘‘सबके यहाँ रहकर देख लिया। दूर से सब अपने लगते है पर जब उनके घर में जाकर रहो तब पता चलता है कि वे कितने पराये हैं! कारण चाहे उनके पति हो या बच्चे। अब एक-एक दिन मेरे लिए रहना मुश्किल हो रहा है।‘‘
हम दोनों धीमे-धीमे चल रहे थे ताकि उनका समय ज्यादा से ज्यादा मेरे साथ घूमते हुए निकल सके।
समस्या गंभीर थी। उनके अपने जीवन को लेकर थी। बेटे के दाम्पतय जीवन को लेकर थी। दो देशों की सोच,जीवनशैली और कानूनीव्यवस्था को लेकर थी।
‘‘सारा दिन बर्तन धोना, सफाई करना, खाना-नाश्ता बनाना, सारा घर अरेंज करना। बेटे को दया आ जाती है तो वह कुछ संभाल लेता। कोई शिकायत करूँ तो दोनों में हाथापाई होने लगती है। पराया देश है यहाँ कोई किसी का नहीं होता। मन घबरा रहा है क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? बेटा जाने नहीं देगा।‘‘
‘‘एक रास्ता और हो सकता है।‘‘
‘‘क्या?‘‘
‘‘आप उससे बैठकर बात करें। दोस्ती करें। समझायें। कोई गिफ्ट बगैरह दें।‘‘
‘‘वह मुझसे नफरत करती है। मैंने अपने कंगन दे दिए, सोने की चैन दे दी। यहाँ तक कि अपनी अंगूठियाँ भी दे दी गिफ्ट के रूप में। मेरा जितना पैसा रहता है चुपचाप उठा लेती है। मेरे पास यहाँ न बैंक एकाउंट है, न लाॅकर, है, न अपनी अलमारी। बस दो सूटकेस में सामान रखा रहता है। जब से उसे यह पता चहा है कि मैं यहीं रहने वाली हूँ तब से उसका व्यवहार एकदम बदल गया है।‘‘
‘‘आप थोड़ा स्ट्रांग बनिए। पुलिस का नंबर है आपके पास?एंबुलेंस…? बताइए मैं आपके मोबाइल में सेब करवा देती हूँ।‘‘
डायना ने दोनो-तीनों नंबर सेव कर दिए।
‘‘माँ,आपकी इंडियन सोसायटी में सभी लोग ऐसा करते है क्या?‘‘
‘‘नहीं…..। सभी ऐसे नहीं होते।‘‘
‘‘माँ, उनको नैना से बचाना होगा।‘‘ डायना भी चिन्तित हो उठी थी।
घर के अंदर प्रवेश करते ही उनकी देह में सिहरन सी दौड़ गयी। नैना सामने बैठी फिल्म देख रही थी। उन्हें देखते ही तंज कसते हुए बोली- कितनी शिकायतें करके आ रही है। करिए.. करिए। कोई आपको सपोर्ट नहीं करेगा।‘‘
‘‘अम्मा, आप अपने रूम में जाओ।‘‘
‘‘जाइए। अपने रूम में आराम करिए।‘‘ नैना ने कटाक्ष करते हुए कहा।
‘‘अम्मा के मामले में बोलने की जरूरत नहीं है।‘‘
‘‘आजकल ‘अपने लोगों‘ के बीच जाकर बैठती है।‘‘
‘‘अच्छा है उनका मन लगा रहता है।‘‘
‘‘काम कौन करेगा!‘‘
‘‘तुम और मैं।‘‘
‘‘यहाँ क्या खाने और आराम करने के लिए आई हैं।‘‘
‘‘वो तुम्हारा दिया हुआ नहीं खा रही है।‘‘
‘‘पूरा दिन किचन घेरकर बैठी रहती है।‘‘
‘‘वो अपने पैसों का खरीदती और खाती है।‘‘
‘‘आप कब जा रही हो?‘‘ नैना सीधे उनसे पूछ रही थी।
‘‘वो यहीं रहेगी हमेशा।‘‘
‘‘मुझे मेरा स्पेस चाहिए।‘‘
‘‘पूरा घर तो है तेरे पास।‘‘
‘‘नहीं उन्हें इंडिया वापस भेजो।‘‘
‘‘वो नहीं जायेगी। तुझे जाना है तो तू जा समझी।‘‘
‘‘नहीं। वो जायेगी। जब से आई हैं उनके कारण झगड़ा हो रहा है।‘‘
‘‘झगड़ा उनके कारण नहीं तेरे कारण होता है, तेरी माँ रहती थी मैंने कभी कुछ कहा था? आज मेरी माँ बीमार है, अकेली हैं तो तूने उनका रहना मुश्किल कर दिया है।‘‘
‘‘मैं इनके साथ नहीं रह सकती।‘‘
‘‘तो तू इस घर से निकल।‘‘ कहते हुए बेटे ने उसे धक्का दिया और बाहर निकाल दिया।
वे फिर स्तब्ध सी बैठी तमाशा देख रही थी। नैना बाहर से दरवाजा पीट रही थी।
‘‘बेटा, मैं हाथ जोड़ती हूँ मत करो, मत तमाशा करो। मेरा टिकिट करवा दो।
‘‘वहाँ आप अकेले में मर जाओगी।‘‘
‘‘मर जाने दो।‘‘
इसके कहने परतो आप कहीं नहीं जायेगी। इसको रहना है तो रहे वरना मैं इसे तलाक दे दूँगा।‘‘
हे भगवान। ये सब क्या हो गया है! वे माथा पकड़कर बैठ गयी।
‘‘ये बहुत दुष्ट है। सेल्फिस है। अपने अलावा किसी को बर्दाश्त नहीं करती है। मैंने आपसे कहा था न कि जब भी आपको ज्यादा तंग करे आप पुलिस को बुला लेना। यहाँ पुलिस आना कोई बड़ी बात नहीं होती।‘‘
थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि बेटा उनका बैग लगा रहा है।‘‘अम्मा, आपको कुछ दिन के लिए वर्षा के पास छोड़ आता हूँ तब तक मैं आपके लिए अलग अपार्टमेंट में फ्लैट का इंतजाम कर लूँगा।‘‘
‘‘अलग मतलब एक और खर्चा। तुम कहाँ से लाओंगे इतना पैसा? यहाँ कमाने आये हो या बर्बाद करने!‘‘
‘‘तो बताओं मैं क्या करूँ।‘‘ बेटा सिर पकड़कर फूट फूटकर रो रहा था।
‘‘बेटा।‘‘ उन्होंने उसका सिर अपनी गोदी में रख लिया। उनके आँसू बेटे की गर्दन पर गिर रहे थे!
‘‘यह क्या हो गया अम्मा! अपना छोटा सा परिवार कैसा बिखर गया है। मैंने पिछली दफे वर्षा को भी भगा दिया था। कोई भी आता है तो ये ऐसी हरकतंे करती है कि सिवा झगड़े के कुछ होता ही नहीं। न हम यहाँ आते न हमारा जीवन यूँ बर्बाद होता। वहाँ हम सब साथ में रहते। पैसों के चक्कर में सब तबाह हो गया अम्मा।‘‘
‘‘बेटा, मैं उससे बात करती हूँ। तुम हम दोनों के बीच में मत बोलो।‘‘
‘‘आप तो कुछ बोलना ही नहीं। इसने आपको ‘बिच‘ बोला था। आपको बोटल मारी थी। यह कभी भी धक्का दे सकती है। अपने को बचाओ। आपके सिवा मेरा है ही कौन?‘‘ बेटा उनके सामने गिड़गिड़ा रहा था।
‘‘बताओ, मैं अपनी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता इसकी माँ की मैने टट्टी, पेशाब साफ की, यह सोचकर कि वो बीमार थी, बुजुर्ग थी और ये आज आपके साथ कितना क्रूर व्यवहार कर ही है?‘‘
उनका बैग लगा देखकर नैना मुस्करायी। ‘गुड। बेरी गुड। आपको इंडिया चले जाना चहिए। आपको सेपरेट रहना चाहिए। कब तक आपका बेटा आपको ढोता रहेगा।‘‘
इनकी जिंदगी का मकसद केवल लड़ना एक दूसरे को नीचा दिखाना और आपस में घृणा करना रह गया है। उनके जीवन में तो कभी ऐसा मौका नहीं आया कि पति ने गालियाँ दी हों या उन्होंने कभी किसी भाई बहिन या रिश्तेदार को कुछ करने के लिए मना किया हो फिर ये नैना कहाँ से आ गयी हमारे खानदान में।
वे दोनों आपस में बात नहीं कर रहे थे। वे भी अपने कमरे में बंद थी।
शाम को वे अकेली ही घूमने निकल आती। नैना ने अपना कुत्ता उनसे वापस ले लिया था। कुत्ता उनके पास आने के लिए तड़पता, पंजे मारकर दरवाजा खुलवाता और चुपचाप आकर उनकी गोदी में बैठ जाता। नैना उसे पकड़ती, खींचती और तरह-तरह से टार्चर करती। वे उसकी तरफ न देखती न पुकारती। वह कुत्ते को इसलिए टार्चर कर रही थी क्योंकि वह उनके पास ही रहता था।
अजीब सी घुटन थी। मन अशांत था। भयभीत था। दुःख और पछतावे से भरा था।
पति की मृत्यु के बाद बड़े बेटे ने अपने को अलग कर लिया था। वह इन दिनों बहरीन में था। बड़े की शादी टूट चुकी थी।बहू अपना बच्चा और सामान लेकर चली गयी थी और ये छोटा अपना भविष्य तलाशने के लिए यहाँ आ गया था। बड़े ने सबसे नाते रिश्ते तोड़ लिए थे। छोटे ने उनकी जिम्मेदारी ले ली थी।
बड़े को यही होश नहीं था कि माँ मरती है या जीती है। छोटे को माँ की ज्यादा चिंता थी। मैं उनको इस घुटन से बाहर निकालना चाहती थी पर यहाँ के हिसाब से उनका जीवन एकदम अलग था। शाकाहारी। भाषा की समस्या अलग। कम पढ़ी लिखी। अपने देश में किसी छोटे शहर में जाकर रह सकती है। सुकून से खा और सो तो सकती हैं। मैं कभी किसी को नहीं कहूँगी कि कोई विदेश में आये खासकर माता-पिता। उनको तो आना ही नहीं चाहिए।
‘‘डायना! हम क्या कर सकते हैं? हमें उनकी मदद करना चाहिए।‘‘
‘‘माँ, ये उनका पर्सनल मैटर है।‘‘
‘‘पर्सनल मैंटर कहकर हम इग्नोर नहीं कर सकते। वे बहुत ज्यादा परेशान है।‘‘
‘‘क्या उन्हें वापस भेज सकते है।‘‘
‘‘वो अकेली चली जायेंगी? उनका बेटा मानेगा?‘‘
‘‘पूछते हैं।‘‘
‘‘दिल्ली तक हम उनका टिकिट करवा सकते हैं। वहाँ से वे चली जायेंगी।‘‘
डायना ने तुरंत कम्प्यूटर पर टिकिट देखी आॅरलैण्डों से न्यूवार्क, न्यूवार्क से दिल्ली, दिल्ली से वे ट्रेन से जा सकती हैं।
मैं खुश थी कि जाने के नाम से राजलक्ष्मी खुश हो जायेगी। लेकिन वे दुःखी होकर मेरा चेहरा देखने लगी।
‘‘बेटे को अकेला छोड़कर।‘‘ मेरी बात सुनकर वे स्तब्ध सी रह गयी! मैंने देखा उनके हाथों में छाले पड़ गये थे। हाथ की स्किन फूल गयी थी। चैबीस घंटे उनकी नाक बजती रहती थी।उन्होंने जीवन में कभी इतना काम किया नहीं था।
‘‘आपका टिकिट हो जायेगा।‘‘ मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कब तक आप मार खाती रहोगी? नैना आपको नहीं रखना चाहती हैं आपके बेटे का जीवन नरक बन गया है।‘‘
‘‘पैसा? पैसा कहाँ से आयेगा? मेरे पास पैसा नहीं है।‘‘
‘‘बाद में देखा जायेगा। आप पैसे की चिंता न करो।‘‘
‘‘मैं आपका पैसा वापस करूँगी।‘‘
ठीक दो हफ्ते बाद की उनकी फ्लाईट थी। इस बीच उन्हें कितना समझाना पड़ा, हिम्मत दिलानी पड़ी यह मैं और डायना ही जानती थी!
डायनाऔर मुझे उनको छोड़ने जाना था। उनका बोर्डिंग टिकिट निकालना था। उन्हें एक-एक बात समझानी थी। वे बेहद घबरायी हुई थी। चिन्तित थी। दुःखी थी।
‘‘बेटा, आज मैं शर्मिला जी के साथ ग्रौसरी लेने जा रही हूँ।‘‘
जबकि आज वो वापस जा रही थी। बेटे से झूठ बोलते हुए उनकी ज़वान लड़खड़ा रही थी। आँखे डबडबा रही थी मुझे लगा कहीं वे सच्चाई न बता दें!
उन्होंने अपने कपड़े मेरे बैग में रख लिए थे।
‘‘आप रो क्यों रही हो अम्मा।‘‘
‘‘बस यूँ ही। कभी-कभी तुम्हारे पापा की याद आ जाती है।‘‘
‘‘नाटकबाज बुढ़िया।‘‘ नैना देख और सुनकर बोली।
‘‘तुम अपना ध्यान नहीं रख रहे हो। अपना ध्यान रखो।‘‘
‘‘उस चुड़ैल के मारे कैसे ध्यान रखूँ।‘‘
‘‘अपनी भाषा सुधारो बेटा।‘‘
‘‘उसकी गालियाँ नहीं सुनी आपने?‘‘
‘‘आप कब जा रही हो?‘‘ नैना पास आकर पूछने लगी।
‘‘तू कौन होती है पूछने वाली।‘‘बेटा तमककर बोला।
‘‘अब आपको जाना चाहिए।‘‘ नैना निर्दय होकर पूछ रही थी।
‘‘मुँह बंद कर।‘‘ बेटा फिर चिल्लाया।
डायना और मैं उनको एयरपोर्ट छोड़कर आये…..। मैं मन ही मन डर रही थी। अगर वो सही जगह नहीं पहुँची तो?रास्ते में कुछ हो गया तो? उनका बेटा मेरी जान ले लेगा। मैं उन्हें मैसेज करती जा रही थी। आगे का प्रोग्राम समझाती जा रही थी। डायना मेरी घबराहट को समझ रही थी। मेरे कंधों को थामे वह दिलासा दे रही थी। वो अब फ्लाईट में थी।
और इधर उनका बेटा मेरे दरवाजे पर खड़ा था।
‘‘अम्मा। आपके साथ गयी थी?‘‘
‘‘हाँ, वो चली गयी।‘‘
‘‘कहाँ?‘‘
‘‘इंडिया। अपने गाँव।‘‘
‘‘आंटी, मजाक मत करिये। बुलाइए उन्हें।‘‘
‘‘सच कह रही हूँ। तुम दोनों के झगड़ों से तंग आकर चली गयी।‘‘
‘‘आपने जाने दिया, कैसे? क्यों! मुझसे बिना पूछे! आपने हिम्मत कैसे की?‘‘
‘‘टिकिट करवाकर, तुम दोनों के टार्चर से बचाने के लिए।‘‘
‘‘वो यहाँ की भाषा तक नहीं जानती। कहाँ जायेगी? ये क्या किया आपने आण्टी मेरी माँ को कुछ हो गया तो मैं आपको माफ नहीं करूँगा।‘‘
‘‘कोई तो होगा वहाँ?‘‘
‘‘कोई भी नहीं है।‘‘ बेटा एकदम हताश हो गया था।
‘‘वो अपनी माँ के गाँव जाने का बोल रही थी।‘‘
‘‘पर उनकी माँ तो हैं ही नहीं।‘‘
‘‘किसी आश्रम में रह लेंगी।‘‘
‘‘आपने ठीक नहीं किया आंटी। आप डिसीजन लेने वाली होती कौन हैं?‘‘
‘‘क्या ठीक नहीं किया। यहाँ जो मार खा रही थी। गालियाँ खा रही थी। खाने को मिल नहीं रहा था और चैबीस घंटे का डर, तुम्हारी चिंता क्या इसलिए उन्होंने अपना प्लाॅट बेचा था। जमीन बेची थी। सब कुछ छोड़कर यहाँ आई थी?‘‘
आंटी!आप मुझे बता तो देती।‘‘ वो अब बुरी तरह से घबड़ा रहा था। बार-बार फोन लगा रहा था।
अम्मा। आप बिना बताये कैसे चली गयी…। उसकी आँखों से टप-टप आँसू टपक रहे थे। अभी भी अम्मा मेरे लिए खाना बनाती थी। मेरे सिर में तेल लगाती थी।‘‘
‘‘आराम से पहुँच जायेंगी। चिंता मत करो। एयरपोर्ट पर सब मदद कर देते हैं।वहाँ चैन से खा तो सकेगी। सो तो सकेगी। अपने परिचितों के बीच आ-जा सकेगी। यहाँ तो कैद होकर रह गयी थी।‘‘
‘‘पैसे भी नहीं थे उनके पास।‘‘
‘‘थे, पैसे थे।‘‘
‘‘आपने दिए?‘‘
‘‘हाँ।‘‘
अब उससे बैठा नहीं गया वो अपने फ्लैट की तरफ तैश मेंआकर चल दिया।
‘‘तुझे स्पेस चाहिए था न ले अपना स्पेस।‘‘ वह पागलों की तरह सामान फेंक रहा था। रो रहा था।
‘‘पूछती थी न बार-बार। बोलती थी नाकब जा रही हो इण्डिया। चली गयी वो। अकेली। बिना बताये। मेरी माँ को कुछ हो गया तो मैं तुझे जान से मार दूँगा।‘‘
नैना सन्न। उसका चेहरा देखती रह गयी। तभी उसने देखा चाय के डिब्बे में, जो नैना कभी भी नहीं खोलती थी (क्योंकि वह चाय नहीं पीती थी) एक परचा रखा है। उसने परचा खोला। अम्मा का लिखा पत्र था-‘बेटा। बिना बताये जा रही हूँ। चिंता मत करना। आराम से पहुँच जाऊँगी। एक न एक दिन तो अकेले आना-जाना सीखना था।‘
नैना को मेरे आने और यहाँ रहने से तकलीफ थी उससे तुम दोनों का जीवन नरक बनता जा रहा था। मैं भी यहाँ हमेशा के लिए नहीं रह सकती। वहाँ रहती थी तो मन तड़पता था तुम्हारे पास आने के लिए पर यहाँ आकर लगा कि मेरा जीवन एक पार्क एक फ्लैट में कैद हो गया है। एकमात्र झूला मेरे बैठने का स्थान बन गया था। मैंतुम्हारे मोह में भूल ही गयी थी कि जीवन में एक समय ऐसा आता है जब सबको अपना जीवन अलग-अलग ढंग से जीना पड़ता है। नियति सब कुछ तय कर देती है। पहले मैं बहिन के पास गयी वहाँ उसके पति का व्यवहार नहीं जमता था। वह सुबह से चिल्लाता बहिन को नीचा दिखाता फिर अपेक्षा करता कि मैं हूँ तो सब कुछ लाऊँ जो कि मैं लाती भी थी। पैसों पर नजर रहती थी। लगा ज्यादा दिन रहना ठीक नहीं। अपने भाई के घर गयी वहाँ मेरे लिए कोई जगह नहीं थी। न सम्मान था। लगा जितनी जल्दी लौट सकूँ लौट आई थी फिर तुम्हारे पास आ गयी कि दुनिया गयी भांड़ में मेरा बेटा औरमेरी बहू तो हैं। पर नैना का बदला हुआ रूप देखकर गहरा धक्का लगा। पापा की मौत का सदमा तो झेल लिया पर तुम्हारी हालत सहन नहीं हुई। औलाद का दुःख माँ के लिए असहनीय होता है। अब वहाँ जाकर नये सिरे से अपना जीवन शुरू करूँगी। अपना मकान होगा। छोटी-मोटी गृहस्थी जैसे सन्यासियों की होती है। अब घूमने का बहुत मन हो रहा है। तमाम एजेंसी घुमाने के लिए ले जाती है। उम्र के हिसाब से, हर उम्र के लोग मिल जाते हैं। पहले डरती थी अकेले यात्रा करने में पर देखों इस बार सारा डर मन से निकल गया।
अब भारत भ्रमण करूँगी। पहुँचकर बात करूँगी। जिस माँ ने तुम्हारे सुखी होने, खुश रहने के सपने देखे थे वही माँ तुम्हारे दुःख का कारण कैसे बन सकती है! आराम से रहना बेटा। तुम्हें मेरी खातिर, अपनी माँ की खातिर ठीक रहना है, मजबूत बनकर। जब तुम्हें मुझसे मिलने का मन करे चले आना। वहाँ आकर जीवन की, रिश्तो की सच्चाई समझ सकी। यह भी तय कर सकी कि सिर्फ अपना सही सच्चा होना काफी नहीं है, सामने वाले का वैसा होना भी जरूरी है और हर औरत का अपना एक कमरा जरूर होना चाहिए चाहे वह किराये का ही क्यों न हो। जहाँ वह अपनी मरजी का जीवन जी सके। हम अपनी-अपनी जगह खुश रहें…। भले ही दूर हों। तुम्हारी-‘‘अम्मा‘‘
उर्मिला शिरीष
503, ऑर्चिड, रूचिलाईफ स्केप, जाटखेड़ी
होशंगाबाद रोड भोपाल, म.प्र. (भारत)
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