सोनी पाण्डेय की कविताएँ रोजमर्रा के जीवन अनुभव से उपजी कविताएँ हैं जो हमें उन स्त्रियों के पास ले जाती हैं जो बिखरी हुई चीजों को सहेजती और संवारती रही हैं। हिन्दी कविता में स्त्री का विद्रोही स्वर बहुत अधिक देखने को मिलता है लेकिन इस कवि के यहाँ स्त्री ठहरकर सोचती हुई और बिगड़ी हुई चीजों को बनाती हुई दिखती है। यहाँ स्त्री भी एक मनुष्य है जिसे घर और परिवार की जरूरत है और उसे बेहतर और अपने रहने लायक बनाने की कोशिश भी है। स्त्री मन की सहजता कवि को सहज और बोधगम्य भाषा और शिल्प की ओर लेकर गया है जो रेखांकित करने वाली बात है।
अनहद कोलकाता पर आइए पढ़ते हैं युवा कवि सोनी पाण्डेय की कविताएँ। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
एक औरत के चले जाने के बाद
एक औरत के चले जाने के बाद
कुछ भी नहीं बचता घर में
सिवा इसके कि
वह होती तो इतना कुछ बिखरा नहीं होता
वह होती हैं
समेटने के लिए
उन्हें नहीं समेटता कोई जी भर
न नइहर , न ससुरा
कहीं नहीं मिलती हैं वह
पूरी तरह
टुकड़ों में बटीं औरतें
हमेशा एक अधूरे ख़त की तरह
अलिखित ही मिलीं।
लौटना
वह लौट आती हैं
बार – बार
जबकि जानती हैं कि
उनका लौटना उतना ज़रूरी नहीं
जितना जरूरी है घर में अन्न।
बेरंग दीवारें
एक खाली दीवार जिसके ऊपरी सतह से झड़ रहा हो प्लास्टर
चींटियों ने बरसात में बनाकर घरौंदा कर दिए हों अनगिन छेद
किसी बुजुर्ग ने ठोंक कर कील किए हों सैकड़ों सुराख
वह अपनी कहानी खुद ब खुद कहने लगता है
उस घर में कुछ हो न हो
मौन का मातमी धुन आप हमेशा सुन सकते हैं नेपथ्य से
कुछ ज़िन्दा लोगों की गवाहियाँ दे सकता है बर्तनों का खटर-पटर
पैरों के पदचाप
लोहे की जंग लगी अलगनी पर सूखते कुछ कपड़े कर सकते हैं चुगली
किन्तु नहीं मिलेगी आपको उस घर में एक चहकती हुई औरत
क्योंकि औरतें बेरंग दीवारोंवाले घर में ज़िन्दा ही नहीं रह सकतीं
वह कुछ भी करके सजा ही देती हैं बेरंग दीवारों को
ज़रूर उस घर में कुछ औरतें इस ख्वाहिश में मरी होंगी कि
एक न एक दिन कुछ बदलेगा यहाँ
सुनी जाएगी एक स्त्री की आवाज़ उस घर में
यकीन मानिए,
जिस घर में बोलती हैं औरतें
सुनते हैं मर्द
उस घर की दीवारें बेरंग नहीं होतीं।
पीठ
मुझे जब- जब उसकी ज़रूरत रही
उसकी पीठ मेरी तरफ मिली
जबकि सारी- सारी रात
बार-बार टटोल लेती हूँ उसकी धड़कने
उसकी साँसो के आरोह- अवरोह को देख तसल्ली से मूँद लेती हूँ आँखें
उसकी पीठ मिलती रही हर बार
उस वक्त जब कुछ सीझा था मन में
कुछ टूटा था छनक कर
छूटा था कोई स्नेहिल हाथ
यह अपनी-अपनी किस्मत है जो मिलता है कोई
आमने -सामने
अपने सबसे दुखद या सुखद क्षण में
सुनते हुए मौन की भाषा
चूम लेता है माथा
यह अपने – अपने किस्से रहे
पेट और पीठ के बटवारे में हर बार मिलता रहा पीठ
सबने वक्त पर पीठ दिखाया
और नम आँखों से विदा होता रहा प्रेम जीवन से
क्योंकि औरतों के हिस्से कभी प्रेम का चेहरा ही न रहा
जो भी मिला जल्दी ही बदल गया पीठ में।
हमारा होना किसी चौराहे का मेला नहीं
तारीखें उतरने लगती हैं दबे पाँव
धीरे -धीरे ज़िन्दगी के चोर दरवाज़े से
सीढ़ियों पर पड़े वक्त के निशान
बार -बार लौटा ले जाते हैं स्मृति की गलियों में
हम बनाते हैं एक दिन
एक घर
छोटा या बड़ा
घर की दीवारों पर उकेरतें हैं कुछ चित्र
चित्रों में कैद पहेली सी औरतें
नहीं सुलझती हैं उलझी डोर सी
उन्हें सुलझाने से पहले
तोड़ते हैं बार -बार
वह मारती है मन
मारती है सपने
भूल जाती है प्रेम करना
हँसते हुए रोती हैं
रोते हुए हँसती हैं
किसी बहेलिए से मत पूछना
किसी चिड़िया के कटे पंखों की पीर
उनकी जात बहेलिया
हमारी चिड़िया
पंख भर उड़ान
थोड़ा सा आसमान
मुट्ठी भर सपने
थोड़ा सा प्रेम
बस इतनी भर चाहत रही
घर के दरवाज़े से निकलते हुए
आँचल में कस कर बाँध लेना चाहती हूँ तारीखों को
इन्हीं के बीच ठहरी हूँ
बचपन,यौवन और बढ़ती हुई उम्र के बीच
मेरा होना किसी चौराहे का मेला नहीं
एक ऋतु गीत है
जिसे लिख कर पीले पड़े पन्नों में
सहेज लेती हैं औरतें।
जब रोने का मन हो
जब रोने का मन हो
रो लेना चाहिए जी भर
खोल कर पिछले दरवाज़े घर के
निकल जाना चाहिए उस ठौर
जहाँ दो पल सुकून मिले
जब रोने का मन हो
रख कर सिर उस कंधे पर
रो लेना चाहिए
जहाँ कोई सवाल -जवाब न हो
उस दोस्त के गले लग रो लेना चाहिए जी भर
जो बिना कुछ कहे सब समझता हो
रोना ज़रूरी नहीं कि मजबूरी हो
रोना ईलाज भी हो सकता है
अक्सर मन की बीमारी से मुक्ति रो कर मिलती है
मुझे तलाश है
घर के पिछले दरवाज़े की
जो अब बनते ही नहीं घरों में
एक मजबूत कंधे की
जो टिकते ही नहीं इन दिनों
एक दोस्त की
जो कब बदल लें फितरत
पता नहीं
भारी मन लिए
मैं रोना चाहती हूँ
अबकी बरसात में।
शिकार
वह निकले हैं शिकार पर
बिना लाव लश्कर के
बिना हथियार के
उनके तन पर झक्क उजले कपड़े
वह उजाले में अन्धेरे की सत्ता पर काबिज़
निकले हैं शिकार पर
उनका कारवां जिधर से गुज़रा
खेत ख़ून से रंग गये
बस्तियों से चीखेंं सुनाई देने लगीं
वह शिकारी हैं
आदमख़ोर
मारते हैं आदमी को
करते हैं आदमी को
आदमी के खिलाफ़
इनकी सत्ता इन्सानों की कब्र पर सजती है।
तुमसे प्रेम करते हुए
चुटकी भर नमक सा तुम्हारा प्रेम
मैंने पकाया जतन से इस प्रेम को
भूख के हर एक कतरे में रख
फटकती, पछोरती ,बीनती,बनाती रही
अदहन और आँच पा खदबदाता रहा यह
देखना एक दिन भाप बन मिलूँगी तुमसे
इन्तज़ार करना बारिशों के मौसम का
बरखा की हर एक बूँद में समाई मैं
मिलूँगी तुमसे
तुम्हारे माथे को चूम कर लौट आऊँगी
बस इतनी ही चाहत है मिलने की
तुमसे प्रेम करते हुए
खोलती हूँ बचपन की गठरी
कुछ रंगबिरंगी काँच की चूड़ियाँ
रंगीन पत्थरों के टुकड़े
पेंसिल के छिलके
मोर का पंख
एक सूखा हुआ गुलाब डायरी में
कुछ पुराने गीत याद आए
बारिशों का मौसम
छत पर भींंगना
लजा कर लौट आना घर में
बस इतना ही है प्रेम मेरे लिए
तुमसे प्रेम करते हुए
बादलों के घिरते
तुम्हारे आने की आहट पा
कूकती है कोयल
पड़ जाता है नीम पर झूला
छेड़ देती हैं सखियाँ कजरी की तान
तुम्हारा लौटना बरखा में
धरती का बिहस कर खिलना हो जैसे
सब हरा- भरा हो जाता है
भर जाते हैं ताल -तलैया
हरी भरी चूड़ियों सी खनकती
हँसती ,इठलाती
गाती,मुस्कुराती
मैं लौटती हूँ सोख कर सारी जलन धरती की
तुमसे प्रेम करते हुए..।
****
परिचय-
सोनी पाण्डेय
जन्म- बारह जुलाई को उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ नाथ भंजन में।
शिक्षा-एम.ए.(हिन्दी),बी .एड
पी .एच. डी.(निराला का कथा साहित्य:कथ्य और शिल्प)
कथक डांस जूनियर डिप्लोमा
प्रकाशित पुस्तकें –
कहानी संग्रह-
1-बलमा जी का स्टूडियो
2- तीन लहरें
3- मोहपाश
कविता संग्रह-
1-मन की खुलती गिरहें
2- आखिरी प्रेम -पत्र
आलोचना-
1- निराला का कथा साहित्यः वस्तु और शिल्प
ईमेल – pandeysoni.azh@gmail.com
ब्लाग – www.gathantarblog. com संपर्क – 9415907958