ललन चतुर्वेदी के नए संग्रह यह देवताओं के सोने का समय है का केन्द्रीय भाव देवता नहीं बल्कि आदमी है। वह आदमी जिसे होना तो आदमी था लेकिन वह किसी अनाम जीव की शक्ल में ढलता जा रहा है। आदमी होना इस समय की सबसे बड़ी चिन्ता है याकि होनी चाहिए। होड़ यहाँ आदमी बनने की नहीं वरंच देवता होने की है। यह कठिन समय है और इसी कठिन समय के बीच आया है समय के प्रति सचेत और मुकम्मिल कवि ललन चतुर्वेदी का संग्रह। संग्रह का शीर्षक ही समय पर एक तीखा व्यंग्य है।
उक्त संग्रह का स्वागत करते हुए आइए पढ़ते हैं संग्रह की कुछ चुनी हुई कविताएँ। संग्रह लिटल बर्ड प्रकाशन से छपकर आया है और अमेजन पर बिक्री के लिए उपलब्ध है। कवि को बधाई और आपसे आग्रह कि आप अपनी अमूल्य राय जरूर लिखें।
- संपादक
आदमी बने रहना
बर्फ तो नहीं हो
कि तनिक ताप में पिघल जाते हो
पानी तो नहीं हो
कि थोड़ी सी तेज आँच पर उबल जाते हो
हवा तो नहीं हो
कि बवंडर बन सब को ले लेते हो चपेट में
आदमी हो तो आदमी की तरह रहो
आदमी हो तो सीखो
पेड़ की तरह धूप-आतप सब कुछ सहना
अपने इरादे पर ठोस बने रहना
इस लायक बने रहो
कि कोई पूछे कि कौन हो तुम
तो पानी-पानी मत होना
पूरे आत्मविश्वास से खुद को आदमी कहना
आदमी हो तो आदमी बने रहना।
पढ़े-लिखे होने का मतलब
जितने लोग बोल रहे हैं
उससे कहीं अधिक लोग चुप हैं
बोली और चुप्पी दोनों पढ़ी जाने वाली चीजें हैं
बशर्ते हमें पढ़ने आता हो
कुछ लोग कपड़े पहनने के बावजूद नग्न नजर आते हैं
बोलना किसी को कठघरे में खड़ा कर सकता है
तो चुप्पी भी किसी को नंगा कर सकती है
ज्यादातर लोग बिगाड़ के डर से ईमान की बातें नहीं बोलते
खूँटे में बंधा आदमी जब तोते की तरह पाठ करता है
तो उसका ध्यान बोलने पर नहीं अपने पगार पर होता है
जब उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है
तो लोर से भींग जाता है उसका तकिया
लेकिन सबेरा होते ही हैंगर में एक बार फिर अपनी आत्मा टाँग
झकास कुर्ता पहन करता है घंटों तक तोतारामी बकवास
हद तो तब होती है जब स्वयं को गर्व से प्रतिबद्ध घोषित करने वाली कलम
किसी भूखे के लिए एक शब्द नहीं लिखती
और सिर्फ एक पायदान आगे बढ़ने के लिए
किसी के प्रशस्ति गान में खर्च कर देती है पूरी स्याही
शब्दों के साथ कोई पहली बार नहीं हुआ है ऐसा खिलवाड़
हाँ, आवृत्ति बढ़ गई है इन दिनों
कोई फर्क नहीं रह गया प्रशंसा या निंदा में
जब कोई किसी की तारीफ के पुल बाँध रहा होता है
तो वह सजग श्रोता के कानों में पहुँचते ही तब्दील हो जाती है निंदा में
सुधी पाठक समझ लेते हैं इस प्रशंसा का निहितार्थ
अनपढ़ का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है
पर जो स्वयं को खूब पढ़ा-लिखा मानते हैं
उन्हें पढे -लिखे होने का मतलब समझना ज्यादा जरूरी है ।
बेटिकट यात्री की तरह
पता नहीं क्या हूँ
गाँव वाले नागरिक समझते हैं
शहर वाले गँवार
स्वतंत्र देश का नागरिक हो जाने से ही नहीं कोई हो जाता है स्वतंत्र
अपने घर में रहते हुए भी होता रहता है परतंत्रता-बोध
सबको अपनी निजता की चिंता है
अबोध बालक सा पूछता है मन
सामासिक संस्कृति पर कठिन सवाल
समाज के सामने यह प्रश्न चिह्न है
घर से क़दम निकालने के पहले सोचना पड़ता है सौ बार
जरूरी कागजात का करना पड़ता है दरियाफ्त
पिताजी चलने के पहले पूछते हैं एक अनिवार्य प्रश्न
रख लिए न ड्राइविंग लाइसेंस,वोटर,आधार और पैन कार्ड ?
मैं झल्ला कर कहता हूँ-
रख लिया है क्रेडिट और डेबिट कार्ड भी
आश्वस्त हो लेता हूँ कि मोबाइल जेब में ही तो है?
मेरी आश्वस्ति के बाद पिता भी हो जाते हैं इत्मीनान
फिर चलते वक्त कहते हैं – गाड़ी जरा धीरे चलाना
बाहर निकलते ही हो जाता हूँ अतिरिक्त सावधान
लोगों से खुलकर बातें नहीं करता
न जाने कौन सी बात पर हो जाए कोई नाराज़
बहुधा लगता है निजता और बड़प्पन
मिलकर पैदा कर रखे हैं अनेक नाजायज औलाद
जिनका सेनापति भय, है चतुर्दिक तैनात
कैसे कर दूँ स्थगित अपनी यात्रा
निकलना तो पड़ेगा ही
निष्पादित करने हैं जीवन- जगत के विविध काम
शाम ढलने के पहले घर आ जाना – पिता देते हैं हिदायत
मेरी दाँयी जेब में मौजूद है टिकट
और बाँयी में नागरिकता प्रमाण पत्र
तमाम कागजात के बावजूद
भटक रहा हूँ बेटिकट यात्री की तरह।
जूता का आत्मकथ्य
अकेला होने की कोई कीमत नहीं थी
हमेशा बिलकुल अपने ही नापजोख के
अपने ही शक्ल-सूरत के साथी की जरूरत थी
यह इतना मुश्किल था कि समझ से परे था
जब जोड़ा बना तो हो गया बेजोड़
बता नहीं सकता मैं से हम बनकर हुआ कितना खुश
मगर खुशियों की यात्रा नहीं रही कभी निरापद
अपना अभीप्सित कभी नहीं रहा
किसी के पैरों की शोभा बढ़ाना
हमें करनी थी काँटे -पत्थरों से पाँवों की सुरक्षा
निभाना था इनसानों के सफर में आखिरी साँस तक साथ
पूरी ज़िन्दगी बीता दी ईमानदारी से
पैरों की प्रतीक्षा में चौखट से रहकर बाहर
जीवन भर चरणों में पड़े रहने के बावजूद
देहरी के भीतर कभी नहीं जा पाया
बाहर की यात्रा करते-करते अकसर
हमारे मन में भी अंदर की यात्रा का खयाल आया
जिसे फलीभूत होने की असंभावना देखते हुए
प्रतीक्षा सूची के अंत में अपना नाम पढ़कर होता रहा खुश
असंख्य लोगों के सफ़र सफल हमारे बलबूते रहे
फिर भी हम अजनबी सा उनके पाँव के जूते रहे।
रोशनी ढोती औरतें
उसने हजारों बार देखा है
बहारों को फूल बरसाते हुए
पर उसकी जिंदगी में कभी बहार नहीं आई
उसने हजारों बार पाँवों को थिरकते देखा है
जब किसी का पिया घर आया
पर उसके पाँव कभी थिरक नहीं पाए
उसने हजारों बार सुनी है
शहनाई की मादक-मधुर धुन
पर उसके लिए कभी बजी नहीं शहनाई
यहाँ तक कि उसके जन्म पर
किसी ने थाली नहीं बजाई
इस दुनिया में उसके आने का
कोई अर्थ नहीं था
दुनिया से उसके कूच कर जाने की
कहीं कोई चर्चा नहीं होगी
जब तक चलने भर की ताकत
बची रहेगी उसके पाँवों में
वह चलती रहेगी नंगे पाँव
अपने सिर पर रोशनियों का बोझ उठाए
और अपने अंतस में अंधकार छुपाए।
* बारात में बैंड बाजे के साथ सिर पर ट्यूबलाइट लेकर चलने वाली स्त्रियों को देखकर
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।