समकालीन कविता के एक महत्त एवं जरूरी कवि, कथाकार, आलोचक एवं चिंतक जितेन्द्र श्रीवास्तव का आज जन्म दिन है। अनहद कोलकाता की ओर से महत्त कवि को ढेरों बधाइयाँ एवं लंबे सृजनात्मक जीवन के लिए अशेष शुभकामनाएँ।
समय के बहुचर्चित कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि सदियों पुराना एक मनुष्य अपनी मनुष्यता को बहुत संजीदगी, बहुत प्यार और बहुत ही आत्मियता से पुकार रहा है। कवि की कविता और कहन का यही मतलब समझ में आता है कि वह चारों ओर से एक ऐसे समय से घिरा हुआ है जो उसके स्वप्न सरीखा नहीं है, यह समय शोर और चीखों में बदल गया है। तुमकुही कोठी का मैदान समय का ग्रास बन चुका है और वहाँ अब प्रतिरोध की आवाजें नहीं गूँजती। कवि वही मनुष्य है जो तुमकुही में होने वाले प्रतिरोधी सभाओं को भूलना नहीं चाहता – उसका कवि मन दुनिया के हर कोने में उस मैदान के होने ही नहीं वरंच उसके होने को बचाने की तीव्र उत्कंठा में है। वह जानता है कि मनुजतंत्र में ऐसे जगहों की कितनी जरूरत है।
कवि प्रेम में होते हुए भी मनुष्यता की भाषा को नहीं भूलता। वह तो चिडियाँ की भाषा का भी इस तरह अनुवाद करना चाहता है कि यह धरती थोड़ी और सुंदर और चराचर जगत के लिए मुआफिक बने। यदि कवि की भाषा में ही कहा जाय तो वह प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचने के लिए हर जगह प्रतिबद्ध है। एक कवि और अंततः एक मनुज के रूप में उसकी मंशा साफ है – मेरी इच्छा है / मेरी दुनिया के लोग जान पाएं सृष्टि के सबसे सुंदर गीतों का मर्म।
दूसरी बात कि कवि की कविताओं में अपने छूट गए प्रेम के लिए बहुत जगह है और वह इसलिए है कि वह जानता है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम का रिश्ता ही अंततः इस धरती को बचाने के काम आएगा। कवि के ही शब्दों में – हमारी इच्छा है कि मनुष्य जिस तरह विकल है अपने जनतंत्र के लिए/
वह सम्मान करे हमारे पुरातन लोकतंत्र का / हम मनुष्य नहीं कि ईर्ष्या और द्वेष में छोड़ दें अपने कंठ में बसी आदिम प्रार्थना। वह मनुष्य की मनुष्यता पर सवाल उठाता है उन जीवधारियों के मार्फत जिनका धरती पर उतना ही हक है जितना कि हम मनुष्यों का।
बहर हाल आइए पढ़ते हैं अनहद कोलकाता पर समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर जितेन्द्र श्रीवास्तव की कुछ कविताएँ। आपकी अमूल्य राय हमें हमेशा प्रेरणा देती रहेगी।
– संपादक
तमकुही कोठी का मैदान
तमकुही कोठी निशानी होती
महज सामन्तवाद की
तो निश्चित तौर पर मैं उसे याद नहीं करता
यदि वह महज आकाँक्षा होती
अतृप्त दिनों में अघाए दिनों की
तो यक़ीनन मैं उसे याद नहीं करता
मैं उसे इसलिए भी याद नहीं करना चाहता
कि उसके खुले मैदान में खोई थी प्राणों-सी प्यारी मेरी सायकिल
सन् उन्नीस सौ नवासी की एक हंगामेदार राजनीतिक-सभा में
लेकिन मैं उस सभा को नहीं भूलना चाहता
मैं उस जैसी तमाम सभाओं को नहीं भूलना चाहता
जिनमें एक साथ खड़े हो सकते थे हज़ारों पैर
जुड़ सकते थे हज़ारों कन्धे
एक साथ निकल सकती थीं हज़ारों आवाज़ें
बदल सकती थीं सरकारें
कुछ हद तक ही सही
पस्त हो सकते थे निज़ामों के मंसूबे
मैं जिस तरह नहीं भूल सकता अपना शहर
उसी तरह नहीं भूल सकता
तमकुही कोठी का मैदान
वह सामन्तवाद की क़ैद से निकलकर
कब जनतन्त्र का पहरूआ बन गया
शायद उसे भी पता न चला
ठीक-ठीक कोई नहीं जानता
किस दिन शहर की पहचान में बदल गया वह मैदान
न जाने कितनी सभाएँ हुईं वहाँ
न जाने किन-किन लोगों ने कीं वहाँ रैलियाँ
वह जन्तर-मन्तर था अपने शहर में
आपके शहर में भी होगा या रहा होगा
कोई न कोई तमकुही कोठी का मैदान
एक जन्तर-मन्तर
सायास हरा दिए गए लोगों का आक्रोश
वहीं आकार लेता होगा
वहीं रंग पाता होगा अपनी पसन्द का
मेरे शहर में
जिलाधिकारी की नाक के ठीक नीचे
इसी मैदान में
रचा जाता था प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र
वह ज़मीन जो ऐशगाह थी कभी सामन्तों की
धन्य-धन्य होती थी
किसानों-मजूरों की चरण-धूलि पाकर
समय बदलने का
एक जीवन्त प्रतीक था तमकुही कोठी का मैदान
लेकिन समय फिर बदल गया
सामन्तों ने फिर चोला बदल लिया
अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहाँ कोठियाँ हैं, फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है
और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतन्त्र में कचहरी मृगतृष्णा है ग़रीब की ।
साथ
गंतव्य पर पहुँचकर
ट्रेन से
उतरते हुए उसने कहा मुझसे-
ध्यान से देख लो
कोई चीज छूट तो नहीं रही यहाँ
मैंने धीरे से कहा-
यहाँ एक रात छूटी है
जिसमें हम साथ-साथ थे निर्विघ्न निरापद
मैं चाहता हूँ ले चलूँ उसे
पर कैसे!
उसने गौर से देखा मुझे
उसके होठों पर उभर आई एक गहरी मुस्कान
फिर मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा उसने-
चलो, इस रात का उजाला ले चलें
थोड़ा रख लो तुम अपनी पुतलियों में
थोड़ा सा मैं संजो लेती हूँ अपनी आत्मा में !
मैंने शहद पगे अचरज से देखा उसे
निहाल हुआ प्रकृति के जादू पर।
ग़ज़ल
ये धम सा हुआ है या भ्रम सा हुआ है
जब उसने छुआ है दुख कम सा हुआ है।
जाने क्या कहा था जो ग़म सा हुआ है
वहम न पाल कोई दिल नम सा हुआ है ।
कुछ तो बात होगी जो ढम सा हुआ है
तुमको ख़बर थी क्या जो घम सा हुआ है ।
मन की बात सुन लो कुछ झम सा हुआ है
फ़िक्र कुछ तो करो वो बेदम सा हुआ है ।
धीरे -धीरे रीतती है करूणा
धीरे -धीरे रीतती है करूणा
धीरे-धीरे संवेदनाएं बदलने लगती हैं प्रस्तर में
धीरे – धीरे सूख जाती है भावुकता की नदी
धीरे – धीरे मनुष्य परिवर्तित हो जाता है किसी यंत्र में
धीरे – धीरे वह सिर्फ जीने के लिए जीने लगता है
लोगों को यह भ्रम देते हुए कि
वह अब महज अपने लिए जी रहा है
पर कोई नहीं देखता
कि धीरे -धीरे
अक्सर वे लोग ही सोख लेते हैं उसकी करूणा,संवेदना और भावुकता
जिनके लिए खुद को दांव पर लगाता रहा वह ।
प्रार्थनाओं का पानी
शाम के चार बजे हैं
मेरा अध्ययन कक्ष भरा है धूप से
किताबें मुस्कुरा रही हैं मेरी ओर देखकर
मैं बीच-बीच में निहार रहा हूँ चिड़ियों को
वे नीम के पेड़ पर उछलती- कूदती
आइस पाइस खेल रही हैं
मैं चाहता हूँ उनकी आवाज का अनुवाद करना
मेरी इच्छा है
मेरी दुनिया के लोग जान पाएं सृष्टि के सबसे सुंदर गीतों का मर्म
पर इनकार कर दिया है चिड़ियों ने
यह मंजूर नहीं दुनिया के आरम्भिक वास्तुकारों को
चिड़ियों ने कहा है अपने संदेश में
कि जरूरी नहीं कि आप समझें हमारी भाषा के अंग प्रत्यंग
समझें उसका रूप-रंग
हमारी इच्छा है कि मनुष्य जिस तरह विकल है अपने जनतंत्र के लिए
वह सम्मान करे हमारे पुरातन लोकतंत्र का
हम मनुष्य नहीं कि ईर्ष्या और द्वेष में छोड़ दें अपने कंठ में बसी आदिम प्रार्थना
हम सब चाहती हैं
कि कुछ भी और नया सीखने से पहले
मनुष्य सीखें प्रार्थनाओं के पानियों को पहचानना।
प्रेम के अस्थि-फूल
प्रेम के कोमलतम क्षणों में किए गए वादे
तोड़ते और बिसराते हुए क्या कोई बेचैनी नहीं होती होगी
तोड़ने और बिसराने वाले के भीतर
प्रेम करने वाला कोई इतना कठकरेज तो नहीं होता होगा
कि जिसे देखकर कभी पिघल जाती रही हो देह
उसे छोड़ते-बिसराते हुए भीतर कुछ पिघले ही न
कहीं कुछ भहराता तो होगा भीतर
रक्त में होती तो होगी हलचल
लेकिन राह रोककर खड़ी हो जाती होंगी
दुनिया, भविष्य और नए जीवन की चिन्ताएं
यह प्रेम भी बहुत रहस्यमय है
बहुत ज़ालिम है इसकी रहस्यमयता
इसमें जो छूट जाता है पीछे भग्न-हृदय
उसी पर होती है स्मृतियों को बचाये और जिलाए रखने की जिम्मेदारी
वह जीवन भर चुनता रहता है अपने प्रेम के अस्थि-फूल।
समय से संश्लिष्ट
समय कई तरह से बदलता है
आपकी उम्मीद से परे बिल्कुल परे भी
जो देह लता की तरह लिपट जाती है किसी देह से
एक दिन उसी देह के स्पर्श मात्र से
स्वयं को अपवित्र महसूस करने लगती है
जो आज फूल है
कल काँटे से अधिक चुभन भी हो सकती है उसमें
समय को आज तक बाँध नहीं पाया कोई
रोक भी नहीं पाया उसके बदलाव को कोई
साधो!
समय से संश्लिष्ट कोई दूसरी किताब नहीं है दुनिया में।
जीवन का तर्क
रात भर नींद नहीं आई
रात भर कोई सपना नहीं आया
न आया ऐसा कोई विचार
जिससे खुशगवार हो जाए
आने वाली सुबह
बहुतों की बहुत सी रातें
कट जाती हैं इसी तरह
बहुतों की तो उम्र भी
जो लोग तय करते हैं जीवन का तर्क
अक्सर वे जान ही नहीं पाते जीवन को।
दुःख हमेशा कोई और नहीं रचता
अक्सर, आपके धूसर दिनों में
वे लोग चले आते हैं मिलने किसी पुरानी स्मृति के सहारे
जिन्हें आप भुला चुके होते हैं
या जिन्हें दिया होता है न के बराबर महत्व
बस वे लोग नहीं आते न उनके फोन ही न कोई मैसेज
जो आपके चमकते दिनों में आपकी साँस होने का भ्रम देते थे
जिस समय आप उन्हें याद कर रहे होते हैं
उस समय वे व्यस्त होते हैं
किसी और की साँस बनने के उद्यम में
दुःख हमेशा कोई और नहीं रचता
अक्सर अपने दुःखों के सर्जक हम खुद होते हैं।
नींद
आज महीनों बाद सोया थोड़ी अच्छी नींद
आज महीनों बाद अपनी सी लगी रात
वैसे भी नींद न हो तो बिखर जाती है रात
भली नहीं लगती कोई भी बात
अनमने से दिखते हैं अपने ही हाथ
प्रिये !
हर जागरण के बाद जरूरी है नींद जल की तरह
हर नींद के बाद जरूरी है जागरण हवा की तरह।
इसी तरह इस धरा धाम पर
कोई कहता है
कोई सहता है
कोई नदी सा मन में बहता है
कहने को सब कुछ न कुछ कहते हैं
सहने को सब कुछ न कुछ सहते हैं
पर बाकी कुछ न कुछ रह जाता है
जिसे न कोई कह पाता है
बस सहता है चुप रहता है
इसी तरह इस धरा धाम पर
जीवन चलता है कटता है!
जीवन-समीकरण
जिन पुतलियों में कभी प्रतीक्षा होती थी मेरी
अब वहाँ कोई और रहता है
किसी की उपस्थिति से खनकता था जो मन-इकतारा
अब वह उदास रहता है
सुबह शाम का क्रम नहीं बदलता
परिस्थितियाँ बदलती हैं मन बदलता है
और धीरे से बदल जाता है जीवन-समीकरण
आज जो प्रिय है बना हुआ कंठहार
वह कल भी रहेगा इसी तरह
क्या पता?
जल्दबाजी में लिए गए निष्कर्ष हमेशा सुखद हों
यह जरूरी तो नहीं
सदियों का संचित अनुभव बताता है
कि जीवन का गणित बिल्कुल भिन्न है अंकगणित से
यहाँ चाहे जितना कर लीजिए कोशिश
दो दूनी चार नहीं हो पाता है
और कभी-कभी तो इसका परिणाम
शून्य भी आता है।
धोखे का व्याकरण
धोखे के व्याकरण में विविधता नहीं होती
कोई जटिलता भी नहीं अपवादों को छोड़कर
धोखे का एक ही व्याकरण होता है:
अपना हित।
विदा के दो शब्द
सुलेखा ओ सुलेखा!
ओ मेरी सखी पुरातन!!
मैं लौटता हूँ बार-बार स्मृतियों के सघन वन से
देता हूँ आवाज बजाता हूँ कुंडी
पर तुम नहीं खोलतीं दरवाजा
किसी खिड़की पर भी नहीं होती कोई आहट
जीते जी कोई इस तरह अनुपस्थित कहाँ होता है
जैसे तुम हो गईं मेरे जीवन में
इस तरह बिसराया जैसे कभी मिली ही न थीं मुझसे
देखो, बादल उतर आए हैं आज असमय धरती पर
उन्हें नींद आ रही है
तुम्हें भी पुकार रहे हैं शायद तुम्हारे नए स्वप्न
उन्हें आलिंगन में कसकर सो जाओ
प्रतीक्षा और उपेक्षा हमेशा से सहचर रहे हैं मेरे
कैसा तो यह समय आ गया
जब पुकार को कौन कहे, मेरी चीख भी नहीं पहुँचती तुम तक
मेरी आवाज लौट आती है उदास मुझ तक
किसी मुरझाए फूल की तरह
धिक जीवन धिक-धिक जीवन
हत भाग्य मैं!
जो पा न सका विदा के दो शब्द भी तुमसे
चलो, अब लौटता हूँ मैं भी नींद की तलाश में
शायद हो कहीं चुपचाप बैठी मेरे इंतजार में।
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जितेन्द्र श्रीवास्तव समकालीन समय के बहुचर्चित रचाकार, चिंतक एवं प्राध्यापक हैं।
संपर्कः jitendra82003@gmail.com