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Home कविता

संजय बोरुडे की कविताएँ

by Anhadkolkata
October 13, 2023
in कविता
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2
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संजय बरुडे मराठी के  एक जाने माने हुए कवि हैं । हिन्दी में भी उन्होंने बेहतरीन कविताएँ लिखीं हैं । अनुवाद के क्षेत्र में उनका काम अत्यंत महत्वपूर्ण तथा सराहनीय है । उनकी कविताओं में एक ओर महामारी की त्रासद सच्चाईयां हैं तो वहीं दूसरी ओर प्रेम और संबंधों की जटिलताएं भी हैं । अनहद कोलकाता उनकी हिन्दी की कुछ कविताओं को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है । आप सभी पढ़ें और राय अवश्य दें ।

संजय बोरुडे
संजय बोरुडे

 

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शालू शुक्ला की कविताएँ

१. पत्नी और माँ 

आप अवश्य हमारे घर आइएगा
पत्नी तो उठकर पानी नहीं देगी
हाँ, माँ जरूर देगी
आनेवाले मेहमानों का
संकेत देनेवाली
मुँह धोती बिल्ली
या छत पर चिल्लाता कौआ
देखकर माँ के चेहरे पर
खुशी झलकती है;

जोकि माँ जितनी ही
होती है अगत्यशील
गाँव की ताजा हवाएँ भूलकर
हिसाब-किताब का तूफान
दिमाग में लिए
पत्नी बैठी रहेगी
टी०वी० के सामने, सोफे पर

माँ आपसे बोलेगी सगे रिश्ते से
और आपको खाना भी परोसेगी

पत्नी शायद घूरती रहेगी
कुछ इस तरह से
जैसे किसी पसंदीदा धारावाहिक में नमक गिरा हो

आपके घर कभी न आई माँ
पूछेगी आपके परिवार का हाल ,आपकी जानी-पहचानी ममता
आप देख सकते हैं
माँ की शीतल आँखों में

फिर माँ सुनाएगी मेरे बारे में
या मेरे सहे हुए
गर्म शोलों से दिनों के बारे में
धीरे-धीरे आप भी बोलने लगोगे
बताओगे अपने बारे में

माँ के मुँह से मेरी प्रशंसा सुनकर
नापसंदीदा निगाहें डालकर
पत्नी उठकर चली जाएगी अंदर

जब आप निकलेंगे घर से

माँ आएगी चौखट तक
आपको विदा करने के लिए
आप हाथ हिलाकर
रास्ता अपनाओगे
कुछ कदम चलकर
पीछे मुड़कर फिर से
हाथ हिलाओगे
आँखों से उमड़ते
आँसुओं को रोकने की
कोशिश करते हुए….…!

२. जब कोई पुरुष स्त्री के भीतर से

क्या होता है
जब कोई पुरुष किसी
स्त्री के भीतर से
निकल जाता है?

ऐसा नहीं है कि वह  बचता है
स्री से या टालता है उसे

लेकिन भले ही वह करीब होने पर भी
ऐसा नहीं है कि
स्री उसके मन को पढ़ लेगी
ये बड़ी अलग  बात होती है

स्त्री व्याकुल हो उठती है
पर  उसके जलते दिलपर
फूंक मारने के बजाय
वह उसको भला बुरा कहती है
झगड़ती है उन लोगों के नाम से
जो उनके जीवन में नहीं होते हैं ।

पुरुष छिल जाता है,
अपने दाँत पीसता रहता है
तब तक सहता रहता है
जब तक की  खून न निकल आये

और आंखों से गर्म पानी
रोना, उन्मादी होना

पुरुष को ताने लगाते, जलाते रहना
यह देखकर कि
वह उसकी मायूसी की
भाषा नहीं समझती
पुरुष को अंदर तक ठेस पहुंचती है
और ऐसा बार बार होने से
स्त्री  पुरुष दिल से उतर जाती है…
हमेशा के लिये

पुरुष फिर भी
समायोजित कर लेता है

सब कुछ अपनी छाती पर अकेले।

३. जलना तो पड़ेगा ही ..!

खांडववन को
जो आग लगा दी है
अब भी
जल  रही है

धनवानों के इन्द्रप्रस्थ
बसाने के लिए
पेड़ों को
किसी भी समय
जलना तो पड़ेगा ही ।

४. सत्य के संबंध में दो उद्गार ।

दोस्तों ,
बाल से गर्दन चीरनेवाली
कहानियाँ
आज भी सुलग रही हैं
उस कोने के जलते चूल्हे में

तर्क कितने भी मीठे हों
आप तो मन से उतरते ही रहेंगे
भावनाओं के झागदार समुद्र को
पलकों के पीछे भी लाया भी
तो घायल सपनों पर

अपनी जीभ से रखे
नमक के भंडार
सर्जन के गगनचुंबी महल को
तोड़ते रहते  हैं …।

वास्तविकता को समझो, राजाजी
हर कोई अकेले आता है
और अकेले ही जाता है ।

स्तनों का कर देते समय
मरी पड़ी नांगेल की चिता में
अपनी जान देनेवाला पति
अब कैद सिर्फ
दंतकथाओं में ।

यहां पैसा तथा मुद्रा को
भगवान मानने वाली
एक नई दुनिया उभरी है

सत्य नहीं होती
कोई कलाबाजी या छलांग
या इन उंगलियों की थूक
उन उंगलियों पर करने की चतुराई
हमारी नस नस को
पहचाननेवाला
नहीं होता है इतना कच्चा

सत्य के लिए
किसी भी साक्रेटिस को
जहर का प्याला पीना ही
पड़ता है।

तब कहीं जाकर
अगली  कई नस्लें
पेश करती हैं
अपने माफ़िनामे ।

उत्क्रांति के इतने वर्षों  बाद,
अगर कोई  साक्रेटिस का
अनुसरण करते हुए,
सत्ता से सवाल पूछनेवाला
नहीं मिलता है

तो समझो,
व्यर्थ ही है
साक्रेटिस का
वो ज़हर का प्याला ।

५. मुझे राजेश खन्ना के गाने पसंद हैं 

मुझे मालूम है,
राजेश खन्ना करते थे जिंदा
अपना हर किरदार पर्देपर..

और उन्हें नाचना नहीं आता था

मुझे ये भी मालूम हैं
कि पर्दे पर दिखाई देनेवाली चींजे
हक़ीकत नहीं होती

फिर भी मुझे
राजेश खन्ना के गाने पसंद हैं तो
मैं क्या करूँ ?

ये जादू किशोर की आवाज का है
या आर.डी.के म्यूजिक का
ये सवाल कोई मायने नहीं रखता

लेकिन जब भी मैं महसूस करता हूँ
इन गानों को,
मेरी आँखों के परदेपर उतरनेवाली फ़िल्म
कुछ अलग ही होती है
जिसका कोई ताल्लुक नहीं होता,
राजेश खन्ना की फ़िल्म की कहानी से..

सुबह शाम इन गानों को सुनने या
देखने से मुझे एक अजीबसा
सुकून मिलता हैं

शायद मैं बाहरी दुनिया को
देख नहीं पाता हूँ

या यूँ कहिये,
मैं देखना नहीं चाहता हूँ

मैं नहीं देख सकता,
कितनी जाने गई
उत्तराखंड की बाढ़ में
मैं नही सुन सकता वो खबरें
कि किसीने बेचा हैं बच्चा दो हजार में
या कोई चार मंजिलोंवाली बिल्डींग
ढह गयी हैं

मैं नहीं सह पाता

राजनीति से उपजा कोई घोटाला

जोकर बनी अदालतें, नकली दलीलें

तथा फैसलों के ढकोसले

पार्लियामेंट में चलनेवाला प्रपोगंडा
जिसमें देश को महासत्ता बनाने की
व्यंगात्मक कोशिशें
कुरेदती हैं दिमाग को

भूमंडलीकरण के नाम पर
इतनी बढ़ी आबादी के साथ
किये जानेवाले नृशंस प्रयोग
और जल्द ही बंद पड़ने वाली
इन पाठशालाओं का भविष्य
दहला देता हैं दिल को
मैं तंग आ चुका हूँ

हर समस्या का हल
स्टॅटॅस्टिकल ऍनालिसिस में
ढूँढनेवाले विशेषज्ञों से
मैं शायद कच्चा हूँ,
या कोई नैनो बच्चा हूँ

लेकिन मैं भाग रहा हूँ
इस सच्चाई से
या फिर मैं देखना नहीं चाहता हूँ

मुझे डरपोक कहो
या कोई गूंगा-बहरा
लेकिन मेरी बर्दाश्तगी की
हद हो गई है

सच कहूँ तो मुझे जीने की पड़ी हैं
और जीने के लिये
कोई बहाना तो चाहिये
और ये भी है

मैं करूँ तो क्या करूँ ?
मुझे राजेश खन्ना के गाने पसंद है,
तो मैं क्या करूँ ?

पैन्डेमिक पोएम्स

1-
उफ्
करें तो क्या करें
इस अकेलेपन का ?
धीरे से फिसलते समय का
और इस तड़पन का ?

बाहर शहर बंद है
और घर के अंदर मैं ।

ना कुछ लिख पा रहा हूँ
जैसे सब सृजन मिट चुका है।
सिर्फ वीरानी है.
जो फुसफुसा रही है।
**
2-
चैनल बोलते जा रहे हैं
और न चाहकर भी
मेरी किस्मत बन चुकी है
कि मैं उनपर भरोसा करूँ।

कोरोना तो कभी ना कभी
मिट जायेगा
लेकिन वायरस बेचते
इस मीडिया का क्या करें?
**
3-

अब अफवाह ही
हकीकत बन गयी है।
सत्य को पोस्टद्रुथ ने
उतार दिया है,
मौत के घाट |
आत्मा तब्दील हो चुकी है,
किसी अंधी आँख में

दिल्ली में कोई
विकास पुरुष कह रहा है,

‘धर्म ही राष्ट्र है।’
सियासत चिल्लाये  जा रही है,
‘जो धर्म के खिलाफ होगा,
समझो देश के खिलाफ होगा
लिखनेवाले, सोचनेवाले लोगों को किया है तडीपार
या फिर उनकी
जुबान काट दी गई है।

ये कौन सा देश है ?
कहाँ है हमारी मातृभूमि ?
क्या, कोई बता सकता है ?

4-
पंछी उड़ रहे हैं
बिना किसी रुकावट के ।
पेड़ हँस रहे हैं।
बिना किसी अड़चन के ।
पवन भी टहल रही है,
आराम से ।
प्रदूषण का कहीं कोई
निशान तक नहीं है।

क्यों ना हम ऐसे ही
घर के अंदर ही रहें .
सदा के लिए?
**

5-
दुनिया पुनर्चक्रित हो रही है।
शायद वो पहली जैसी हो।
लेकिन आदमखोर
खूंखारियत ने अगर
छेड़ा तिसरा महायुद्ध
तो हथियार होंगे –
अदृश्य वायरस या
दिमागी वायरस |

6-
हमने देखे हैं ,
कई अकाल, कई बाढे, दंगे ,सुनामी तथा
भयानक संहार

लेकिन फिर भी हम जिंदा रहें
इन्सानियत के भरोसे पर
लेकिन अब
निजी अंतर  बन गया है
सामाजिक अंतर
और हम भूल गये हैं
एकता के मंतर |
और फिर भी हमारे मुखिया का
भाषणबाजी का ज्वर अब भी अपने चरम पर ।

7-

हमारा हौसला तब टूटा                                                                                                                    जब हमने देखी
एक लम्बी कतार
शहर से वापस
गाँव जानेवाले मजदूरों की
नौबत शहर के कारखाने
बंद पड़ने की न थी, न है
क्या होगा उन खाली पेटों का
जो गाँव में कभी भर नहीं पाते है
क्या होगा उन आँखों का
जो उम्मीद से तकती थी राह
शहर से आनेवाले पैसों की
क्या होगा उन चूल्हों का
जो रोज जलते थे
शहर में रातदिन मेहनत करनेवाले हाथों के भरोसे पर ?

8-

पूँजीवादियों को मजदूर के हाथ चाहिये लेकिन बीमारी नहीं ।
महापलायन से उनका कहाँ लेन देन है ?
उनकी छोड़ो,
मजदूरों की यूनियन भी
न जाने किस बिल में
छुप गई है ।
लीडर भी किसी कोने में
मालिक ने भेजी शराब में चूर होंगे। कोरोना ने कर दिया है
बेनकाब हर एक रिश्ते को ।

9 –

हम सब मरे हुये हैं घर नामक कब्र में
और समय हमें
श्रध्दांजली अर्पित कर रहा है
हम देख रहे है बाहर
कब्र की खिड़‌कियों की
काँच से आँखे सटाकर

हम सब वश में है किसी अदृश्य वायरस के
जो रेंग रहा है
हमारे खून में
बुद्धि को खा रहीं चीटियाँ
अब पलकों पर सरसराने लगी हैं

हमें शमशान में ले जाने के लिये
कोई बचा नहीं है बाहर
सभी ओर मौत का कहर
अब शहर की लाश
हम लाशों के भरोसे पर !

10 –

मंदिर, मस्जिद, चर्च
सभी प्रार्थनाघर
गुमसुम है
भगवान भी शायद
इस हालात से वाकिफ

सो उसे नहीं है चिंता
लाकडाऊन कीं

वो तो कब से कैद है अंदर
अपनी हताशा से परेशान
इन्सान उसे माफ करें।
” आ मी न ||
****

11 –

उसका पति कोरोना से भरा ।
लेकिन उसने खुद को
बेवा मानने से
इन्कार किया।

पूछा जब लोगों ने
तब वह कहने लगी है
‘एम्बुलेंस से
लाश जब लायी गयी
शमशान में
एक पल के लिए
मुझे उन्होंने  चेहरा दिखाया
वो मेरे पति का
था ही नहीं
तो मैं कैसे  मान लूँ कि
वो मर चुके है? ‘

उसका जबाब सुनकर
दंग रह गये लोग।
आखिर
ये कौन सा खेल चल रहा है
जिंदा लोगों से
मुर्दों की आड़ में ?
ये कौन सी साजिश है
किसी दूसरे की लाश थोंपी जाती है ?
ये गलती है या कोई चालाकी ?

12 –

देर रात उसके
मरद ने दम तोड़  दिया
पड़ोस वालों को पता था
कि रात में ही उसे
जला दिया था

पड़ोसी उसके घर के
आस पास खड़े
बिना कुछ कहें
वह रोज की तरह उठी
बाहर आकर आंगन में
रंगोली सजायी
तभी पड़ोसियों की ओर
देखकर मुस्कुरायी और
अंदर चल गई
पडोसी अब भी वहीं पर ठिठक गये हैं।

सबकी जुबान जैसे चिपक गई है
अपनों को
मौत की खबर सुनाना
कितना कठीन होता है

मौत की खबर
होती है मौत से भी
अधिक जानलेवा ।

****
         

परिचय :

 डॉ संजय बोरुडे मराठी के विख्यात कवि है । वो

हिन्दी और अंगरेजी में भी लिखाते है । मराठी की लगभग सभी

विधाओ में लिखी कुल १५ किताबें और हिन्दी में २ किताबें

प्रकाशित है ।

अंगरेजी किताब –The Hymn Of Leaves पेंगुईन

और रेनडम हाऊस ने प्रकाशित की है । वे समकालीन

कवियों में एक महत्त्वपूर्ण नाम है । वे अनुवाद तथा

इतिहास में भी रुचि  रखते हैं ।

पता : २१ अ / अमन / एकता कॉलनी /गोविंदपुरा / अहमदनगर / ४१४००१/महाराष्ट्र /संपर्क : 9405000280

Tags: Sanjay Borude/ संजय बरुडे :कविताएं
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Comments 2

  1. धीरज पुस्तकवाला says:
    2 years ago

    बेहद भयानकता और आने वाले ड़रावने भविष्य को उजागर करनेवाली सामाजिक कवितायें ।
    सन्न सा रह गया हूँ मैं ।
    विमलेशजी ,
    बहुत बहुत धन्यवाद |

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      1 year ago

      धन्यवाद ।

      Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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