सविता पाठक की एक कहानी ‘जुड़हिया पीपल और जला दिल’ हम अनहद कोलकाता पर पहले भी पढ़ चुके हैं । इसबार प्रस्तुत है उनकी नयी कहानी ‘हिज्र की शब’ । केस नम्बर पांच सौ तीन की कथा जिस तरह से आगे बढ़ती है उसमें कथा के शिल्प का बड़ा महत्व है । स्त्री उनकी कहानियों का केन्द्रीय विषय रही है। भाषा के साथ उनकी रवानगी पाठक को स्त्री लेखन के कई नए बिन्दुओं से परिचित कराती है । अनहद कोलकाता की इस प्रस्तुति पर आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा …
हिज्र की शब
कहानी की भूमिका
अब आपको कहानी की भूमिका पढ़ना पढ़ेगा,आपने ये सोचा नहीं होगा लेकिन मेरे लिए यह लिखना बहुत जरूरी है। रद्दी बेचते समय सारे कागज़ मेरे सिर पर नाचने लगते हैं। ऐसा लगता है कि हर कागज़ चीख-चीख कर कुछ याद दिलाने की कोशिश कर रहा हो। कुछ तो इमोशनली ब्लैकमेल भी करते हैं। जब वो ज्यादा करने लगते हैं तो मैं बेदर्दी से उनको फाड़ देती हूं लो अब ब्लैकमेल करो। लेकिन कुछ बड़े ही खामोश तबीयत होते हैं, हाथ में आते ही बगैर चीखे-चिल्लाये एक पूरी दुनिया लेकर बात करने लगते हैं। बहरहाल रद्दी वाला ऐसे में मुझे किसी दार्शनिक की तरह समझाता है- मैडम, जब-जब देखेंगी आपको जरूरी कागज़ लगेगा। अरे जरूरी होता तो यहां नहीं पड़ा होता। वैसे भी कोई चेकबुक हो, जमीन जायदाद का कागज़ हो-अगर हमको मिलता है तो हमलोग वापस कर देते हैं बाकि सब माया है।
फिर भी मैंने अपने दार्शनिक की सलाह नहीं मानी और वो पन्ना सहेज लिया। वही पन्ना आपको हूबहू पढ़ने के लिए दे रही हूं।
अगर मैं कहूं कि इस पन्ने के भी दो हिस्से हैं तो आपको अजीब लगेगा लेकिन सच यही है। लिखने वाला मानो मेरी तरह उस पन्ने को पढ़ाने से पहले कोई भूमिका बांधना चाहता हो। पहला पन्ना थोड़ा-साफ है लेकिन दूसरा पन्ना किसी डायरी का हिस्सा लग रहा है। पहले पन्ने पर किसी पुलिस वाले का कुछ लिखा हुआ लग रहा है लेकिन कागज फटा होने की वजह से उसकी भूमिका अधूरी रह गयी है। बहरहाल जैसा है वैसा पढ़िये।
केस नम्बर पांच सौ तीन
कुछ बातें ऐसी होती है कि उनसे आपका कोई सीधा वास्ता नहीं होता है। हो सकता है आप उस राह से गुजर रहे हों या हो सकता है कि आप उस चायखाने में चाय पी रहे हैं वो आप से आ टकराती हैं। ये टकराहट ऐसी हो जाती है जैसे आपके भीतर पड़े पत्थर के स्लैब पर किसी न हथौड़ा मार दिया हो। वह स्लैब चटख गयी हो। अब वो पहले जैसी नहीं रहेगी। इस हालत में जब कुछ उलट-पुलट जाता है।
मैंने पाँच साल पहले पुलिस की नौकरी ज्वाइन की थी। अगर कहूँ कि पुलिस की नौकरी करना मेरी आखिरी च्वाइस थी क्योंकि मैंने तो बीए अंग्रेजी और राजनीतिशास्त्र से किया था। डयुटी के दौरान मेरे पापा की हार्ट अटैक से मौत हो गयी। जीवन की सारी योजनाओं ने यू टर्न ले लिया। रिश्तेदारों ने सोर्स-सिफारिश करके मेरी नौकरी पापा के डिपार्टमेंट में लगवा दी। मेरे पापा एस आई थे। नौकरी के कुछ ही दिनों बाद मुझे बीट मिली क्राइम की।
यही वो जगह थी जिससे मुझे पुलिस की दुनिया से डर लगता था। खासतौर पर किसी क्राइम सीन को देखना। पहले तो मुझसे देखा भी नहीं जाता था अगर दो लोग साथ हैं तो दरवाजे पर खड़े होकर ही बयान लेता था और सोचता था कि अगला ही बाडी को देखे लेकिन ये तरीका चला नहीं। फिर तो धीरे धीरे आदत हो गयी। इस बीच एक ऐसा केस आया जिसने..
(मेरी ओर से-इस पेज को पेन्सिल से लिखा गया था उसके आगे की लाइन पढ़ने में नहीं आ रही थी। बाकि अगले पन्ने से है साथ में एक फोटो कापी लगी हुई है। आगे पढ़िये)
पुलिस डायरी-FIR No/307/046/19 सुमैया बनाम अरबाज़ सिद्दकी,
वादी कांस्टेबल सुमेर सिंह
बरामद- मौका ए वारदात से मिली कापी
उसने बोला है कि वह मेरे हज़ार टुकड़े कर देगा,वह मेरे हजार टुकड़े करके भी मेरे सोचने का ढ़ंग नहीं बदल सकता है। कुछ लोग मर कर भी ज़िन्दा रहते हैं,ख्यालों में,बातों में,यादों में,विचारों में और कुछ लोग जिन्दा होने के बाद भी मरे की तरह हो जाते हैं।
आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको ये सब क्यों बता रही हूं। फिलहाल इसलिए बता रही हूं कि एक राज़ आपसे बताना है। आपको लग रहा होगा कि अगर कोई ऐसी बात है तो मुझे चुपके से अपनी किसी सहेली को बताना चाहिए। भला ऐसी बातें लिखकर सबके सामने थोड़े ही बताई जाती हैं। पर मेरी भी बात सुन लीजिए मुझे अकेले में किसी से कुछ नहीं पूछना है और न बताना है। अकेले में कौन भला सही सलाह देता है। असली सलाह तो वो होती है जो सबके सामने दी जाती है। भरे-पूरे सूरज की रौशनी में,चांद के साये में तो दिमाग कुछ का कुछ होता है। हिम्मत हो तो अपनी सलाह दीजियेगा। वैसे कुछ नहीं भी कह सकते हैं। चुप रहना सबसे मुफीद तरीका है। आप चुप ही रह जाइयेगा। वैसे मेरे पास दो तरीके थे चुप रहने का या फिर आपसे बात करने का। पर मुझे बातें करना पसंद है। हां तो मैं अपने बारे में बताती हूं।
आपको बता दूं कि मेरी शादी को सत्रह साल हो चुके हैं। हर एक साल में बारह महीने होते हैं इन बारह महीनों में तीनसौ पैसठ दिन- इन दिनों में कितने पल है। उन पलों में मैं बेवफा नहीं थी,वैसे तो मैं खुद को बेवफा मानती ही नहीं हूँ। आप जानते हैं मेरे ऊपर बेवफाई का चार्ज लगाया गया है। मैंने अपने शौहर से मोहब्बत की कि नहीं, क्या मालूम। मोहब्बत का मतलब आप सिर्फ हमबिस्तर होना समझते हैं तो जी वो तो पहले दिन से ही हुई। लेकिन मेरी तई वही सिर्फ मोहब्बत नहीं है। पहले दिन से तड़प रही हूं कि इनसे बात करूं। शादी की पहली रात तो मैंने बड़ी हिम्मत करके इनसे बात करना चाहा बिल्कुल वही बातें जो मैं शाइस्ता से करती थी। तुमको कौन सा हीरो पसंद है? कौन सी हीरोइन पसंद है लेकिन थोड़ी देर में समझ आ गया कि इनको बात करना नहीं पसंद है। यकीन मानिये कि शादी के कुछ साल तक तो मैं समझती ही नहीं थी कि मोहब्बत क्या बला है। घर का काम निपटा कर चुपचाप बिस्तर पर आ जाती थी। पति भी दिन भर अपने काम में लगे रहते थे और रात को भी प्यार- काम की तरह करते थे। मुझे न मालूम क्या बीमारी सी पड़ गयी कि बिस्तरे पर सिर्फ नींद आती थी। उनको अपने ‘काम’ से फुर्सत होकर नींद पड़ती हमको उससे पहले नींद पड़ती। वो हमको जगाते, हम जागे कि नहीं इससे भी उन्हें कहां मतलब। फिर भी हम उनसे सारे जहांन की बातें करने लगते और वो दो पल में सो जाते। हमसे पूछिये हम मोहब्बत का नाम बातें रख सकते हैं। शादी के एक सवा साल बाद ही हमारा पहला बेटा हो गया। उसके बाद दो बार अबार्शन हुआ। अब अबार्शन की भी क्या बताऊं। पति बेपरवाह थे और मैं डरपोक। कभी हिम्मत नहीं हुई कि दुकान से जाकर कोई गर्भनिरोधक गोली खरीदूं। जाकर क्या बोलूंगी दुकानवाला क्या सोचेगा। मैं सच कह रही हूं मैं बहुत संकोची हूं। उसके बाद हमारा दूसरा बेटा हुआ। वह दो साल का नहीं हुआ कि मेरी तीसरी बार प्रेग्नेंसी हो गयी। मैं बहुत परेशान थी पति को बताया। वो थोड़ा चिड़चिड़ाये कि तुमको बहुत जल्दी प्रेगनेंसी हो जाती है। मुझे लगातार गर्भनिरोधक गोलियाँ खाने से बड़ी दिक्कत होती थी। मन तो करता था कि बोलूं तुम क्यों नहीं कंडोम ले आते एक बार मुंह से निकल गया था उन्होंने मुझे जो कुछ कहा कि बता नहीं सकती। हराम-हलाल की ऐसी तकरीर सुनाई कि मेरा मन और चिढ़ गया। खैर दो दिन बाद तैयार हो गये कि अबार्शन करवा लेते हैं। एक प्राइवेट नर्सिंग होम में मेरा अबार्शन हो गया। मेरे शरीर से बहुत खून बह गया। अबार्शन के बाद भी मैं ठीक नहीं हुई भ्रूण का कोई कतरा रह गया था शायद वो मेरे शरीर से चिपक गया था। मेरी तबियत बहुत खराब हो गयी। ब्लीडिंग रूक ही नहीं रही थी। महीनों ब्लीडिंग होती रही। शरीर पूरी तरह सूखता जा रहा था। डाक्टरों को दुबारा अलग तरीके से क्लीनिंग करनी पड़ी। मैं पूरे महीने बिस्तर पर पड़े रही।
उधर मेरे शौहर का बर्ताव मेरे शरीर के हिसाब से तय होता रहा। खैर थोड़ी तबियत ठीक हुई लगा कि मर कर जी गयी हूं। आपको सच बोल रही हूं मर के जीना बहुत ही बड़ी चीज होती है। बड़ा बेधड़क बना देती है। अपने आपको नीम-बेहोशी में भी देखा था। पूरी तरह से नंग-धड़ंग स्ट्रेचर पर पड़े। न कपड़े का होश। न आगे-पीछे की कोई सोच।
अबकी जो ठीक हुई तो पता नहीं क्या हो गया। लगा कि मेरी मौत के वक्त मैं बिलकुल अकेली थी। जिन हाथों को टटोल रही थी वो वहां नहीं थे। जिस रात मैं उनके गले लगकर रोना चाहती थी वो गहरी नींद में थे। क्या करती मुझे लगा मैं कब्र से उठी हूं। कई लोगों का फोन आया कुछ रिश्तेदारों को पता चल गया था कि मैं बीमारी से उठी हूं और यहीं से मेरी कहानी उलट गयी। जी जिन लोगों का फोन आया उसी में मेरे दूर के रिश्तेदार शाहिद का भी फोन आया। शाहिद का नाम आते ही मेरा मन अब भी पंद्रह-सोलह साल की उस लड़की की हालत में पहुंच जाता है। जो यह नाम आते ही अपने चेहरे के जज्बात छुपाने लगती थी। लगता था कि पूरी दुनिया को पता चल जायेगा कि किसी के नाम से मेरे चेहरे पर रंग चढता-उतरता है। मैं सच्ची बोल रही हूं शाहिद मेरे घर आया था बहुत पहले आया था शायद मैं ग्यारहवीं में थी। तब वो बारहवीं में पढ़ता था। मेरी फूफी की ननद का बेटा है। मुझे लगता था कि वो जितने गाने सुनता है वह सब मेरे लिए हैं। उसके जाने के बाद मैं हर गाने को दुबारा जरूर सुनती थी। लगता था कोई मैसेज मेरे लिए इनकोडेड है। यकीन मानिये मैंने उसके जूठे गिलास में पानी पी कर देखा है- लोग कहते हैं कि इससे प्यार बढता है। मैं सोचती थी कि उसने बस ये कह दिया कि कैसी हो? तो वही प्यार है। फिर जो जवाब मैंने कभी नहीं दिया उसको मन में कई तरह से देती थी। बीच में उसके यहां मैं शादी में भी गयी थी। वहां पर उसकी अम्मी ने मजाक में कहा भी कि मैं तो तुम्हे अपने घर लाना चाहती हूं। अब आप कहेंगे कि ग्यारवीं में ही थी और शादी के बारे में सपने पालने शुरू कर दिये थे। मैं सच कह रही हूं मैंने सपने ही शादी के देखे थे,मैंने तो यही जाना था कि शादी ही दुनिया की खुशियों की चाभी है लेकिन जब मेरे अब्बा ने सचमुच उस परिवार से शादी की बात की तो उन लोगों ने मना कर दिया। दिन बीत गये, साल बीत गया वो हमारे घर फिर नहीं आया। मेरा दिल बहुत टूट गया था लगा कि वही मेरे सपने का राजकुमार है जो मेरी बंद दुनिया से मुझे आजाद करायेगा। उसके साथ मैं घूमने जाऊंगी। वो मुझे पहाड़ दिखायेगा। झरने के ठंडे पानी में पांव उसके साथ डालूंगी। कुछ भी टोकाटाकी नहीं होगी। तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। तीन साल के भीतर ही मेरी शादी तय हो गयी। तब मैं बीए कर रही थी। फिर क्या हुआ- वही जो हर शादी में अमूमन होता है। मेरा काम था घर की देखभाल। सास से मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। ननद से भी कुछ दिक्कत नहीं थी। सचपूछो तो मुझे किसी से कोई दिक्कत नहीं थी। दिक्कत अपने आप से थी। उस आप से जो मोहब्बत के ख्वाब देखता था। जो हर दिन इस ख्वाब के टूटने से परेशान रहने लगा। धीरे धीरे लगने लगा कि मैं कोई मशीन हूं। फिर बच्चों के बाद दूसरे अबार्शन वाला वाकया हुआ। मैं बहुत कमजोर हो गयी थी। मन से भी टूट गयी थी। कभी-कभार किसी फिल्म को देखकर मेरा भी मन करता था कोई मेरे लिए गाना गाये। कोई मेरे लिए दीवाने की तरह फिरे। फिर ऐसे में उससे मेरी मुलाकात हुई जिसके प्यार में एकवक्त मैं पागल की तरह रहने लगी थी। अब आप इसे मेरा बचकानापन कहें या जिद। जो मर्जी आये कह दीजिए।
शाहिद से मेरी मुलाकात अरसे बाद एक शादी के फंक्शन में हुई थी। अबकी बार तो मैंने उससे उसका फोन नम्बर मांग लिया और अपना नंबर भी दिया लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी। बीमारी के बाद उसका फोन खैरियत के लिए आया बस यहीं से बातों का सिलसिला चल पड़ा। अब उससे फोन पर बहुत सारी बातें करने लगी। मैंने सोचा कि इसको मैं सब बताऊंगी कि कैसे मैंने उसकी एक-एक बात को ताबीज की तरह सहेजा था। पिछले छह दिन से उससे बात कर रही थी चूकिं वो मेरा रिश्तेदार था और बचपन का साथी भी तो उसकी-मेरी ढेरो बातें साझी थी। मैंने बहुत बातें की। उन छह दिनों में मैं चहकती रही। ऐसे लगा कि घर का काम कुछ कम हो गया है मेरे शरीर में खून बढ़ गया है।
यकीन मानिये मुझे किसी को बताना था कि कैसे कोई उसके प्रेम में इतना पागल था। कैसे वो उस समय कुछ नहीं कह सकी। इसका मतलब कतई ये नहीं था कि उसे मैं फिर से पाना चाहती थी। मुझे कुछ नहीं चाहिए था।
मेरे लिए वह छह दिन की बातचीत किसी दवाई से कम नहीं थी। फिर एक रोज मैंने खुद ब खुद अपने शौहर से सबकुछ बताया कि कैसे छह दिन से मैं किसी से रोज बाते करती हूं। फिर क्या हुआ यहां से कहानी अलग है। जिस आदमी को मेरी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बोर करती थी। उसे मेरे किसी से बात करने से इतनी परेशानी हुई कि वो मेरे फोन के काल डिटेल निकलवा कर ले आया। उसमें मैंने एक रात छह घंटे बाते की थी। उस दिन उनकी नाइट ड्युटी थी। पूरे घर में हंगामा हो गया। मेरी बीमारी नाटक हो गयी। मेरे शरीर में शक्ति नहीं थी कि बदले में कुछ कहती उन्होंने घर की चीजें तोड़ने-फोड़ने से लेकर मेरे मांबाप तक को नहीं बख्शा। आपको सच में कह रही हूं- मैंने जितनी बातें की थी। उसका एक-एक हर्फ तक उन्हें बताया था। और जब बता रही थी तो बहुत अच्छा लग रहा था। लग रहा था कि आज मेरी बातों को ये इतने ध्यान से सुन रहे है।
मैंने अपनी दुनिया खुद ही नर्क बना ली। वैसे सच ये है कि मैं पहले भी किसी स्वर्ग में नहीं रह रही थी। रोज एक जैसा किस्सा- जिसकी न शुरूआत थी न अंत। क्या बनाऊं- तीन पहर यही सवाल। फिर कल क्या खाना बनाऊंगी, सोचते सोचते नींद आ जाती थी।
जो भी हो उन्हें ये सच बर्दाश्त नहीं हुआ। वो मुझे रात को नींद से उठाकर बिठा देते थे कि बताओ तुम उसके साथ कैसे थी। तुमने क्या क्या किया- सिर्फ बातें ही नहीं की होंगी। तेरे शरीर की कितनी जरूरत है। मैं कह नहीं पायी कि मुझे तो बातें करने वाला ही कोई चाहिए था शरीर की जरूरत तो तुम या तुम जैसा कोई भी पूरा कर सकता है।
लेकिन कुछ नहीं कह पायी फिर सोचा कि सच बताऊं कि उस लड़के में भी मुझे कुछ नहीं मिला। उसकी बातों में भी कुछ नहीं बचा है। छह दिन लगातार बात करने के बाद मुझे वहां वो नहीं मिला जिसके लिए मैं पागल थी। वैसे भी एक उम्र के बाद बचपन की पुरानी इमारत नहीं देखनी चाहिए जो इमारत सबसे सुंदर लगती थी वो अब वो अपनी रौनक कितनी खो चुकी है। मैंने कुछ भी नहीं कहा। शुरू में सफाई दी लेकिन बाद में जरूरत नहीं लगी कि कुछ बोलूं लेकिन इससे चीजे कहां ठीक होतीं।
इस बात को बीते आठ साल हो गये हैं। मैंने छह दिन की बातचीत के लिए दिन-रात का दर्द झेला है। यकीन मानिये पूरे आठ साल मैंने उसे ये सोच कर माफ कर दिया कि उसका दिल दुखा है या मेरे बच्चों पर कोई आँच न आये। उसने मेरे बच्चों के आगे बेइज्जती की। मेरे मां-बाप के आगे बेइज्जती की और अकेले में मुझे हर तरह की तकलीफ मिली है। वह वहशी की तरह मेरे साथ रहा। वैसे तो मैंने शादी के बाद प्यार जैसे अल्फाज़ को भुला दिया था। उसके बदले मैंने फर्ज,धर्म और इज्जत यही सोचा।
फिर भी,जो भी हो मेरी सजा बहुत हो गयी थी इतनी कि मेरे मन से अब वो बहुत दूर हो गया था। खुद मेरे भीतर से आवाज आने लगी कि मेरा गुनाह क्या है। वो मेरे करीब आने के लिए बहुत ही अजीब हरकत करता था जैसे कि मैं कोई ऐसी औरत हूं जिसके शरीर की जरूरत नामालूम कितनी है। जितना वो मेरे साथ ज्यादती करता था- मैं उससे उतनी ही दूर चली गयी।
मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई है। यहां से मेरी जिन्दगी में एक नया मोड़ आ गया। मेरी निगाह किसी ऐसे को ढ़ूढने लगी जिसे मुझसे बात करना पसंद हो। जो पहाड़ों की सैर करता हो। झरने देखकर खिलखिलाता हो। जो फूलों को प्यार से छूता हो। फिर वो आदमी भी मिल गया। वो मेरे ही बिल्डिंग में नीचे की मंजिल में आया था मुझसे कुछ कम उम्र का। वो रोज सुबह किसी पसंदीदा गजल का रिकार्ड बजा देता-मुझे लगा ये गजल मेरे लिए है। मैं तो ऐसे ही महसूस करती थी। मेरा दिल किया मैं भी कुछ ऐसा ही संगीत लगा दूं और कहूं कि मैं ये सुनती हूं और समझती हूं। मैंने भी एक दिन कुछ ऐसा किया। सुजात खान का सितार की झंकार से भरा गाना रंगी सारी गुलाबी चुनरिया लगा दिया। बहुत दिन बाद सुन रही थी। मैं सच कह रही हूं- मेरे यहां म्युजिक सिस्टम धूल खा रहा था। कभी कभी बच्चे चलाते थे लेकिन उसमें मेरा दिल यूं नहीं लगा। फिर धीरे धीरे हमारी बात होने लगी। वो आफिस जाते नहीं थे कि मेरी बातचीत शुरू। आप कहेंगे कि मैं बड़ी ही बेवफा औरत हूं। यकीन मानिये मेरा मरने का दिल बिलकुल नहीं था।
माटी पर बारिश की बूंदें पड़े और उसमे से खुशबू न आये भला ऐसे कैसे हो सकता है। मुझे ये इत्र खींच रहा था।
मैंने झूठ बोला कि मेरी अम्मी बीमार है। वैसे मेरी अम्मी बीमार चल रही थीं लेकिन उस समय ठीक थीं। मैंने अम्मी से झूठ बोला कि शाइस्ता के यहां तीन दिन के लिए जा रही हूं,उसकी तबियत ठीक नहीं है। तुम अरबाज़ से कहना कि तुम्हारे पास आ रही हूँ। शाइस्ता मेरी मौसेरी बहन थी और मेरी दोस्त है दूसरे हम दोनों मिलकर आनलाइन कपड़े का काम भी करते हैं। अरबाज़ को काम से एतराज़ नहीं था बस बाहर आने जाने से दिक्कत थी। अम्मी ने अरबाज़ को नहीं बताया। मैं तीन दिन बाहर रही।
मैंने कुल तीन दिन फिर से बिताये। तीन दिन-तीन रात सचमुच के। आपको दिल से कह रही हूं। मुझे कोई पछतावा नहीं है। वो है कि अब भी आठ साल पहले के छह दिनों का हवाला देकर चिल्लाता है।
चूंकि मैंने उसे बता दिया है तो लगा कि आप को भी बता दूं क्योंकि दूसरों की बातों से आपको कुछ पता चले ठीक नहीं।
उस दिन उससे मैंने उससे कह दिया- छह दिन की बातें अब पुरानी हो गयी है। जिस बात के लिए तुम मुझे रोज़ ज़लील करते हो- मैं उससे काफी आगे बढ गयी हूं। पहले दिन उसने मेरी बात को मज़ाक समझा फिर दूसरे दिन से शुरू हो गया कि कौन है, तुम किसके साथ घूमने गयी थी। मुझे बड़े दिनों बाद लगा कि कोई मेरे साथ अलग तरह की बातचीत कर रहा है। मैं कहने लगी कि हम रात भर पहाड़ की ठंड में टहलते रहे। तारे ऐसे दिख रहे थे कि सचमुच हाथ बढ़ाऊं तो तोड़ लूं। हवा के साथ जंगली गुलाब की पंखुड़ियां उड़ रही थी। एक पंखुड़ी उड़ कर मेरे बाल में फंस गयी थी। उसने निकाल कर मुझे थमा दिया। मैंने उसे हवा में उड़ा दिया। उसके शरीर से मिट्टी की सोंधी महक उठती है। मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं। मुझे फर्क नहीं पड़ रहा था कि मेरे शौहर के दिल पर क्या बीती लेकिन मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। पिछले पन्द्रह दिन से हम कुछ अलग बात कर रहे हैं। वो बिस्तर पर भी जल्दी सोता नहीं है। कभी रोने लगता है तो कभी कहता है कि तुम ऐसा मजाक मेरे साथ नहीं करो। मैं भी कुछ ऐसे नहीं कहती हूं कि लगे कि मजाक कर रही हूं लेकिन फिर बताने लगती हूं कि जहां गयी थी वहां पर एक पतली सी नदी की धार थी। उसके कंकड़-पत्थर तक साफ दिख रहे थे। क्या तुमने इतनी साफ नदी देखी है।
वो कभी कभी बहुत रोता है और कभी कभी लगता है कि मेरा गला दबा देगा। कभी इस प्यार के लिए तड़पती थी लगता कि किचेन में वो आये और मुझे प्यार से छूकर बात करे,रोउं तो गले लगा ले। बस थोड़ा सा प्यार और सम्मान चाहती थी। पहले मैं अकेले रोती थी,अकेले हँसती थी,तब उसे अहसास नहीं था।
अब मेरा दिल हलका है। मैं भी उसके रोने में शामिल हो जाती हूं वो मुझसे बातें करता है। हम इस बहाने बातें करते हैं। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि अब क्या होगा। मर तो मैं पहले ही गयी थी। अब जिन्दा हूं अब वो जो करेगा वो मेरी हत्या होगी जिबह तो मैं सत्रह साल से हो रही थी।
कल जब तुम्हें अखबार में पता चले कि फलां आदमी ने अपनी पत्नी की सीरत पर शक करने के चलते उसका गला दबा दिया तो बस कहना अरे उसे तो हम जानते थे। अब जानपहचान हो गयी है तो आप बताये कि आपकी कोई कहानी है। मुझे पता है कि आपके पास फुर्सत नहीं है लेकिन देख लीजिए आफिस से आने के बाद आप चाय लेकर मेरे साथ बैठ सकते हैं। अरे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप आदमी हैं या औरत। हां तो बताइये।
तो आपको तो मैं बेवफा लग रही हूं।
आखिरी जरूरी बात तो रह गयी। उस पर भले ही आप यकीं न करें यही कि मैं अपने बच्चों अदनान और आदिल से बेपनाह मुहब्बत करती हूं..
फिर से मेरी बात-
कागज़ यहां पर खत्म हो गया। मुझे नहीं मालूम की ऐसा कोई केस सच में था या नहीं। अंत में क्या हुआ, क्या आत्महत्या हुई या हत्या। मेरी धड़कन कभी तेज़ तो कभी धीरे हो जा रही है। ऐसे लग रहा है कि इस औरत को कहीं देखा है बस याद नहीं आ रहा है। आपको कुछ ख्याल पड़े तो बताइये।
सविता पाठक
जन्म : जौनपुर, उत्तर प्रदेश में
वीएस नायपाल के साहित्य पर शोध।
दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रेयी कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन
कहानी संग्रह : हिस्टीरिया
हिन्दी की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ प्रकाशित।
डा. आंबेडकर की आत्मकथा ‘ वेटिंग फार वीजा’ का अनुवाद।
क्रिस्टीना रोसोटी की कविताओं के अलावा कई लातीन अमरीकी कविताओं का अंग्रेजी से अनुवाद।
पाखी के सलाना अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित।
The story is very nice, every word of this story is touching the heart, the language of the story is easy which everyone can understand, this is the specialty of the story, I liked this story very much.
आभार ।
The story is very nice, every word of this story is touching the heart, the language of the story is easy which everyone can understand, this is the specialty of the story, I liked this story very much.
आभार ।
I don’t have words to describe you, the way you write inspires me a lot, I want to teach you all this in future too🤍🧿
आभार ।
अनहद कोलकाता का हार्दिक आभार जिन्होंने इस कहानी को जगह दी। कल से बहुत सारे लोगों की प्रतिक्रिया मिली। एक महिला ने कहा कि ये उसकी कहानी है। …ये किसकी कहानी है और किसकी नहीं!
बहुत शुक्रिया ।
आभार । अनहद कोलकाता पर आपके पाठक आपकी रचना से खुद को इतना जोड़ सके हैं ये सुखद है । आपको बधाई ।