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Home कविता

विशाखा मुलमुले की कविताएँ

by Anhadkolkata
October 1, 2023
in कविता
A A
2
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विशाखा मुलमुले की कविताएँ भावों के एक जादुई वितान मे रचि सुख -दुख और जीवन के रहस्य से पर्दा उठाती कुछ कहतीं  हैं  । फूल -पत्ते ,सुगंध -खुशबू से भरे उनके शब्द इतिहास और वर्तमान को गुनते – बुनते  सतर्क ,सावधान रहने के साथ त्याग देने का भाव भी पैदा करते है । अनहद कोलकाता विशाखा मुलमुले जी की कविताओं  को प्रस्तुत करता हुआ प्रसन्नता व्यक्त करता है ।  आप सभी पाठक पढ़ें और  प्रतिक्रिया अवश्य दें ।

 

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विशाखा मुलमुले 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 यह कैसा समय
——————–

काश ! समय
हिरणों के कुलांचो – सा आता
या तितली के कोमल पँखों पर सवार होता
न हो तो नदी – सा बहता रहता निर्बाध
पर कलयुग में नदियाँ ही न रही अबाध तो समय की क्या बिसात

समय चला आ रहा है हाथियों के पग संग
रौंदता हुआ इतिहास व वर्तमान
हस्ती वाहन लिए आता सावन में
तो भर ही जाते सारे जलस्रोत

गजगामिनी – सी होती इसकी चाल
तो संगत में बज भी सकता था त्रिताल

धा धिन् धिन् धा । धा धिन् धिन् धा।
धा तिन् तिन् ता। ता धिन् धिन् धा |

फ़िदा हुसैन जीवित रहते तो
कैनवास में भी जगह बना लेता यह समय
और तो और
गजगामिनी के होने से यह भी विश्वास चलता संग
कि वह संततियों व झुंड के उदर भरण को ही है प्रतिबद्ध
वह तलाश में है जल स्त्रोतों के
करुणा रूपी मनुष्यों के
महावीर के, बुद्ध के
यीशु के , पैगम्बर के
नानक के , साईं के

पर नहीं
यह महावतविहीन निरंकुश समय
बढ़ा चला आ रहा है
अमानवीय ऊसर धरा पर
विडंबना यह कि
संकेतों की भाषा में चल रहा यह समय पर
बुद्ध के पुनर्जन्म के नहीं मिल रहे कोई संकेत ….

  सारा संसार उसका घर
—————————–
कोरोनाकाल के कुछ माह पूर्व
जन्म हुआ उसका , तो
उसने सीखा घर ही घर में
हँसना – रोना
बोलना – गाना
चलना और दौड़ लगा देना

घर ही रहा उसका संसार
संसार रहा , उसका घर

वही बात उसके मन में
चलने का ,
वही रवैया उसके कदम में
कि पीछे – पीछे चल रहे हैं चार कदम
टिकी है , उस पर हर वक्त
माँ – पिता की नज़र

अब जब वास्तविकता में धरे हैं तुमने कदम
और अमानवीय होते संसार को देख रहे हैं हम

नन्हीं बिटिया ,
मेरी प्रार्थना इन दिनों बस यही
कि ,
न टूटे कभी तेरा यह भरम
की मिल रही है हर पग पर
माँ – पिता – सी नज़र
घर – सा सुरक्षित , आत्मीय , प्रेमिल
ही है यह सारा संसार

 प्रशंसा
———-

कितनी मिठास है तुम्हारे चेहरे पर
वह लजा के नमकीन हो गई
हिरणी – सी चंचलता
वह ठिठक गई
कजरारे भँवरे से नैन
छुईमुई – सी उसने आँखें मीच ली

प्रशंसा के हर बोल संग
उसके भाव
उसकी भंगिमाएं
उसका ढब बदलता गया
मानो कच्छप बन उसने
स्वयं को स्वयं के भीतर ही समेट लिया

एक पुरुष एक स्त्री की
प्रशंसा में मग्न था
और समूची प्रकृति सिमट रही थी
एक स्त्री देह में !

 खिलना
———–
गन्धराज के समीप से गुजरो
उसमें न मिलेगी गन्ध
मधुमालती , चंपा , आम्र
किसी भी लता , गुल्म ,वृक्ष में
न मिलेगी सुगन्ध

पुष्प के खिलने पर
खिलता है वृक्ष
बिखरती है संसार में उसके होने की गंध

इसी तरह ,
प्रेम व करुणा मनुजों में रचते
खिली हुई आत्मा की गन्ध – सुगन्ध

पुष्प का खिलना नहीं है मामूली कोई घटना
अरबों साल पुरानी धरती पर
अस्तित्व है मनुज का कुछ लाख बरस
इतने बड़े जीवन में
गिन के देखो
अब तक खिले हैं कितने पुष्प ?

 सुख – दुःख
—————

एक दिन एक साथ एक ही समय में
दो समाचार मिले
एक सुखदाई
एक दुखदाई

एक मन की दीवार की मजबूती की तरह
एक जीते जागते घर में सेंध की तरह

सुख पहले भी आया था जीवन में
पुष्प , अल्पना , मिठास लिए
दुःख पहले भी आया था जीवन में
उदासी , शोक , खटास लिए

सुख की फितरत भी मालूम थी
कि , वह अधिक देर ठहरता नहीं
तो दुःख को दरकिनार किया
दुःख में सुख की मात्रा बढ़ाते
उसकी सांद्रता को तनु किया

कि , चलो घर में सेंध लगी पर
जनहानि नहीं हुई
जेवर लुट गए
पर अनाज बचा
कागजी रुपये ही गए
कागजात सुरक्षित रहे

मन को मनाते – मनाते
दुःख और सुख के मध्य पुल रचा
इस तरह दुःख को ओझल कर
सुख का सत्कार किया

 प्रेम
———–

दिवास्वप्न के पहले
तुम भोर के स्वप्न की तरह घटित हो
भास्कराय नमः के पूर्व
ध्रुव से अटल सत्य की तरह
अन्तराकाश में चमकते हो

अखुआने के पहले
बीज की तरह हो
आद्रता , नमी , पोषण बनके
देह में विलीन हो

प्रेम तुम , दृश्यमान होने के पूर्व
अदृश्य ही
परकाया में लक्षित होने के पूर्व
स्वदेह में ही ….नृत्यरत हो
परिधि में नहीं केंद्र में हो

बाहर – बाहर , बाहर नहीं
भीतर – भीतर , भीतर हो !

युद्धकाल
————-

प्रशिक्षण या अभ्यास के तहत
सिर के ठीक ऊपर
मंडराता है लड़ाकू विमान
लगाता है अनेक फेरे
अपनी रफ़्तार से गुंजायमान करता है आसमान

पक्षी दहल जाते उसके शोर से
बदलते रहते उससे
उड़ान की विपरीत दिशा

फ़िलहाल ,
वह बम वर्षक विमान नहीं है
और मैं नहीं खड़ी हूँ
यूक्रेन , ताइवान
सीरिया या अफगान की धरा पर
पर साम्राज्यवाद , अधिनायकवाद के इस दौर में
वह हर बार कराता है युद्ध व मृत्यु का आभास !

अकलुज
————

अकलुज सोलापुर जिले का एक नगर
जो बसा नीरा नदी के किनारे
जहाँ ज्वार , बाजरा
अनार , केले , अमरूद के खेतों संग
होड़ लगाते है अँगूर के खेत
वहीं कहीं धीमें – धीमें जड़े जमा रहा ड्रैगन फ्रूट

एंड्रॉयड से संचालित इस वैश्विक युग में
अकलुज ने
एक हाथ से थाम रखा है इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ

अहमदनगर महाराष्ट्र के
चौड़ी गांव में जन्मी अहिल्या बाई शिंदे
जिस तरह धड़कती है मध्यप्रदेश के हृदय में
बन राजमाता अहिल्या बाई होलकर
अकलुज वासियों के मानस में अंकित है ठीक उसी तरह

यहाँ , बात केवल चौक चौरोहों पर स्थापित
उनकी मूर्तियों की नहीं है
बात केवल नामकरण की नहीं है
बात केवल गर्व की नहीं है
बात केवल मराठा सम्बंध की नहीं है
बात है उन सब बातों से कहीं ऊपर

अकलुज के वासी
देखते हैं इंदौर को तीर्थक्षेत्र की तरह
कामना करते यात्रा महेश्वर तक

उनका भर जाता कण्ठ
बढ़ जाता मान
जुड़ जाता अदृश्य बंध देखते ही इंदौर के जनों को
क्या आश्चर्य की जहाँ की हवाओं में पसरी है
खमीर उठे अंगूरों की सुगंध
वहीं तारी है बरसों बरस पुरानी
सभ्यता , संस्कृति से लगाव का नशा !

मछली बाज़ार
———————–
मछली खाना और फ़साना दोनों ही है दुरूह काज
दोनों में लगता है असीम धैर्य , जुगत और निगाह
मछली फ़साने के लिए जाल बिछाना पड़ता है
खाने के लिए हडिड्यों का जाल हटाना पड़ता है

दोनों ही मामलों में मछली की आँख रहती है
पूरी खुली फटी – फटी , बड़ी – बड़ी
फिर चाहे हो वह पौम्फ्रेट , बांगड़ा या सुरमई

कभी – कभी लगता है मछली ख़ुद ही फस जाती है जाल में
क्योंकि , रोज़ आता है मछुआरा नियत समय में , नियत जाल
और नियत भोजन को लेकर और बैठ जाता है नाव में

चंचल , चपल मछलियाँ अपनी नियती लिए फिरती है
औ’ मिटाती है किसी बड़ी मछली या बड़े आदमी की भूख

मछली खाने के बाद आती नहीं डकार
देह और गृह में बस रच बस जाती है गंध
फ़साने वाले की भुजाओं में उमड़ पड़ती है मछलियाँ और
खाने वाले की देह होती जाती है मछली – सी चिकनी चमकदार

सुना है ,
घर की मुर्गी होती है दाल बराबर
तो , मत्स्य कन्याओं रहो सावधान
देख लो !
आस – पास कहीं बिछा तो नहीं है जाल
क्योंकि ,
मछली खानें और फ़साने वालों से पटा पड़ा है ये बाज़ार

 

कवि परिचय
————

नाम – विशाखा मुलमुले  ( पुणे )

अनेक पत्र पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित  ।

मराठी , पंजाबी ,बंगाली , नेपाली व अंग्रेजी भाषा में कविताओं का अनुवाद एवं सात साझा संकलनों में कविताएँ  प्रकाशित ।

काव्य संग्रह – पानी का पुल ( बोधि प्रकाशन की दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत )2021 में प्रकाशित ।

अनुदित मराठी संग्रह – अजूनही लाल आहे पूर्व ( डॉ सुलभा कोरे संग डॉ सुधीर सक्सेना जी की कविताओं का मराठी में अनुवाद )

Tags: Vishakha Mulmule /विशाखा मुलमुले : कविताएँ
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Comments 2

  1. सविता says:
    2 years ago

    सुन्दर कविताएँ विशाखा जी। सुख दुख और प्रशंसा विशेष तौर पर पसंद आयी। हार्दिक बधाई।

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      2 years ago

      धन्यवाद ।

      Reply

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