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Home कविता

रंजीता सिंह की कविताएँ

by Anhadkolkata
September 30, 2023
in कविता
A A
6
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शालू शुक्ला की कविताएँ

रंजीता सिंह गहन अनुभूति और साकारात्मक संवेदना की कवि हैं – उनकी कविताएँ पढ़कर निश्चय ही इस पर यकीन कायम होने लगता है। उनकी कविता की संवेदना किसी मजबूर और सतायी हुई स्त्री के स्वर की तरह नहीं है बल्कि स्त्री होने का एक गर्वबोध भी है जो कविता में आकर पुरूष सत्ता पर बहुत ही शालीनता और मिठास के साथ चोट करता है। कहीं-कहीं कविता में गुस्सा छुप नहीं पाता लेकिन यह एक अच्छे कवि और कविता की अच्छाई ही मानी जानी चाहिए।

एक कवि की यह बड़ी कसौटी है कि वह कहाँ और किन लोगों के साथ खड़ा है – रंजीता की कविताएँ मनुजत्व के साथ खड़ी हैं। यह एक विशेषता किसी भी कवि के लिए एक जरूरी शर्त होनी चहिए। क्योंकि कवि और कविता सामान्य से अलग और ऊपर है – यह हमें मान लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।

“अपने अन्दर की आग को
बचाये रखने के लिए
ज़रूरी है
अपने वक्त की तल्खियों पर
उदास होना ,

उनलोगों के लिए
उदास होना
जो बरसों से खुश नहीं हो पाये”

तो रंजीता सिंह की उदासी किस तरह फैल कर वैश्विक धरातल पर चली जाती है यह रेखांकित करने वाली बात है। वे हिन्दी कविता में बहुत कुछ नया जोड़ रही हैं और अनकहा कह रही हैं ।

अनहद कोलकाता पर रंजीता जी का स्वागत। आपकी राय की प्रतीक्षा तो रहेगी ही।

रंजीता सिंह

 

अपने वक्त की तल्खियों पर उदास होना

कांपती सी प्रार्थनाओं में उसने मांगी
थोड़ी -सी उदासी
थोड़ा- सा सब्र
और ढ़ेर सारा साहस ,

अपने अन्दर की आग को
बचाये रखने के लिए
ज़रूरी है
अपने वक्त की तल्खियों पर
उदास होना ,

उनलोगों के लिए
उदास होना
जो बरसों से खुश नहीं हो पाये

उनके लिए उदास होना
ज़िन्होंने
हमारी ज़रूरतों की लड़ाई में
खो दी अपने जीवन की
सारी खुशियां .
ज़िन्होंने गुजार दिए
बीहड़ों में जीवन के जाने कितने बसंत

ज़िन्होंने नहीं देखे
अपने दुधमुहें बच्चे के
चेहरे ,
नहीं सुनी उनकी किलकारियां ,
वे बस सुनते रहे
हमारी चीखें ,
हमारा आर्तनाद
और हमारा विलाप ,
उन्होंने नहीं थामीं
अपने स्कूल जाते बच्चे की उंगलियाँ
उन्होंने थामे
हमारी शिकायतों के
पुलिन्दे
हमारी अर्जियाँ

किसी शाम घर में
चाय की गर्म चुस्की के साथ
वे नहीं पूछ पाए
अपनों का हाल -चाल
वे बस पूछते रहे
सचिवालय ,दफ्तर ,थानों में
हमारी रपट के जवाब

कभी चांदनी ,अमावस या
किसी भी पूरी रात
वे नहीं थाम सके
अपनी प्रिया के प्रेम का
ज्वार
उन्होंने थामे रखी
हमारी मशालें
हमारे नारे
और हमारी बुलंद आवाज

वे ऋतुओं के बदलने पर भी
नहीं बदले ,
टिके रहे
अडिग संथाल के पठार
या हिमालय के पहाड़ों की तरह

हर ऋतु में उन्होंने सुने
एक ही राग
एक ही नाद
वे सुनते रहे
सभ्यता के शोक – गीत

उबलता रहा उनका लहू
फैलते रहे वे
चाँद और सूरज की किरणों की तरह
और पसरते रहे
हमारे दग्ध दिलों पर ,
अंधेरे दिनों
और सुलगती रातों पर
और भूला दिए गए
अपने ही वक्त की किसी
गैर-जरूरी कविता की तरह

वे सिमट गए
घर -चौपाल के किस्सों तक
नहीं लगे
उनके नाम के शिलालेख
नहीं पुकारा गया उन्हें
उनके बाद

बिसार दिया गया
उन्हें और उनकी सोच को
किसी नाजायज बच्चे की तरह
बन्द कर लिए हमने
स्मृतियों के द्वार

जरूरी है
थोड़ी- सी उदासी
कि खोल सकें
बन्द स्मृतियों के द्वार ,

जरूरी है थोड़ी-सी उदासी
कि बचाई जा सके
अपने अन्दर की आग

ज़रूरी है थोड़ा-सा सब्र
हमारे आस -पास घटित होती
हर गलत बात पर
जताई गई
असहमति ,प्रतिरोध
और भरपूर लड़ी गई लड़ाई के बावजूद
हारे -थके और चूक से जाने का दंश
बर्दाश्त करने के लिए

और बहुत जरूरी है
ढ़ेर सारा साहस
तब
जब हम हों नजरबन्द
य़ा हमें रखा गया हो
युद्धबन्दी की तरह
आकाओं के रहम पर

बहुत जरूरी है
थोड़ा-सा साहस
कि कर सकें जयघोष
फाड़ सकें  अपना गला

और चिल्ला सकें
इतने जोर से
कि फटने लगे धरती का सीना
और तड़क उठें
हमारे दुश्मनों के माथे की नसें
कि कोई बवंडर
कोई सुनामी तहस -नहस कर दे
उनका सारा प्रभुत्व

बहुत जरूरी है
ढ़ेर सारा साहस
तब
जबकि हम जानते हैं
सामने है आग का दरिया
और हमारा अगला कदम
हमें धूँ -धूँ कर जला देगा

फिर भी उस
आग की छाती पर
पैर रखकर
समन्दर सा उतर जाने का
साहस बहुत जरूरी है

जरूरी है
बर्बर और वीभत्स समय में
फूँका जाए शंखनाद
गाए जाये मानवता के गीत
और लड़ी जाए
समानता और नैतिकता की लड़ाई

तभी बचे रह सकते हैं
हम सब
और हमारे सपने
हम सब के बचे रहने के लिए

बहुत जरूरी है
थोड़ी सी उदासी
थोड़ा सा सब्र और
ढ़ेर सारा साहस |

छोड़ी गईं औरतें और भुलाई
गईं प्रेमिकाएँ

छोड़ी गईं औरतें और भुलाई गईं प्रेमिकाएँ
सबसे ज्यादा भाग्यशाली होती हैं

क्योंकि छोड़े जाने और भुलाये जाने
के क्रम में ही उनकी खुद से होती है मुलाकात
मिलती हैं खुद से पहली बार सदेह
टटोलती हैं ,अपना ही अस्तित्व
चौंकती हैं खुद से मिलकर,
ठिठकती हैं
सत्य और भ्रम के बीच

झिझकती हैं स्वयं से मिलने में
पर थोड़ी सी सकुचाहट के बाद
फेंकती हैं ,घनी पीड़ा का आवरण
और होती हैं अकवार,भींचती हैं कस कर
अपनी ही रूह,और जन्मती हैं खुद को
फिर देखती हैं पहली बार
समय का दर्पण

झाँकता है एक मासूम सा चेहरा शायद
चौदहवें या सोलहवें साल सा,जस का तस
नहीं पहचान पातीं खुद को,कभी देखा नहीं था
खुद को ऐसे इन रंगों में,इतने विस्तार से
इतनी कोमलता से,ऐसी सूक्ष्मता से

हर छोड़ी हुई औरत
हो जाती है,आत्ममुग्धा
खुद से करने लगती है प्रेम
खुद पर करने लगती है विश्वास
खुद को सहेजने, समेटने में
हो जाती है ,बहुत व्यस्त

इतनी कि उसे फुर्सत ही नहीं होती
देखने, सोचने, समझने की
कि कौन क्या कह रहा है
कौन क्या समझ रहा है
टेढ़ी भौहों की प्रत्यंचा पर,
नहीं टिक पाता
कोई तंज,कोई प्रतिरोध

उसकी लंबी, उदास ,आँखों के कोर
कुछ और बड़े, गहरे और कजरारे हो जाते हैं
बीते जीवन की सारी कालिख वह अपनी आँखों में
आंज लेती हैं ,अंजन की तरह

और हँस पड़ती हैं उसकी आँखें
गूँजती है उन आँखों की बे-आवाज
हँसी दूर दूर तक

और चुभती है जाने कितने कानों में
लोग उसमें टोना टोटका भी ढूँढ लेते हैं
मर्दों के फूँके जाते हैं कान
दी जाती हैं हिदायतें
उनसे दूर रहने की

जबकि वो जानती हैं,ऐसे लोगों को दिल ही नहीं
जीवन की परिधि से भी परे रखना

वह हँसती है
एक दंभमिश्रित हँसी
और बिना कोई शोक किए रचती हैं
गाती हैं ,गुनगुनाती हैं
जीवन के प्रति आस्था के गीत

सभ्यताएँ झुँझलाती हैं,तिलमिलाती हैं
नहीं सुनना चाहतीं उसके मधुर
दंभित, ओजपूर्ण स्वर

नियति की मारी ये औरतें
जो किसी की सगी नहीं होतीं
ये जितनी निर्ममता से ठुकराईं  जाती हैं
उतनी ही दृढ़ता से पकड़ लेती हैं
अपनी ही उँगलियाँ और
चल देती हैं ,एक चपल चाल

उनके पीछे लिखी जाती हैं कहानियाँ
कसे जाते हैं तमाम तंज

पर अब वे बेखबर हो जाती हैं
बेअसर हो जाती हैं ठीक वैसे
जैसे उन्हें  छोड़ते और भूलते वक्त
वे तमाम लोग बेअसर थें

अब तो उन्हें वक्त ही नहीं मिलता
कि जरा मातम ही मना लें
अब तो एक भूले-बिसरे किस्से की तरह
बतिया लेती हैं  ,कभी-कभार अपनी टोली में
हँस देती है एक तीखी हँसी….

और थूक देती हैं सारी आपबीती किसी
किरकिरी की तरह
वे, अब बार-बार नहीं खराब करतीं
जीवन का स्वाद
अब करती हैं बातें सिर्फ़ अपनी
और अपने जैसी उन तमाम औरतों की
जो आकाश गंगा सी दमकती हैं
अपने ही आसमान पर
जो छोड़ आई हैं,सारे रिश्ते-नाते
धरती की किसी अनदेखी जगह
या फिर शायद पाताल में

जहाँ से चाहकर भी,वे लोग नहीं देख पाते
उनका उल्कापिंड सा चमकना
सितारों सा हँसना और चाँद सा टिकना
सफलता के आसमान पर

कभी-कभी किसी चाँदनी रात में
जब कोई बीता लम्हा
धीरे से आकर खरोंच जाता है
उनका मन
तो ओस की तरह रो लेती हैं
मोम-सी पिघल लेती हैं
फूटता है अंदर से ,वेदना का कोई ज्वार
कि ऐसा क्यों हुआ ,वैसा क्यों हुआ
ऐसा तो नहीं होना था

पर अगली सुबह
आसमान की खिड़की से झांकती हैं  ,संवारती हैं
अपने बाल
टांकती हैं,सुर्ख सूरज की बिंदी
चूमती हैं अपना हीं माथा
और
फिर से निकल पड़ती हैं
जीने को अपनी राह
अपनी तरह से ।

स्त्री अस्मिता का आका होना

वे नहीं भूल पाते
अपना आका होना

हालांकि वे बेहद शालीन
और बुद्धिजीवी लोग हैं
स्त्री अस्मिता के घोर
पक्षधर लोग

ये वही लोग हैं
जो औरतों को नई दिशा और दशा देना चाहते हैं
ये वही लोग हैं जो सदियों की परम्परा को अब
बदल देना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जो द्रवित होते रहे हैं
सालों से हमारी
दबी कुचली हैसियत पर

ये वही लोग हैं
जिन्होंने खपा दिए
जिन्दगी के बरसो- बरस
हमारे विमर्श पर

ये वही लोग हैं
जो एकदम से हमारे शुभेच्छु और
सगे हो जाना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जो हमारे व्यक्तित्व को गीली मिट्टी सा
गूंध   देना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जिन्होंने बनाए हैं अलग-अलग साँचे
कि हमें नये-नये रूप में
सिरज सकें

ये वही लोग हैं
जो हमें बताएँगे कि हम
नाप सकते हैं आसमान

ये वही लोग हैं जो
हमें पतंग की शक्ल में देंगे
खुला आसमान

ये वही लोग हैं जो
हमें बचाएंगे किसी भी
घात से

ये वही लोग हैं जो
हमें सिखाएंगें
रेस में जीतने के हुनर
पर,
तभी जब हम में से कोई भी स्त्री
गूंधे जाने के बावजूद
नहीं ढल पाती इनके साँचे में
या फिर आसमान में
अचानक बदल देती है
अपने उड़ान की दिशा

ये वही लोग हैं
जो सबसे ज्यादा
तिलमिलाते हैं
बौखलाते हैं
और त्यौरियाँ चढ़ाते हैं

ये वही लोग हैं जो
जारी करते हैं
कोई नया फतवा या
फरमान

ये वही लोग हैं
जो बरसों से हमारी आज़ादी के नाम पर
कर रहे हैं अपनी अलग-अलग सियासत

ये वही लोग हैं जो
कभी नहीं भूलते
अपना आका होना ।

दुख में हंसती हुई औरत

अपने दुःखों पर
हँसती हुई औरत
तीर-सी आ चुभती है

देवताओं के भाल पर
और
इंसानों के कपाल पर

औरत को
सिखाये जाते हैं
संस्कार
दुःख में रोने के
उनके रोने से ही
समृद्ध होता है
हमारा समाज

दुःख में रोती औरत
दुलराई जाती है
चुप कराई जाती है

रोती हुई औरत का
दुःख हरने आते हैं
देवदूत, ऋषि-मुनि
और
दुनिया के
सारे भले लोग

पर
दुःख में हँसती हुई औरत
पैदा करती है
बड़ा बवाल

दुःख में हँसती हुई औरत की हँसी
होती है जैसे कोई बवंडर
या कोई चक्रवात

खंडित होती हैं
आस्थायें
भग्न होता है दर्प

और
दुदुम्भी सी
उनकी हंँसी
आ गिरती है
किसी गाज-सी
उन सभी कंधों पर
जो चाहे-अनचाहे
उसके दुःख के कारक थे

दुःख में हँसती हुई औरत
काली-सी विहँसती है
और
धर देती है पांव
रिवाजों की छाती पर ।

शर्मनाक हादसों के गवाह

हम जो हमारे समय के
सबसे शर्मनाक हादसों के
चश्मदीद गवाह लोग हैं

हम जो हमारे समय की
गवाही से मुकरे
डरे-,सहमें , मरे-से लोग हैं …

हमारे माथे
सीधे-सीधे
इस सदी के साथ हुई
घोर नाइंसाफी को
चुपचाप देखने का
संगीन इल्जाम है ,

हमने अकीदत की जगह
किये हैं सिर्फ और सिर्फ
कुफ्र
हमने अपने समय के साथ
की है दोगली साज़िशें .

हमने अपने हिस्से की
जलालत
पोंछ ली है
पसीने की तरह
और घूम रहे हैं
बेशर्म मुस्कुराहटों के साथ
दोहरी नैतिकता लिए

हम सिल रहें हैं
चिथड़े हुए
यकीं के पैरहन ,
उदासियों ,मायूसियों और
नाकामियों के लिहाफ
कि ढ़क सकें
अधजले सपनों के चेहरे

हमने अपने होठों पर
जड़ ली है
एक बेगैरत सी चुप्पी
बड़ी हीं बेहय़ायी से
दफना दी है
ज़िन्दा सवालों की
पूरी फेहरिस्त

हमने अपनी तालू पर
चिपका लिए हैं
चापलूसी के गोंद
और सुखरू हो चले हैं
कि हमने सीखा दी है
आने वाली नस्लों को
एक शातिराना चुप्पी

हम ठोक -पीट कर
आश्वस्त हो चले हैं कि
मर चुके सभी सवाल

पर हम भूल गए हैं कि
असमय मरे लोगों की तरह
असमय मरे सवाल भी
आ जाते हैं
प्रेत योनि में

और भूत -प्रेत की तरह ही
निकल आते हैं
व्यवस्था के मकबरों से
और मंडराने लगते हैं
चमगादड़ों की तरह
हमारी चेतना के माथे पर

हम भूल जाते हैं कि
कितनी भी चिंदी- चिंदी कर
बिखेर दें
तमाम हादसों के दस्तावेज
वे तैरते रहते हैं
अंतरिक्ष में
शब्दों की तरह

हम भूल जाते है कि
शब्द नहीं मरते
वे दिख जाते हैं
जलावतन किये जाने के बाद भी

वे दिखते रहते हैं
हमारे समय के दर्पण में
जिन्हें हम अपनी
सहूलियत,महत्वकांक्षाओं ,
और लोलुपताओं
के षडयंत्र में
दृष्टि-दोष कह
खारिज कर देते हैं

हम जो हमारे समय के
सबसे शर्मनाक हादसों के
चश्मदीद गवाह लोग हैं ..।

एकांत और कविता

मेरे एकांत में
मुझ तक आये
धरती के ढ़ेर सारे
बहिष्कृत , वंचित और
अनावृत पल

मैंने उन्हें धीरे से उढ़ाई
संवेदनाओं की दुशाला
आतिरिक्त औदार्य से
उन्हें पुचकारा
बहुत हीं सौम्यता से झांका
उन विस्फरित विदग्ध आँखों में ..
एक सहज मुस्कान से दिये
मौन निमंत्रण ..
उस असीम अंधेरे में
आई एक मद्धम-सी नरम रोशनी !

धीरे-धीरे दिखने लगा
उन आँखों का अरण्य
पीडा़ और पराजय के
लज्जित पल
पत्तों से कांप रहे थे
वक्त की शाख पर

सांय-सांय बह रही थी
एक अजीब-सी अदृश्य हवा
कुछ अस्फुट स्वर गूंज रहे थे
ठीक उन फतवों की तरह
ज़िनके डर से सहम कर
मूक हो गए थे सदी के
जाने कितने-कितने पल

उन पलों का मौन
जैसे कोई पाषाण

पर बह रही थी
अन्दर बची हुई
चेतना की एक क्षीण-सी नदी

मौन के पाषाण पर
कान धरकर मैंने सुनें
बीती सदियों के क्रांति -गीत
काल के ताल में थिरके
युग-प्रवर्तकों के चेहरे

और तभी हमारे समय के
भयानक शोर ने
मेरे एकांत के
चिथड़े उडा़ दिए
मुझ तक आने लगी
इर्द-गिर्द बिखरी हुई
हजारों चीखें और
दिखने लगे
दम तोड़ते वो सारे
नए और सुंदर पल
जिन पर
कल ही लिखी थी
मैंने एक नयी कविता ।

मुझे नहीं आता

मुझे नहीं आता
तुम्हारे हठ की तनी रस्सी पर
सब्र की छड़ी थामे
किसी कुशल नटी की तरह
सधे पांव चलते जाना

मुझे नहीं आता
तुम्हारे दंभ के डमरू पर
किसी बंदरिया-सा नाचते जाना
खी-खी कर दांत निपोरना
नए-नए करतब दिखाना

मुझे नहीं आता
तुम्हारे क्षोभ की बीन पर
सर्पिणी-सा फन काढ़ना
और लहराते जाना

मुझे नहीं आता
तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के आकाश पर
पतंग-सा लहराना
और डोर खींचते ही
वापस पलट आना।

 पुरूष

पुरुषों की भीड़ से
मैं उसी विरक्त भाव से गुजरती रही
जैसे ट्रैफिक जाम में फंसा कोई आम इंसान

विचित्र संयोग रहा कि
दिन-दुपहरी
रात -बेरात
स्त्री होकर भी पुरुषों के बीच
पुरुषों-सी गुजरती रही

मुझे घूरने वाली तमाम
मरदाना आंखों को मैं
यकीनन
एक गलत मुहावरे की शक्ल में मिली

दुनिया की भीड़ में अब भी
स्त्रियों से ज्यादा पुरुष हैं
और आज से बीस साल पहले
किसी ऐसे शहर में मैंने
बेधड़क चलना शुरू किया था
जहां स्त्री को स्त्री की तरह भी देख पाने की भी
सलाहियत नहीं रख पाए थे वहां के पुरुष

बहुत दिनों तक दबा,-दबा सा शोर
गूंजता रहा
आस -पडोस ,चौक-चौराहे पर

अचानक फूटे बलून की तरह कुछ फिकरे
ठीक कानों के नीचे गिरते
फिकरे कमर तक की चोटी में उलझ-उलझ
पीठ पर खरोंच पैदा करते

कमर तक की चोटी को
कंधे तक के थी स्टेप में काट
उन फिकरों की चुभन से
मुक्त होने की मैंने कोशिश की

फिकरे फिसल कर धप्प-से
जमीन पर गिरने लगे
गिरे हुए फिकरों को मैं
जूती की नोक से कुचल
आगे बढ़ने लगी थी

पुरुषों की दुनिया में
पीठ छीलती भीड़ के बीच से
रोज़-रोज़ गुजरते हुए
यकायक मिले
स्त्रियों से भी ज्यादा कोमल और
सखियों जैसे सगे कुछ
भरोसेमंद और प्रबुद्ध पुरुष

उन्हीं कुछ पुरुषों की वजह से
सूखते रहे पांव के छाले
मिटती रही पीठ की खरोंच

किसी पुरुष की आँखों  में ही
मैंने पहली बार देखा
अपना चट्टान सा व्यक्तित्व
और लिया कभी न टूटने का संकल्प

किसी पुरुष के वात्सल्य भरे
हाथ ने ही मुझे संभाला
हर आघात में

उन चंद पुरुषों ने ही मुझे सिखाया
कि दुनिया सिर्फ भीड़ नहीं
और स्त्री होना कोई अपराध नहीं
उन पुरुषों ने दिया मुझे
मनुष्य होने का सम्मान
विश्वास और मैत्री जैसे शब्द
उनसे मिलकर ही सार्थक हुए

उन हाथों ने इंगित किए
हमेशा सही राह
मेरी सिसकी मात्र पर सजल होते
और मुझे धीर धराते पुरुषों ने ही
बचाया मेरा खंडित होता आत्मबल
अपनी विवशताओं पर
बुक्का फाड़कर रोते वक्त
मैंने नहीं देखा उनका पुरुष होना

पुरुषों की भीड़ से विरक्त गुजरते हुए
मैं कई बार ठहरी
उन तमाम पुरुषों के पास
जो भीतर से स्त्री थे
और आचरण में
पूरे के पूरे मनुष्य ।

अदृश्य हुई औरतें

वही जो कल तक
पढ़-लिख रही थीं
बोल रही थीं और
दुनिया को अपने श्रम और संघर्ष से
कुछ और सुंदर कर पाने की
जद्दो-जहद में जुटी थीं
सब कुछ रचती
सुनती ,गुनती
वो ढे़र सारी औरतें
आखिर कहांँ गई ?

धरती की आधी आबादी
की तमाम प्रबुद्ध-प्रखर औरतें
आखिर कहां गईं ?

कहांँ विलुप्त हो गईं ?
किस पाताल में चली गईं ?
किस खोह में घुस गईं ?
कहांं एकांतवास ले लिया ?
कौन से नए ग्रह पर बस गई ?

हममें से किसी ने भी
कोई सवाल नहीं किया !

हमने सच में
कभी पूछा हीं नहीं
कि विद्रोह के शंखनाद फूंँकती
वो तमाम जीवंत और जीवट
औरतें कहांँ गई ?

असल में
सृष्टि के आरंभ से अब तक
एक भयानक साजिश से
घिरी रही है
औरतों की दुनिया

यहांँ कुछ परमपिताओं के
हाथ में है
एक खास सत्ता
जहां दिखने और टिकने की है
खास नियमावली

चरण वंदन और
शीश नमन के बिना
खारिज हो जाती हैं
सारी प्रतिभा
सारा वैदुष्य

उस सृजन संसार में
दाखिल होना भी
एक अद्भुत कौशल है

आत्मसम्मान खोकर ही
अर्जित किए जा सकते हैं
उनके विशेष उत्तराधिकार

ढेर सारी अच्छी और सच्ची कविताएँ
दम तोड़ देती हैं उनकी चौखट पर
बिना पढ़े ही सीधे सीधे
ख़ारिज कर दी जाती हैं

और इन ढे़र सारी कविताओं की तरह
नकार दिया जाता है
उन औरतों का अस्तित्व
ज़िन्होने नहीं स्वीकारी
उनकी सत्ता
उनका वर्चस्व
उनका प्रभुत्व

परमपिताओं के फतवों से
वे अदृश्य हुई जाती हैं

कान लगाकार सुनो
सुनाई देगी
यहीं हम सबके बीच
सिसकती ,आहें भरती और
आकाओं के षड्यंत्र के
राज खोलती
अदृश्य हुई औरतें

ठीक से देखो,गौर से सुनो
अदृश्य हुई औरतें
अब भी बुदबुदाती है
अपनी मृत कविताएँ
ठीक मर्सिया की तरह।

बगावत

बागी औरतों का
कोई मुल्क नहीं होता
बल्कि हर मुल्क से
बेदखल होती हैं
बागी औरतें।

 कविता

सवर्ण-दलित
फासिस्ट- वाम हुए बिना
क्या नहीं लिखी जा सकती है
कोई भी कविता !

 चरित्रहीनता

तुमने बगावत की
तो उसे कहा गया
पौरुष
हमने बगावत की
तो कही गई
चरित्रहीनता ।

 

 

परिचय-संक्षेप
रंजीता सिंह “.फलक “
साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘कविकुंभ’ की संपादक।
सम्पादक -खबरी डॉट कॉम |
चर्चित काव्य-संग्रह – ‘प्रेम में पड़े रहना’, साक्षात्कार संकलन – ‘शब्दशः कविकुंभ’ तथा ,”कविता की प्रार्थनासभा “,कविता का धागा,प्रारंभ ,एवं कई अन्य किताबों “में कविताओं पर चर्चा एवं कविता ,गज़लों , गीतों का देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन , स्पेशल न्यूज, परिचर्या, रिपोर्ताज, कविता ,गीत-ग़जलों का ,दूरदर्शन,आकाशवाणी एवं अन्य मंचों पर प्रसारण |
कई राष्ट्रीय स्तर के सम्मानों से सम्मानित |
अंग्रेजी,बंगला, ओड़िया,पंजाबी,भोजपुरी ,गुजराती आदि कई भाषाओं कविताओं का अनुवाद ।
स्त्री-पक्षधर संगठन ‘ बीइंग वुमन’ की संस्थापक अध्यक्ष। पत्रकार लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता।

संपर्क – 9548181083
ईमेल -beingwoman04@gmail.com
being.woman00@gmail.com

Tags: Rnjita singh/रंजिता सिंह : कविताएँ
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अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

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Comments 6

  1. Divik Ramesh दिविक रमेश says:
    2 years ago

    रंजीता सिंह की कविताओं में जो संघर्ष, उम्मीद, सच्चा आत्म-बोध और चुनौतियों से टकराने का जरूरी आत्मविश्वास से भरा साहस होता है वह मुझे हमेशा उनकी कविताओं की ओर खींचता रहा है। बिना ढोल बजाए वे स्त्री विमर्श भी रचती हैं और मनुष्य-विमर्श भी। उनके पास सकारात्मकता भी है और जिजीविषा भी। इनकी कविताएँ गलत को तोड़ते हुए जोड़ती हैं- मनुष्य को मनुष्य से। बिना बड़बोली हुए व्यंग्य का भी महीन और सटीक उपयोग करती हैं।
    कभी-कभार का दोहराव संपादित किया जा सकता है लेकिन वह बाधक एकदम नहीं होता।
    इन कविताओं के लिए रंजीता सिंह को तो बधाई है ही, सशक्त कविताओं के इस चयन के लिए अनहद कोलकाता को भी बधाई। शुभकामनाएँ।
    दिविक रमेश

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      2 years ago

      आभार। अनहद कोलकाता से जुड़े रहने का शुक्रिया ।

      Reply
  2. Dilip Darsh says:
    2 years ago

    अच्छी कविताएँ. संपादक और कवि दोनों को बधाई.

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      2 years ago

      आभार । अनहद कोलकाता से जुड़े रहने का शुक्रिया ।

      Reply
  3. भानु प्रकाश रघुवंशी says:
    2 years ago

    अच्छी कविताएं हैं।

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      2 years ago

      आभार । अनहद कोलकाता से जुड़े रहने का शुक्रिया ।

      Reply

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