आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की ग्यारहवीं कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
वरीयता का भूत
“आप अपना बाल कहाँ कटवाते हैं” – फोन पर हरबल साहब थे।यह कोरोना काल के कई वर्ष पूर्व की घटना है। कोरोना काल में तो लोग आत्मनिर्भर हो गए थे, कम से कम बाल काटने के काम में। लोग अपने बाल से बाल स्वयं काटने लगे थे। मैं यह बात पूरी प्रामाणिकता के साथ कह रहा हूँ। अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के हेयर कटिंग उपकरण के बिक्री के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। इसी समय कुछ लोग अपना बाल कटवाने के लिए पत्नी की सेवाओं का भी साधिकार उपयोग कर रहे थे। कई लोग जो आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ स्वाभिमानी भी थे, दो आईने के सहारे केश–कर्तन में महारत हासिल कर चुके थे।सर्वविदित है कि पत्नी के सामने गिने-चुने लोगों का ही स्वाभिमान सुरक्षित रह पाता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मैं उनमें नहीं हूँ। सदैव आत्मसमर्पण की मुद्रा में रहता हूँ। घर में प्रवेश करते ही स्वाभिमान का चोला उतारकर खूंटी पर टांग देता हूँ। कोशिश करता हूँ कि यह चोला चौबीसों घंटे उतरा रहे क्योंकि मुझे अपनी औकात पता है। खैर, हरबल साहब यह प्रश्न घनघोर कोरोना काल में पूछते तो शायद मैं आसानी से जवाब दे देता।परंतु उस समय मेरे जैसे सीधे आदमी के पास सीधा सा जवाब था। फिर भी एकबारगी ऐसा प्रश्न सुनकर मैं सकपका गया।इतने बड़े पदधारी और उसमें भी भाषा के अधिकारी!उनका यह प्रश्न एक मातहत को परेशान करने के लिए काफी था। मुख्यालय में कुंडली मार कर बैठा यह आदमी कब भारत-भ्रमण करा दे-इस चिंता में मैं चुप लगा गया।हैरान करने वाले इस प्रश्न से मैं दुखी जरूर हुआ। दुख की वजह यह कि प्रश्न पूछने की टाइमिंग गलत थी। कहते हैं न कि अफसर चौबीसों घंटे अफसर ही रहता है – मतलब ऑन ड्यूटी।इस हिसाब से उसे देशकाल,पात्र-अपात्र आदि का कुछ भी ख्याल नहीं रहता। हरबल साहब भी इससे अछूते नहीं थे। यहाँ तक कि हरबल साहब को अपना सूरज ढलने का भी बिलकुल एहसास नहीं था। वह अभी रेस के घोड़ा थे,अस्तबल में बंधने का उन्हें अंदाजा ही नहीं था। हर सुबह की एक शाम होती है-यह उन्हें पता ही नहीं था। इसीलिए सेवा की सांध्य वेला में गाहे-बगाहे वह जेठ के दोपहर की सूरज की तरह आग उगलते रहते थे।
इधर भी सूरज ढलने को था और मैं पूरे दिन धूप खाकर प्यास से निढाल हो चुका था। पर मैंने सोचा रिपोर्ट कूरियर कर ही दूँ तो सामने के ठेले से जूस पीकर प्यास बुझा लूँगा। ऐसा सोच कर मैंने कूरियर कर खुशखबरी सुनाने के लिए ही हरबल साहब को फोन मिलाया था। यह कोई चापलूसी नहीं थी बल्कि अनुपालन की सूचना मात्र थी जिसे देकर मैं संतुष्ट और निश्चिन्त होना चाह रहा था। धन्यवाद या शाबाशी के बदले जो मैं सुन रहा था उस पर मेरे कानों को यकीन नहीं हो रहा था।उनके शब्द मेरे कानों में पिघलते हुए शीशे की तरह बहुत देर तक खदबदाते रहे। मैं हतप्रभ था। मेरी प्यास भाप बन कर हवा में उड़ चुकी थी। मैं मॉल की गगनचुंबी इमारत की छाया में सीढ़ियों पर लगभग धराशायी होते हुए बैठ गया।बीस वर्षों की सेवा में किसी ने मुझसे इस तरह का सवाल नहीं पूछा था। पूरी विनम्रता से जवाब देने के बावजूद, सवाल अपनी जगह पर जस का तस बना हुआ था। वह हथौड़े की तरह मेरे सिर पर चोट कर रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं इस सवाल का माकूल जवाब कभी नहीं दे पाऊँगा।इस जनम में तो कतई नहीं।हालांकि शब्दों एवं भाषा के स्तर पर ऐसा इसमें कुछ नहीं था जो अपमानजनक हो। मगर भाव की जो तासीर थी वह अपमान से भी कहीं अधिक गंभीर थी।पल भर के लिए मैंने सोचा क्यों न इस जिल्लत की नौकरी से छुटकारा पा लिया जाए।फिर सामने पत्नी और बच्चे के चेहरे घूमने लगे। नौकरी पर पेट भारी पड़ रहा था।
बहरहाल,मेरे सामने अन्य कई साथी खड़े हो गए जो दिन भर डांट सुनने और हंसने के अभ्यस्त हो गए थे। कहते थे- जीना है तो समझौता करने में ही बुद्धिमानी है। डांट सुनकर दाँत निपोरने वाले कर्मचारी अफसर के नाक के बाल होते हैं- यह बात प्यारेलाल जी ने मुझे समझाया था। लेकिन नया खून था,नया जनून था।लिहाजा नेक इरादे से फरमाए गए इस मज़बून को बिलकुल नहीं समझ पाया।उन्होंने यह भी कहा था कि ज्यादा संवेदनशील होना सेहत के लिए नुकसानदेह है। निर्लज्ज आदमी दीर्घजीवी होता है-आदि,आदि-जैसे उनकी कही हुई सूक्तियाँ याद आ रही थी। इसी बीच प्यारेलाल जी सामने हर गम को धुएं में उड़ाते हुए दिख पड़े। वे मेरा उदास चेहरा पढ़ कर बोले- नौकरी में आए हो तो कितने नक्कारों-मक्कारों से पाला पड़ेगा। अब धूल- गर्द को झाड़ो और नियमित रूप से रोज अपनी कमीज को साफ करो। लोग तो कीचड़ उछालेंगे ही। विभाग जलाशय होता है जिसमें तरह-तरह के जीव-जन्तु निवास करते हैं,शेर,सियार सब। वहाँ तुम्हारा एक ही आशय होना चाहिए- वेतन लेना। बाकी प्रतिष्ठा ,मान-सम्मान – वह तो तुम्हें बाह्य जगत से ही मिलेगा। जो बाहर मिलता है,वह अंदर नहीं मिलता और जो अंदर मिलता है वह बाहर नहीं मिलता। खिलंदड़े अंदाज में जियो। इस जलाशय में भी वही नियम है,बड़ी मछली छोटी मछली को खाने के लिए घात लगाए बैठी रहती है। सावधान रहो,विश्राम करो। अभी तो तुम्हारी नौकरी की शुरुआत है। कितने हरबल मिलेंगे। हरबल के बारे में सोच-सोच कर स्वयं को क्यों दुर्बल कर रहे हो।तुम्हें समझना चाहिए कि हरबल हो या प्रबल –नौकरी करने वाला अंततः निर्बल ही होता है।सास की भी सास होती है।लेकिन जब कोई महिला सास बनती है तो वह बिलकुल भूल जाती है कि वह भी कभी बहू थी। उनका लंबा व्याख्यान सुनकर थोड़ी तसल्ली जरूर मिली लेकिन पर्वत सी पीर पिघलने लगी- प्यारे भाई, गलती यही है कि प्रश्नावली में हाँ या नहीं में जवाब देना था। मैंने हाँ की जगह हाँ और नहीं की जगह नहीं ही लिखा और भेज दिया। हरबल साहब का कहना है कि दोनों के पहले जी क्यों नहीं लगाया। अब आप ही बताइये अँग्रेजी में यस के पहले क्या लगायेंगे।प्यारेलाल जी ठठा कर हँस पड़े। तुम नहीं समझे- इसको कहते हैं वरीयता का भूत,जो अफसर पर जब सवार हो जाता है तब ऐसे ही बेसिर–पैर की बात करता है। यह भूत तब उतरता है जब सामने यमदूत होता है,तब अफसर कहता है अभी तो हमसे वरीय लोग बैठे हुए हैं। पहले उनकी तो सुध लीजिए देवता! हरबल को भूलो,चलो,बैठकर कहीं हर्बल चाय पी जाए। कोरोना खतम हो गया है,सलोना बनने का समय आ गया है। जाकर अच्छे सैलून में बाल कटवाओ।तुम भी अफसर बनने वाले हो। अफसर बनना लेकिन देखना कहीं वरीयता का भूत तुम पर भी सवार न हो जाए।
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।