‘अनहद कोलकाता’ पर ललन चतुर्वेदी की व्यंग्य शृंखला आप हर पहले और आखिरी शनिवार पढ़ते रहें हैं । व्यंग्य के साथ -साथ कविताएँ भी ललन चतुर्वेदी जी के रचना संसार का अभिन्न हिस्सा हैं । सुचिन्तन के साथ अपनी बात कहना उनकी कविताओं की खास विशेषता है । हाल ही में ललन जी की कविता पुस्तक ‘ईश्वर की डायरी’ प्रकाशित हुई है। पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है। प्रस्तुत है उनके संग्रह से चयनित कुछ कविताएँ । आप की राय का इंतजार रहेगा ।
भूख का बाजार
भूखा आदमी भूख की चर्चा नहीं करता
सार्वजनिक नहीं करता इस निजी दुःख को
अपनी भूख मिटाने के लिए
कभी अनशन पर नहीं बैठता
भूख की तरह बचाता है
आखिरी साँस तक आत्मसम्मान को
उसे बड़ा दुःख होता है
जब सभ्य लोग भूख पर सेमिनार करते हैं
खाए पिए अघाए लोग भूख को
स्वादिष्ट व्यंजन की तरह परोसते हैं
वह जानता है
भूख का भी एक बड़ा बाजार है
भूख सियासी युद्ध का एक हथियार है
भले ही किसी की जान निकल जाए भूख से
पर भूख किसी शातिर के लिए रोजगार है
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि
भूख पर उसकी बात कभी नहीं सुनी जाती
जिसे बात करने का सर्वाधिकार है।
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सत्य शरणार्थी है !
मैं विजेताओं के जुलूस में कभी शामिल नहीं हुआ
पराजितों के शिविर में जाकर बैठ गया
जो पराजित हुए वे पतित नहीं थे
जो पराजित हुए वे पापी नहीं थे
वे सच बोलने वाले थे
इसलिए धीरे धीरे उनकी तादाद कम हो गई
उन्होंने जब भी सच बोलना चाहा
भीड़ के शंखनाद में उनकी आवाज दब गई
वे भीड़ से छिटके हुए लोग थे
लिहाजा उन्हें अछूत समझा गया
उनकी गिनती कम थी
इसलिए उन्हें नगण्य समझा गया
और जहाँ संख्या ही सत्य का पर्याय हो
सत्य वहाँ शरणार्थी बन जाता है
वह हर देश में सरहद पर खड़ा दिखता है
कोई उसे प्रवेश नहीं करने देता अपनी सीमाओं में
सत्य हर देश-काल में बहिष्कृत है
सत्य आज भी इतिहास से बाहर है
सत्य का कोई अपना भूगोल भी नहीं
सत्य आज भी तंबू गाड़ रहा है
कभी इधर,कभी उधर
कोई भी आकर उसका तंबू उखाड़ सकता है
उसे अनधिकृत घोषित कर सकता है।
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इतनी शक्ति हमें देना दाता…!
इन दिनों
दर्द की कोई दवा नहीं
अलबत्ता दवा के लिए दर्द है
निंदा और स्तुति में क्या फर्क है?
कब कौन क्या बोल दे
और सब हो जाएँ चुप
केवल देखें एक-दूसरे का मुँह
सब अपने-अपने अंधेरे में
दीपक जलाए बैठे हैं
नदी का पानी गंदला हो गया है
लेकिन सब घाटों ने बदल डाले हैं अपने नाम
कहने लगे हैं स्वयं को हरिश्चंद्र घाट
मालूम नहीं कब मृतात्माओं को
अदालत में पेश होने का हो जाए समन
घर -वापसी की अनिश्चितता में
ठिठकने लगा है पहला कदम
मनुष्यत्व का कोई मार्ग सुरक्षित नहीं
अचानक भीड़ बदल जाती है
भेड़िये की शक्ल में
प्रार्थना में उठे हाथ
हवा में लटक जाते हैं
धरती रक्त रंजित हो जाती है
लुढ़क जाती है एक और लाश
अस्पताल के बाहर भी
चलता रहता है अंत्यपरीक्षण
कई- कई दिनों तक
और हम एक बार फिर
खड़े हो जाते हैं उपासना गृह में
गुनगुनाने लगते हैं-
इतनी शक्ति हमें देना दाता…….!
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मनुष्य ही मनुष्य का अंतिम गंतव्य है
कोई भी यात्रा पूरी नहीं होती
हम जाते हैं लौटने के लिए
न पहाड़,न नदियाँ ,सागर भी नहीं
लंबे समय तक कोई हमें बाँध नहीं सकता
हम कुछ समय बाद समाप्त कर देना चाहते हैं
बहुत उत्साह से शुरू की गई यात्रा को
कितना सही है यह वाक्य
जाते-जाते जब बोलते हैं दादा मोशाय- हम आते हैं
धन-संपत्ति,घर- द्वार,पद,वैभव
कुछ भी नहीं बाँध सकता हमें
हम बार-बार लौटना चाहते हैं
किसी मनुष्य के पास पूरे उत्साह के साथ
जैसे गोधूलि में लौटते हैं बछड़े गैया के पास
जहाँ पहुँच कर हमारी यात्रा पूरी हो जाती है
साथी, सचमुच कितना सही तेरा वक्तव्य है-
मनुष्य ही मनुष्य का गंतव्य है।
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मेरे साथ
मैं कहीं भी रहूँ
आप मेरे साथ रह सकते हैं
मैं कहीं कुछ बोलूँ या चुप भी रहूँ
आप चाहें तो मुझे सुन सकते हैं
मगर यह सब कुछ आपके चाहने पर निर्भर है
मैं कभी अकेले सफर नहीं करता
बहुत से लोग मेरे साथ चलते हैं
साथ चलते हैं प्रेमी, प्रेमिकाएँ,मित्र ,दुश्मन,
गाँव,शहर, किताबें और भी बहुत कुछ
इतने सारे साजो- सामान के साथ चलना
बहुत मुश्किल लगता है
अब तो सफ़र में सिर्फ एक झोला साथ लेकर चलने का इरादा है
मुझे पता है आखिरी सफर की सुरक्षा जाँच की शर्तें
कूच करने के पहले झोला क्या चोला उतार देना पड़ता है
जाने के पहले अपने सारे ख्वाब और प्रिय कविताएँ इसी धरती पर छोड़ जाऊँगा
मुझे मालूम है मेरे खवाब किसी थकी हुई आँख में जिन्दा हो जायेंगे
और मेरी कविताएँ मुहब्बत करने वाले के चेहरे को रोशन करती रहेंगी।
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ओ मेरी भाषा!
ओ मेरी भाषा !
जब-जब तुम असहाय सी दिखती हो
घट जाती है मेरी थोड़ी सी उम्र
मैं थोड़ी देर के लिए मर जाता हूँ
मुझे मालूम है
तुम कमजोर नहीं हो
शोर में दब जाती हो
और अपने अहं के उतुंग शिखरों पर आसीन
कोई तुम्हें अनसुना कर देता है
तब तुम कातर पुकार में बदल जाती हो
सब कुछ करना
पर भूलकर भी अपनी शब्दावली में
उम्मीद को शामिल मत करना
तब तुम्हें लोग ध्यान से सुनेंगे
ओ मेरी भाषा !
बहुत ध्यान रखना
स्वयं अपना मान रखना।
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लोग तो एक कप चाय में बदल जाते हैं
देखते देखते कितना कुछ बदल जाता है
एक साल में ही छ:-छ: ऋतुएँ
और चौबीस घंटे में समय चार बार
सुबह,दोपहर,शाम और रात
पेड़, पौधे,घर द्वार,गाँव, मोहल्ले
सब कुछ इतनी तेजी से बदलते नजर आते हैं
मानो जैसे पीछे छुपे जा रहे हों
ट्रेन के सफर में पटरियों के किनारे के पेड़
इतने बदलावों के बीच
तुम्हारा नहीं बदलना महज इत्तेफाक है
यहाँ तो लोग एक कप चाय में बदल जाते हैं।
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नमक की तरह
राज करने के लिए
किसी को नाराज़ करना जरूरी नहीं है
जग जीतने के लिए
जंग जीतने की बात करना
निहायत मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव है
जरूरी नहीं कि
हीरो की तरह हो इंट्री
फिल्म खत्म होने के बाद
गूंजा जा सकता है पार्श्व- संगीत की तरह
उपस्थिति जब अनुभूति बन जाती है
बढ़ जाता है जीने और जिमने का स्वाद
बगैर किसी शोर-शराबे के
घुला जा सकता है किसी के जीवन में नमक की तरह।
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अंतिम को अनन्तिम नहीं समझा जाए
बात जब भी की जाए, अंतिम बात की जाए
जब भी मिला जाए, अंतिम बार मिला जाए
फिर मिलेंगे- यह उम्मीद भरा एक अधूरा वाक्य है
मैं कल की बात नहीं करना चाहता
मैं हर पल की बात करना चाहता हूँ
अंतिम का अर्थ अंत नहीं होता,यह तो पूर्ण होना है
जीने का मज़ा तब है जब
अंतिम को अनन्तिम नहीं समझा जाए।
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बात जो सबसे जरूरी है
कुछ बातें पूछी नहीं जातीं
कुछ बातें कही नहीं जाती
सिर्फ महसूस की जाती हैं
जरा सा भी चूक हुई कि
नष्ट हो जाती है मर्यादा
मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता
इसलिए जो बात पूछी न जाए
उसे जरूर पूरी की जाए
और जो बात कही न जाए
उसे ध्यान से सुना जाए
ध्यान रहे जो बातें
सबसे जरुरी होती हैं
उन्हें कहना-सुनना जरूरी नहीं होता।
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बिना पूँजी के रोजगार
आलीशान, ऊँचे महल में
चींटियाँ छिद्र ढूँढ़ती हैं
एक नौसिखुआ आलोचक
उत्तम कलाकृति की खामियाँ गिनाता है
कोई कुटिल,कुपाठी
हर प्रसंग में अपना टांग अड़ाता है
नौका में सवार मुफ्तखोर, निठल्ला
नखों से नाव में छेद बनाता है
कोई दुस्साहसी मुँह ऊपर उठाकर
आकाश पर जोर से थूकता है
बिना पूँजी के इतने सारे रोजगार हैं यहाँ
मंदबुद्धि मंदी पर मगजमारी कर रहे हैं!
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अर्धसत्य का अभिशप्त समय
मुझे खुली हुई आँखें भी बंद सी लगती हैं
हमने आँखों पर यकीन करना छोड़ दिया है
आँख के कामों को कानों पर छोड़ दिया है
हम कमरे में कैद लोग
ताजमहल चाय की चुस्कियों के बीच कहकहे लगाते हुए
सोफे में धँसकर कैमरे की नजर से दृश्यों को देख रहे हैं
और मानकर चल रहे हैं कैमरा झूठ नहीं बोलता
हम अर्द्धसत्य के अभिशप्त समय में जीने वाले लोग हैं
हमें जीने और मरने का फर्क मालूम नहीं है।
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स्थायी पता
पता नहीं
किस द्वीप से आए होंगे पूर्वज
पिछले ही कुछ वर्षों में
चार राज्यों के चौदह शहरों में
अपने ठिकाने बदले
कहाँ जन्मभूमि? कहाँ कर्मभूमि?
और अब तो नौकरी भी कच्ची !
गनीमत कि पिंजड़े में नहीं हूँ
कभी इस डाल पर,कभी उस पात पर
चिड़िये की तरह फुदकता-फुदकता
कभी चला जाऊँगा जम्बूद्वीप से
कहाँ,कुछ भी नहीं मालूम !
जब भी कोई स्थायी पता पूछता है
मैं मुस्कुरा देता हूँ ।
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कविता गवाह है
लड़ाई लम्बी चलेगी
हो सकता है इस बीच कुछ गवाह मर जाएँ
ऐन मौके पर कुछ गवाह मुकर जाएँ
संभव है कि वादी ही हिम्मत हार जाए
दस्तावेज भी बदले जा सकते हैं
या उन्हें गुम भी किया जा सकता है
लोग भूल भी सकते हैं क्रूरताओं को
अदालतें भी बदलती रहेंगी समय के साथ
इतिहास भी यदि बदल देगा सत्य को
या उसे दर्ज ही नहीं कर पाएगा अपने पृष्ठों में
जब सारे साक्ष्य मिटा दिये जायेंगे
जब सब के सब मौन हो जायेंगे
तब कविता चीख -चीख कर बोलेगी
साजिशों का भेद खोलेगी।
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सुगंध फूल की भाषा है
भाषा कई बार बिल्कुल असहाय हो जाती है
कभी-कभी गैरजरूरी और हास्यास्पद भी
बिना बोले भी आख्यान रचा जा सकता है
मौन संवाद का सर्वोत्तम तरीका है
भाषा केवल शब्दों का समुच्चय नहीं है
और किसी लिपि का मोहताज भी नहीं
जैसे फूल क्यारियों में खिलते हैं और हृदय में खिलखिलाते हैं
वैसी भी तो हो सकती है भाषा
मौन कितना मुखर हो सकता है
फूल से बेहतर कोई और नहीं समझा सकता
सुगंध हवा की लिपि में लिखित फूल की भाषा है।
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।