वंदना मिश्रा की कविताएँ पढ़िये और थोड़ा दिल को थाम लीजिए कि धक से लगती हैं इनकी कविताएँ और आप तिलमिला जाते हैं। आज संवेदनाओं के दायरे में जहां बनावट के हजार – हजार मुखौटे इंसानी फितरत का मोलभाव करते दिखेंगे, वहीं इस सच्ची सी मासूमियत पर दिल भावुक होने से नहीं बचता। बहुत ज्यादा कहना ‘कहन’ के मर्म को फीका कर देना है इसलिए आप सभी पढ़िये और अपनी राय अवश्य दीजिए ।
- संपादक
शरीफ लोग
शरीफ़ लोग इतने शरीफ़ होते हैं कि कभी किसी स्त्री की मदद नहीं करते
जब कभी उनकी शराफ़त पर भरोसा कर , उनकी तरफ देखती हैं , वे दूसरी तरफ देखने लगते हैं
और सावधानी से पीछे हट जाते हैं
उनके पीछे से झाँकने लगते हैं
फिर वही बदनाम लोग
वक़्त ज़रूरत पर वे ही बदनाम व्यक्ति
कर देते हैं उस स्त्री के काम
शरीफ़ लोग कहते हैं, यह तो था ही इसी चक्कर में
शरीफ़ लोग कभी नहीं पड़ते मदद जैसे चक्करों में
मरती है, मर जाये स्त्री, वे नहीं पडेगें इस तमाशे में
इतनी मदद ज़रूर करते हैं कि देखते रहें बदनाम
लोगो के आने, जाने, रुकने का समय
बदनाम लोगों के फिसल जाने में ही उत्थान
होता है उनका
वैसे बडी चिंता होती है उन्हें अपनी इज़्ज़त और
अपने परिवार की
बदनाम लोंगो से मदद लेती स्त्री बड़ी सतर्क होती है
सोचती हैं, कृतज्ञ हो, पिला दे एक कप चाय या एक गिलास पानी ही
पर डर कर शरीफ़ लोगों से लौटा देती हैं, दरवाजे से ही
मदद लेकर दरवाजे से लौटती स्त्री की
शक़्ल कितनी मिलती है
शरीफ़ लोगों से ।
जवाब
तुम्हारे तीरों के जवाब में
फेकना था एक तीखा भाला
तुम्हारी तरफ
मैंने गुस्से में खोला
अपना शस्त्रागार
पर वहाँ सिर्फ
आँसू, फूल और दुआएं थी
वही दे पाई तुम्हें ।
अम्मा का बक्सा
अम्मा का एक बक्सा था
हरे रंग का
बचपन से उसे उसी तरह देखा था
एक पुरानी रेशमी साड़ी का बेठन लगा था
उसके तले में जिसके बचे
आधे हिस्से से ढका रहता था
उसका सब माल असबाब
कोई किमखाब का लहंगा नहीं
कोई नथ बेसर नहीं
कोई जड़ाऊ कंगन नहीं
सिर्फ
कुछ साड़ियाँ
पुरानी एक किताब
पढ़ने के लिए नहीं
रुपयों को महफूज़ रखने के लिए
क़ुछ पुरानी फ़ोटो
कोई बड़ा पर्स नहीं था माँ के पास
कोई खज़ाना भी नहीं
पर पता नहीं क्यों वो बक्सा खुलते ही
हम पहुँच जाते थे
उसके पास
झांकने लगते थे
कुछ न कुछ तो मिल ही जाता था
और कुछ नहीं तो माँ से
सटकर बैठने का सुख
सामान को
उलट पुलट कर
डांट
खाना
एक सोंधी सी महक निकलती थी
उस बक्से में से
माँ चली गई तो दीदी
उस बक्से को पकड़ के बहुत रोई
उस बक्से को चाह कर भी
‘बॉक्स’ नहीं कह सकते
जैसे अम्मा को मम्मी
भाई ने कुछ साल पहले खरीद दी थी
एक बड़ी अलमारी माँ के लिए
पर वो हरे बक्से जैसा
मोह नहीं जगा पाई
कभी हमारे दिलों में
माँ की गन्ध बसी है
उस बक्से में ।
खिड़की जितनी जगह
दीदी लोग पड़ोस के मौर्या जी के
घर चली गई थी
बहू देखने
जबकि पिता जी और उनमें
दीवार के लिए लाठी
और मुकदमा चल चुका था
सचमुच
चुपके से गई और बहू देखने की
फरमाइश कर दी
मौर्या जी
बड़बड़ाये
पर उनकी पत्नी
हँस के बोली
घर से बिना बताए आई हैं
ये सब
दिखा दो
बहू देख
उससे गाना सुन,
लड्डू ले लौटी तो
उसे छिपाना
बड़ा कठिन लगा उन लोंगों को
कुछ खाया छत पर जा
कुछ फेक दिया
बाद के दिनों में
मुहल्ले की किसी स्त्री
के आने पर बढ़ -चढ़ के बड़ाई की
बहू की तो पोल खुली
माँ ने हँसते हुए धमकाया
फिर पता नहीं क्या गुप्त सन्धि हुई
कि खिड़की से देख नई बहू को
माँ ने मुँह दिखाई दी
दीवारें नहीं टूटती
पर महिलाओं ने
हमेशा बना रखी है
एक खिड़की जितनी जगह
प्रेम के लिए ।
ठीक उसी समय
ठीक उसी समय जब बम -वर्षक विमान
अपनी पूरी क्षमता दिखा रहे थे
और पृथ्वी की कोमल छाती पर
गिरा एक बम
किसी मासूम बच्ची – सी
आँखों मे दहशत लिए
टुकुर -टुकुर ताक रही है
पृथ्वी
मैं सिर झटक कर भूल नहीं पा रही
यह दृश्य
तो क्या हुआ ! कह कर जाने
नहीं दे पा रही हूँ
गले में फंसा
रूलाई का गोला
किसी द्रव्य से निगला
नहीं जा रहा है
ठीक उसी समय
तुमने माँगी वसन्त की कविताएँ
जब खून के छीटें उड़ रहे हो दसो दिशाओं में
हम कैसे देख सकते हैं हवा में उड़ता गुलाल ?
जब ‘शोले’ फ़िल्म के गब्बर की तरह
मिसाइलें
पूछ रही हैं होली की तारीख
ताकि लूटा जा सके सुख चैन जनता का
मुझसे होली के गीत मत माँगों
मेरी आत्मा तक पर पड़ गए हैं
उड़ते हुए खून के छीटें
मैं जिन रास्तों से गुजरती हूँ
दिखते हैं सरसों के लहलहाते खेत
गेहूं की फसल सिर उठाये झूम रही होती है
पर मुझे दिख जाता है
ठीक बग़ल में मरगिल्ला बच्चा
जो रिरियाता रहता है
उसकी माँ
फ़टी कुचैली साड़ी में घूम रही है आस-पास
पिता भी होगा कहीं
कौन-सा बड़ा प्रसन्न !
मुझे लहलहाते खेत देख डर लगता है
सोचती हूँ
कि पहुँच जाएगा न ये अनाज
खलिहान तक,
बिना किसी बाधा के ?
तारतम्य ढूँढती हूँ
फसल की हरियाली और उगाने वाले के
चेहरे की लालिमा में
पर उसका रक्त
सड़कों पर
बिखरा नज़र आता है
पूछती हूँ अनर्गल प्रश्न
कि इनको उगाने वाला क्यों नहीं है स्वस्थ?
मुझे कुछ हो गया है कि सुंदर दृश्यों से
भी भय लगता है
बसन्त शब्द में तो
दो-दो नकारात्मक शब्द दिखते हैं
मैं कैसे लिखूँ
वसन्त और होली के गीत ?
लोग संशोधन करते हैं
बसन्त नहीं ‘वसन्त’
मैं कहती हूँ
सिर्फ वर्तनी में नहीं
कहीं
और भी करो ये संशोधन
लोग कहते हैं कि बहुत नकारात्मक
सोचने लगी हूँ
वो ये भी कहते हैं कि कुछ दवाओं से
सकारात्मक सोच जागती है
इस बात पर
मैं औऱ फूट फूट कर रो पड़ती हूँ
है ! तो क्यों नहीं दी
अब तक युद्ध करने वालों को ?
वे हँसते हुए
मुझे और दवाएं
लेने की सलाह देते हैं ।
घर फोड़नी
बहन बड़ी थी कई साल
भाई को पीठ पर लाद लाद घूमती रही सालों
माँ तो निहाल थी
अपने घर में व्यस्त बहन को
बातों बातों में पता चला
भाभी के दुर्व्यवहार की बातें
सोचा भाई तो अपना है
समझा लूँगी
“इतना कुछ बोलती है
पत्नी तुम्हारी मना नहीं करते “?
भाई ने बेहयाई से कहा
“मैने तो छूट दी है
ज़्यादा बोलें तो बाल घसीट कर मारो भी ”
बहन को समझ नहीं आया कि वो अपना दिल संभाले
या दिमाग़
हथौड़े की तरह लगे शब्द से टकरा कर बैठ गई
माँ दौड़ कर आई
पानी पिला कर समझाया
शान्त किया
भाई ने माँ से कहा “कह दो अपना घर देखे ”
भाभी के चेहरे पर खिली मुस्कान देख
बहन ने सिर झुका लिया
पीठ पर लदे भाई ने
कलेजे पर लात मारी
किससे कहे
माँ ने कहा “मुझे पता था
क्यों बोली तू उससे
पता तो है उसका स्वभाव ”
सब पता था बहन को
बस अपना पराया होना
बार बार भूल जाती है
पर अब नहीं
माँ का हाथ पकड़ा और
अधिकार से बोली
“अब और नहीं माँ
तुम साथ चलो मेरे ”
भाई ने झपट कर माँ को छीना
“ऐसे कैसे लोग क्या कहेंगे ”
भौजाई नागिन सी तड़पी
“सब जायजाद के चोंचले हैं जी
किसके घर लडाई नहीं होती ?”
भाई ने धमकाया “माँ जाओगी तो
मेरी लाश पर से ”
माँ ने दौड़ कर भाई के मुँह पर
हाथ रख दिया प्यार से
“मैं कहीं नहीं जाऊँगी मेरे लाल”
बहन को सुनाई दिया
तेरी गालियों पर बेटियों की सौ मनुहारें कुर्बान बेटा
घर फोड़नी होती हैं बेटियाँ
क्या ज़रूरत अपने घर में इतना
स्वभिमान सिखाने की ।
जाते हुए गले लगी माँ ने कहा
“तू बेटा होती तो दरिद्र कट जाता मेरा ”
“कट तो अब भी जाए माँ ”
पर कहने से फ़ायदा नहीं
सोच
जल्दी से कदम बढ़ा दिया
बाहर की ओर बेटी ने ।
सलीका
हम कुछ भी सलीके से नहीं कर पाए
और तो और
हमने ढ़ंग के सपनें भी
देखना नहीं सीखा
हमारे लिए बहुत खुशी की बात थी
गुलाबों का खिल जाना बगीचे में
जिन्हें दूर से देख यूँ मुस्कुराते थे तुम
कि तुम्हारे बिना गुलाब कुछ भी हो सकते हैं
मगर गुलाब नहीं
चाँदनी देख कर खिल जाता था तुम्हारा चेहरा
कि घण्टों निहारते रहते थे हम
छत पर उसे
आभासी दुनिया के बाशिंदे थे हम
किसी ने नहीं बताया हमें कि
ये कोई सपने नहीं होते
कि कोई किसी को बिना मतलब चाहे
ये कोई सपना नहीं कि
एक सी फितरत के लोग रहें एक साथ
बल्कि ज़रूरी होता है उन्हें ही
अलग करना
ये मिल गए तो मिठास से भर देंगे
तमाम दुनिया को
और
कुछ तो नमक चाहिए दुनिया को
भले ही वो किसी की आँखों से बहें ।
मत बांधना मुझे
वो जो हममें तुममें
वादा नहीं था
उस वादे की कसम
किसी उम्मीद की डोर में
मत बांधना मुझे ।
विधान
माँ नहीं रही
उनकी विदाई
और हमारे स्नान के बाद सबको नीम की
पत्तियाँ दी गई
कि खा कर कहो
कि” अम्मा हमसे तीती
हो जाओ !”
ज़रूरी होता है ये विधान
“मृतात्मा अब तुम्हारी कुछ नहीं
कहो और थूक दो”
मुँह में नीम पत्ती डाली
थूक भी दिया रोते हुए
कह भी दिया
लेकिन
आज नीम की पत्ती भी
मीठी ही लग रही थी
तो माँ कैसे तीती हो सकती है !
…
कवि परिचय :
प्रो .वंदना मिश्रा
हिंदी विभाग
जी. डी. बिनानी पी . जी . कॉलेज
मिर्जापुर -232001
यू . पी .
कविता संग्रह – ‘कुछ सुनती ही नहीं लड़की’ , ‘कितना जानती है स्त्री अपने बारे में’ , ‘खिड़की जितनी जगह’
गद्य साहित्य – सिद्ध नाथ साहित्य की अभिव्यंजना शैली पर संत साहित्य का प्रभाव , महादेवी वर्मा का काव्य और बिम्ब शिल्प ,समकालीन लेखन और आलोचना
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Vandankk@rediffmail.com