अवध के लोक जीवन को अपनी कविताओं मे जीते-परखते केशव तिवारी किसी परिचय के मोहताज नहीं । उनकी कविताओं का स्वभाव शांत और गहरा है । वे जीवन के अनेक रंग, संबंधों के अनेक ऐसे चित्र प्रस्तुत करते हैं जिन्हें पाठक अपने जीवन और हिस्से का महसूस करता है और उसे पराया भी अपना -सा लगने लगता है ।
प्रस्तुत है केशव तिवारी की कुछ नयी कविताएँ। आप अपनी राय जरूर दर्ज करें।
जोगी जरूर याद आएगा
एक लड़की कह रही है
जोगी ले लो अपना सीधा पानी ।
और यहाँ से कहीं दूर चले जाओ
तुम्हें सुन-सुन रोती है मेरी माँ।
लड़की क्या जाने माँ के मन का
कौन सा तार
जोगी के सारंगी के
किस तार से जुड़ा है।
एक आवाज़ की तड़प
सुरों की बेचैनी के साथ
लौटा रहा है जोगी ।
जोगी जानता है कि
जागे हुए सुरों के साथ
पूरी जिन्दगी जागना पड़ता है।
जोग में हारा-जीता नहीं
जिया जाता है।
लड़की अभी बच्ची है
जब उसके सपनों में
कोई उदास
सारंगी का सुर लहराएगा ।
उसे दरवाज़े से लौटता हुआ
जोगी ज़रूर याद आएगा।
कुछ सम्मतियाँ मेरे पास भी हैं
कोहरा है धुंध बहुत गहरी है
पद चाप और गुजरते लोगों
की दूर गूंजती बोलचाभर
कभी दूर जाती कभी पास आती
लग रही है
जब कुछ साफ नही दिखता
तो आंख और कान ज्यादा ही
काम करते हैं
और भी ज्ञानेन्द्रियां आंख और
कान में तब्दील हो जाती हैं
बगल कुड़िया तालाब से
आ रही है धोबियों की
हच्छु हच्छु की आवाज
कहीं आसपास उनके गधों की
भी चर्र चर्र घास चरने की
निकट से ही कहीं नवजात कुतिया
के बच्चों के कुकवाने की आवाज
किसी पेड़ के पत्ते पर
कुहिरा चूने की टप टप
अचानक कोई पक्षी पंख
फड़फड़ाता है
पास से ही एकदम प्रकट हो
बगल से भागते निकला सांड
गूंजता है दूर कहीं सामूहिक शोर
बस भहराने से बचे हम
मौसम को कोसता बूढ़ा
बुद बुदा ज्यादा बोल कम रहा है
अभी और गिरेगा कुहिरा
ता लेगा खेत
पला जाएगी मटर
उसके पास घाघ और भड्डरी की सम्मतियाँ है
अपने कहे के पक्ष में
कुछ सम्मतियाँ मेरे पास भी हैं
कुहासों की उम्र को लेकर
पर फिलहाल का सच तो यही है
कोहरा घना से घना हो रहा है।
अकाल
धरती का दुख है ये
परती का दुख
मिट्टी का दुख है
पानी का दुख
भाषा से कहो कि
बड़े अदब से जाए इनके पास
विचार तो बहुत ही सतर्क हो के
तालों से लटक रहा है सन्नाटा
पास से ही कहीं आ रही है
बाघ की भी दुर्गंध।
कहीं चीजें अंधेरे में पड़ी हैं
हो सकता उस कोने
तक भी न जा पाउँ
जहां मूसर कांडी चकिया पड़े हैं
हो सकता है उस पछछू के
कोने तक भी न जा पाऊँ
जहां हड़िया में हाथ डालते
डस लिया था करिया नाग
जाना तो बहुत बहुत कोने अतरे था
उस परछाईं तक भी
जो कब से भटक रही है
माटी की दीवारों पर
जाना तो बहुत बहुत कोने अतरे था
पर ये घर है कि खभार
कहीं चीजें अंधेरे में पड़ी हैं
कहीं चेहरे ।
इस सृष्टि में एक भी आवाज
जो लिखने से रह जायेगा
वो भी लिखा रहेगा कहीं न कहीं
कोई धीर नदी लिख देगी अपने कछार
की छाती पर
जो बोलने से रह जायेगा उसे कोई
किलहटी बोलेगी एलानिया किसी पेड़ की डाल से
हर हाल में दर्ज होगा मनुष्य का दर्द
और उल्लास हर हाल में
कितने नए रास्ते बन रहे हैं
कितनी पदचापें गूंज रही हैं
जो नहीं सुन रहें हैं एक दिन
उन्हें भी सुनना पड़ेगा
इस सृष्टि में एक भी आवाज
व्यर्थ नही जाएगी।
चारों ओर व्याप्त शोक का साझीदार
कई कई नदिओं की गति से
परिचालित हूँ
डूबती नावों का शोक है
मेरी आवाज है
ये शोक और गति न होते
तो मैं कुछ और होता
क्या होता ! होता ये पहाड़ ये पेड़
मुझ से बेहतर जानते हैँ
जब जब जीवन संगर से हारा
मुझे इन सब ने एक
सामूहिक स्वर में पुकारा
ये नदियां जब अपनी गति धीरे धीरे
खोती जा रही हैँ
मैं भी गतिहीन हो रहा हूँ
चारों ओर व्याप्त शोक का साझीदार
कितने बड़ोखर बुजुर्ग
यह पूरब से जो चईत की
हवायें आ रही है
अब उनमें पके गेहूं की बालियों की
खनक है न लचक
ऐसे मनहूस समय को
बस चईता ही संभाल सकता है।
एक सन्नाटा एक दहशत
लेकर बह रही है हवायें।
धीरे धीरे निकल रहे हैं लोग
अमृतसर, जालंधर
अपने उजाड़ खेतों को
देखते बिसूरते
कितने बडोखर बुजुर्ग, कितने महोखर
एक जालंधर के पेटे में समा जाते हैं।
बचे हैं ये कि बचा है अमृतसर
ये शहर कितने लोगों को
जिंदा रहने का आश्वासन हैं
और वो चईता का लरजता सुर भी
जो उन्हें यहाँ से बांधकर रखता है
बेटियां मां बाप के न होने पर
बेटियां मां बाप के न होने पर
मायके के शहर आती हैं
अचानक जब वो अपनी छोटी बच्ची को
शहर में अपने मित्रो की स्मृति
नाना नानी की चिन्हारी
जो शहर से जुड़ी है दिखा रही होती हैं
तभी कोई बूढ़ा पिता का मित्र मिलता है
खांसता हुआ
पूछता है तुम कब आईं भरे गले से
घर क्यों नही आई
ये उसी घर की बात कर रहा होता है
जहां ये खुद रात गए पहुँचता है
और बहू से नज़र बचा रखा खाना खा
सो जाता है
ये शहर कितना अपना था कभी
वो पल पल महसूस करती
फिर भी उदासी छुपाते
चहक चहक दिखा रही होती हैं
नानी की किसी सहेली का घर
जहां वो कभी आती थीं जब
तुम्हारी उम्र की थी पर
सांकल खटकाने का साहस नहीं कर पाती
कौन होगा अब कौन पहचानेगा
वो देखती है अपना स्कूल और
पल भर को ठहर जाती हैं
देखती हैं पुराना उजड़ा पार्क
और तेजी से निकल जाती हैं
कई बार लगता है
ये बूढ़ा शहर उनके साथ साथ
लकड़ी टेकते
पीछे पीछे खुद सब देखते समझते
चल रहा है
कौशाम्बी
चैत्य निर्जन है विहार उजाड़
तथागत जा चुके हैं
अपने अपने हीनयान महायान बज्रयान पर बैठ भिक्खु भी
अपनी समस्त शक्ति बुद्ध के चरणों पर रख राजा उदयन निः शस्त्र
धूल हो गए हैं राजप्रासाद
किले की ढह चुकी प्राचीरों के ठीक बगल से
जमुना की तरफ
गुजरती है एक पगडंडी
मानो कह रही हो
इस ध्वंस के पार ही
नए रास्तों के पते हैं
बुद्धम शरणम बुद्धम शरणम
बुदबुदाता ये कौन है जो अचानक
हा वासवदत्ता हा वासवदत्ता करता
आज भी भटकता
कालिंदी के तट पर।
पेंटिंग : एसडी . खान
कवि परिचय :
जन्म : जोखू का पुरवा ,प्रतापगढ़ ,उत्तरप्रदेश।
लोक संवेदना और जन-सरोकार के महत्वपूर्ण कवि।