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Home कविता

हेमंत देवलेकर की कविताएँ

by Anhadkolkata
May 21, 2023
in कविता
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शालू शुक्ला की कविताएँ

हेमंत देवलेकर समकालीन कविता के चर्चित हस्ताक्षर हैं । उनकी कविताओं के दायरे को  इसी बात से समझा जा सकता है कि देश की लगभग सभी पत्र – पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ अपना महत्त स्थान बना चुकीं हैं । एक रंगकर्मी होने का फायदा उनकी कविताओं को लगातार मिलता रहा है इसीलिए उनकी कविता दृश्यों मे बोलती – चलती है ।

“और विस्मय की एक दुनिया खुलती है

उनके चेहरे कितने बेफ़िक्र लगते हैं

कितने यक़ीन से भरी हैं उनकी मुस्कुराहट

जबकि हर किसी की आँखों में संदेह यहाँ

लोग अपना सामान काँख से नीचे उतारते डरते हैं

जब बैठने की हर जगह भर जाती “

इसी तरह

“अपनी-अपनी पृथ्वी कंधे पर उठाए

पसीने से तरबतर चल रहा

देखो  तो वह एक साबुत गेहूँ दिखाई देगा

जबकि है वह पिसता हुआ आटा ।”

भैंस  का बच्चा  कविता जातिय वैमनश्य की जो त्रासदी रखती है उसे पढ़ते हुए पाठक अपने परंपरागत संस्कारों से विचलित और असमंजस की स्थिति में जाने से खुद को नहीं रोक पता । शुद्धिकरण और अभिशप्त भी कुछ इसी  तरह की कविताएं हैं।

 

सुधि पाठक हेमंत देवलेकर की कविताओं को पढ़ते हुए अपनी राय अवश्य  रखें ।

 

 

 

हेमन्त देवलेकर

गार्ड की पेटियाँ

 

कुछ चीजों का रहस्य हमेशा बना रहे

जीवन को इतनी छूट देनी चाहिए ।

 

एक दौड़ती-भागती, बदहवास दुनिया है –

रेलवे  प्लेटफॉर्म

रेल आने पर यहाँ सब कुछ बाढ़ से पूरमपूर ।

इतनी भागमभाग में

कौन स्थिर बैठ सकता है भला ?

 

प्लेटफॉर्म का सारा बहाव गुज़र जाने के बाद

नदी तल की चट्टानों की तरह

उभर आती हैं –

गार्ड की पेटियाँ

और विस्मय की एक दुनिया खुलती है ।

 

उनके चेहरे कितने बेफ़िक्र लगते हैं

कितने यक़ीन से भरी हैं उनकी मुस्कुराहट

जबकि हर किसी की आँखों में संदेह यहाँ

लोग अपना सामान काँख से नीचे उतारते डरते हैं ।

 

जब बैठने की हर जगह भर जाती

वे ख़ुद को कुर्सियों की तरह खोल देती हैं,

चटाइयों की तरह बिछा देती हैं ।

 

मैं सालों तक सोचता रहा कि

वे पड़ी हैं या रखी हैं ?

वे कब और कौनसी रेलों में चढ़ जाती हैं ?

उनमे क्या – क्या सामान भरा होता है  ?

अगर कोई उन्हें चुराकर भागने लगे

तो क्या वे उसे ही आवाज़ देंगी

जिसका नाम लिखा है उन पर

क्या वे कभी घर भी जाती होंगी  ?

 

मैंने एक दिन जिज्ञासावश उन्हें खोलना चाहा

फिर सोचा –

कुछ उत्तर जो हम पा सकते हैं

अगर प्रश्न ही बने रहें

तो हमारी कल्पनाएँ

हमें ज़िंदा रहने में ज़्यादा मदद करेंगी ।

 

मैंने विदा लेते हुए उन्हें थपथपाया

सुनसान पड़े प्लेटफॉर्म पर गार्ड की पेटियां

प्रतीक्षा का सबसे सुंदर उदाहरण लग रही थीं ।

 

–00—

 

अभिशप्त

 

द्रोणाचार्य लौट चुके थे, अंगूठा लेकर

एकलव्य वहीं पड़ा था निश्चेष्ट

रक्त फैला था पास ही

उसके कबीले के लोग सारे जमा थे आसपास

इतना भीषण था आक्रोश उनमें कि

निश्वासों से काँप काँप जाता था जंगल ।

 

शाप बनकर फूटा क्रोध उनका

गुरु द्रोण जा चुके थे दूर, सुनाई उन्हें दिया नही

कान एकलव्य के पड़े थे निस्पंद

सुनाई उसे भी दिया नही

सुन कोई नही पाया, शाप वह क्या था ?

 

गुरु द्रोण ने एक बहती नदी में

उछाल दिया कटे अंगूठे को

और धूल उड़ाता रथ उनका लौट गया ।

— 00  — 00 —

 

कहते हैं वह शाप उस युग मे फला नहीं

उल्का बनकर अंतरिक्ष मे भटकता रहा

 

— 00  —  00  —

 

बहुत बुरे सपने से आज नींद खुली

एक विशालकाय उल्का पृथ्वी से टकरायी थी

और सब कुछ उथल पुथल था

हज़ारों सदियां गर्त से निकलकर सामने आ गईं

 

मैंने देखा

पृथ्वी पर सिर्फ़ अंगूठों का अस्तित्व है

सुबह-शाम दफ्तरों को जानेवाली सड़कों पर,

रेलों में सिर्फ़ अंगूठे भाग रहे हैं

 

शरीर का सारा बल, पराक्रम अंगूठों में सिमट चुका

कितनी कलाएँ, उनका कौशल,भाषा

यहां तक कि आवाज़ भी

अंगूठों के अलावा बाहर कहीं न थी

एकदम वास्तविक से लगते बड़े – बड़े आभासी पहाड़ों को

धकेल रहे हैं अंगूठे

और आश्चर्य कि पसीने की एक बूंद तक नहीं ।

 

निश्चेष्ट पड़ी हैं मनुष्य की भुजाएं

जैसे एक दिन संज्ञाशून्य पड़ा था एकलव्य

 

लौट आया है अंगूठा उसका

और फैल गया है गाजर घास की तरह पृथ्वी पर

 

अचानक मुझे सुनाई दिया वह शाप ।

 

— 00 —

भैंस का बच्चा

 

उपेक्षा उसका दूसरा नाम

पहला तो किसी ने दिया ही नहीं

 

माँ के पीछे – पीछे, गर्दन झुकाये

नगर के वैभवशाली मोहल्लों से,

चमचमाते बाज़ार से जब वह गुज़रता है

एक शर्म उठती देखी है उसके भीतर

जो दुर्गंध बनकर घेर लेती है उसे ।

 

छटपटाते हुए वह लगभग भागने लगता है

कि ये अपमान भरे रास्ते कट जाएं पलक झपकते

और आ जाये आदिम देहात…

खेतों का सीमांत… और राबड़े वाले तालाब

उन सबमें कितना अपनापन है ।

 

उसके  मन मे जो ‘कचोट’ है

उसे माँ भूसे के साथ कब का  चबा चुकी

पर उसके गले मे हड्डी की तरह अटकी हुई  ।

 

भूख से ज़्यादा विकट है

संकट – पहचान का

इसी त्रासदी के खूंटे से वे  बंधे हुए

इसी त्रासदी की सड़क से वे गुज़रते हुए ।

 

कितना दुखद है

कोई दरवाज़ा खुलता नहीं उसके लिए

किसी खिड़की से आती नही आवाज़

“ले , आ   !! आ  !!   आ  !!”

 

किसी डिब्बे के तलहट की रोटी

नहीं होती किसी भैंस के बच्चे के वास्ते

तो पकवानों भरी  नैवेद्य की थाली का

सपना वह क्या देखे ?

 

उसके भी गलथन

गाय के बछड़े  सरीखे मुलायम और झालरदार

तो इन्हें सहलाने के लिए, हाथ आगे क्यों नहीं आते ?

 

उसे लगा वह किसी युद्ध मे शामिल है

प्रश्न उसे छलनी करने लगे-

“हमारे लिए कोई आंदोलन क्यों नहीं ?”

 

माँ की आँखों मे बिजली की एक कौंध चमकी

आवाज़ कुछ देर तक आई नहीं

माँ का चेहरा उस वक़्त

चलती रेल से फेंक दिए गाँधी की तरह लगा

 

वह सोचने लगा –

इस देश की आज़ादी का हासिल क्या है ?

मुझे लगा सलाख़ों में क़ैद मंडेला चिड़िया को ढूंढ रहे हों

 

फिर कुछ देर चुप्पी छाई रही

आकाश पर बहुत घनी स्याह रात फैल गई

अचानक मुझे लगा-चतुर्दिक पसरा यह गहरा काला रंग

भैंस और उसके बच्चे का है

और जैसे वे दुनिया से पूछ रहे हों

“क्या इस रंग की कोई अहमियत नहीं ” ??

 

***—***

 

आदमी और गेंहू

 

अपने हुलिये की जानकारी देते

जब आया सवाल रंग का

मैंने कहा  –  गेहुँआ

 

पहली बार मुझे महसूस हुआ

मेरी जगह गेहूँ का एक दाना खड़ा है

दुनिया का अकेला जीवित ईश्वर

 

कौतुहल से देखा अपने आसपास

हर कोई गेहूँ था

घर और इमारतें गेहूं की बालियाँ

मुझे गहरी आश्वस्ति हुई कि पृथ्वी इस वक़्त

गेहूँ से भरा खलिहान होगी

 

क्या गेहूँ से मेरा कोई रक्त-संबंध है –

गेहूँ के पेट की लक़ीर

मुझे अपनी पीठ पर दिखाई पड़ी

पहली बार अपनी त्वचा को एक खोजी की नज़र से देखा :

कितनी शताब्दियाँ लगी होंगी गेहूँ को

ढाल की यह परत फैलाने में

मैंने गेहूँ को अपने पूर्वज की तरह याद किया

 

गेहूँ होने की शर्त है  –  पिसना

और आदमी की नियति भी यही

 

हर आदमी

अपनी-अपनी पृथ्वी कंधे पर उठाए

पसीने से तरबतर चल रहा

देखो, तो वह एक साबुत गेहूँ दिखाई देगा

जबकि है वह पिसता हुआ आटा

गेहूं की तरह मुक्ति आदमी को सुलभ नहीं

रोज़-रोज़ पिसते हुए, हर दिन बच जाना है थोड़ा

 

यह जो दिख रहा  है सारा का सारा  इंद्रजाल

सब कुछ आटा है आदमी का

आदमी अपना ही आटा खाता है

गेहूँ की तरह फिर खड़े होने के लिए

 

मैंने सोचा मानव जाति की तरफ़ से

आभार प्रकट कर दूं गेहूँ का

मैं उसकी लहलहाती फ़सल के बीच खड़ा था

वहाँ एक रहस्यमय चुप्पी थी

फ़सल का हर एक दाना

भय और आश्चर्य से घूर रहा

मैं सहमा, इस तरह तो हम ब्लैकहोल को देखते हैं !!

 

—  **  —

बीज पाखी

 

यह कितना रोमांचक दृश्य है :

किसी एकवचन को बहुवचन में देखना

पेड़ पैराशूट पहनकर उतर रहा है

 

वह सिर्फ़ उतर नहीं रहा

बिखर भी रहा है

क्या आपने पेड़ को हवा बनते देखा है ?

 

सफ़ेद रोओं के ये गुच्छे

मिट्टी के बुलबुले हैं

पत्थर हों या पेड़ मन सबके उड़ते हैं

 

हर पेड़ कहीं दूर फिर अपना पेड़ बसाना चाहता है

और यह सिर्फ पेड़ की आकांक्षा नहीं

आब-ओ-दाने की तलाश में भटकता हर कोई

उड़ता हुआ बीज है।

 

 

तेरा पड़ोस

(किसी भी बच्चे के लिए)

 

तेरे जन्म के वक्त

जितना ज़रूरी था मां के स्तनों में दूध उतरना

उतना ही ज़रूरी था पड़ोस

 

एक स्तन को छोड़

दूसरे को मुँह लगाने जितना पास

यह पड़ोस

मां का ही विस्तार है

‌

घुटनों घुटनों सरक कर पड़ोस में जाना

धरती नापने की शुरुआत है

पड़ोस तुझे क्षितिज की तरह लगता

कितने सारे रहस्यों भरा और पुकारता

 

वहां तेरी हर इच्छा के लिए “हां”  है,

जब जब घर तुझे रुलाता

तेरे आंसू पोंछने पड़ोस भागा चला आता

 

तेरे लंगोट पड़ोस की तार पर सूखते

और जब तू लौटती है घर

तेरे मुंह पर दूध या भात चिपका होता

वहां की कोई न कोई चीज

रोज़ तेरे घर चली आती

 

तू अपना घर पड़ोस को बताती

और पड़ोस  पूछने पर अपना घर

 

बचपन के बाद यह बर्ताव

हम धीरे-धीरे भूल क्यों जाते हैं?

 

अनाथालय में ईश्वर

 

पीपल के पेड़ तले

एक गोल चबूतरे पर

मैं अक्सर संगीत खोजने आता हूं

 

आप यहां आएंगे तो

ईश्वर के बारे में आपकी ग़लतफ़हमी दूर हो जाएगी और मनुष्यों पर विश्वास और पुख्ता हो जाएगा

 

टूटी सूंड वाले गणेश, कटे हाथ की लक्ष्मी,

फूटे सिर वाले महादेव …

और ऐसे कितने ही पुराने और खंडित देवता

यहां पड़े हैं

जैसे घर से निकाले गए बुजुर्ग

 

देवता यहां अपनी भग्नता में नहीं

नग्नता में पड़े है

उनकी कातर आंखों में

मैंने कोई प्रार्थना देखी

और देखते हुए लगा

कि देवताओं को भी करुणा से देखा जा सकता है

 

बहुत गहराई से निकलती हैं बेशुमार चींटियां

यह देखने कि दूर कहीं आकाश से

जो हमारे पैरों के **नूपुर भी सुन लेता

ज़रा देखें तो उसे

और

उन्हें दिखाई देती है ईश्वर की निरीहता

 

वे उन्हें इस तरह घेर लेती हैं

जैसे कि गोद लेती हैं।

 

(**कबीर जी की पंक्ति

“चींटी के पग नेउर बाजे, सो भी साहिब सुनता है ”

का संदर्भ)

***

 

शुद्धिकरण

 

इतनी बेरहमी से निकाले जा रहे

छिलके पानी के

कि खून निकल आया पानी का

उसकी आत्मा तक को छील डाला रंदे से

 

यह पानी को छानने का नहीं

उसे मारने का दृश्य है

 

एक सेल्समैन घुसता है हमारे घरों में

एक भयानक चेतावनी की भाषा में

कि संकट में हैं आप के प्राण

और हम अपने ही पानी पर कर बैठते हैं संदेह

 

जब वह कांच के गिलास में

पानी को बांट देता है दो रंगों में

हम देख नहीं पाते

“फूट डालो और राज करो” नीति का नया चेहरा

 

वह आपकी आंखों के सामने

पानी के बेशकीमती खनिज चुराकर

किसी तांत्रिक की तरह फ़रार हो जाता है

 

“पानी बचाओ – पानी बचाओ”

गाने वाली दुनिया

खुद शामिल है पानी की हत्या में —

अपने आदिम पूर्वज को

गैस चेंबर में झोंकते हुए।

 

11 जुलाई 1972( उज्जैन)में जन्म। दो काव्य संग्रह ‘हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है’ तथा ‘गुल मकई’ प्रकाशित।
रंगकर्म में सक्रिय । सम्मानः वागीश्वरी सम्मान, स्पंदन युवा सम्मान आदि प्राप्त.

 

Tags: Hemant Devlekar/हेमंत देवलेकर : कविताएं
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