सुरेन्द्र की कविताएँ भूख, अभाव और शोषण के दुःख से पैदा हुई हैं – यहाँ मैं जानबूझकर ‘लिखी गई हैं’ नहीं कह रहा क्योंकि इस तरह की कविताएँ लिखी नहीं जातीं, उनका प्रसव होता है। सुरेन्द्र ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं यह न कहकर यह कहना मुझे अधिक समीचीन लगता है कि सुरेन्द्र जिस यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं वहाँ पढ़ना बूते की बात है – वहाँ पढ़कर आप भले प्रबंध निदेशक न बन पाएँ, डीजी न बन पाएँ या प्रोफेसर कवि न बन पाएँ लेकिन अगर आपमें संवेदना के बीज हैं तो आदमी बनकर जरूर निकलते हैं और यह कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दी कविता को और आगे बढ़कर इस देश को भी सुरेन्द्र जैसे आदमियों की बहुत जरूरत है। सुरेन्द्र की कविताएँ पढ़कर यह लगता है कि वे भले नामी न बन पाएँ लेकिन वे हमेशा आदमी बने रहेंगे। यही सुरेन्द्र की ताकत भी है और पहचान भी। बहुत जल्द हमें सुरेन्द्र का संग्रह भी पढ़ने को मिलेगा – एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है।
आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
वह स्त्री
सूप से अनाज फटकती हुई स्त्री
टसर-टसर आँसू बहाती हुई
अपने आक्षेप अवरोध को भी फटक रही है
अपने मरद के घिनौनी डराती और
धमकाती हुई गाली गलौज से अभिशप्त
पटाई हुई लात से लतीआई हुई
साधिकार अपने अस्तित्व में घटाई हुई
आँसुओं में संताप को गटक रही है
वह कंकड़ बीनती स्त्री
वह परिवार को पलकों पर उठाए सवांरती
भुगत रही अपनी प्रत्येक यातना को
कूड़ा के साथ बुहारती
कितनी लाचार पर ईमानदार है
किन्तु उसके सास ससुर पर, परिवार पर
उसके निक्कमे और आवारा मरद पर
कोई आँख दिखाए तब
कितनी धारदार हो जाती है
तीखे वाक्यों से करती हुई प्रहार
बार-बार
बार-बार
वह अपनी संवेदना में बहकती स्त्री
पुरुष भोजन करके जूठन छोड़ता है
स्त्री उससे तृप्त होकर अघाती है
पुरुष पानी में मैल धोता है
स्त्री उसे धारण कर हरियाती है
गाती है बासन्ती गीत
कितनी बावरी है, छबीली है, गर्वीली है वह स्त्री
काम में दुर्भावना के शील पर पिसती हुई
समर्पण के सिलहट पर घिसती हुई
कितनी कितनी समझदार है
वह साधिकार बोले तो बेअकल
खुलकर हँसे तो बद्जात
रोये तो वाहियात
कितने कितने उपहासों को
सहती, मचलती, कुहकती
फिर भी स्वयं को मिटा देने की जिद्द पर
प्रेम का कनक विस्तार है वह स्त्री
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याद आए
मुझे अचानक आप याद आए
सोचा सम्पर्क कर लूँ
अपने लिए अर्जित कर लूँ
थोड़ी सी शुभकामनाएं
मैं कांपते हाथों से फोन मिलाता
मोबाइल की हर घण्टी के साथ
कौतूहलता से थोड़ा सकपकाया
लेकिन आपके आत्मीय संवादो ने
मुझे ढांढस बंधाया
पूछने पर मैंने नाम बताया, गाँव बताया,
कविता का संदर्भ दिया
आपने कहा- ‘कविताएँ अच्छी हैं’
कि- ‘लिखते-सीखते रहिए’
कि- ‘अध्ययन करते रहिए’
साहित्य के भंडार का
जीवन के विस्तार का
कि धीरे-धीरे कविता तय करेगी रास्ता
खोज लेगी अपना उर्वर प्रदेश
सौंदय के विस्तृत प्रसार का
आपके संवाद ने मुझे संजीवनी दिया
थोड़ा प्यासा था, घूंट-घूंट पिया
आज मैं सोचता हूँ
कविता, कविता बन जाती है
समय के बदलाव के साथ
तो इंसान, इंसान क्यों नहीं बनता
जबकि रोज हजारों कदम चलता है
क्या मार्ग में स्वयं को छलता है
प्रतिउत्तर की उम्मीद में
भौंहे तन जाती हैं,
एक खिंचाव आ जाता है नस-नस में
आत्मा से ही एक युद्ध ठन जाती है।
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हम मरकर भी जी उठेंगे बार-बार
जो दीन-हीन-मलीन हैं
जिसके स्पर्श से
वस्तु, स्थान, घटनाएँ
अमंगल हो जाती हैं,
उसकी शुद्धता गंगाजल से
या मंत्रोचार से पवित्र की जाती है
निहायत ही वह इंसान नहीं हो सकता
बल्कि समय के सरोवर में
भिन्नाता एक घटिया वस्तु है।
हाँ! बर्बरता के चाबुक से पीटता
एक चीखता, चिल्लाता जीव
भोग के इस्तेमाल के लिए
एक नियत दिनचर्या
उसके सरोकार और अधिकार को किसने
और किस काल में समझा
जबकि, घृणा और तिरस्कार ही उसका वाहक है
कहते हैं, प्रेम बचेंगे, संबंध बचेंगे,
तभी जीवन बचेगा,
इंसानियत के फूल खिलेंगे,
लेकिन ये स्वर्ण और अवर्ण की नस्लों ने
कभी संबंधों का पुल बनने दिया
आदिकाल से आजतक ?
घुड़की, थप्पड़, चीखती हुई गालियाँ तो नश्तर हैं
कुतर्कों की चाशनी में डुबोया हुआ, बुझा हुआ तीर
और उसे बेहयाई से बरसाता हुआ सभ्य समाज
संस्कृति के अमर धागे को चटकाती
गाती रही प्रार्थनाएँ और फेकती रही
बेहयाई का खंजर
स्वप्न उसका भी था संबंधों को प्रगाढ़ बनाना
लेकिन तुम्हारी नियति में है जूठन खाना
अंतस की दुखती रगों में
चुभती हुई बेशर्म नजरों का डर नहीं है
बल्कि भूख की एक असह्य पीड़ा है
छल से फेंके गए भाले को झेलता
निश्चय ही वह एक असभ्य क्रीड़ा है
स्मृति में बेगार ढोता, करुणा का फंदा है
शरीर रेंगनी के अनगिनत कांटों से बिंधा
सहमे विचारों में, जलती हुई धरती
जिसपर चलते हुए पाँव में फफोले पड़े हैं
रोना, कलपना, गिड़गिड़ाना
बेजान शरीर को लहराना
हमारा यथार्थ है,
मृतकाय जीवन की अभिव्यक्ति
काँटों पर मुसक बाँध कर सुलाया जाना
तिसपर फोकस करती ढीठ आँखें
हमारी याचना की दम तोड़ती शक्ति हैं
तुम्हारा तर्क है, हमें जीने नहीं दोगे
हम मरकर भी जी उठेंगे बार-बार
सामना करेंगे तुम्हारा
हर अमानुषिक प्रहार।
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मेरी पूजा से छुटहि पाप क्यों…
पवित्र कहे जाने वाले श्लोक की भाषा
उसके घिनौने लगने वाले तर्कों का
कभी कोई मेल नहीं हुआ
जिसके लिए मनुस्मृति का मंत्र सुनना पाप है
उसने कहा और बार-बार घृणा किया
कि पूर्व जन्म के कुकर्म ने ही
इस जन्म में तुम्हे नीच कुल का बनाया
और पापी पेट मे पैदा हुआ
गंदी गालियों का नश्तर झेला
अब क्षुद्र हो तो, देवता का अपमान न करो
पतित हो तो देवी का गुणगान न करो
तुम्हारे लिए नर्क ही श्रेयकर है
दलित पैरों से परिसर को मत रौंदो
तुम्हारी जिंदगी में अभिशाप ही बेहतर है
वह बेगार ढोता हुआ
अपनी पीठ पर ग्लानि के
चुभोये गये विभत्स पीड़ा
गाली-ग्लौज के बहते सड़ांध को
झेलता, संवेदना को तलाशता
खुद से घृणा करता, अपनों से भागता
जब-तब चौंकता है
कि मेरा संघर्ष मंदिर की भव्यता है
कला की समृद्धि है
तो मेरी पूजा से छुतहि पाप क्यों?
बताओ, सत्ता पर आसीन आकाओं..।
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सत्यमेव का पताका
खामोशियों के,
कुशल साजिशों से बचो
सम्हालो, अपने होशों हवास को
बढ़ो, जाओ उस मरु भूखण्ड पर
अतीत हो चुके,
खंडहरों के प्राचीरों पर
ढूंढो, जीवन के विराट गंध
जहां, सत्यमेव का पताका
स्वार्थी आदमखोरों ने
झुका दिया है
चीर डालो,
निराशाओं के घने कोहरे को
क्योंकि-
उसी विटप सघनता में
पूरे ओज, चंचलता के साथ
आशा की किरण, दामिनी
कौंधने वाली है बंधु
तुम निर्लिप्त, विवशता की
चाकरी करना छोड़ दो
जो तुम्हे बाँध रखा है
उन बेड़ियों को तोड़ दो
किस्मत का ढिंढोरा मत पीटो
अपने पुरुषार्थ पर
नामर्दी, कापुरुषता के दैत्यों को
हावी मत होने दो
हाहाकार करते पसीने को
गिरवी मत रखो
ईमानदार हवस की
कलाबाजियों से चौंको मत
तुम, भीषण त्रासदी में भी
कड़वी मुस्कुराहटों का बिगुल फूंको
ओ राष्ट्रनिर्माता, नरेश
दुनियाँ का सारा श्रम
शिल्पों में पिरोया गया
एक एक आश्चर्य
मेंरे हुनर की दास्तान है
अब अपने शिल्प में
एक एक सृजन का
मानचित्र बना रहा हूँ ।
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उसका शिखर से गिरना पसंद है
थके हुए शरीर और संकल्पवान उम्मीद के साथ
बंजर और दरकती धरती पर उसने
खुद को रोपा है
कोई नमी या बादल की आद्रता भी
काश संभावनाओं को उगा पाती
टकटकी लगाए आँखों में भी
स्वप्न की किरणें बिखरती हैं
बिवाई फ़टे पैरों में भी
आशा की हरियाली दमकती है
गंतव्य को पानी का ठहराव नहीं
उसका शिखर से गिरना पसंद है
कितना पसंद है हिरणों को कुलांचे मारना
आनंदित करता है नाचता हुआ मोर
असम्भव-सा दिखने वाला प्रश्न
चुटकी में हल हो जाए
और मरू प्रदेश के पौधों के
सुमनों पर भवंरा गाए
बच्छर बाद की यह खुशियाली
कितना नैसर्गिक है
इसमें कितनी ताजगी
कितने सपने बिखरे हैं
तब किसी शब्द से कविता निखरी है
बर्षों बाद सहमी हुई, रुग्ण आँखों में चमक
और फ़टे होंठो पर मुस्कान से
शायद स्वर्ग की सुंदरता फीकी है
और किलकती खुशी, वबुझी राख के बीच
पीसता हुआ जीवन
कभी उजाले की आहट में
मुस्कुरा पड़ता है।
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आश्वासन बीमार तंत्र की औषधि है
उसकी नजरें भी नफ़रत करती हैं
बुदबुदाहट और पैनी
इन्द्रियाँ और होती हैं नुकीली
वह अपनी संवेदनाओं के लिए लड़ता है
अपने बर्बाद हो चुके फ़सल पर
ईश्वर को कोसता है, सत्ता को गरियाता है
अधजले गोईठे की तरह
अपनी बदरंग हुई जिंदगी में
थोड़ा और राख पोतता है
तब वह पगड़ंडी पर नहीं
प्रश्नों की नोक पर चलता है
उत्तर में पहले फटकार मिलता है
फिर आधी संतावना
एक डेग चलकर आधा खींचता हुआ
शक के भींगे उपले से उठता हुआ धुंआ
छल के चूल्हे से उठता है
मन में टहलती उम्मीद
कपटी चोट से लहूलुहान होती है
उसके सारे प्रश्न प्रभावहीन हो जाते हैं
आश्वासन बीमार तंत्र की औषधि है।
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व्याकुल प्रश्न
हप्ते दिन की जली बासी रोटी
जब भूख का निवाला बनती है
तब निर्धारित करती है
दीनता की व्यथा
गरीब तय करता है करुण कथा…
फूटे थाली मे पनियाइ दाल या
नून-मिरच में सानता भात
और तप्त होती है फटेहाल इंसान की आत्मा
फ़टे हुए व्यार और कांटे से बिंधे पैर की पीड़ा को
एक चरवाहा ज्यादा बेहतर बताएगा
और रुग्ण आँखों से जख्मो को सहलाएगा
एक मुश्किल चढ़ाई चढ़ती हुई स्त्री
बेहतर जानती है
तड़फड़ाती हुई
सुरक्षित उतर जाना
भीतर की उबलती आग पर
कोई यूँ पानी डाल देगा
और वह कातर नेत्रों से ताकती
यूँ बला को टाल देगी
सरकार को कोसते,
अपनी दीनता को भोगते
बंजर खेत मे कराहता किसान
फ़सल की बर्बादी और
बर्बादी की आबादी पर
टहलता है मुद्दत से
गुम हो गई मुस्कान पर
व्याकुल प्रश्न पलता है।
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स्मृतियाँ
अतीत की स्मृतियाँ
नंगे पैरों में
कांटे की तरह चुभती है
कुछ यादो के साथ
बीते दिनों की राख होती है
अतीत का शोक गीत
महामारी की तरह फैलता है
और पूरे प्रदेश में
लिप देता है अपने तीखे दंश
कुछ स्मृतियां सिर्फ पीड़ा ही नहीं देतीं,
हमे खंघालती, संभालती भी हैं
और स्मृतियों में गूँज उठता है
पिता का बेसुरा राग
जिनके अनुशासन में
मेरा प्रत्येक कुचेष्ठा हारा है
स्मृतियो मे मेरी माँ
रुलाती नहीं बल्कि
मीठी लोरी सुनाती है
और इधर घोसलो से निकल
गोरैया फुदकने लगती है
मन चहकने लगता हैं।
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स्वतः अकेली धुन की तरह
जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है
उसे समझने के लिए एक विचित्र मस्तिष्क
योजनाएँ बनाने के लिए
कालजयी प्रदीप आँखे
प्रकाशित रश्मियों की तरह
बिहड़ों में मार्ग बनाने के लिए पैर
निर्माण के लिए दो हाथ
नदी के दो किनारों की तरह
गंतव्य की ओर प्रस्थान करते
अपने श्रम का दान करते
विशिष्ट, अतिविशिष्ट हो जाना था
अपने सजीव देह पर
मृतकाय लौ को ढोना
सुनाना था अपने श्रम की भाषा में
अपना ही लिखा हुआ मौलिक निबंध
कुछ विशेष संस्मरण
हृदय में किसी का कोई हस्तक्षेप न था
न जागती आँखों में किसी की छवि
सबकुछ स्वतः अकेली धुन की तरह
शिकायत, कि लोग पहचानते नहीं
शिकायत, कि लोग सुनते, पढ़ते नहीं
शिकायत, कि शब्द खुद तय करते हैं रास्ता
वस्तुत: भाषा के कोलाज में
संवेदना के निर्मित साज में
शब्द की सार्थकता स्वयं रचती है अपनी आवाजाही
अपनी उपस्थिति का समर्पण
अपनी ही जीवन कविता को सजाना संवारना
थके और उदास देश में
हारे हुए प्राणी के वेश में
थक हारकर अपनी ही कातर और सहमी हुई आँखों में
जरा रुक कर सुस्ताना
अपने दिलों में बैठकर
स्वयं प्रभा को बुलाना।
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उसका जागना
मेरे हृदय में
उस त्रासदी की गूँज है
जिसे भूख से बिलबिलाते
अपना भविष्य खाते
व्यवस्था की सड़ान्ध से आघाते
भोगा है मेरे पूर्वजों ने
उनकी कायर चुपियों पर
मासूमियत से खिलखिलाते बेटियों पर
तुम्हारी बर्बरता का पौधा लहलहाया था
और उदार उर्वरकों ने
स्वेद-खून बहाया था
मेरे हाथ में बर्बाद हो चुका भविष्य है
मै वर्तमान का ओजस्वी नया नरक
सामंती विचारों, नसिपहसलारों, नरेशों,
खंडित हो चुके देशों, आओ
मै एक बजबजाता हुआ स्वर्ग दूंगा
सदियों से सोया ये सर्वहारा समाज
नींद में ऐसे स्वप्न देखता
कुलबुलाता जा रहा और
एक ऐसे सवेरे का इंतजार करता आ रहा है
जहाँ तुम्हारे साम्राज्य का शोकगीत लिखा जाएगा
पूस की ठिठुरती हुई रात में
एक कृषक की
खेत में लहराती विचारधारा
उसके सामने दण्डवत करता
अलाव जलाता
उसे अपने तन की गर्मी दे रहा है
उसका जागना रोज का जागना नहीं, बल्कि
एक युग का जागना है
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संवेदना का सूरज आँसू बहा रहा है
गगन में जीवन की कविता उड़ रही है
चकित है मेघों का मिजाज
बंजर धरती उत्सव मना रही है
सदी का अंतिम यात्री
दे रहा है आवाज
विलासिता के शिखर पर
सो रहा है ताज
संवेदना का सूरज आँसू बहा रहा है।
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कवि परिचय :-
नाम- सुरेन्द्र प्रजापति
जन्म-8 अप्रैल 1985
जन्म स्थान :-
ग्राम- असनी
पोस्ट-बलिया
थाना-गुरारू
जिला-गया, बिहार
पिन न.-824205
पिता-स्वर्गीय श्री जगदीश प्रजापत
माता-स्वर्गीय श्रीमती मैना देवी
पाँच भाई, दो बहनें
अपने माता पिता का तृतीय पुत्र
पिता से हमेशा संघर्ष शील बने रहने की प्रेरणा, वही माँ से विनम्र बने रहने का पाठ
“शिक्षा”-प्राइमरी स्कूल पांचवी तक, पढ़ाई छोड़ने के आठ वर्ष बाद किसी तरह मैट्रिक
“पेशा” इंटरनेशनल मार्केटिंग कम्पनी में स्वतंत्र डिस्ट्रीब्यूटर
“शौक” साहित्य पढ़ना, कहानी, कविताएँ लिखना।
साहित्यिक उपलब्धि :-
कुछ कविताएँ समाचार पत्रों में प्रकाशित
एक कहानी संग्रह “सूरज क्षितिज में” प्रकाशित
संपर्क सूत्र:-
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7061821603, 9006248245
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