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Home कविता

के . पी . अनमोल की ग़ज़लें

by Anhadkolkata
May 27, 2023
in कविता
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के. पी. अनमोल हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में एक जाना पहचाना नाम है। अनमोल की गज़लों का संसार धीरे धीरे बड़ा हुआ है और अब उसमें संसार की बहुत सारे मसले समाहित हो रहे हैं। ग़ज़ल कहने का माद्दा सच कहने का माद्दा होता है और वह के. पी. अनमोल के यहाँ अपने पूरे आत्मविश्वास के साथ मौजूद है। महत्त ग़ज़लकार को अनहद कोलकाता की ओर से ढेरों शुभकामनाएं।

आइए पढ़ते हैं के. पी. अनमोल की गज़लें। आप की राय का इंतजार तो रहेगा ही।

 

के.पी.अनमोल

 

ग़ज़ल- 1

वह  बुरे  कर्मो का  अपने  शाप  देखे जा  रहा  है
रोज़   बेटों   की   लड़ाई   बाप   देखे  जा  रहा है।

गाड़ियाँ  रफ़्तार  से आकर  निकलती  जा रही हैं
मोड़  पर  इक  पेड़  है, चुपचाप  देखे जा रहा  है।

मन में  हैरानी भरे कुछ  भाव  लेकर  एक  बच्चा
एकटक  पानी  से  उठती  भाप  देखे जा  रहा  है।

जानता  है  आदमी   के   हाथ   में  जादू  नहीं  हैं
ढोल अपने तन  पे  पड़ती  थाप  देखे जा  रहा  है।

आदतें,  अंदाज़,  सारे  ढंग  उसके  हू – ब- हू  हैं
अपने बेटे में  वो  अपनी छाप   देखे  जा  रहा  है।

वह अगर चाहे मिटा दे एक ही चुटकी में  लेकिन
रब ज़माने  भर  के दुख,  संताप  देखे जा  रहा है।

पुण्य भी ‘अनमोल’ के खाते  में  हैं  थोड़े-बहुत से
पर ज़माना  सिर्फ  उसके  पाप  देखे  जा  रहा  है।

ग़ज़ल- 2

किस  काम  का  है  माल छिपाकर रखा हुआ
होगा   पहाड़   थोड़े   ही   पत्थर   रखा   हुआ।

आर० ओ० के दौर में है नहीं इसकी एहमियत
इक   फ़ालतू   घड़ा  है  उलटकर  रखा  हुआ।

ये  मॉल  की  चमक  है  यहाँ  गुण  न  खोजिए
जूता   किताब   के    है   बराबर  रखा   हुआ ।

हरियालियाँ    उजाड़   के  हरियाली   लाएगा!
धरती  की  गोद  में  है  जो  टॉवर  रखा  हुआ।

घर  में  है  एक   पूरी   ही   दुनिया  रखी  हुई
दुनिया  के  एक  कोने  में  है  घर  रखा  हुआ।

जगमग चमक रहा है  मेरे  मन  की  स्लेट  पर
उसके  हर  एक  नाम  का  अक्षर  रखा  हुआ।

‘अनमोल’  ऐसे   रक्खी   है  चरखी  पतंग  पर
ज्यूँ  बोझ  हो  उड़ान  का  मन  पर रखा हुआ।

ग़ज़ल- 3

वही   कैसेट  जिन्हें   सुनकर  बहुत   झूमे   हैं,  गाये  हैं
उन्हें   यादों  की  गठरी  में   कहीं  हम   फेंक  आये  हैं।

वो साइकिल जो कि कैंची में भी सरपट दौड़ा  करती थी
उसी साइकिल  के पहिये  इस  समय  में  लड़खड़ाये  हैं।

किताबें    लेने – देने    के   बहाने    याद   हैं    ना   वो!
कि  जिनकी  आड़   में   कितने  पहर  हमने  बिताये  हैं।

फुदकना  पेड़   पर,  झूलों   में  लदना,  धूप   में  तपना
बिना  मोबाइल – इंटरनेट  के   क्या   दिन   बिताये   हैं।

ज़रा- से  काम  के  चक्कर  में  घण्टों  तक  चले चलना
हम   अपने   दोस्तों    के   साथ   रस्ते   नाप  आये   हैं।

पढ़ाई,  खेल , मस्ती, यारियों   के   दिन   ग़ज़ब   के   थे
वही  दिन  जिनके  पल-पल  में  कई  उत्सव  मनाये  हैं।

वही ‘अनमोल’  दिन  थे  तब  नहीं  पर अब ये लगता है
मज़े   हम   ज़िंदगी   के    बचपने   में    लूट   आये   हैं।

ग़ज़ल- 4

थी कहीं खुलकर, कहीं   भीतर तलक  छुपकर  रही
हर किसी  के  मन  में  लेकिन  लालसा  जीभर  रही।

इस पुरुष से उस पुरुष के स्पर्श तक  बरसों  बरस
कोई   बतलाए   अहिल्या   किसलिए   पत्थर   रही।

हर   कोई   ताने   कसेगा,   दोष   तो   देगा   मगर
कौन  समझेगा   ये  धरती   किसलिए   बंजर   रही।

ख़ुद से बोली- “तू कहाँ नाज़ुक, कहाँ  कमज़ोर  है!”
और वह साइकिल के  पहिये  में हवा  भरकर रही।

पेड़  ने  पहरे   बिठाये,  डर   दिखाया,  सब  किया
पर  हवा  ख़ुशबू  को  अपनी  गोद  में  लेकर  रही।

रास्ता   चिन्ता  का  जाता  है   चिता   के  द्वार  तक
एक  बस  ये  ही  नहीं  रहनी  थी  मन  में, पर  रही।

फिर  उसे  ‘अनमोल’  होने  से  कोई   क्या  रोकता
पाँव  धरती  पर  थे  जिसके  आँख  अंबर  पर  रही।

ग़ज़ल- 5

इतने   यत्नों  बाद  अब   तक  ये  नहीं  हारी   मुई
बढ़   रही   है   घास   की   मानिंद   बेकारी   मुई।

लड़ते-लड़ते बिक गये घर-बार, ज़ेवर और दुकान
सैंकड़ों   जल्लाद  से   बढ़कर    है   बीमारी   मुई।

सच को सच और झूठ को हम झूठ कह पाते  नहीं
ले  ही   बैठेगी  हमें   इक  दिन   तरफ़दारी    मुई।

डर  के  मारे  जब  सहमकर  रो रहा होता  है पेड़
टूट  क्यों   जाती  नहीं  है  उस   घड़ी   आरी   मुई।

साथ  मौसम  का  मिला  तो भोली-भाली-सी  हवा
हो  गयी  है  कितने   ही  लोगों   की  हत्यारी   मुई।

ये   मशालें  चाहती   हैं   भोर  तक   लड़ना  मगर
और   भी   गहरा   रही   है   रात   अँधियारी   मुई।

सादगी,  संजीदगी,   साहस    सभी  ‘अनमोल ‘  हैं
पर  इन्हें  भी  मात  दे   देती   है   होशियारी   मुई।

ग़ज़ल- 6

ज़रा-सी  आस  अगर छिप  के मन में रहती है
तो  चाह  उड़ान   की   पूरे  बदन  में  रहती है।

इमारतें    हैं    बहुत   आलीशान    माना   पर
सड़क से  पूछ  वो  कितनी  घुटन में  रहती  है।

किसी  भी  डाल  पे बैठी  भले  ही  दिख  जाए
असल में मन से तो चिड़िया गगन  में रहती  है।

मैं   ग़ौर   करते   हुए  सोचता   हूँ   फ़ोटो  पर
कि माँ  की  छाया  कहीं अब बहन में रहती है।

इसे  दिखा  था  कभी  ख़्वाब  ठहरे  पानी   का
तभी  से  आँख  अजब-सी  जलन  में  रहती है।

जो   वायरल   हैं   उन्हें   देख   नहीं  हो  हैरान
जो  चीज़  अलग  हो  वही तो चलन में रहती है।

बताऊँ  कैसे  मैं  फीलिंग  वो   तुम्हें  ‘अनमोल’
तुम्हारे   वास्ते   जो   मेरे   मन   में   रहती   है।

ग़ज़ल- 7

यहाँ  हर  एक  जनम  से  दुःखों का आदी  है
ये  बात   किसने   शहंशाह  को   बता  दी  है।

हमारी  पीठ पे  है  जो   बहुत  ही  भारी चीज़
हमें  ख़बर  ही  नहीं  है  ये   किसने  लादी  है।

ग़रीब- अमीर  यहाँ  सबको  न्याय  है  मिलता
न  जाने  किसने  ये अफ़वाह-सी उड़ा  दी  है।

ये   बात  जानती  हैं   सिर्फ  आग  की  लपटें
वे  कौन  हैं  कि   जिन्होंने  इसे   हवा   दी  है।

मुझे  ये  लगता  है  मासूमियत  तो  चुपके -से
हमारे   दौर   ने    जैसे    कहीं   छिपा  दी  है।

जिसे  जवानी   में  घर  का  सहारा   होना  था
वो  सारे   गाँव   में  सबसे   बड़ा  फ़सादी   है।

अब इस घड़ी का तो ‘अनमोल’ इंतज़ार न था
हमारी  आँख   को  तस्वीर  तूने  क्या   दी  है!

ग़ज़ल- 8

एक – दूसरे   के  साथ   रहे  हैं,  वही   हैं  हम
एक  -दूसरे   के  साथ  रहे  थे , तभी   हैं   हम।

एक – दूसरे   के   दर्द   में   रोये    हैं   टूटकर
एक-दूसरे की  आँख  से  बहती ख़ुशी  हैं  हम।

घुलमिल गये  हैं कितनी जगह पर, कहाँ-कहाँ
कितने ही  पानियों  से बनी  इक नदी  हैं  हम।

सदियों  से   एक – दूसरे   की   जान   हैं  रहे
इंसानियत  को  जोड़ने  वाली  कड़ी   हैं  हम।

कुछ  साथ,  साथ  रहके  ही  होते  हैं  ख़ूबतर
‘तू’ और ‘मैं’  हैं  साथ  तभी  तो अभी  हैं ‘हम’।

नफ़रत  का  काम  तोड़ना  है, बाँटना  है बस
जब  तक हैं  इससे  दूर तभी तक सही हैं हम।

ये  देखिए  दिलों   में  कहाँ   तक  उतर  सके
‘अनमोल’  ये  न  देखिए  कितने  बली  हैं हम।

ग़ज़ल- 9

हुआ  दुखी  गर  जहान  से  रब,  ज़मीन  खिसकी,  पहाड़  टूटा
बिना  सबब  के  भला  कहाँ कब, ज़मीन खिसकी, पहाड़  टूटा।

बग़ैर  सोचे , बग़ैर समझे,  बस  अपनी  ख़ातिर  जो  आदमी  ने
बदलना  चाहा   ख़ुदाई  का  ढब, ज़मीन  खिसकी, पहाड़  टूटा।

कहा कि  ख़ुशियाँ  बिखर गयी  हैं, हर  एक  उत्साह दब गया है
मैं  सीधे-सीधे  न  कह  सका  जब, ज़मीन  खिसकी  पहाड़ टूटा।

न  जाने कब  का गुज़र  चुका  है, बेचारी क़ुदरत के सर से पानी
किसी को  हैरत  न हो अगर  अब, ज़मीन  खिसकी, पहाड़ टूटा।

पिता को  खोकर  ज़रा-सी मुनिया, अगर बताती  तो क्या बताती
किसी  तरह  बस  ये कह सके लब, ज़मीन खिसकी, पहाड़ टूटा।

कहाँ किसी ने सबक़ लिया कुछ, कहाँ किसी को है कोई परवाह
भले  हमारे  समय  में  जब   तब,  ज़मीन  खिसकी  पहाड़  टूटा।

भरम  न  उसको रहे कि केवल, वही है ‘अनमोल’ इक खिलाड़ी
सो  आदमी  को  दिखाने  करतब, ज़मीन  खिसकी  पहाड़ टूटा।

ग़ज़ल- 10

बहुत  मुश्किल  समय में  तो सहारे भी नहीं टिकते
अगर हो  सामने  पत्थर तो  आरे  भी  नहीं  टिकते।

हमें  तो  लग  रहा  था  सिर्फ डरते हैं हमीं लेकिन
दुखों  के  सामने  तो  पग  तुम्हारे  भी नहीं टिकते।

किनारे  रोककर  रखते  हैं  पानी  को  हमेशा  पर
अगर हो  वेग ज़्यादा  तो  किनारे भी  नहीं  टिकते।

है नभ के पास  ऐसी कौनसी चुम्बक कि धरती पर
ज़रा-सी  फूँक  मिलते  ही  गुबारे  भी नहीं  टिकते।

अगर  इक सच  निकल आया तो सारे  झूठ भागेंगे
अजी  सूरज  के  आगे  सौ  सितारे भी नहीं टिकते।

कभी  भारी  पड़ा  करते  हैं  बंदूकों  पे  कुछ  नारे
कभी  लाठी निकल आये  तो  नारे भी नहीं टिकते।

तुम्हारे   साथ   तो  ‘अनमोल’   वीराने    सुहाते   हैं
तुम्हारे  बिन  इन  आँखों  में  नज़ारे भी नहीं टिकते।

 

……

 

पेंटिंग : एस. डी . खान 

 

के० पी० अनमोल

जन्मतिथि- 19 सितम्बर, 1989
जन्मस्थान- सांचोर, ज़िला- जालोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू० जी० सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
प्रकाशन-
ग़ज़ल संग्रह ‘इक उम्र मुकम्मल’ (2013), एवं ‘कुछ निशान काग़ज़ पर’ (2019),
‘जी भर बतियाने के बाद’ (2022) प्रकाशित।
हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना- ज्ञानप्रकाश विवेक, हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे-
अनिरुद्ध सिन्हा, हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन, भाग-3, हिन्दी ग़ज़ल की
परम्परा एवं हिन्दी ग़ज़ल की पहचान- हरेराम समीप आदि महत्वपूर्ण आलोचनात्मक
पुस्तकों में सम्मिलित। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल के महत्वपूर्ण सम्वेत संकलनों- यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी
की ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, 21वीं सदी के
21वें साल की बेहतरीन ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल आदि में रचनाएँ
प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल
संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका का मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. शैलसूत्र त्रैमासिक पत्रिका के ‘हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक’ का संपादन।
4. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
5. वरिष्ठ ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी की उर्दू ग़ज़लों के संकलन ‘लोग जिसको ज़हीर
कहते हैं’ पुस्तक का संपादन।
4. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, ‘मीठी-सी
तल्ख़ियाँ’ (भाग-2
व 3), ‘ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
5. ‘समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल’ एंड्राइड एप का संपादन।
6. ‘दोहों का दीवान’ समकालीन दोहा एप का संपादन।
प्रसारण-
दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी पर ग़ज़लों का प्रसारण।
निवास- रुड़की, (उत्तराखण्ड)
ई-मेल: kpanmol.rke15@gmail.com
मोबाइल- 8006623499

—
के० पी० अनमोल

ब्लॉग्स-
कुछ निशान काग़ज़ पर
kpanmol.blogspot.com
निन्दक नियरे राखिये
kitabenboltihain.blogspot.in

Tags: K. P. Anmol/के . पी . अनमोल : ग़ज़लें
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