आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की छठी कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
नौकरी करो सरकारी !
ललन चतुर्वेदी
बातें महत्वपूर्ण नहीं होतीं,बातों की पैकेजिंग उन्हें महत्वपूर्ण बनाती हैं। प्यारेलाल जी कहते हैं कि क्या कारण है कि पत्नी आपकी बातों पर कान नहीं देती और दुनिया सम्मान नहीं देती।ऐसा इसलिए कि बातों को गंभीर बनाने की कला में आप माहिर नहीं है।चौराहे की चाय की चर्चा नहीं होती लेकिन जब साहब चाय पर बुलाते हैं तो अखबारों की सुर्खियां बन जाती हैं।खैरूलाल के टिनही ढाबे पर बनने वाला समोसा जब होटल राजधानी में पहुंचता है तो उसका दाम दस रुपये से बढ़कर चालीस रुपये हो जाता है।वही समोसा जब ऑनलाइन होकर आपके प्लेट तक डिलीवरी चार्ज और जीएसटी के साथ पहुंचता है तो स्वाद में उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो जाती है। मतलब यह कि प्रॉडक्ट से ज्यादा पैकेजिंग का महत्व है। प्यारेलाल जी बात-बात पर अपना जुमला दोहराते रहते हैं- बात ही करामात है। वस्तुतः वह बातों की पैकेजिंग की कला में माहिर हैं। मामूली बात को गंभीर और महत्वपूर्ण बना देते हैं। सरकारी सेवा में हैं लेकिन कभी नहीं कहते कि वेतन मिलता है।उनका मानना है कि मर्द से उसका वेतन और स्त्री से उसकी उम्र पूछना शिष्टाचार के विरुद्ध है। वह चिढ़ कर कहते हैं कि यह जानते हुए भी कि मेरे वेतन से किसी को एक धेला मिलने वाला नहीं है फिर भी लोगों को मुझसे अधिक मेरे वेतन में रुचि है। लोग पूछ ही डालते हैं। मैं भी बतलाता हूँ कि दस लाख का पैकेज है।वेतन,तनख़्वाह,दरमाहा,सैलरी कहने पर वह इज्जत नहीं मिलती जो पैकेज को प्राप्त है।उनका मानना है कि अपनी चीजों को महत्व दो और सबसे अधिक अपना महत्व दो। जहां भी रहो, अपने को स्थापित करो।बहरहाल, उनकी इस कला का मैं भी मुरीद हूँ।
मैं सुबह की सैर पर प्यारेलाल जी से जरूरी टिप्स लेता रहता हूँ। हर दिन कुछ नया आइडिया लेकर आते हैं। आज दुआ- सलाम के बाद थोड़ी देर तक मौन रहे। मैं समझ रहा था कि आज जरूर कोई रहस्योद्घाटन करेंगे और कर ही दिया- कुछ लोग रिटायरमेंट तक बोलना नहीं सीख पाते।मैं उनका मुंह देखने लगा कि क्या कह रहें हैं।आफिस में सब पढे-लिखे,सभ्य साहेबान होते हैं।हमें उनके प्रति अच्छे विचार रखने चाहिए।कार्यपालिका का सम्मान नहीं करेंगे तो व्यवस्थापिका गड़बड़ा जाएगी और मामला न्यायपालिका तक पहुँच जाएगी। यह सोचते हुए मैंने दबे स्वर में असहमति जताई तो बोलने लगे- देखो भाई, अनुभव की बात बतलाता हूँ विश्वास रखो-रिटायरमेंट की बात छोड़ो,कुछ लोग कब्र जाने तक भी बोलना नहीं सीख पाते।इसीलिए उन्हें मान-सम्मान प्राप्त नहीं होता।क्लर्क की बात छोड़ो,कुछ अफसर भी ऐसे ही होते हैं कि वे बोलना तक नहीं जानते। मैं यह नहीं कहता कि वे योग्य नहीं हैं।उनके पास एक से एक अकादमिक डिग्रियाँ हैं मगर अकादमी से निकल कर कोई आदमी नहीं बन जाता।इसीलिए मैं कहता हूँ –बोलना सीखो। अब मेरा ही उदाहरण ले लो- मात्र एक वाक्य पर पत्नी हाजिर होती हैं और बेटा तो इतना आज्ञाकारी है कि एक शब्द के उच्चारण मात्र से ही उपस्थित हो जाता है। बेटियाँ तो चेहरा पढ़ कर ही समझ जाती हैं कि मुझे चाय चाहिए या कॉफी। तो बोलना यदि सीख गए तो नब्बे प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। जैसे मेरा पुत्र एमएनसी में जाने का मूड बनाए हुए था लेकिन मेरी एक नसीहत पर सरकारी नौकरी में आने के लिए तैयार हो गया। मैंने केवल एक लोकोक्ति की सप्रसंग व्याख्या कर दी। वह तुम भी सुन लो- “खेती करो तरकारी और नौकरी करो सरकारी।” हमारे प्रांत के लोग बुड़बक नहीं हैं कि सरकारी नौकरी के लिए जान देते हैं।सरकारी नौकरी में यदि अफसर बन गए तो चांदी ही चांदी है। यदि छोटा-मोटा पद भी मिल जाए तो देर-सवेर आदमी अफसर बन ही जाता है। सरकारी नौकरी ट्रेन की तरह है। किसी तरह घुस जाओ।बर्थ भी मिलेगी,रिजर्वेशन भी मिलेगा,स्लीपर में हो तो एसी में अपग्रेडेशन भी मिलेगा। गाँव से सीधे राजधानी पहुँच जाओगे। बाद में हवाई सफर का लुत्फ भी उठाओगे। वैसे बाहर का लोग तो आफिस में काम करने वाले सभी लोगों को अफसर ही समझता है। समझना भी चाहिए। नहीं समझ में आने पर कभी सरकारी आफिस में काम पड़े तो जाकर देखो। वे लोग ठीक से समझा देते हैं। बड़ा बाबू तो बड़ा बाबू ,छोटा बाबू भी अपना कमाल दिखा देंगे। एक घंटा टेबल के सामने खड़े रहिए,नजर तक नहीं उठाएंगे। ये सब सरकारी आफिस के डेकोरम हैं,इसे बुराई नहीं समझनी चाहिए। इन्हीं सुलभ गुणों से सरकारी महकमे का महत्व बढ़ता है।अब किसी उम्मीदवार से पुछो- निजी क्षेत्र में अच्छा पैकेज है,आगे बढ़ने के अवसर हैं तो क्यों यहाँ आना चाहते हो। उसका जवाब सुनोगे तो लगेगा कि भगत सिंह या चन्द्रशेखर आजाद से बातें हो रही हैं। उसका देश-सेवा का व्रत सुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। वह दुनिया को बदलने की भावना से सरकारी सेवा में आना चाहता है। दुनिया बदले या न बदले वह अपनी किस्मत जरूर बदल डालता है। कुर्सी में अंतरर्निर्मित(इनबिल्ट) सुविधाएं होती हैं। आपको दोहन की कला आनी चाहिए।यह ऐसा कंफ़ोर्ट जोन है कि एक बार आप यहाँ गए तो निकलने का मन नहीं करता है।प्यारे भाई ने अपने प्यारे अंदाज में एक खूबसूरत बात बतलायी कि कुछ लोग तो दफ्तर के दीवारो-दर से भी बेपनाह मुहब्बत करते हैं। रिटायरमेंट के बाद भी आफिस की परिक्रमा करते रहते हैं। मैं सोचता हूँ कि काश,सेवा के दिनों में भी वे ऐसा ही सोचतें।चलते- चलते उन्होने एक जरूरी टिप यह भी दे दिया कि काम करना कर्मचारी का काम है,अफसर का नहीं। मैंने पूछा कि तो अफसर का क्या काम है?चट से जवाब दिया- “चिड़िया बैठाना अर्थात हस्ताक्षर करना।” कूट भाषा के इस शब्द को मैंने ठीक से याद कर लिया है। आने वाले समय में मैं भी अफसर बनने वाला हूँ। मेरे अच्छे दिन आने वाले हैं। मुझे अभी से बातों की पैकेजिंग की कला का अभ्यास शुरू करना होगा। अब तो फाइलों पर छोटी सी चिड़िया बैठाना है। पूरा हस्ताक्षर करने के दिन गए।मेरा आद्याक्षर अर्थात इनिशियल ही काफी है। साहब बनकर सैंकड़ों फाइलों पर लंबे-चौड़े हस्ताक्षर करने के लिए फुरसत भी होनी चाहिए।आज अपने पिता जी की बहुत याद आ रही है। प्यारेलाल जी की तरह वह भी कहा करते थे बल्कि उनसे एक पायदान आगे की बात करते थे- “नौकरी करो सरकारी नहीं तो खेती करो तरकारी।”
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।