पिछले 7 मार्च सम्मानीय साहित्यकार पद्मश्री डॉ कृष्णबिहारी मिश्र हमें अकेला छोड़ गए। वे बंगाल की पत्रकारिता के एक स्तंभ थे।
आदरणीय कृष्णबिहारी मिश्र जी सदैव स्मृतियों में रहेंगे – कलाकार कभी नहीं मरता। भावभीनी श्रद्धांजलि। नमन।
यहाँ उनके प्रिय शिष्य युवा शायर ज्ञान प्रकाश पाण्डेय उन्हें मार्मिकता से याद कर रहे हैं :
गुरुवर कृष्णबिहारी मिश्र को अंतिम बिदाई के साथ—
गुरुवर कृष्ण बिहारी मिश्र के प्रथम दर्शन का सौभाग्य वर्ष 2002 में मैदान मेट्रो स्टेशन के समीप आयोजित पुस्तक मेला में प्राप्त हुआ। आप आदरणीय डॉ. इंदु जोशी से बातें कर रहे थे। मैं दूर खड़ा अपलक उस ज्ञान वेष्ठित मूर्ति को निहार रहा था। मैं वाणिज्य का विद्यार्थी था साहित्य के छात्र उन्हें घेरे हुए थे। सब के प्रति उनकी आत्मीयता साफ दृष्टिगत हो रही थी। बावजूद उनकी आत्मीयता के मेरा अंतर्मुखी स्वभाव मुझे उनका सामीप्य न दे सका । मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि पास जाकर में क्या बोलूंगा, किंतु संयोग को कौन बदल सकता है। 2010 में मुझे शहर के मानिंद शायर एवं अपने परम मित्र नंदलाल सेठ ‘रौशन’ के साथ गुरुवर कृष्ण बिहारी मिश्र के निवास पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जहां उनके बाह्य के साथ-साथ अंतर्मन के भी दर्शन हुए। मेरा स्वभाव वहां भी बाधक ही रहा। चरण स्पर्श के पश्चात मूक दर्शक ही बना रहा। इसकी चर्चा जब मैंने सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय के पुस्तकालय सहायक आदरणीय श्री मोहन भैया से की तो परिचय को विस्तार मिला। फिर इसके बाद न जाने कितनी ही बार पंडित जी के वक्तव्यों को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अवसर प्रदान करने का श्रेय प्रायः हर बार भैया को ही मिला। कब एक दर्शक, दर्शनाभिलाषी बन गया कुछ पता ही न चला। हम घंटों पंडित जी के बारे में बातें किया करते थे। कभी उनके व्यक्तित्व संप्रेषण की कभी उनके पांडित्य की और कभी उनकी आत्मीयता की। अद्भुत उच्चारण मालूम होता है जैसे कोई दिव्य पुरुष ब्रह्म लिपि बाँच रहा हो। सभागार तो गुरु बृहस्पति के आश्रम सा प्रतीत होने लगता है। एक अलौकिक शांति सी व्याप्त हो जाती है। श्रवणेन्द्रियाँ अपनी पूरी तत्परता के साथ एक-एक ध्वनि को लपक कर अपने ज्ञानागार की श्री वृद्धि में निमग्न हो जाती हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे अंतर की पवित्र ज्योति ही घृत-मिश्रित श्वेत केशों एवं तांबुल रस रंजित अरुण ओष्ठों को दिव्यता प्रदान कर रही है। बीच-बीच में उनकी मौन मुद्रा ऐसी प्रतीत होती है जैसे शब्द अपने अंतिम चरण पर पहुंचकर निर्वाक हो गए हों।
गँवई अस्मिता के सजग प्रहरी मिश्र जी के पास एक सजग चेतन दृष्टि है जो उम्र के करीब आधे पड़ाव को शहर में बिताने के बावजूद भी उन्हें आयातित अपसंस्कृति की विचारशून्यता से अवगत कराती है। मिश्र जी ने अपने निबंध संग्रह ‘अराजक उल्लास’ में बड़े विस्तार से इसका वर्णन किया है। तथा उधार की संस्कृति में लिप्त होते देश के लिए चिंता जताई है। जीवन का अधिकांश समय शहरों में बिताने के बावजूद भी मिश्र जी का मन गांव में रचा बसा है।
इस प्रेम के साथ ही साथ कहीं ना कहीं एक विषाद-ग्रस्त मन भी है जो परिवर्तित होते समय और मूल्यों को देख रहा है एवं पश्चिमी परस से दूर होने की कोशिश में लगा है। मिश्र जी जानते हैं, कि अपसंस्कृति की एक हल्की सी छुअन भी सुसंस्कृति को पंकिल कर सकती है।
अपने निबंध संग्रह ‘बेहया का जंगल’ में मिश्र जी ने प्रतीकों और व्यंग्यों के माध्यम से द्विमुखी, सर्वग्रासी अपसंस्कृति पर प्रहार किया है। गांव मिश्र जी को बरबस खींचता है किंतु वहां जाने पर उन्हें गांव का अपरिचित रूप ही देखने को मिलता है। जिसकी मंगल कामना उनके हृदय के तारों को ध्वनित किए हुए थी, वही गाँव आज आकंठ बेहया लताओं से आच्छादित हो गरिमा हीन होता जा रहा है। अतीत के नैसर्गिक विरासत से अनजान, निरंकुश युवा पीढ़ी गर्तोन्मुखी होती जा रही है। सिंदूर मस्तकी सभ्यता वैधव्या सी नज़र आने लगी है।
मिश्र जी ने इस वनस्पति के माध्यम से समाज और राजनीति में उगा आए बेहयाओं को इंगित किया है। इनका अतिरेक स्वस्थ विकास में बाधक सिद्ध हो रहा है। अतः इनके उन्मूलन हेतु समाज, विशेषकर युवा पीढ़ी को जागरूक होने की आवश्यकता है। द्वि-लिबासी लंकापतियों को अवधेश बनने से रोकना होगा।
मिश्र जी ने हिंदी पत्रकारिता जैसे विषय पर 500 पृष्ठों से अधिक संख्या वाली पुस्तक ही नहीं लिखी, वरन इनके विचार पूरित मस्तिष्क एवं रस पगे हृदय ने इन्हें देश के मूर्धन्य ललित निबंधकारों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। मिश्र जी ने कई ललित निबंध संग्रहों का सृजन किया। करीब डेढ़ दर्जन कृतियों के कृतिकार आदरणीय पंडित जी ने संपादन में भी काफी रुचि दिखाई। साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश भी संपादन कार्य से ही हुआ। ‘यूनू’ की अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद भी उन्होंने ‘भगवान बुद्ध’ नाम से किया, जिसका प्रकाशन कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा कराया गया। ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ मिश्र जी की सर्वश्रेष्ठ कृति है जो रामकृष्ण परमहंस के लीला प्रसंग पर केंद्रित है। देश के मूर्धन्य विद्वानों ने जिसकी भूरि- भूरि प्रशंसा की।
साहित्य के गंभीर चिंतक पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र की कृतियां उनके समर्पित सारस्वत यज्ञ का सुफल हैं। उनके ललित निबंधों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से आज तक के सभी ललित निबंधकारों की परंपरा उजागर होती है। आधुनिक संदर्भों में ऐसा माधुर्य एवं वैदुष्यपूर्ण भाषा कम ही देखने को मिलती है। पाठक डूबता ही चला जाता है। ‘पिंजरे में एक बनैली आवाज’, ‘खोंइछा गमकत जाइ’ आदि निबंधों को पढ़ते समय मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। माधुर्य पूरित भावात्मकता, व्यंग्यात्मकता के आक्रोश से होती हुई सीधे पाठक के हृदय को आंदोलित करती है। उनकी भाषा उनकी साधना का प्रसाद है।
बंगाल को जीवन का कर्म क्षेत्र बनाने वाले पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र ने जीवन के अधिकांश समय बंगाल में ही बिताए। बंगाल के साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रीति रिवाजों की गहरी छाप उनके व्यक्तित्व में देखने को मिलती है। भद्र बंगाली बुजुर्ग का पूरा चित्र उन्हें देखकर सामने आ जाता है धुली हुई साफ दुग्ध-धवल धोती रेशम का घुटने तक का कुर्ता, कंधे पर करीब-करीब झूलता हुआ शाॅल एवं एक रवीन्द्र बैग, पान से लाल होठ उस पर नपे तुले विवेकपूर्ण शब्द, आकाश को समेटती आशान्वित आंखें। हिंदी के साथ-साथ बंगाली बुद्धिजीवियों से भी उनकी घनिष्ठता रही। बंगाल के महापुरुषों ने उन्हें बहुत हद तक प्रभावित किया। बंगाल की उर्वर भूमि का ही प्रभाव है कि उन्हें ‘कल्प तरु की उत्सव लीला’ जैसी कालजयी पुस्तक के सृजन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ऐसा सुनने एवं देखने में अक्सर ही आता है कि अत्यधिक विवेक कथावस्तु में दुरूहता उत्पन्न कर देता है। ठीक ही कहा गया है कि ‘सर चढ़ी रही पाया न हृदय’ किंतु पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र इसे झुठलाते से नज़र आते हैं। उनका ज्ञान जहां एक तरफ पत्रकारिता के पांडित्यपूर्ण दस्तावेज उपलब्ध कराता है वही उनकी भाषा हमारे लिए पत्रकारिता जैसे नीरस विषय में भी रसोत्स अन्वेषण करती है। ‘नमेधया’ में पंडित जी के विचार लालित्य जहां उरूज़ पर हैं, वहीं ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ हमें गुरु-शिष्य की भावात्मक अनुभूति से भर देती है। पंडित जी का वैदुष्य भले ही उन्हें आम आदमी से अलग दिखाता है किंतु उनकी दृष्टि गँवईं परिवेश में ही अपने लिए सुकून ढूंढती नज़र आती है। आज के चाकचिक्य माहौल में भी पंडित जी को सूप बजाकर दरिद्दर खेदती औरत याद रहती है। उनकी यही दृष्टि उन्हें विदग्धों की कोटि में पांक्तेय कर देती है। गाँव में होता अप्रिय परिवर्तन उन्हें बेहयाई का प्रसार प्रतीत होता है।
जीवन के उत्तरकांड में साहित्य के भीष्म पितामह आदरणीय पंडित जी विद्रूपताओं के कौरवी समाज से भले ही घिरे हों, उनके अंतर का दाधिच्य-विश्वास समय के वृत्रासुरों के विनाशार्थ उनकी लेखनी के पवि प्रहार में उत्तरोत्तर बल संचार करता रहा है। अनंत आधुनिक प्रदूषणों के बावजूद पंडित जी की गँवईं चेतना कभी भी स्खलित होती नज़र नहीं आती। पांडित्य के अटल सिंधु में विचरण करता मन ग्रामीण पगडंडियों के रजत मृत्तिका कणो में अपनी पोथियों के लिए कोई न कोई पवित्र गँवईं उद्धरण खोज ही लेता है। कोई भी प्रलोभन उन्हें ग्रामीणमुखी होने से रोक नहीं पाता।
मुझ जैसे लघु मस्तिष्क के सामर्थ्य की बात नहीं कि मैं पंडित जी के संपूर्ण साहित्य फलक एवं व्यक्तित्व को शब्दों में समेट सकूँ। मेरी भगवान से यही प्रार्थना रहेगी कि मेरे गुरुवर का अक्षत मन,आजीवन शब्दों के कुल देव को अर्थों का समष्टि प्रेरक अर्घ्य देता रहे। अंत में गोस्वामी जी की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं—
‘सकल सुमंगल मूल जग गुरु पद पंकज रेनु।’
ज्ञानप्रकाश पाण्डेय
जन्म : 09.02.1979 ( कोलकाता, पश्चिम बंगाल)
शिक्षा : एम. कॉम., एम. ए., बी. एड. मूल निवासी मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश)
सम्प्रति : शिक्षक
प्रकाशित कृति : सर्द मौसम की ख़लिश, आसमानों को खल रहा हूँ, अमिय कलश (गजल
संग्रह)
साझा संकलनों में : दोहे के सौ रंग दोहों में नारी, ग़जल त्रयोदश,ग़ज़ल पंच शतक,हिन्दी ग़ज़ल का नया मिज़ाज,
पत्र-पत्रिकाओं में : अक्षर पर्व, लहक, अंजुमन,जहान नुमा उर्दू, अरबाबे-कलम,अदबी दहलीज
अदबी दहलीज, वागर्थ आदि
पता : 96, टी. एन. बी. रोड, पोस्ट-सुकचर (घोष पाड़ा), 24 परगना (उत्तर), सोदेपुर, कोलकाता-