आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की पाँचवी कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
अफसरी का पहला दिन
ललन चतुर्वेदी
अफसर बनते ही आदमी सुहागन बन जाता है।कल तक फाइलों में डूबा आदमी,आज बाढ़ के दिनों की मछलियों की तरह सतह पर छलछलाते हुए दिखने लगा है। विभिन्न सरकारी काज-प्रयोजनों में प्रायः जिसका प्रवेश-निषिद्ध था उसे अब सारे ऑफिसियल कार्यों में सादर आमंत्रित किया जाने लगा है।वह अचानक योग्य घोषित कर दिया गया है।प्यारेलाल जी सही कहा करते हैं- “कोई महान नहीं होता,महान बनाए जाते हैं।” इकतीस दिसंबर तक लगभग संन्यासी सा जीवन व्यतीत करने वाला कर्मचारी एक जनवरी को अधिकारी के रूप में पदोन्नत हुआ है। कभी न कभी सब के दिन फिरते हैं।आज उसके भी फिरे हैं।लग रहा है कि कोई तेजस्वी राजकुमार गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर रहा है।सबकी नजरें उस पर लगी हुई हैं और नजारा भी देखने लायक है। उसे सुहागन की तरह शृंगार के सारे साजो-सामान तत्काल उपलब्ध करा दिये गए हैं। हॉल से उठाकर उसे चेम्बर में बैठा दिया गया है,मानों मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी गई है।कल तक वह चुप रहा करता था,सिर्फ सुनता था।अब वह बोलेगा और सब सुनेंगे। उसकी बातों में वजन होगा। अब सब लोग उसकी सुविधा का खयाल करने लगे हैं। बानगी के तौर पर पहली सुविधा के तौर पर उसके टेबल में इलेक्ट्रोनिक बेल फिट कर दी गई है।चक्करदार कुर्सी पर बाम्बे डाइंग का श्वेत–शुभ्र टावेल बिछा दिया गया है। गोपनीयता बरकरार रखने के लिए मुख्य द्वार पर कीमती गझिन पर्दे दाल दिये गए हैं।कोने की स्टूल पर यूनिफार्म में चपरासी संतरी की तरह बैठा है।(मालूम नहीं,चपरासियों को बैठने की लिए कुर्सियाँ क्यों नहीं दी जाती है।शायद अंग्रेजों ने सोचा होगा कुर्सी पर बैठने से नींद आने की प्रबल संभावना बनी रहती है। इसीलिए उन्हें स्टूल दिया जाता हैं। उनके जमाने वाली व्यवस्था आज भी जारी है। अंग्रेज़ बड़े दिमागदार थे। कई क्षेत्रों में आज भी उनके दिमाग का हम बखूबी उपयोग कर रहे हैं।खैर, स्टूल के मामले को तूल देना मूल विषय से भटकना होगा)। इस बीच साहब के चेम्बर में रेड कार्पेट भी बिछ गया है।साहब भी अब अन्य साहबों की तरह गुरु-गंभीर दिखने लगे हैं।
आज पहला दिन है। शुभ मुहूर्त में साहब ने कुर्सी संभाल ली है। कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी अच्छा लगता है।यदि कुर्सी थोड़ी ऊंची हो तो उसमें तमाम तरह की अच्छाइयाँ भी आ जाती हैं।कुर्सी पर बैठा आदमी अच्छा के साथ भला भी हो,इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती,केवल उम्मीद की जा सकती है। आराम कुर्सी पर बैठने का पहला अवसर प्राप्त हुआ है । चपरासी रामभरोस पूरे घटना-क्रम पर पैनी नजर बनाए हुए है। बीच-बीच में मधुर मुस्कान के साथ छोटी- छोटी लाइव क्लिपिंग पेश करता रहता है, विस्तार से खबरें ब्रेक के बाद के आश्वासन के साथ। पहली ब्रेकिंग न्यूज़ यह मिला है कि कुर्सी पर बैठने के थोड़ी ही देर बाद साहब ने अपनी आँखें मूँद ली हैं। संभावना जतायी जा रही है कि वह अपने इष्ट देव का ध्यान कर रहे हैं । बड़े पुण्य से ऊंची कुर्सी मिलती है। लगता है,साहब कुछ याद कर रहे हैं। रामभरोस मन ही मन बुदबुदा रहा है- “हे भगवान!इतनी जल्दी ही भूलने लगे।आगे क्या होगा।” अपने अनुभवी आँखों से उसने अनेक साहबों को देखा है,तोला है। कभी-कभी कहता भी है कि कुर्सी पर बैठते ही आदमी धीरे- धीरे भूलने लगता है- अपना गाँव,पास-पड़ोस,इष्ट मित्र आदि-आदि।पर एक बात वह कभी नहीं भूलता कि वह एक अफसर है।यदि भूलवश वह भूल भी जाए तो अगल-बगल के लोग समय-समय पर उसे याद कराते रहते हैं कि वह एक अफसर है।वह भी लोगों को समय-समय पर महसूस कराता रहता है कि उसे अफसर ही समझा जाए। ऐसा करते समय उसका चेहरा मनहूस टाइप का हो जाता है।फिर,धीरे-धीरे उसे अफसर बने रहने की आदत हो जाती है। एक प्रकार से वह अफ़सरी का एडिक्ट हो जाता है, हर पल अपनी अफ़सरी के प्रति सतर्क,सचेत। अफ़सरी मेंटेन करने के लिए समय-समय पर उसे कुछ एक्सट्रा बॉल भी फेंकने पड़ते हैं।जो उसे अफसर नहीं समझते उनकी विशेष रूप से खोज-खबर लेनी पड़ती है। तब आफिस का प्रमुख काम गौण हो जाता है। कालांतर में यह रोग का रूप धारण कर लेता है। ऐसी स्थिति में अफसर के ‘ऑफ सर’ बनने की संभावना बढ़ जाती है।तब मातहत उसे देखते ही ‘उफ सर’ बुदबुदाने लगते हैं। जो भी हो,यह एक संक्रामक रोग है और कहा ये जाता है कि विभिन्न महकमों में कुछेक अपवाद को छोड़ कर इस रोग से ग्रस्त अनेक अफसर हैं। अधीनस्थ लोग ऐसे अफसरों से उचित सामाजिक दूरी बनाकर देश हित में कार्य-निष्पादन कर रहे हैं।
रामभरोस का मानना है कि नयका साहब जमीनी आदमी हैं। वह पर्दे की ओट से आंखे बचाकर साहब की गतिविधियों पर नजर रख रहा है। साहब की अंगुलियाँ इलेक्ट्रोनिक बेल पर अनायास चली गई हैं। वह फौरन हाजिर हो गया है।साहब रामभरोस को कॉफी लाने का आदेश दे,अँग्रेजी अखबार का हेडलाइन देख रहे हैं।बीच-बीच में विभिन अनुभागों के सहायक बारी-बारी से आकर फाइलें रख जा रहे हैं। मगर आज फाइलें देखने का नहीं सेलिब्रेट करने का समय है। सबको सरप्राइज़ देना है। साहब बालसखा को मज़ाकिया लहजे में कह रहे हैं- ‘राजू,मैं तो साहब बन गया।’ अंत में गंभीरता से सभी को यह अवगत कराना नहीं भूलते कि उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी दी गई है। कल से उसकी व्यस्तता बढ़ जाएगी। ऐसे में वह फोन नहीं उठाएं तो बुरा मत मानना। रामभरोस सोच रहा है –साहब सही रास्ते पर जा रहे हैं।
****
ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।