• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home कविता

विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ

by Anhadkolkata
December 3, 2022
in कविता
A A
0
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram
विवेक चतुर्वेदी

 

 

Related articles

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

ललन चतुर्वेदी की शीर्षकहीन व अन्य कविताएं

विवेक चतुर्वेदी हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कवि हैं। न केवल कवि बल्कि एक एक्टिविस्ट भी जो अपनी कविताओं में समय, संबंधों औरस्वप्न-यथार्थ की नब्ज की टोह लेते दिखते हैं तथा माँ और पिता को अपनी अलहदा और मौलिक नजरों से देखते हुए दिखते हैं। उनकी कविता संबंधो की ऐसी चादर बुनती है जिसमें पूर्वजों के संघर्ष एवं परम्परा, मानवीय रंग, व्यक्ति जीवन के सुख-दुख में अपनापे के छिपे-से शर्मिले प्रेम की छापों के साथ  टंगे मिलते हैं। पिता शीर्षक से लिखी विवेक की कविताओं में पिता जो सच में पिता हैं वे जिन जिन रूपों में हैं वे हमारे ही पिता की ऐसी छवियाँ हैं जिनपर हमारी भावनाओं के कठोर पहरों के ताले जड़े हुए हैं। विवेक बड़ी संजीदगी और बच्चे मन से पिता को देखते हैं और उन्हें याद आता है कि किस तरह पिता भूख से लड़ते हैं ताकि हमारी भूख के साथ हमारा मन भी भर सके और यथार्थ के निकट जाकर पिता को हसरत भरी निगाह से देखते हैं। माँ के प्रति कवि की चिन्ता को माँ से संबंधित उनकी कविताओं ( खासकर ‘माँ को खत’ नामक कविता) में लक्षित किया जा सकता है।

 

 

पिता

पिता! तुम हिमालय  थे पिता

कभी तो कितने विराट

पिघलते हुए से कभी

बुलाते अपनी दुर्गम चोटियों से

भी और  ऊपर

कि आओ- चढ़ आओ

 

पिता तुममें कितनी थीं गुफाएँ

कुछ गहरी सुरंग सी

कुछ अँधेरी कितने रहस्य भरी

कितने कितने बर्फीले रास्ते

जाते थे तुम तक

 

कैसे दीप्त हो जाते थे

तुम पिता जब  सुबह होती

दोपहर जब कहीं सुदूर किसी

नदी को छूकर दर्द से गीली हवाएँ आतीं

तुम झरनों से बह जाते

पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार

सूरज डूबता

तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता

तुम क्यों आँख की कोरें छिपाते थे

 

तुम हमारे भर नहीं थे पिता

हाँ! चीड़ों से

याकों से

भोले गोरखाओं से

तुम कहते थे पिता- ‘मै हूँ ‘

तब तुम और ऊँचा कर लेते थे  खुद को

पर जब हम थक जाते

तुम मुड़कर पिट्ठू हो जाते

 

विशाल देवदार से बड़े भैया

जब चले गए थे घर छोड़कर

तब तुम बर्फीली चट्टानों जैसे

ढह गए थे

रावी सिंधु सी बहनें जब बिदा हुई थीं

फफककर  रो पड़े थे तुम पिता

 

ताउम्र कितने कितने बर्फीले तूफान

तुम्हारी देह से गुजरे

पर हमको छू न सके

आज बरसों बाद

जब मैं पिता हूँ

मुझे तुम्हारा पिता होना

बहुत याद आता है

तुम!  हिमालय  थे …पिता!

 

(2 )          

पिता

भूखे होने पर भी

रात के खाने में

कितनी बार,

कटोरदान में आखिरी बची

एक रोटी

नहीं खाते थे पिता…

उस आखिरी रोटी को

कनखियों से देखते

और छोड़ देते हममें से

किसी के लिए

उस रोटी की अधूरी भूख

लेकर जिए पिता

वो भूख

अम्मा…तुझ पर

और हम पर कर्ज है।

 

अम्मा… पिता कभी न लाए

कनफूल तेरे लिए

न फुलगेंदा न गजरा

न कभी तुझे ले गए

मेला मदार

न पढ़ी कभी कोई गजल

पर चुपचाप अम्मा

तेरे जागने से पहले

भर लाते कुएँ से पानी

बुहार देते आँगन

काम में झुंझलाई अम्मा

तू जान भी न पाती

कि तूने नहीं दी

बुहारी आज।

 

पिता थोड़ी सी लाल मुरुम

रोज लाते

बिछाते घर के आस-पास

बनाते क्यारी

अँकुआते अम्मा

तेरी पसंद के फूल।

 

पिता निपट प्रेम जीते रहे

बरसों बरस

पिता को जान ही

हमें मालूम हुआ

कि प्रेम ही है

परम मुक्ति का घोष

और यह अनायास उठता है

मुंडेर पर पीपल की तरह।

(3)

पिता.. वैसा होना

छोटा बच्चा था मैं तब

और उतरन के

पुराने कपड़ों से थे दिन

एक रात लौटे पिता

काम से घर..कूटते वेग से सांकल

खुला चरमराकर टुटहा द्वार

लालटेन की धुंधआई रौशनी में दिखी

वही नीली कमीज उनके हाथ

जिसे देखता था जाते हुए स्कूल बार-बार

बस दुकान के कांच से

बरबस लिपट गया मैं… पिता से

 

खुश हुई.. पर अचरज से देखती रही मां..

कि भात को भारी इस समय में नई कमीज?

बोले कुछ नहीं पिता

दाहिने हाथ से भरसक खींचते दिखे

अपनी बांयी आस्तीन

छिपाने.. घड़ी बांधने की जगह

 

अब तो कितने बरस…

पिता को भी गए बीते

खोया और पाया

कितना कुछ इस बीच

गंवाया और कमाया

पर सोचता हूं

क्यों नहीं कमा सका

पिता.. वैसा होना।।

(4)  

बाबू

एक दिन सुबह सोकर

तुम नहीं उठोगे बाबू…

बीड़ी न जलाओगे

खूँटी पर ही टंगा रह जाएगा

अंगौछा…

उतार न पाओगे

 

देर तक सोने पर

हमको नहीं गरिआओगे

कसरत नहीं करोगे ओसारे

गाय की पूँछ ना उमेठेगो

न करोगे सानी

दूध न लगाओगे

 

सपरोगे नहीं बाबू

बटैया पर चंदन न लगाओगे

नहीं चाबोगे कलेवा में बासी रोटी

गुड़ की ढेली न मंगवाओगे

सर चढ़ेगा सूरज

पर खेत ना जाओगे

 

ओंधे पड़े होंगे

तुम्हारे जूते बाबू…

पर उस दिन

अम्मा नहीं खिजयाऐगी

जिज्जी तुम्हारी धोती

नहीं सुखाएगी

बेचने जमीन

भैया नहीं जिदयाएंगे

 

उस दिन किसी को भी

ना डांटोगे बाबू

जमीन पर पड़े अपलक

आसमान ताकोगे

पूरे घर से समेट लोगे डेरा बाबू … तुम

दीवार पर टंगे चित्र

में रहने चले जाओगे

फिर पुकारेंगे तो हम रोज़

पर कभी लौटकर ना आओगे ।

 

(5)

सुनो बाबू

जो ये बूढ़ा मजदूर

तोड़ रहा दीवार

देखता हूँ

सुलगा रहा है तुम्हारी ही तरह बीड़ी

चमकते लौ में मूँछ के बाल

वैसी ही तो घनी झुर्रियाँ

पोपला मुँह

 

तुम्हारी ही तरह उसने

भीतरी भरोसे से देखा

जरा ठहरकर

और तोड़ कर रख दिया

हठी कांक्रीट

 

दोपहर…तुम्हारी ही तरह

देर तक हाथ से

मसलता रहा रोटी

पानी चुल्लु से पिया

 

धीर दिया तुम्हारी ही तरह

कि मैं हूँ तो सिरजेगा

सब काम ठीक…

 

अनायास मन पहुंच गया

उस कोठरी में

जहाँ तुम लेटे थे

मूँज की खाट में आखिरी रात

अँधेरे में गुम हो रही थी सांस

खिड़की से झाँक रही थी

एक काली बिल्ली

 

खड़े  थे सब बोझिल सर झुकाए…

घुटी चुप चीर निकल पड़ी थी मेरी हूक

तो आँख खोल तुम कह उठे थे डपटकर

रोता क्यों है बे…मैं नहीं जाऊंगा कँहींं

और मूँद ली थी आँख…

 

बाबू…लगा आज

तुमने ठीक ही तो कहा था…

सुनो बाबू…

 

माँ

[एक]

बहुत बरस  पहले

हम बच्चे आँगन में

माँ को घेर के बैठ जाते

माँ सिंदूरी आम की

फाँके काटती

हम देखते रहते

कोई फाँक छोटी तो नहीं

पर न जाने कैसे

बिल्कुल बराबर काटती माँ

हमें बाँट देती

 

खुद गुही लेती

जिसमें जरा सा ही आम होता

छोटा रोता -मेरी फाँक छोटी है

माँ उसे अपनी गुही भी दे देती

छोटा खुश हो जाता

आँख बंद कर गुही चूसता

 

उस सिंदूरी आम की फाँक

आज की रात चाँद हो गई है

 

पर अब माँ नहीं है

वो चाँद में बहुत दूर

स्याह रेख सी

दिखाई पड़ती है

 

माँ चाँद के आँगन में बैठी है

अब वो दुनिया भर के

बच्चों के लिए

आम की फाँक काट रही है।

 

[दो] 

प्रार्थना की सांझ

वो जो दिया बाती के साथ

तुलसी पर

बुदबुदाती थी मां

खुद के सिवा सबका दुख

खोती जा रही है

ऐसी निष्पाप

प्रार्थना की सांझ।

 

[तीन]

माँ को खत

माँ! अक्टूबर के कटोरे में

रखी धूप की खीर पर

पंजा मारने लगी है सुबह

ठंड की बिल्ली…

अपना ख्याल रखना माँ!

 

***

 

विवेक चतुर्वेदी

समकालीन हिंदी कवि

अध्यक्ष, मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन

जबलपुर इकाई

जन्मतिथि          – 03-11-1969

शिक्षा               – स्नातकोत्तर (ललित कला)

कविता संग्रह    – ‘‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’’ (वाणी प्रकाशन)

अहा जिंदगी, कथादेश, साक्षात्कार, नई दुनिया, प्रभात खबर, दुनिया इन दिनों, पाखी, वागर्थ, माटी, कादम्बिनी, पहल, जनपथ, आजकल आदि पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

पुरस्कार        – मध्य प्रदेश का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार “वागीश्वरी” प्राप्त

आजीविका    – प्रशिक्षण समन्वयक, लर्निंग रिसोर्स डेवलपमेंट सेंटर, कलानिकेतन पॉलिटेक्निक महाविद्यालय, जबलपुर

पता             – 1254, एच.बी. महाविद्यालय के पास, विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)  482002

फोन            – 9039087291, 7697460750

ईमेल            – vchaturvedijbp@gmail.com

Tags: Lalan Chaturvedi Vimlesh Tripathi कविता अनहद कोलकाताविवेक चतुर्वेदी की कविताएँ
ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

by Anhadkolkata
December 24, 2022
0

ज्ञान प्रकाश पाण्डे     ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें एक ओर स्मृतियों की मिट्टी में धँसी हुई  हैं तो दूसरी ओर  वर्तमान समय की नब्ज...

ललन चतुर्वेदी की शीर्षकहीन व अन्य कविताएं

by Anhadkolkata
November 27, 2022
0

ललन चतुर्वेदी कविता के बारे में एक आग्रह मेरा शुरू से ही रहा है कि रचनाकार का मन कुम्हार  के आंवे की तरह होता है –...

विभावरी का चित्र-कविता कोलाज़

विभावरी का चित्र-कविता कोलाज़

by Anhadkolkata
August 20, 2022
0

  विभावरी विभावरी की समझ और  संवेदनशीलता से बहुत पुराना परिचय रहा है उन्होंने समय-समय पर अपने लेखन से हिन्दी की दुनिया को सार्थक-समृद्ध किया है।...

रूपम मिश्र की कविताएँ

by Anhadkolkata
August 18, 2022
0

रूपम मिश्र आप लाख पहेलियाँ बुझा लें, दूर की कौड़ी पकड़-पकड़ लाएँ और पाठकों को अपने कवित्व से विस्मित और चकित करते रहें लेकिन यथार्थ को...

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...

Next Post

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

आबल-ताबलः एकः ललन चतुर्वेदी          

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.