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Home कविता

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

by Anhadkolkata
March 17, 2023
in कविता
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ज्ञान प्रकाश पाण्डे

 

 

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ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें एक ओर स्मृतियों की मिट्टी में धँसी हुई  हैं तो दूसरी ओर  वर्तमान समय की नब्ज पर उंगली भी रखतीं है। उनकी कई ग़ज़लों के शेरों से गुजरते हुए यह यकीन होने लगता है कि इस शायर के पास अनुभव और भाषा की एक पक्की और  ठोस ज़मीन है। हिन्दी ग़ज़लों के संसार में अपनी नयी भाषा और कहन की अलग शैली से ज्ञानप्रकाश न केवल अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं बल्कि सहजता और जनपदीय सादगी भी संभव कर रहे हैं –

‘चना गेहूं मटर अलसी औ ‘ जौ से  प्यार करती  हैं ,

मेरी ग़ज़लें मेरे खलिहान  में  सजती  सँवरती  हैं ।’

मैं इस युवा ग़ज़लकार की ओर  यकीन और हसरत भारी निगाह  से देख रह हूँ और ‘अनहद कोलकाता’ पर उनकी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता महसूस कर रहा हूँ ।आपकी राय की प्रतीक्षा तो रहेगी ही ….।

[ 1 ]
सिस्टम  है  ये  बीमार  कहो  है  कि  नहीं  है,
सोयी  है  ये  सरकार   कहो  है  कि  नहीं  है।

कुर्सी  है खड़ी  तन  के  बड़ी  नाज़ो-अदा  से,
सिजदे में है  अख़बार  कहो  है  कि  नहीं  है।

ये क्या है किसी  और के  आँगन  में  निहारो,
ये   तो   है  अनाचार   कहो  है  कि  नहीं  है।

किसकी ये हुकूमत है कहो किसका  इलाका,
दिन में भी है अँधियार  कहो  है  कि  नहीं  है।

कागज़  में  भले  ग्राफ़  अमीरी  का  बढ़े  पर,
बिकने को है  घर-बार  कहो  है  कि  नहीं  है।
[ 2 ]
ख़बर  में   रह ,  नयी   रफ़्तार   बन  जा,
निकल  हुजरे  से  अब  बाज़ार  बन  जा।

पसीने   की   कमाई     का    मज़ा    ले,
कभी  दो  पल  को  तो  ख़ुद्दार  बन  जा।

मुसलसल   ये    दुकाँ    चलती    रहेगी,
कभी   टोपी   कभी    ज़ुन्नार   बन   जा।

तू   अपना   मर्तबा   भी    जान    लेगा,
किसी   के   वास्ते    बेकार   बन    जा।

यहाँ   किसको  समझ  है   शायरी  की,
अगर   बिकना  है तो अखबार बन जा ।

[ 3 ]
यूँ तो  लहज़ा  तल्ख़तर तेरा भी है  मेरा  भी   है,
अलहदा  मक़सद  मगर  तेरा भी है मेरा भी  है।

खा-रही है  ये  वबा  जिनको  निवाले  की  तरह,
उनमें इक लख़्ते-जिगर तेरा भी  है  मेरा  भी  है।

गोद में मरियम की वो नूरे-नज़र मरयम का था,
चढ़ गया जो  दार पर  तेरा  भी  है  मेरा  भी  है।

कुछ सराबों  के भँवर  में  दब  गई  हैं  मंज़िलें,
लम्हा – लम्हा इक सफ़र तेरा भी है मेरा भी  है।

क्या पता कब पीठ  में  ख़ंजर  घुसा  दे  दोस्ती,
मुद्दतों  से  ये  ही  डर तेरा  भी  है  मेरा  भी  है।
[ 4 ]
अब   यहाँ   लोग   नहीं   हैं   वो   पुराने   वाले,
ये   मुहाफ़िज़  तो  भँवर  में  नहीं   जाने   वाले।

ख़ुद ही लड़नी है यहाँ , सब को लड़ाई  अपनी,
बात   इतनी   सी  भी  समझे   न  ज़माने  वाले।

पहले चमकाई सियासत, नहीं  कुछ भी  सोचा,
अब   कुआँ   खोद   रहे   आग   लगाने   वाले।

क्यों अबस दोष तलातुम  को लगाते  हो  मियाँ,
नाख़ुदा   ही   थे  वो   कश्ती  को  डुबाने  वाले।

सच से वाक़िफ़ था वो ख़ुश होता तो होता कैसे
‘ज्ञान’   जुमले   थे   सभी   सिर्फ़   लुभाने  वाले।
[ 5 ]
सब   गिर   गये   मेयार  मगर  शेष  कुशल  है,
बिकने  को   है  दस्तार  मगर  शेष  कुशल  है।

सिस्टम  को   तपेदिक  है  बवासीर  है   यारो,
मुश्किल है  ये उपचार  मगर  शेष  कुशल  है।

कोने   में   पड़ा   है  कहीं  सच  बोलने  वाला,
चमचों  का  है  दरबार  मगर  शेष  कुशल  है।

जनता की  अदालत  के  हैं  अधिकार  निराले,
बोलूँ  जो   तड़ीपार ,  मगर   शेष   कुशल  है।

बँटती  है   यहाँ   रोज़   ही   ख़ैरात   सियासी,
बस  मर  रहे   ख़ुद्दार  मगर  शेष   कुशल  है।
[ 6 ]
जो खींचती है  रोटियों  की  बू  है  और  कुछ  नहीं,
ग़रीबी  भूख  प्यास  चार  सू   है  और   कुछ  नहीं।

ये  जो  तरह – तरह  के  लोभ  देके  है  लुभा  रहा,
हबीब  के  लिबास   में   अदू   है  और  कुछ  नहीं।

ये  भूखे   नंगे  लोगों   की   जो  वीडियो  बना  रहा,
भरे  हुए  सिकम  की  आरज़ू  है  और  कुछ  नहीं।

महल के छत से उनके  ये जो  झालरें  लटक  रहीं,
किसी की आह , कुचली आबरू है और कुछ नहीं।

ये झुलसे – झुलसे पेड़  क्यों  जले-जले  लिबास  में,
दिलों  में  मुद्दतों  से  क़ैद  लू  है  और  कुछ  नहीं।

ये  लफ़्ज-लफ़्ज आग जो  ज़ुबाँ से  है निकल  रही,
हमारे   ख़ानदान   का  लहू  है  और   कुछ   नहीं।
[ 7 ]
कहने   को   हैं   काम   काजी,   काम   क्या   है,
बस    वही   लहज़ा    दराज़ी,   काम    क्या    है।

सब   हैं   वाक़िफ़   इन   सियासी   फ़ितरतों  से,
हर   समय   बस    जालसाज़ी    काम   क्या   है।

कल   तलक   तस्वीर   बिलकुल   अलहदा   थी,
आज   ये    सादा    मिज़ाजी,    काम   क्या    है।

कल   तलक   तो   टस   से   मस  होते  नहीं  थे,
आज   अपने   आप    राज़ी,    काम    क्या    है।

बाप       तीरंदाज़  ,     दादा       तोपची      थे,
बस   वही     चर्चा- ए- माज़ी   काम     क्या  है।
[ 8 ]
मेरा जूता मेरा  सर है,  आपको  तकलीफ़  क्या  है?
जल रहा जो मेरा घर है,आपको  तकलीफ़ क्या  है?

आप  की  पगड़ी   पे  छींटे  पड़  न जाएँ  देखिएगा,
मेरा तन कीचड़ से तर है,आपको तकलीफ़ क्या है?

आप की मंज़िल अलग है, आप  के  रस्ते अलग  हैं,
मेरी अपनी रहगुज़र है, आपको तकलीफ़  क्या  है?

आप ही अब गाड़िए  झंडा  ज़मीं  पर आसमां  पर,
मेरी दुनिया मुख़्तसर है, आपको तकलीफ़ क्या है?

आप मक्खन-तेल मलिए आप ही मिमिआइये अब,
मेरा लहजा तल्ख़तर है, आपको तकलीफ़ क्या है?
[ 9 ]
है  टेंट   खाली  उदास   जेबें   कहाँ  से   लाए   ये  दाल-रोटी,
अभी तो कितने ही  झोपड़े में  खड़ी  है  बन के  सवाल  रोटी।

करूँगा क्या मैं ज़मीनो-दौलत ये सीमो-ज़र  ये  तमाम  दुनिया,
अगर हक़ीक़त यही कि जग में है करती सब को निहाल रोटी।

उसे किसी का ये मशवरा  है अगर  हुकूमत की  ख़्वाहिशें  हों,
दो-चार भूखों  के बीच  जाकर  दिखा-दिखा  के उछाल  रोटी।

किसे ख़बर है किसे गिरा दे  किसे उठा दे  संभाले  किस  को,
बताऊँ कैसे  मैं  कैसे-कैसे  करे  है  दिन-दिन  कमाल  रोटी।

गया हुआ था वो चाँद पर,क्या उसे ख़बर है क्या हम पे गुज़री,
बशर-बशर  के  लिए  यहाँ   तो  बनी  हुई   है   बवाल  रोटी।

बशर–आदमी
[ 10 ]
मुस्कुराकर   बा-अदब   कहता  है  दर्पण  प्यार  से,
आप  का  चेहरा  अलग  है  आप  के  किरदार  से।

ये   गली    ये    रास्ते    ये    घर    बतायेंगे     तुम्हें,
सच  बज़ाहिर  कब  हुआ   है  दोस्तों  अख़बार  से।

अच्छे दिन की चासनी अब कब  तलक  चाटें  कहो,
उजड़ी  झोपड़ियां  मुसलसल  पूछतीं   सरकार  से।

क्या  धरम ,  शिक्षा,  चिकित्सा   दोस्ती   इंसानियत,
सब-के-सब  इस  दौर  में  वाबस्ता  हैं  व्यापार  से।

इस बदलते  वक्त  में  मग़रिब ने  बस इतना  किया,
दौरे-हाज़िर  में  तसव्वुफ़  जुड़  गया  व्यभिचार  से।

ये  सियासी  लोग  भी   अब   क्या   बताऊँ   दोस्तों,
पीठ   में   खंज़र   घुसा   देते   हैं  कितने  प्यार  से।

नून  आटा   दाल  चावल  उस  पे  शिक्षा  औ’  दवा,
कड़कडाने  लग  गई   अब  हड्डियाँ  इस  भार   से।

क्या किसी बिल से  मिला है क्या है मनरेगा से  लाभ,
आओ   पूछें   भूख   से   लड़ते   हुए    परिवार   से।

उस तरफ के लोग भी  क्या  हैं  बिछड़कर  ग़मज़दा,
बस  यही  इक  प्रश्न   करना   है   मुझे   दीवार   से।

क्या भला मिलता है घुट-घुट कर फ़ना होने में ‘ज्ञान’,
इश्क़  की  तासीर   मर  जाती  है  क्यों  इज़हार  से।

बा-अदब–अदब के साथ, बज़ाहिर–प्रत्यक्ष, वाबस्ता–जुड़ाहुआ, तसव्वुफ़–अध्यात्म, मग़रिब–पश्चिम की दिशा, ग़मज़दा–दुःखी, तासीर–प्रभाव
[ 11 ]
कहीं पर भीट का  झगड़ा  कहीं  मोहार का झगड़ा,
जिधर देखो  उधर  बस  हो रहा  बेकार का झगड़ा।

कहीं है कोठरी की  ज़िद कहीं आँगन  का  बँटवारा,
कहीं  दो  भाइयों  में  चल रहा ओसार  का  झगड़ा।

कोई सेहुँड़ लगाकर कह  गया ‘इस  पार मत आना’,
किसी के  वास्ते  ये  बन  गया  दस्तार  का  झगड़ा।

चकाउट  जोतता  कोई  कोई   चकरोड  खनता  है,
फँसे हैं लोग आपस  में  लिए  सरकार  का  झगड़ा।

कहीं पर हैं खड़ी बहुएँ मुक़ाबिल  सास  के  तनकर,
कहीं पर  बाप  बेटे  में  ठना  किरदार  का  झगड़ा।

कहीं हरिजन सवर्णों में कहीं  यादव औ’  बाभन  में,
फ़क़त झगड़ा ही झगड़ा है नहीं दो चार का झगड़ा।

बताऊँ  क्या भला अब  दोस्तों  मैं  गाँव  की  हालत,
यहाँ  तो  मोल  ले  लेते  हैं  ये  बाज़ार  का  झगड़ा।
[ 12 ]
लिपट के धूप से  सहमा  हुआ  समंदर  है,
अजब ख़मोशी है उतरा  हुआ  समंदर  है।

बस एक लरज़ती जर्ज़र  सी नाव है जिसमें,
दुबक के कोने  में  बैठा  हुआ  समंदर  है।

लुटे हुए  से किसी  शह्र  की  तरह  जख़्मी,
हरेक सिम्त ही  बिखरा  हुआ  समंदर  है।

किसी पहाड़  पे  जैसे  कि बर्फ़ जम  जाए,
नदी की आँख में ठहरा  हुआ  समंदर  है।

मचल-मचल के भले उठ रही  हैं लहरें पर,
कई  दिनो  से  कहीं  खो  गया  समंदर है।
[ 13 ]
चना गेहूँ मटर अलसी औ’ जौ  से  प्यार  करती  हैं,
मेरी  ग़ज़लें  मेरे  खलिहान में  सजती  सँवरती  हैं।

कभी कउड़ा में आलू  भूनकर खाओ तो  समझोगे,
तमन्नायें  मेरी   क्यों  गाँव  की  मिट्टी  पे  मरती  हैं।

कहीं कोल्हू से सरसो की कहीं पर पक रहे गुड़ की,
वो  भीनी  ख़ुशबुएँ  बेरोक  रूहों  तक  उतरती  हैं।

हिलाकर क्या कभी पोखर में नहलाया  है  भैंसों को,
यकीं  मानों   यही  से  ख़्वाहिशें  परवाज़  भरती  हैं।

दरिद्दर   खेदती   आजी   बजाकर  सूप  औ’  दौरी,
सुना   है   ऐसा  करने  से  बलाएँ  ‘ज्ञान’  मरती  हैं।
[ 14 ]
इमलियाँ   बीनते    हुए     लड़के,
कर  रहे   हैं  बहुत  मज़े  लड़के।

कलगियाँ ज्वार की मचलती  हुईं,
बन  गये  हैं   सुघर  सुवे  लड़के।

सुब्ह  निकले  मवेशियों  के  संग,
रात   लौटे   ठगे – ठगे   लड़के।

तितलियों के तवाफ़  में  दिनभर,
देखो   कितने   हरे-भरे  लड़के।

जेठ की धूप में  झुलस  तप  कर,
दिख  रहे  हैं   बड़े-बड़े  लड़के।

आग  किसने  भरी   ये  गुंचों  में,
कैसी राहों पे  चल  पड़े  लड़के।

एक   पद   है   हजार   प्रत्यासी,
थक गये है  खड़े-खड़े  लड़के ।

घुप अँधेरा था कुछ  नहीं  सूझा,
आप अपने से लड़ पड़े लड़के।
[ 15 ]
दही   चूरा  सलोनी  ठाट  से   खाना  वो  खटिया   पर,
कि पी कर पेट भर माठा पसर जाना वो  खटिया  पर।

गड़ारी माटी की, आवाँ  में  पकवाने  की  ज़िद  पहले,
उसी को तोड़ फिर बचपन का धन्नाना वो खटिया पर।

किया है क्या कभी घुम-घुम  मदारी तुम ने बच्चों  को,
किलकना चीखना सोना मचलजाना  वो  खटिया  पर।

अभी तक याद है, दिन भर  के कामों से सिरा कर के,
बड़े बूढ़ों का अपने मन का बतियाना  वो खटिया पर।

बदलते  वक़्त ने क्या क्या बदल डाला  है  मत  पूछो,
वो पगहा बरना दसना सीना सुस्ताना वो खटिया पर।

अभी भी दिल को छू जाती हैं बचपन की मधुर  यादें,
बुआ के साथ सुखवन धो के फैलाना वो खटिया पर।
[ 16 ]
फटी  गंजी  फटी  पनही  मगर  ये  शान  तो  देखो,
लिए  कंधे   पे  हल  जाते  हुए  दहक़ान  तो  देखो।

फ़क़त दो जून की रोटी  लँगोटी  और  इक  छप्पर,
समुंदर  के  हृदय  में  बूँद  सा  अरमान  तो  देखो।

निराती   गोड़ती   हँसती  चहकती   कोल   बालायें,
दहकते टेसू  के  फूलों  सी  ये  मुस्कान  तो  देखो ।

न लफ़्जों में बयाँ करने की  है  तौफ़ीक  क्या  बोलूँ,
अनाजों से भरे स्वर्णिम  सुघर  खलिहान  तो  देखो।

नमक रोटी दो टुकड़ा प्याज अमचुर औं’ हरी मिर्ची,
हमारे   अन्नदाताओं   के   दस्तरख़ान   तो    देखो।
[ 17 ]
सिर पे गठरी गोद में  बच्चा  पेट  है  खाली  कैसे  जायें?
पाँव थके  हैं  प्यास  लगी  है  हाली – हाली  कैसे  जायें।

धूप पहन कर भूख दबा कर इस  गर्मी  में  पैदल  पैदल,
बेचारी   है   पेट   से   धुन्नन   की  घरवाली  कैसे  जायें।

एक न  रोटी  सब  हैं  भूखे  बउआ  बिट्टी  सूख  गये  हैं,
आँखो के आगे की दुनिया  बिल्कुल  काली  कैसे  जायें।

क्या छोड़ें क्या साथ रखें अब सब से ही तो अपनापन है,
झोला  बक्सा  बटुई  कल्छुल  लोटा   थाली  कैसे  जायें।

घर  वालों  से  मिल  पाऊँगा  या  रस्ते  की  भेंट  चढूँगा,
कलकत्ता से मिर्ज़ापुर अब  हे  माँ  काली !  कैसे  जायें।
[ 18 ]
पीले  कपड़े  चुटिया  मोटी  खड़िया  चंदन  शान  अजी  अब!
नंगा रहने  की  खातिर  हैं  ये  क्या-क्या  सामान  अजी  अब!

तितली – तितली  खेल  रहे  हैं  जनवादी  जितने  भी  लेखक,
रमुआ समुआ कलुआ झलुआ सब ससुरे बिदवान अजी अब!

मैं  उनके  अपनों  में  से  था  हाँ  में  हाँ  जब  बोल  रहा  था,
सच थोड़ा सा बोल दिया क्या तन गये तीर कमान अजी अब!

जब तक दृष्टि उठी  थी  मेरी, अंबर  भी  ये  नत  था  लेकिन,
एक ज़रा क्या गर्दन ख़म की पत्थर तक भगवान अजी अब।

मारामारी   रेप   डकैती    छिनताई    में   अव्वल   थे   जो,
ऐसे   जन   डेमोक्रेसी   में   हैं   नामी   परधान  अजी  अब!
[ 19 ]
यूँ   ही   न  सारी   उम्र   मेरी   मुश्क़बू    रही,
दिल  को नफ़स  नफ़स  से  तेरी  आरज़ू  रही।

मैं   रेगज़ार   बनता   गया   कोई   ग़म   नहीं,
दुनिया  को  सिर्फ़  मंज़िलों  की  जुस्तजू  रही।

अब क्या  बताऊँ  मैं  पसे -पर्दा  की  ख़ामुशी,
इक चीख बन के हर लम्हा जो रू-ब-रू रही।

ख़्वाबों की सुर्खपोश वो परियाँ  तो  उड़  गयीं,
यादों की ख़ुश्क झील फ़कत सू – ब – सू रही।

दुनिया ये सारी  दुश्मने – जाँ  है  तो  है  मगर,
तेरी   नज़र   में  ‘ज्ञान’   तेरी   आबरू   रही।
[ 20 ]
पौरुष  ज़रा  सा  आप  भी  दिखलाइये  हुज़ूर,
नारी   विमर्श   चल   रहा   है   आइये   हुज़ूर।

पहले  तो  आस-पास  जो   उनको  चिकोटिये,
हक़  की  उठे  जो  बात  तो  चिल्लाइये  हुज़ूर।

ये  आदमी   नहीं   हैं  ये  बकरी   हैं   भेड़   हैं,
बहलाया  सब  ने  आप  भी  बहलाइये  हुजूर।

मंदिर किसी के पास है मस्जिद किसी के पास,
हम  लड़  रहे  हैं  पर्दे  पे  अब  आइये   हुज़ूर ।

बस्ती   ये  राख   हो   गई  आये   न  आप ,खैर
अर्थी   तो   संविधान   की    उठवाइये    हुज़ूर।
[ 21 ]
आई किधर से और  किधर  को  गुज़र  गई,
कैसी हवा थी सारी फिज़ा  तल्ख़  कर  गई।

मेरे सफ़र को अब  मेरी रफ़्तार  खा-न  ले ,
मंज़िल तो ख़ैर कब की नज़र से उतर गई।

बदली हुई हवा  कि तुझे  जिसपे  नाज़  था,
यूँ बे – अदब थी, आँखों में ये  रेत  भर  गई।

कुछ तो ज़रूर  है  पसे – पर्दा  छुपा  हुआ,
अदना सा था  चिराग़  हवा  कैसे  डर  गई।

जमहूरियत ये  कैसी  है  कैसा  निज़ाम  है,
सूरज  उगा  ज़रूर  मगर  धूप  मर  गयी।
[ 22 ]
ख़्वाहिश तो थी कि टाल दूँ,टाले  कहाँ  गये
अब भी  मैं  सोचता  हूँ  उजाले  कहाँ  गये।

केवल समंदरों का गिला कर के क्या मिला,
जितना  खँगालना  था  खँगाले  कहाँ   गये।

ज़ुल्मत के चश्मदीद गवाहों को  क्या  हुआ,
शब  भर  चिराग़  जागने  वाले  कहाँ  गये।

मक़्सद अगर नहीं तो यहाँ क्या जिये  कोई,
सीने के जख़्म  पाँव  के  छाले  कहाँ  गये।

टपके हैं खून बन के  ये  आँखों  से  बारहा,
पहलू  के   दर्द  ‘ज्ञान’  सम्हाले  कहाँ  गये।

ख़्वाहिश–इच्छा, ज़ुल्मत–अँधेरा, चश्मदीद–आँखो देखा, शब–रात, बारहा–बार-बार

 

 

जन्म :     09.02.1979 ( कोलकाता, पश्चिम बंगाल)
शिक्षा :     एम. कॉम., एम. ए., बी. एड. मूल निवासी मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश)
सम्प्रति :    शिक्षक
प्रकाशित कृति :    सर्द मौसम की ख़लिश, आसमानों को खल रहा हूँ, अमिय कलश (गजल
संग्रह)
साझा संकलनों में :    दोहे के सौ रंग दोहों में नारी, ग़जल त्रयोदश,ग़ज़ल पंच शतक,हिन्दी ग़ज़ल का नया मिज़ाज,
पत्र-पत्रिकाओं में :   अक्षर पर्व, लहक, अंजुमन,जहान नुमा उर्दू, अरबाबे-कलम,अदबी दहलीज
अदबी दहलीज, वागर्थ आदि

पता :       96, टी. एन. बी. रोड, पोस्ट-सुकचर (घोष पाड़ा), 24 परगना (उत्तर), सोदेपुर, कोलकाता-

Tags: ज्ञान प्रकाश पाण्डेय Gyan Prkash Pandey
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रूपम मिश्र की कविताओं पर मृत्युंजय पाण्डेय का आलेख

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द्वितीय अनहद कोलकाता सम्मान 2022 : एक रिपोर्ट

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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