आप लाख पहेलियाँ बुझा लें, दूर की कौड़ी पकड़-पकड़ लाएँ और पाठकों को अपने कवित्व से विस्मित और चकित करते रहें लेकिन यथार्थ को ठीक-ठीक भाषा में मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त करने वाला और सच का मनुष्य कवि ही बहुत कम बचे रह गए सहृदय लोगों के मन में हमेशा के लिए जिन्दा रह जाएगा। कुदने-फाफने से न तो कोई कवि बना है और न बन पाएगा।
यह बातें इसलिए कि यहाँ प्रस्तुत कविताओं में बहुत धीमें और बिना किसी बड़बोलेपन के समाज के कई कटु याथार्थ से हमारा परिचय हो रहा है। ये सारी कविताएँ चुपचाप पढ़कर जब आप उठेंगे तो पाएँगे कि किस तरह आप अन्य लोगों के साथ खुद भी किसी कटघरे में खड़े हैं। आप जो जीवन जी रहे हैं उससे एक बार आपको कोफ्त जो जरूर होगी यदि आपने स्वयं को संघर्षों द्वारा मानुष रूप में तब्दील न कर दिया है तो। बस इतनी सी बात रूपम मिश्र के कविता कर्म पर। बाकी आप पढ़कर देखें – शायद मेरा कहा सच के कुछ करीब-करीब तक पहुँचा हो।
अनहद कोलकाता में हम हाल के वर्षों में चर्चित हुईं और सराही गईं कवि रूपम मिश्र को पढ़ रहे हैं। अगर आप प्रतिक्रिया देंगे तो हमें हौसला ही मिलेगा।
अनगिनत किस्से
अनगिनत किस्से सहेज कर रखें हैं
उस प्रणयहीन प्रेम के !
सोचा है कभी तुम सुनोगे तो सब सुनाऊँगी!
पर उदास हो जाती हूँ कि
जिस अध्याय में तुम नहीं रहोगे
तो वहीं तुम्हें फिर से नींद आने लगेगी
और सारे किस्से अधूरे रह जायेगें!
मुझे तो कोई अधिकार नहीं
कि तुमसे किसी सद्भाव की आस रखूँ!
क्योंकि वो अधीर उलझनें
वो आर्त अनुरोध
वो हर पल नैतिकता की दुहाई
सब प्रेम के लिए बेमानी ही थे!
पर एक चिर इच्छा मन में
जाने कैसे घर कर गयी कि
अंतिम पल में जब मौत सामने खड़ी हो,
साँसें अपने आरोह-अवरोह में उलझी हों,
तब एक पल के लिए मेरे सामने आना !
मैं देखना चाहती हूँ
जो साँसें तुम्हारे नाम से थमती थी
जो देह तुम्हारी आवाज़ सुनकर
शिथिल हो जाती थी
वो अंतिम क्षण में
खुली आँखों से तुम्हें देखकर
क्रियाशील होतीं हैं
या ठहर जायेंगीं दोनों आँखें
तुम्हारे निश्चल चेहरे पर
और एक शाश्वत प्यास लिये
मौत भी खूबसूरत हो जाएगी।
अभी किसी नाम से न पुकारना
अभी किसी नाम से न पुकारना तुम मुझे
पलट कर देखूँगी नहीं
हर नाम की एक पहचान है
पहचान का एक इतिहास
और हर इतिहास कहीं न कहीं रक्त से सना है
तुम तो जानते हो मैं रक्त से कितना डरती हूँ
अभी वो समय नहीं आया कि जो मुझमें वो हौसला लाये कि
मैं रक्त की अल्पनाओं में पैर रखते हुए अंधेरे को पार करूँ
अभी वो समय नहीं आया कि चलते हुए कहाँ रुकना है हम एकदम ठीक- ठीक जानते हैं
हो सकता है कि एक अंधेरे से निकलकर एक उजाले की ओर चलें और उस उजाले ने छल से अंधेरा पहन रखा हो
तुम लौट जाओ अभी मुझे खुद ही ठीक – ठीक पहचान करने दो जीवन के चौराहों का
मुझे अभी इसी भीड़ में रहकर देखने दो उस भूमि- भाषा का नीक-नेवर
जिसमें मातृ शब्द जुड़ा है और मां वहीं आजीवन सहमी रहीं
मैंने खेत को सिर्फ मेड़ों से देखा है
मुझे खेत में उतरने दो
तुम धैर्य रखो मैं अंततः वहीं मुड़ जाऊँगी, जहाँ भूख से रोते हुए बच्चे होंगे, जहाँ कमजोर थकी हुई, निखिध्द देह, सूनी आँखों की मटमैली स्त्रियाँ होगीं
जहाँ कच्ची नींदों से पकी लड़कियाँ होंगी
जो ठौरुक नींद में नहीं जातीं कि अभी घर में कोई काम पड़े तो जगा दी जाऊँगी
तुम नही जानते ये सारी उम्र आल्हरि नींद को तरसतीं हैं
जहाँ मेहनत करने वाले हाथ होंगे
कमजोर को सहारा देकर उठाते मन होंगे
हम अभी बिछड़ रहें हैं तो क्या एक दूसरे का पता तो जानते हैं
जहाँ कटे हुए जंगल के किसी पेड़ की बची जड़ में नमी होगी
मैं जान जाऊँगी तुम यहाँ आये थे
कोई पाटी जा रही नदी का बैराज जब इतना उदास लगे कि फफक कर रोने का मन करे तो समझूँगीं कि
तुम्हारा करुण मन यहाँ से तड़प कर गुजरा है
जहाँ हारे हुए असफ़ल लोग मुस्कुराते हुए इंकलाब के गीत गाते होंगे
मैं पहचान लूँगी इसी में कहीं तुम्हारी भी आवाज है
हम यूँ ही भटकते कभी किसी राह पर फिर से मिलेंगे
और रोकर नहीं हँसते हुए अपनी भटकन के किस्से कहेगें।
उजाड़पन
तुम्हारा उजाड़पन छाती पर ढोते कितने साल बीते
पर अभी मैं इतनी ठूँठ नहीं हुई कि रोना चाहूँ हिचक-हिचक कर और रुलाई फूटे ही नहीं
और इतनी कमअक्ल भी नहीं कि तुम्हारे लिए रोने का कोई ठोस बहाना न ढूढ सकूँ
कल सबेरहिया रात में नींद खुल गयी
और तुम इतना याद आये कि फूट-फूट कर रो पड़ी
साथ के लोगों को अचरज हुआ उन्होंने पूछा कोई बुरा सपना देखा ना?
मैंने कहा नहीं ! सीने में बहुत तेज दर्द उठा
मैंने तुमसे प्रेम किया तुम्हें बुरा स्वप्न कैसे कह सकती
हूँ।
मुझे पहले से ही रोना था
मुझे शायद पहले से रोना था !
नहीं, निश्चित मुझे पहले से ही रोना था !
देवथानो के जिला-जवार में जन्मी मैं तिलक रक्षा बांधते पंडो के प्रकोप से डरे बाबा के चेहरे में देखा धूर्तता का भय !
नदियों के देश में जन्मी मैं अच्छी तरह जानती थी कि नदी और माँ दोनों को पूजने का पाखंड !
जहरखुरानों के देस में जन्मी मैं सीख रही थी सत्ता के शीर्ष पर बैठे सपेरों से जहर बेचना
मैंने निरखा था ओसारे में आये औघड़ के हड़काने से सहमी बड़की अनिष्ट भय से अम्मा का सूखा मुँह!
मेरे मन में नमक का पहाड़ बन गया था
बहुत बार सोचा कि रोकर उसे बहा दूँ
पर कुछ वर्जनायें आँख दिखाकर चुप करा देती थीं!
मैं बहुत दिन से अवसर ढूढ रही कि किसी पर विपदा आये और मुझे उसके दुःख में रोने का ठोस बहाना मिले
इस तरह किसी के दुःख को मैंने अपनी सुविधा बनाई और फूट-फूट कर रोयी
मैं मौकापरस्त कौम से थी
किसी की विप्पत्ति में अपनी राहत ढूढ लेना मैं जाने कब से सीख रही थी
हम अपनी पेड़कटवा संस्कृति का बखान करके विनाश में सुबिधापरस्ती करते लोग थे
तो मुझे ज्यादा मुश्किल नहीं हुई!
मैं चाहती हूँ मेरे सारे गुनाह दर्ज हों
उनके सारे दस्तावेज एक पवित्र मन में रखे हैं जिसे मैंने आग से भर दिया था
कोई प्रेम का हरकारा जाये और गुनाहों को बचाकर लाये
मुझे रोता देख करुणा से भभरे मन
आओ घृणा से मुझपर थूक दो !
मुझे लानतें भेजो !
मैंने तुम्हारे बेहद निजी दुख में अपनी सुबिधा ढूँढी।
एक जीवन अलग से
कायदे से मुझे एक जीवन अलग से मिलना चाहिए था तुम्हें प्रेम करने के लिये
जिसमें मैं तुम्हें कास के फूलों के खिलने के ठीक-ठीक दिन बताती
तरकुल के लंबे सांवले पेड़ कब पीले रंग के फलों से लद जाते हैं
चुभने वाले सरपत के पौधे भी कब अपने फूलों से धरती का मुख उजला कर देते हैं
प्रवासियों के लौटने के दिन कब आते हैं
अधघूघट में ग्रामबालाएं कब लजाती फिरती हैं
धान की बालियों में कब दूध आता है
महुवा और टेसू कब जंगल को महका-बहका देते हैं
कब कोयल खूब बोलती है
कब खंजन पक्षी देवभूमि से लौट आते हैं
कब मेलों के दिन आते हैं
कब बच्चे रंगकर्मी बन जाते हैं
कब आजी जोड़ने लगती दिन कि अमावस कब है
और दियालेसान की कितनी तैयारी बाकी है
कब गुड़ के गट्टे और सतरंगी अनरसा जाने कितनी बिसरी मिठाइयाँ याद आती हैं
कब देस लौटने पर बस से उतरते ही अपने बाजार की पुरानी मटमैली लाई-बतासे की दुकान सबसे चिर-परिचित लगती है
तुम जानते हो फूलों का एक त्योहार होता है फुलेली-डोली
अक्टूबर के आखिरी दिनों में आता था
फूलों को प्यार न करने वालों ने इसे भुला दिया है
इस भूले त्योहार के दिन खोजकर उस उत्सव को फिर से मनाना था हमें
प्रेम व रहन की रीति को प्रकृति से सीखना था हमें
एक जीवन जिसमें मैं तुम्हें सारे बादल झरने नदियों और पहाड़ों के एक दूसरे से प्रेम करने के किस्से सुनाती
मैं तुम्हारे पवित्र माथे को चूमकर दिसावर जाने वाली सारी बहकी हवाओं के प्रेमी झकोरों का नाम बताती
और तुम्हारे सारे दुखों को मुठ्ठी में भरकर हवा में छूमन्तर कर देती
ये भी कि मनुष्यों से ही धरती का जीवन बचाने के लिए मनुष्यों ने कितनी लड़ाइयाँ लड़ीं
जब जंगल बचाने के लिए कुछ पेडों की बेटियाँ पेड़ से चिपक कर खड़ी हो गयी थीं
तब हम हम जैसी स्त्रियां बाजार व बिलास में डूबी थीं
एक ऐसा जीवन जिसमें हम उम्र भर मनुष्य बनना और प्रेम करना सीखते ।
बथुवे जैसी लड़कियाँ
ये लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं!
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन बोये ही उग आता है!
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं!
पीर से जड़ी सुधियों की माला
पहन कर ये बिहँसती रहीं!
खुद को खरपतवार मान, ये साध से गिनाती रहीं कि
भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ
और गर्व से बतातीं कि कितने नाज नखरे से पला है
हम जलखुम्भीयों के बीच में ये स्वर्णकमल!
बिना किसी डाह के ये प्रसन्न रहीं
अपने परिजनों की इस दक्षता पर कि
कैसे एक ही कोख से ..एक ही रक्त-मांस से
और एक ही चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में
दिन – रात का अंतर रखा गया!
समाज के शब्दकोश में दुःख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे
जिनमें सिर्फ समर्थ दुखों को रखा गया
इस दुःख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना
बल्कि जिस बेटी के पीठ पर बेटा जन्मा
उस पीठ को घी से पोत दिया गया
इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया
लल्ला को दुलारती दादी और माँ
लल्ला की कटोरी में बचा दूध बताशा इसे ही थमातीं
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!
पर अपने भाग्य पर इतराती
ये लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पायीं कि
भूख हमेशा लल्ला की ही मिटायी गयी!
तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रही
तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़ कर फेंका जाता !
इसलिए दबी ही रहना ज्यादा छतनार होकर
बाढ़ न मार देना उनके दुलरुआ का!
जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है।
दुःख की बिरादरी
मुझे पता है तुम्हारा दुःख बिरादर
मैं तुम्हारी ही कौम से हूँ!
मुझे थाह है उस पीड़ा की नदी का जिसका घाट अन्याय का चहबच्चा है
जिसकी उतराई में आत्मा गिरवी होती है
तुम धीरज रखना हारे हुए दोस्त !
कुछ अघाये गलदोदई करते हैं कि तुम हेहर हो
उनसे कहो कि हम जानते जाड़ा, बसिकाला और जेठ के दिनों का असली रंग
वे मनुष्यतर कितने बचे हैं वे नहीं जानते
लड़ाई की रात बहुत लंबी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो
पर न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जबाबदेही होगी
हम असफल कौंमे हैं हमारी ही पीठ पर पैर रखकर वे वहाँ सफल हैं
जहाँ हमारे रोने को उन्होंने कुहास्य के सटीक मुहावरों में रखा
जाने कैसे उन्होंने हमारे सामीप्य में रहने की कुछ समय सीमा बनाई
और उसके बाद भी जो संग रहे उनमें हमारे सानिध्य से आई कोमलता को मेहरीपन कह के मज़ाक बनाया
वे सभ्यता और समता की बात करते कितने झूठे लगते हैं जो हमारी आँखों पर मेले से खरीदे गये काले चश्मे को भी देखकर व्यंग से हँसते हैं और अपनी अन्याय से बेसाही सहाबी पर लजाते नहीं
वे सौमुँहे साँप हैं जो हमारी देह पर टेरीकॉट का ललका बुशर्ट भी देखकर मुँह बिचकाकर कहते हैं खूब उड़ रहे हो बच्चू, ज्यादा उड़ना अच्छा नहीं
उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारा रेंगना
अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो यशगान
जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है
मानव जाति के आधे हिस्सेदार हम, जिनके आँचल में रहना तुमने कायरता का चिर प्रतीक कहा
अब दिशाहारा समय कुपथ पर है
संसार को विनाश से बचाये रखने के लिए
उनसे थोड़ी सी करुणा उधार माँग लो और अपने बहके समय में बाँट लो।
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