• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home कविता

फ़रीद ख़ाँ की नई कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
A A

Related articles

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

फ़रीद ख़ाँ

कुछ कवियों ने हिन्दी कविता को एक अलग पहचान दी है। फ़रीद ख़ाँ का नाम उनमें प्रमुख है – इनकी कविताएँ घर और देश से होते हुए पूरे संसार को अपने में समेटती हुई लगती हैं। इनके यहाँ स्त्री है तो राजनीति भी है, खुदा है तो सपनों की लाशें भी हैं और वह एक टीस भी जो  हर कलाकार आज कहीं न कहीं महसूस कर रहा है कि उसकी पीड़ा झेल रहा है। फ़रीद की कविताएँ साहस और विवेक के साथ अपने कथ्य और शिल्प से भी हमारा ध्यान खिंचती हैं। फ़रीद को हम खूब उम्मीद और यकीन के साथ अनहद के पाठकों के लिए लेकर आए हैं। उनका आभार प्रकट करते हुए आपसे गुजारिश करते हैं कि आप अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ जरूर लिखेंगे।
माफ़ी
सबसे पहले मैं माफ़ी मांगता हूँ हज़रत हौव्वा से.
मैंने ही अफ़वाह उड़ाई थी कि उसने आदम को बहकाया था
और उसके मासिक धर्म की पीड़ा उसके गुनाहों की सज़ा है जो रहेगी सृष्टि के अंत तक.
मैंने ही बोये थे बलात्कार के सबसे प्राचीनतम बीज.
मैं माफ़ी माँगता हूँ उन तमाम औरतों से
जिन्हें मैंने पाप योनी में जन्मा हुआ घोषित करके
अज्ञान की कोठरी में धकेल दिया
और धरती पर कब्ज़ा कर लिया
और राजा बन बैठा. और वज़ीर बन बैठा. और द्वारपाल बन बैठा.
मेरी ही शिक्षा थी यह बताने की कि औरतें रहस्य होती हैं
ताकि कोई उन्हें समझने की कभी कोशिश भी न करे.
कभी कोशिश करे भी तो डरे, उनमें उसे चुड़ैल दिखे.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन तमाम राह चलते उठा ली गईं औरतों से
जो उठाकर ठूंस दी गईं हरम में.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन औरतों से जिन्हें मैंने मजबूर किया सती होने के लिए.
मैंने ही गढ़े थे वे पाठ कि द्रौपदी के कारण ही हुई थी महाभारत.
ताकि दुनिया के सारे मर्द एक हो कर घोड़ों से रौंद दें उन्हें
जैसे रौंदी है मैंने धरती.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन आदिवासी औरतों से भी
जिनकी योनी में हमारे राष्ट्रभक्त सिपाहियों ने घुसेड़ दी थी बन्दूकें.
वह मेरा ही आदेश था.
मुझे ही जंगल पर कब्ज़ा करना था. औरतों के जंगल पर.
उनकी उत्पादकता को मुझे ही करना था नियंत्रित.
मैं माफ़ी मांगता हूँ निर्भया से.
मैंने ही बता रखा था कि देर रात घूमने वाली लड़की बदचलन होती है
और किसी लड़के के साथ घूमने वाली लड़की तो निहायत ही बदचलन होती है.
वह लोहे की सरिया मेरी ही थी. मेरी संस्कृति की सरिया. 
मैं माफ़ी मांगता हूँ आसिफ़ा से.
जितनी भी आसिफ़ा हैं इस देश में उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ.
जितने भी उन्नाव हैं इस देश में,
जितने भी सासाराम हैं इस देश में,
उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ.
मैं माफ़ी मांगता हूँ अपने शब्दों और अपनी उन मुस्कुराहटों के लिए
जो औरतों का उपहास करते थे.
मैं माफ़ी मांगता हूँ अपनी माँ को जाहिल समझने के लिए.
बहन पर बंदिश लगाने के लिए. पत्नी का मज़ाक उड़ाने के लिए.
मैं माफ़ी चाहताहूँ उन लड़कों को दरिंदा बनाने के लिए,
मेरी बेटी जिनके लिए मांस का निवाला है.
मैंने रची है अन्याय की पराकाष्ठा.
मैंने रचा है अल्लाह और ईश्वर का भ्रम.
अब औरतों को रचना होगा इन सबसे मुक्ति का सैलाब.
आओ मिल कर बद्दुआ करें.
दुनिया का कोई क़ानून बद्दुआओं के लिए किसी को रोक नहीं सकता.
इसलिए आओ सब मिल कर बद्दुआ करें कि
इस व्यवस्था के पोषकों को कीड़े पड़ें.
आओ उनकी जड़ों में मट्ठा डालें.
जिस संसद, अदालत, और प्रशासन को नहीं दीखते आँसू उन्हें आंसुओं में बहा दें.
हमारी अदालत उन सबको मुजरिम करार देती है.
उन सबका पुतला बना कर थूक दें उन पर.
या घरती पर उनके चित्र बनाकर रौंद डालें.
दुनिया का कोई क़ानून कुछ नहीं कर पाएगा.
भले हम बोल न पाएँ, लेकिन सपना तो देख ही सकते हैं.
दुनिया में कोई भी सपना देखने से नहीं रोक पाएगा.
इसलिए जो कुछ भी अच्छा है उसका मिल कर सपना देखें. 
और सपना नींद में न देखें इस बात का ख़याल रहे.
दुनिया का कोई भी क़ानून खुली आँखों से सपना देखने से नहीं रोक पाएगा.
तो आओ मिल कर बद्दुआ करें उस व्यवस्था के लिए
जिन्हें लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार का कोई दोषी नहीं मिलता.
जिन्हें हत्यारे नहीं मिलते रोहित वेमुला के.
जिन्हें बलात्कारी नहीं मिलते मणिपुर के.
जिन्होंने सोनी सोरी की योनी में ठूंस दिए थे पत्थर
उनके लिए बद्दुआ करें.
हमने उस क़ानून को कभी नहीं तोड़ा जो हमारे दमन के काम आते हैं.
लेकिन आओ ग़ुस्से से देखे उन्हें.
दुनिया का कोई क़ानून ग़ुस्से से देखने पर हमें रोक नहीं सकता.
मन ही मन बना डालते हैं एक देश किसी को पता भी नहीं चलेगा.
और मन में कोई देश बनाना क़ानून का उल्लंघन भी नहीं है.
मन ही मन दोषियों को सज़ा देना भी क़ानून का उल्लंघन नहीं है.
और अदालत को पता भी नहीं चलेगा कि उनके छोड़े हुओं को हमने सज़ा दे डाली है.
जिन्हें नहीं सुनाई देता चीत्कार उनके सामने रोने की ज़रुरत नहीं है.
बम हम फोड़ नहीं सकते क्योंकि क़ानून का उल्लंघन हम कर नहीं सकते.
पर हमारे वश में जो है. वह तो हम कर ही सकते हैं.
ख़ुदा
मैं तो तुम्हारा पीछा करते हुए ही दुनिया में आया था
और पीछा करते हुए ही चला जाऊँगा.
मेरे सारे कौतुक तुम्हारे लिए ही थे.
मेरा हर बहुरूप तुम्हारे लिए ही था.
सरकती पैंट और बहती नाक के समय से लेकर
बढ़ती तोंद और झूलती झुर्रियों के समय तक
मेरे सारे कार्य व्यापार तुम्हारे लिए ही थे.
तुम हो कि रौशनी में, रंगों में, सुगंधों में मिलते हो.
सपनों की लाशें
शायद हम एक ऐसी दुनिया से विदा लेंगे जहाँ, 
कातिल ख़ुद से ही बरी कर लेता है ख़ुद को.
जज ख़ुद को ही बर्ख़ास्त कर लेता है. 
धमाके ख़ुद ही हो जाते हैं और लोग उनमें ख़ुद ही मर जाते हैं.
लड़कियाँ ख़ुद ही बलात्कार कर लेती हैं.
जाँच ख़ुद ही बदल जाया करती हैं.
फाँसी का फंदा ख़ुद ही बन जाता है.
किसानों और लड़कियों में ख़ुद ही होड़ मच जाती है
कि मरने में किसकी संख्या ज़्यादा होगी.
पैसे ख़ुद ही लुट जाते हैं. देश ख़ुद ही बर्बाद हो जाता है.
दलित ख़ुद ही अछूत हो जाते हैं.
बुरका ख़ुद ही पड़ जाता है औरतों की अक्ल पे.
किसी ने नहीं मारा नरेंद्र दाभोलकर को, गोविन्द पानसारे को, 
एम एम कलबुर्गी को, गौरी लंकेश को.
सत्य की बात करने वालों ने जंभाई लेते हुए एक दिन सोचा
कि अब मर जाते हैं और मर गए.
कोई भी  ज़िंदा नागरिक ख़ुद कुछ नहीं कर रहा हमारे देश में. 
नदी की सतह पर ख़ुद बख़ुद तैर रही हैं देश के सपनों की लाशें.
तोड़ने दो.
वे मजबूर हैं अपनी खिसियाहट से.
अगर विचार की कोई मूर्ति बन पाती तो वे उसे तोड़ते.
गाँधी को क्यों मारते ?
क्यों तोड़ते वे बुद्ध की प्रतिमा को बामियान में,
अगर समता की कोई मूर्ति बन पाती तो.
या वे भगत सिंह को फांसी पर क्यों चढ़ाते,
उस क्रांति को फाँसी पर न लटका देते
जिसका सपना उसकी आँखों में था ?
वे क्यों तोड़ते मंदिरों को, मस्जिदों को ?
उन्हें नहीं तोड़ना पड़ता अम्बेदकर की मूर्ति को
अगर संविधान की कोई मूर्ति बन पाती तो.
देवियो सज्जनो, सदियों से झुंझलाए लोगों पर तरस खाओ.
जब उन्हें भूख लगेगी तब करेंगे बात.
प्रधानमंत्रीजी !
अगर यह भी तय हो जाए कि अब से मूर्तियाँ ही तोड़ी जाएँगी दंगों में.
तो मैं इस तोड़ फोड़ का समर्थन करूँगा.
कम से कम कोई औरत बच तो जाएगी बलात्कार से.
नहींचीराजाएगाकिसीगर्भवतीकापेट.
मैं तो कहता हूँ कि मूर्ति तोड़ने वालों को सरकार द्वारा वज़ीफ़ा भी दिया जाए.
कम से कम कोई सिर्फ़ इस लिए मरने से तो बच जाएगा
कि दंगाईयों के धर्म से उनका धर्म मेल नहीं खाता.
इसे रोज़गार की तरह देखा जाना चाहिए.
कम से कम सभी धर्म के लोग समान रूप से जुड़ तो पाएंगे इस राष्ट्रीय उत्सव में.
तब किसी दलित पर किसी की नज़र नहीं पड़ेगी
और ऐसे में कोई दलित बिना किसी बाधा के मूँछ भी रख पाएगा
और घोड़ी पर भी चढ़ पाएगा.
प्रधानमंत्री जी,  वैसे तो आप जनता की बात सुनते नहीं हैं.
पर यकीन मानिए मैं मुकेश अंबानी बोल रहा हूँ.
…………………
फ़रीद ख़ाँ
29 जनवरी 1975, पटना (बिहार) में जन्म।
D-3/26, अस्मिता ज्योति कोआपरेटिव हाउसिंग सोसायटी लिमिटेड, मार्वे रोड, चारकोप नाका, मलाड वेस्ट, मुंबई – 400095 (महाराष्ट्र)

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

Anhadkolkata

Anhadkolkata

जन्म : 7 अप्रैल 1979, हरनाथपुर, बक्सर (बिहार) भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी कविता संग्रह : कविता से लंबी उदासी, हम बचे रहेंगे कहानी संग्रह : अधूरे अंत की शुरुआत सम्मान: सूत्र सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, युवा शिखर सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंस अवार्ड

Related Posts

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
3

अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
3

नेहा नरूका समकालीन हिन्दी कविता को लेकर मेरे मन में कभी निराशा का भाव नहीं आय़ा। यह इसलिए है कि तमाम जुमलेबाज और पहेलीबाज कविताओं के...

चर्चित कवि, आलोचक और कथाकार भरत प्रसाद का एक रोचक और महत्त संस्मरण

चर्चित कवि, आलोचक और कथाकार भरत प्रसाद का एक रोचक और महत्त संस्मरण

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

                           आधा डूबा आधा उठा हुआ विश्वविद्यालय                                                                                भरत प्रसाद ‘चुनाव’ शब्द तानाशाही और अन्याय की दुर्गंध देता है। जबकि मजा यह कि...

उदय प्रकाश की कथा सृष्टि  पर विनय कुमार मिश्र का आलेख

उदय प्रकाश की कथा सृष्टि पर विनय कुमार मिश्र का आलेख

by Anhadkolkata
June 25, 2022
0

सत्ता के बहुभुज का आख्यान ( उदय प्रकाश की कथा सृष्टि से गुजरते हुए ) विनय कुमार मिश्र   उदय प्रकाश ‘जिनके मुख देखत दुख उपजत’...

प्रख्यात बांग्ला कवि सुबोध सरकार की कविताएँ

प्रख्यात बांग्ला कवि सुबोध सरकार की कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
1

सुबोध सरकार सुबोध सरकार बांग्ला भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित कविता-संग्रह द्वैपायन ह्रदेर धारे के लिये उन्हें सन् 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार...

Next Post

@कल्पना लाइव : एक पाठकीय प्रतिक्रिया - यतीश कुमार

साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन: एक रिपोर्ट

महाकवि त्रिलोचन पर कुमार अनिल

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.