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Home कविता

पृथ्वी के लिए दस कविताएँ : राकेश रोहित

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
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1
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राकेश रोहित

राकेश रोहित कविता की दुनिया में दो दशकों से सक्रिय रहे हैं – इनकी शुरूआती कविताएँ बहुत समय पहले पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं – अलावा कथा की परतें उधेड़ते हुए उनके कई लेख भी हम उनके ब्लॉग पर देख-पढ़ चुके हैं। बीच की शून्यता के बाद राकेश रोहित का कवि बहुत निखर कर सामने आया है और अपनी काव्य प्रतिभा और अछूते बिम्बों के प्रयोग से अतिरिक्त ध्यान खींचता है। प्रस्तुत कविताओं में पृथ्वी के बहाने कवि ने कई-कई दुनिया की तस्वीर बनाई है – कई कोणों से कई-कई अर्थ-छोर का सफर किया है। कहने की जरूरत नहीं कि राकेश की कविताओं से गुजरे बिना समकालीन युवा कविता के मिजाज को समझना लगभग नामुंकिन है। अनहद पर इस युवा कवि की कविताएँ प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष और गर्व है।

पृथ्वी के लिए दस कविताएँ
       राकेश रोहित

1.
———————–
तुम्हें भूल जाऊँगा
———————–
पृथ्वी की कुंवारी देह पर लिखता हूँ
तुम्हारा नाम
जिस दिन बारिश होगी
मैं तुम्हें भूल जाऊँगा
चाँद की परी से कहता हूँ।
संसार की सारी नदियां समन्दर की ओर जाती हैं
जैसे संसार के सारे दुख
घेरते हैं मेरा स्वप्न 
टूट कर झर जाता है जो दिन
उससे चिपट कर वर्षों रोता हूँ मैं
फिर कहता हूँ
जिस दिन बारिश होगी
मैं तुम्हें भूल जाऊँगा।
हैरान हसरतों को मैंने
तुम्हारे चेहरे की तरह देखा
चुम्बनों की प्रतीक्षा में ढलती जाती थी जिसकी उम्र
तुम्हारी आंखों में एक किस्सा है न
जो चला गया है वन में
और तुम सोचती रहती हो मन में!
हम थोड़ी सी अपनी हथेली की ओट लगाये रखते हैं
वरना आकाश के नीचे उधड़ी दिखती है
हमारी इच्छाओं की देह
जो शरारत से खेलती रहती है संग मेरे दिन- रात
एक दिन उसे भूल जाऊँगा
जिस दिन बारिश होगी।
रात के अंधेरे में फूल अपना चेहरा धोते हैं
बारिश में धुल कर निखरती है पत्ती
फूल झर जाते हैं
हजार फूलों के स्वप्न को समेट कर
स्याह अंधेरे के सामने खड़ा होता हूँ
एक दिन विस्मय रह जायेगा
और तुम्हें भूल जाऊँगा।
समन्दर में धोता हूँ चाँद का चेहरा
समन्दर में हमारे आंसुओं का नमक है
समन्दर में चाँद की उदास परछाई है
समन्दर में चाँद के चेहरे पर दाग है
यह जो चाँद से मिलने को समन्दर इतना बेचैन है
यह चाँद से समन्दर की शिकायतें हैं
एक दिन सारी शिकायतें भूल जाऊँगा
कहता हूँ चाँद से
और समन्दर हो जाता हूँ।

2.
———————————-
मैंने पृथ्वी से प्यार किया है
———————————-
मैंनें पूरी पृथ्वी से प्यार किया है
और उन स्त्रियों से जिनके गीत मैं लिखता रहा।
वह लड़की जो स्वप्न में आकर छू गयी मुझे
उसका तसव्वुर नहीं कर पाता मैं
फिर भी उससे प्यार करता हूँ।
वे सारे सपने जो टूट गये
वे सारे फूल जो झर गये
वो पुकार जो तुम तक नहीं पहुंची
वो मुस्कुराहटें जिन्हें तुम्हारी नजरों ने कोई अर्थ नहीं दिया
सबके लिए विकल होता हूँ मैं
सारी अभिव्यक्तियों की प्रतीक्षा में
ठहर कर इंतजार करता हूँ
हर कहासुनी के लिए उद्धत होता हूँ मैं।
जिसे तुमने अपने मन की अंधेरी गुहाओं में छुपा रखा है
सदियों से
उसे सर्द दोपहरी की गर्म धूप दो
मैं इस सृष्टि का पिता हूँ
अगर एक चींटी भी रास्ता भटक जाती है
तो मुझे दुःख होता है।
3.
——————
बची रहे पृथ्वी
——————
मैंने कभी तुम्हारा नाम नहीं लिया
कभी सपने में तुम्हें देखा नहीं
फिर भी लिखता रहा कविताएँ
कि बची रहे पृथ्वी
तुम्हारे गालों पर सुर्ख लाल।
मैंने तुम्हें कभी पुकारा नहीं
पर तुमने पलट कर देखा
नहीं भूलती तुम्हारी वह खिलखिलाहट
जब तुमने कहा था
कवि हो न!
मुझे नहीं भूलने का शाप मिला है तुम्हें।
मैं पथिक था कैसे रूक कर
तुम्हारा इंतजार करता
मैंने चुटकी भर रंग तुम्हारी ओर उछाल दिया
जिसे दिशाओं ने अपने भाल पर सजा लिया है
एक नदी बहती है आकाश में
जिसमें तिरती है तुम्हारी कंचन देह।
4.
————–
पृथ्वी माँ है
————–
मैं जिस तरह टूट रहा हूँ
वह मैं जानता हूँ या पृथ्वी जानती है
हर रोज जितना अंधेरे से बाहर निकलती है
पृथ्वी, उतना ही अंधेरे में रोज डूबती है वह!

वसंत जिसके चेहरे पर सजाता है मुस्कराहटें
उसके अंदर आग है
सिर्फ बादलों ने जाना है उसका दुख
जब भीगती है पृथ्वी!
मैं पृथ्वी के लिए उदास कविताएं नहीं लिखता
वह बरजती है मुझे
पृथ्वी माँ है
वह हर वक्त मेरे साथ होती है।
5.
———
कोई है
———
मैं रोज थोड़ा टूटता रहता हूँ
टूटा नहीं हूँ कहकर मिलता हूँ उससे
फिर हम दोनों हँसते रहते हैं
और पूछते नहीं एक- दूसरे का हाल!
बचाने को कुछ बचा नहीं है जब
सितारों से प्रार्थना करता रहता है अकेला मनुष्य
सारी रात सितारे झरते रहते हैं पृथ्वी की गोद में
और सुस्ताता रहता है नदी की चादर पर उदास चाँद!
सुबह- शाम खींचता रहता हूँ लकीरें
वही शब्द है, वही मेरी अभिव्यक्ति है
कितनी दूर अंधेरे से आती है आवाज
एक चिड़िया जो पुकारती है- कोई है!
6.
——————————————-
कविता के बिना अकेला था ईश्वर
——————————————-
मनुष्य के बिना अकेला नहीं था ईश्वर
हमारी कविताएँ इस भय की कातर अभिव्यक्ति हैं।
घूमकर नहीं झूमकर चलती है पृथ्वी
इसलिए है शायद हमारी यात्राओं में बिखराव!
हम पानी की वह बूँद भी न हो सके
जो मिलती है मिट्टी में
तो मुस्कराता है बादल!
एक रात जब समंदर पर हो रही थी सघन बारिश
ईश्वर ने उस शोर को अकेले सुना
और भर दिया हमारी आत्मा में
सिरजते हुए हमारी देह!
आज भी मैं
उसी शोर में डूबी अपनी आत्मा को
समंदर पर अकेला चलते देखता हूँ
और देखता हूँ ईश्वर को
जो अकेलेपन में कविताएँ सुनता है!
कविता के बिना अकेला था वह
मनुष्य के बिना अकेला नहीं था ईश्वर!
7.
——————
निर्दोष विस्मय
——————
इस समय को
थोड़ी ऊब, बहुत सारा दुख
और मुट्ठी भर घृणा से रचा गया है।
…और जो कहने से रह गया है
कहीं विस्मृत थोड़ा समय
ढूंढता रहता है पराजित मन
वहीं ससंशय थोड़ा अभय!
रोज लहुलुहान हुई जाती है जिजीविषा
सहलाते हुए चोटिल स्मृतियों के दंश
फिर कैसे नाचती रहती है पृथ्वी
उन्मत्त थिरकती हुई धुरी पर
कैसे बचा लेते हैं फूल अपनी मुस्कराहटों में निर्दोष विस्मय!
8.
————————–
मेरी उदास आँखों में
————————–
मैं कविता में
आखिरी दुविधा वाले शब्द की तरह आऊंगा
कि यथार्थ को समझने के
प्रतिमान बदल जायेंगे
बहुत हिचक से मैं अंत में
एक  पूरा वाक्य लिखूंगा
बहुत संभव है आप जिसे
शीर्षक की तरह याद रखें!
जानता हूँ
फर्क नहीं पड़ता

अगर लिखता रहूँ दिन- रात
अनवरत बिना थके
पर एक सुझाव मेरा है
आप हर बार मेरी विनम्रता पर भरोसा न करें।
यह जो हर बार हहराये मन को
समेट कर आपसे मिलता हूँ 
इसकी एक बुरी आदत है
यह बुरा वक्त नहीं भूलता
एक जिद की तरह हर बार खड़ा होता हूँ
मैं उम्मीद की कगार पर
मेरी उदास आंखों में खिलखिलाती हुई पृथ्वी घूमती है।
9.
——
याद
——
अपनी कक्षा में घूमती पृथ्वी
अचानक अपनी कक्षा छोड़
मेरे सपनों में आ जाती है
जैसे बच्चे के पास लौटती है
आकाश में उछाली गेंद!
फिर मैं हिमालय से बातें करता हूँ
नदियों सा बहता रहता हूँ
और सूर्य के बेचैन होने से पहले
छोड़ आता हूँ उसे उसकी आकाशगंगा में।
       
अगर धरती खामोश हो
और उदास घूम रही हो
आप उसके करीब जाकर पूछना
हो सकता है उसको मेरी याद आ रही हो!
10.

———
उम्मीद
———
ग्रह नक्षत्रों से भरे इस आकाश में
कहीं एक मेरी पृथ्वी भी है
इसी उम्मीद से देखता हूँ आकाश
इसी उम्मीद से देखता हूँ तुमको!
                     ***

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Comments 1

  1. Anonymous says:
    3 years ago

    ग्रह नक्षत्रों से भरे इस आकाश में
    कहीं एक मेरी पृथ्वी भी है
    इसी उम्मीद से देखता हूँ आकाश
    इसी उम्मीद से देखता हूँ तुमको!
    Fantastic poetry of Rakesh Rohit with most distilled and powerful thought. It combines very well dream with vision. it's very pleasing experience to read these poetry. congratulations.
    Kartik Bose, Budge Budge.

    Reply

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