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Home कथा

विमलेन्दु के गल्प

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कथा, साहित्य
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विमलेन्दु के गल्प

मैं सोशल मीडिया पर, प्रिन्ट मीडिया का कवि हूँ !

[योगेश्वर बोले ही चले जा रहे थे—-
मैं प्रकाशों में सूर्य हूँ। वेदों में सामवेद, देवों में इन्द्र, रुद्रों में शिव हूँ। पर्वतों में मेरु, पुरोहितों में बृहस्पति, वाणी में ओंकार, वृक्षों में अश्वत्थ, देवर्षियों में नारद, घोडों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में एरावत और सांपों में वासुकि हूँ।
मैं प्रजनकों में कामदेव, अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द्व समास हूँ।
मैं ऋतुओं में वसन्त, छलियों में जुआ, विचारकों में उशना, और रहस्यों में मौन हूँ।

मैं सोशल मीडिया में, प्रिन्ट मीडिया का कवि हूँ ! ] 

—
हाँ, मैं कवि-लेखक हूँ. अपने को विशिष्ट, ऊपर और सुरक्षित बनाने के लिए हम क्या-क्या नहीं करते !

—मैं आपकी अच्छी कविता को भूलकर भी like नहीं करता, लेकिन आपकी ऊल-जलूल और बेमतलब पोस्ट पर वाह-वाह कर देता हूँ–ताकि आप धन्यभाग मानकर मेरी प्रशंसा में कभी कमी न रखें।

—मैं अक्सर ऐसी पोस्ट लगाता हूँ जो किसी को समझ न आए !
 
और आप एहसासे-कमतरी के मुस्तकिल मरीज़ बने रहें।

—मैं अक्सर महान व्यक्तियों और महान विचारों का धत्-करम करता हूँ !
ताकि छोटे-मोटे जीवधारी तो बम् के धमाके से ही खेत रहें।

—मैं अपनी रचनाएं अपने मित्रों से शेयर करवाता हूँ, और उनकी मैं करता हूँ !
इससे मेरा बडप्पन, भाईचारा और सहिष्णुता असंदिग्ध बनी रहती है।

—मैं बिला नागा, नामालूम कौन सी दुनिया की, कौन सी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी रचना की,
अस्पष्ट तस्वीरें व़़ॉल पर लगाते हुए सकुचाता हूँ।

—मैं आए दिन सभा-गोष्ठियों में सदारत करने जाता हूँ !
और यह जानते हुए भी कि आप चार सौ कोस दूर रहते हैं, आपको आमंत्रित करना नहीं भूलता हूँ।

—अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है, कि मुझे कवियत्रियों में ज्यादा प्रतिभा और संभावना दिखायी पड़ती है !
आरम्भ में मैं उन्हें छन्द और बहर जैसी, व्याकरण-सम्मत, नितान्त गैर-रूमानी सलाहें दिया करता हूँ।

—मैं अपनी प्रशंसिकाओं से inbox में चैट तभी करता हूँ, जब वो बहुत इसरार करती हैं !
और वहाँ मैं बहुत विषय-निष्ठ रहता हूँ।

—मैं इन अबलाओं को बहुधा, अपने समकालीन दुष्ट कवि-लेखकों से कैसे बचा जाये, के उपाय बताता हूँ।

—मुझे इन सुमुखि ललनाओं की निष्फल जाती प्रतिभा, उकसाने की हद तक प्रेरित कर रही है !
अब मैने निश्चय किया है कि मैं कुछ ही दिनों में संपादक-प्रकाशक बन जाऊँगा।

—लेकिन आप मायूस न हों। मैं इन अबलाओं को उनके मुकाम तक पहुँचा कर फिर लौट आऊँगा साहित्य-सेवा के लिए फेसबुक पर।

ई पुस्तक-मेला बड़ा इनफीरियारिटी दे रहा है केशव !!

[ धर्मयुद्ध का पांचवाँ दिन । अर्जुन को उरई (बैलों को हाँकने वाली नुकीली छड़ी) से ठेलते-ठालते, श्रीकृष्ण फिर ले आए कुरुक्षेत्र में लड़ाने । दोनों ओर की सेनाएँ पहले ही पहुँच चुकी थी ।
युद्ध आरंभ होने में विलंब होता देख, अधिकांश योद्धा, साथ लाई पुस्तकें उलट-पलट रहे थे । ज्यादातर पुस्तकें, सुहागरात की दुल्हन की तरह अनछुई और लजायी लग रही थीं ।
     
लेकिन अर्जुन खेत (क्षेत्र) में पहुँचते ही, गरियार बरदा (अनाड़ी बैल) की तरह घुटने के बल बैठ गए.]

श्रीकृष्ण उवाच : अब का हुआ पार्थ ?

अर्जुन उवाच : ई पुस्तक-मेला ससुरा बड़ा इनफीरियारिटी दे रहा है माधव । हमरा लड़ने का मनै नहीं कर रहा ।

श्रीकृष्ण : हद करते हो यार ! एतना समझाए लेकिन तुम युद्ध से भागने का कोई न कोई पेंच निकाल ही लाते हो !!

अर्जुन : नहीं भगवन, सच्ची कह रहे हैं….सारे योद्धा पुस्तक-मेला हो आए । कल पितामह, दुर्योधन को लेकर खुद गए थे वहाँ । आज द्रोणाचार्य भी गए हैं। सुना है, एकलव्य की किसी किताब का, हॉल नं-18 में विमोचन होने वाला है !

श्रीकृष्ण : हाँ पार्थ ! आचार्य द्रोण ही विमोचन करने वाले हैं।

अर्जुन : वही तो माधव ! मुझे तो डर लग रहा है कि आचार्य की कुछ सेटिन्ग न हो जाए एकलब्बा से !!

श्रीकृष्ण : अरे बुड़बक ! तुम फिकर नॉट करो ! तुम आचार्य को नहीं जानते। ऐसा दाँव मारेंगे मुख्य-अतिथि की आसन्दी से, कि वो कौवा एक्को ठो मोती न चुगने पाएगा !!

अर्जुन : (आश्चर्य से मुंह फाड़ते हुए)–वो कैसे नटवर नागर ! ?

श्रीकृष्ण : आचार्य कह देंगे कि एकलव्य मेरे बहुत प्रिय और योग्य शिष्य हैं।
और अगले दिन से अखबार और पत्रिकाएँ एकलव्य की मलामत में जुट जाएँगी।

अर्जुन : लेकिन योगेश्वर ! पुस्तक-मेले में न जा पाने के कारण मैं खुद को कहीं मुह दिखाने लायक नहीं पा रहा हूँ। कल रात में दुर्योधन ने बड़े मज़ाक में मुझसे पूछा था, कि अर्जुन तुम कब जा रहे हो मेले में ?

सच माधव ! मेरा खून जल गया उसके हाथ में कहानी-संग्रह देख के ।

श्रीकृष्ण : पार्थ ! सर्वधर्म परित्यज मामेकं शरणं व्रज !! मैं जो कहता हूँ ध्यान से सुनो !

आचार्य द्रोण की लाइब्रेरी से जो किताबें तुम मार के लाए थे, वो तो हैं ही…उन्हें झाड़-पोंछ कर बैठक की टेबल पर रख दो। मेरी गीता भी माया जी ने छाप डाली है। पाँच लेखकीय प्रतियाँ मिली हैं, एक तुम ले लो। और सुनो ! सुभद्रा इधर की उधर करने में बचपन से ही पारंगत है। वो आस-पड़ोस में बता आएगी कि तुम भी गए थे पुस्तक मेला। और वहाँ इतनी खरीददारी की है कि घर का बजट बिगड़ गया !

मैं संजय (महाभारतकालीन जुकरबर्ग ) से कह दूँगा, वो कुछ किताबों की फोटो के साथ फेसबुक पर ये स्टेटस डाल देंगे कि, अर्जुन पुस्तक-मेले में किताबें खरीदते हुए पाए गए !!

[ यह सुनकर अर्जुन ने अपना गांडीव उठाया और ललकारने लगे ]

कविता कामिनी के कुटिल कांत
हमारे नगर में एक महाकवि हुआ करते हैं।
वयोवृद्ध के अलावा मतिवृद्ध भी हो चुके हैं अब। एक सम्मानित पद पर रहते हुए अब शासकीय सेवा से निवृत्त हो गये हैं
चालीस वर्ष पहले उन्होंने लगभग भीष्म पितामह के टक्कर की एक प्रतिज्ञा कर डाली। देवी सरस्वती को साक्षी मानकर उन्होंने निश्चय किया कि चाहे सूखा पड़े या बूड़ा आये, वे प्रतिदिन तीन कविताओं का प्रसव, आजीवन करते रहेंगे। माता सरस्वती ने अपने इस अद्भुत उपासक पर अपनी कृपा बनाए रखी। महाकवि आज भी बिला नागा कविताओं का उत्पादन किए जा रहे हैं। उनकी प्रतिज्ञा के आधार पर गणना की जाये तो अब तक लगभग 44 हज़ार कविताओं के वे जायज़ जनक बन गये हैं।
महाकवि के कई कविता संग्रह उनकी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। और कई अवतरित होने की कतार मे हैं। सभी संग्रहों का प्रकाशन उनके ही पराक्रम से संभव हुआ। इसके लिए उनके बढ़िया सरकारी पद की उर्वराशक्ति को नकारा नहीं जा सकता। विन्ध्य के एक मध्यकालीन संस्कृत कवि की स्मृति में वे केन्द्रीय मंत्रालय के अनुदान पर एक सालाना कार्यक्रम का आयोजन, सघन जंगल के बीच करते हैं। शरद की यही कमनीय रात्रि उनके नये संग्रहों की सुहागरात होती है।
महाकवि अलंकार-युकत कविता के पक्षधर नहीं हैं। उनका प्रयास रहा है कि कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकारों से मुक्त कर, जीवन और प्रकृति के नजदीक लाया जाय। इसीलिए उनकी कविताओं में ब्रश-मंजन-पाखाने से लेकर संभोग तक के नितान्त सजीव चित्र मिलते हैं। कविता के अलंकारों को एक-एक कर उतारते हुए उन्होंने कामिनी को लगभग निर्वस्त्र कर दिया। अब उनकी कविता प्रकृति के बहुत नजदीक पहुँच चुकी है। उनके कविता-संग्रहों के शीर्षक इस प्रकार हैं—‘अनुभूतियों का सच’, ‘अनुभूतियों का महाज्वार’, ‘अनुभूतियों का अन्तर्जाल’, ‘घास के फूल’ इत्यादि।
अब निरीह पाठकों के बीच एक सवाल हमेशा तनकर खड़ा रहा कि लगभग 44 हज़ार कविताओं के विषय आते कहाँ से हैं !?
हम और आप भले ही स्तंभित हों, लेकिन महाकवि के सामने यह सवाल कभी नहीं खड़ा हो सका।
महाकवि बवासीर के मुस्तकिल रोगी हैं। “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान….”। इस फार्मूले को थोड़ा सामयिक रंग दे दें—“ रोगी होगा पहला…”—-तो महाकवि की प्रेरणाओं का पहला अक्षय स्रोत यही मुआ बवासीर ही लगता है। इसी आह से उपजा होगा गान।
इसके अलावा तीन और स्रोत हैं जहाँ से महाकवि अपनी कविताएँ लाते रहे होंगे।
प्रथम, श्रीहरि ने महाकवि को ठीक उसी तरह की शक्ल-सूरत दी थी, जैसी उन्होंने स्वयंवर के समय देवर्षि नारद की कर दी थी। इसीलिए महाकवि की कविताओं में सौन्दर्य के लिए खुली चुनौती आजीवन बनी रही।
द्वितीय, महाकवि पत्नी-पीड़ित भी थे। उनके पास-पड़ोस के लोग रात में चौंककर उठ जाते थे, जब कवि-पत्नी महाकवि को पीटने लगतीं। कई बार तो वे अल्पवस्त्रों में ही आधी रात भड़भड़ा कर बाहर भागते देखे गए। उपरोक्त परिस्थिति भी कविता के लिए बहुत उर्वर भाव-भूमि तैयार करती है।
तृतीय, सेवानिवृत्त होते ही महाकवि अपने से पन्द्रह वर्ष छोटी एक सद्यःविधवा प्राध्यापिका पर मुग्ध हो गए। वे प्रेम में इतने असहाय हो उठे कि दिन-दिन भर प्राध्यापिका के घर बैठे प्रेम की याचना करते रहते। पर महोदया नहीं पिघलीं। बात कवि-पत्नी तक भी पहुचनी ही थी। तभी वियोग-श्रृंगार घटित हुआ। एक अप्रिय संयोग के चलते महाकवि-प्राध्यापिका-कविपत्नी की मुठभेड़ हो गई। भाव-विभाव-अनुभाव-संचारी भावों का उच्चतम प्रस्फोट हुआ। और महाकवि जब बाहर निकले तो उनके माथे से रक्त-धार  बह रही थी।
महाकवि आज भी पूरे वेग से कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकार-मुक्त करके उसे प्रकृतिस्थ करने की अपनी महासाधना में तल्लीन हैं।
                                                   ****
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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