|
प्रो. सोमा बंद्योपाध्याय |
प्रो. सोमा बंद्योपाध्याय ने हाल के दिनों में अपनी लेखनी से चमत्कृत किया है। कई तरह के प्रशासनिक दबावों के बीच भी इति कवि-कथा जैसी सुन्दर कहानी लिख लेना न केवल विस्मित करता है बल्कि सोमा जी की रचनात्मक सक्रियता का परिचय भी देता है। यह कहानी बहुत ही चुप तरीके से और बहुत ही रोचक ढंग से कुछ प्रश्न खड़े करती है – ऐसे प्रश्न जिनपर ठहरकर हमें सोचने की जरूरत है। एक तरह से प्रयोगात्मक शिल्प में रची यह कहानी कहीं-न-कहीं आपको उद्वेलित जरूर करेगी। तो आईए पढ़ते हैं युवा कवि कथाकार-अनुवादक प्रो. सोमा बंद्योपाध्याय की नई कहानी इति-कवि-कथा।
प्रो. सोमा बंद्योपाध्याय
राजाश्रयी कवियों के युग का अब अवसान हो चुका है | अब न वह राजकीय सम्मान है और न ही ऐश्वर्य का वैभव | ऐसे में एक प्रौढ़ कवि उद्देश्यहीन यहाँ- वहाँ भटक रहे हैं | आज ऐसा कोई मित्र नहीं रह गया है जो उन्हें इस दुर्दिन में आश्रय दें | कभी कभी हिमालय पर्वत की तलहटी में बसे उस छोटे से गाँव की याद बरबस आ जाती, जो कभी उनका अपना हुआ करता था | कदम उस ओर चल पड़ने को तैयार हो जाते हैं पर अतीत की यादें उन्हें वहीं रोक लेती | कभी कभी उज्जयिनी से आने वाले कुछ पुराने मित्र राहों में मिल जाते हैं पर उनमें से अधिकतर उन्हें न देख पाने का अभिनय करते हुए आगे निकल जाते | कवि आहत दृष्टि से उनके गमनपथ को निहारते रहते | फिर दीर्घ श्वास लेकर अपने भाग्य की भीषण विडम्बना को स्वीकारते हुए आगे बढ़ जाते हैं | हाय! क्षुधा और तृष्णा के समय संबल केवल चने और कूप का ठंडा पानी | कभी-कभी वह भी नहीं मिलता | अपने स्वर्णिम काल में कवि ने संचय का सहारा कभी नहीं लिया था | उज्जयिनी त्याग करने के पश्चात् उन्होंने जितना धन अर्जित किया था, अपने शिष्यों यानी युवा कवियों में बाँट दिया था | ऐसे में कभी किसी सम्पन्न गृहस्थ के द्वार के आगे खड़ा होना पड़ता | ब्राह्मण कवि को अन्न नहीं मिलेगा, देश की स्थिति उतनी भी बुरी नहीं थी |
कल शाम एक और राजकवि से साक्षात्कार हुआ था, जो निकट के राज्य कुंतल से थे | उन्हीं से वार्तालाप के पश्चात् एक हल्की सी आशा की किरण दिखी और वे दक्षिण की ओर चल पड़े |
— दक्षिण दिशा….. और भी दक्षिण में….. सुदूर दक्षिण!!
भारत के अंतिम प्रांत में जहां नीले समुद्र की आदि-अंत न दिखनेवाली जल-राशि भारतमाता के चरणयुगल को धो देती है—और ठीक उसके पदप्रांत में अर्पित पंकज के समान विराजित वह प्राचीन सिंहल द्वीप ! मानो, उसी ओर अग्रसर होने को ठान लिया था हमारे कवि ने |
कभी कलिंग के निर्जन जंगल के बीच होकर तो कभी दक्षिणात्य के दुर्गम विंध्य पर्वत लांघकर भी कवि आगे बढ़ते रहते हैं | दिन बीतते हैं आदिवासियों के द्वारा दिया गया आतिथ्य ग्रहण कर | कभी झरने का शीतल जल तो कभी जंगली कंदमूल खाकर कवि बढ़ते रहते हैं | साथ में है केवल एक पोटली जिसमें हैं कुछ एक पांडुलिपियाँ, भोजपत्र के बने ग्रंथ और दो मलिन वस्त्र |
अंततः वे समुद्रतट पर पहुँच जाते हैं | स्थानीय लोगों से पता चलता है, जगह का नाम है रामेश्वरम् | दो दिनों में सिंहल जाने के लिए व्यापारियों का एक दल तैयार है | कवि उनकी सम्मति से उनके पोत में सवार हो जाते हैं |
समुद्रतट छोडते ही अनंत जल-राशि को देखते हुए कवि की आँखें अश्रुपूरित हो जाती हैं | अपनी मातृभूमि त्यागने का दर्द और असहायता उनकी दृष्टि में स्पष्ट दिख रही थी | उज्जयिनी राज्य, राजकवि की यशप्राप्ति, उज्जयिनी का वह ग्राम, समृद्धि और प्रशस्ति के शिखर पर चढ़ जाना और सृजनशक्ति का यकायक दुर्बल पड़ जाना, फिर एक दिन वहाँ से अज्ञात स्थान की ओर रवाना हो जाना….. सारी स्मृतियाँ जैसे भीड़ जमा रही थीं |
× × ×
इसी तरह तीन हफ्तों के पश्चात, आज दो दिन हो गए हैं, कवि सिंहल आ पहुंचे हैं और वहाँ राजपथ में एक आश्रय की खोज में घूम रहे हैं | दोपहर के वक्त एक सहृदय गृहस्थ ने उन्हें आश्रय भी दिया | शयन के लिए अतिथि-कक्ष का द्वार खोल दिया | बहुत दिनों बाद स्वादिष्ट व्यंजनों से भोजन भी करवाया | गृहस्वामी को संभवतः दुर्बल कवि के म्लान मुखमंडल के पीछे उनका आभिजात्य और उनके गरिमामय अतीत जीवन की कोई झलक सी दिख गई थी | भोजन के उपरांत कवि ने कोमल शय्या पर अपने क्लांत जीर्ण शरीर को लिटा दिया |
— ‘आह! महीनों पश्चात ऐसी कोमल शय्या मिली है | निद्रा अच्छी होगी |’ पर नहीं ! नींद मानो आँखों से कोसों दूर थी |
— उज्जयिनी त्यागने के पश्चात ऐसी कोमल शुभ्र शय्या मिली हो, ऐसा याद नहीं है | तो फिर निद्रा में बाधा क्यों ?
थोड़ी देर और प्रयत्न करने के पश्चात वे उठकर बैठ गए | फिर अपने सिरहाने रखी अपनी छोटी सी पोटली में से कुछ भोजपत्र निकालकर तकिये पर रख दिए | फिर कलम और दवात निकाल लिए | थोड़ी देर चिंतामग्न रहने के पश्चात उनकी कलम भोजपत्रों पर द्रुतगति से चलने लगी | विश्व-संसार को जैसे भूल चुके थे, ऐसी तन्मयता थी उनमें | उन्हें पता भी न चला कि कब गृहस्वामी आकर उनके द्वार पर खड़े होकर विमुग्ध नेत्रों से उन्हें सृष्टि में मग्न देख रहे थे |
सहसा बाहर नगर के प्रहरियों के पुकारने की आवाज से चौंककर कवि ने उन्मुक्त द्वार की ओर देखा तो गृहस्वामी को अपनी ओर देखते पाया | उन्हें लज्जा का अनुभव हुआ और उन्होंने गृहस्वामी से क्षमा मांगी |
गृहस्वामी की दृष्टि उनकी पोथी पर निबद्ध थी | कवि ने यह देखा तो शीघ्रता से पोथियों और भोजपत्रों को समेटने लगे | तभी गृहस्वामी ने पूछा, “ मान्यवर ! यदि बुरा न मानें तो क्या पूछ सकता हूँ आपका वास्तविक परिचय क्या है ?”
कवि ने दुविधा भरी आवाज में उत्तर दिया—‘मुझे क्षमा करें | मैंने बहुत बड़ी भूल कर दी | आपकी निद्रा में बाधा पहुंचाई | मैं अभी दीपक बुझा देता हूँ | आप जाकर विश्राम कीजिए |’
परंतु गृहस्वामी ने उन्हें मना करते हुए अपने प्रश्न की पुनरावृत्ति की | पूछा, ‘विश्राम से पूर्व क्या मैं आपका वास्तविक परिचय जान सकता हूँ ? ब्राह्मण भिक्षु के वेश में किस महान व्यक्तित्व को अपने घर में मुझे आतिथ्य प्रदान करने का सौभाग्य मिला है, क्या मैं यह जान सकता हूँ ? आपकी तन्मयता को देखकर मैं चमत्कृत हो गया हूँ | आप कौन हैं महामना?’
विचलित कवि ने शीघ्रता से कहा- ‘नहीं-नहीं ! मेरे आश्रयदाता, आप अति उदार हैं | परंतु यहाँ आप गलती कर रहे हैं | मैं एक साधारण भिक्षुक मात्र हूँ | मैं आश्रयहीन, परिजन-विहीन हूँ | इस पोटली के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है | आपकी दया और उदारता मैं कभी नहीं भूलूँगा | आपका सदैव ऋणी रहूँगा |’
— ‘पर आपकी पोटली में जो पोथियां और भोजपत्र हैं, वो किसी साधारण भिक्षुक के पास क्या होंगे ?
— ‘हाँ, यह सही है कि इन पोथियों में ही मेरे प्राण बसते हैं |’
— ‘आप द्रुतगति से कुछ लिख रहे थे | क्या मैं एकबार देख सकता हूँ कि आप क्या लिख रहे थे ?
गृहस्वामी ने उत्सुकता के साथ पूछा |
क्षण भर के लिए कवि हिचकिचाए, फिर कहा, ठीक है, आप देख सकते हैं !’
— गृहस्वामी को कवि कि हिचकिचाहट साफ समझ में आ रही थी | उन्होंने अनुचित उत्साह दिखते हुए कहा,‘कोई बात नहीं | रात्रि का अंतिम प्रहर है | आप आराम कीजिए | मैं अपने कक्ष में जा रहा हूँ|’
— गृहस्वामी के चले जाते ही कवि निश्चिंत हो गए | एक दिन यश के शिखर पर विद्यमान यह कवि आज न जाने क्यों अपना परिचय छिपा रहा था | क्या कालचक्र के घूमने के साथ-साथ गुमनामी के अंधकार में खो जाने वाला यह कवि अपने जीवन के सृजनहीन उन क्षणों को विस्मृत करना चाहते थे, जब चाहकर भी उसकी लेखनी से वाणी की वह झरना निःसृत नहीं हो पाती थी |
— आज महीनों बाद नया परिवेश, नए स्थान और नए लोगों के संस्पर्श में आकर संभवतः लेखनी की वह स्तब्ध निर्झरिणी फिर से बह निकली थी |
— प्रातः सूर्योदय होते ही गृहस्वामी अतिथि से मिलने आए | रात उन्हें बिलकुल भी निद्रा नहीं आई थी | हो न हो, यह कोई अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं |
शारीरिक अस्वस्थता और मलिन वस्त्रों के बावजूद, उनका सौम्य मुखमंडल, उज्ज्वल आँखें और गौर वर्ण बता रहा था कि वे कोई साधारण भिक्षुक हो नहीं सकते थे |
परंतु यह क्या ! कक्ष खाली था | अतिथि और उनकी वह पोटली दोनों नहीं थे | तभी शय्या के ऊपर रखे एक भोजपत्र पर उनकी दृष्टि पड़ी | उस पर मोती जैसे अक्षरों में एक पंक्ति लिखी हुई थी—‘परम आदरणीय, आश्रयदाता की बिना अनुमति लिए मैं यहाँ से जा रहा हूँ, इसके लिए मैं अत्यंत लज्जित हूँ | क्षमा याचना सहित, अपरिचित अतिथि|’
× × ×
— फिर वही पथ का साथ !
इस पथ का कोई अंत नहीं | क्लांत-विश्रांत कवि आखिर क्या चाहता था? सिंहल की एक नगरी से दूसरी नगरी होते हुए संभवतः राजधानी पहुँचना ही उसका लक्ष्य था | चलते-चलते पाँव क्षत-विक्षत हो गए थे | आँखों की द्युति कम होने लगी थी | चेहरे की कान्ति शारीरिक अस्वस्थता के कारण म्लान हो चुकी थी | परंतु इतनी बाधाओं के बावजूद उनकी विशाल उदार हृदय की गरिमा जरा भी कम नहीं हुई थी | बल्कि इस बाधा ने एक चमत्कार कर दिखाया | उनकी पूर्व की वह मानसिक दृढ़ता और खोयी हुई सृजनशीलता, कवि-प्रतिभा और कल्पनाशक्ति मानो वापस आ गई थी | वो अपमान, वो निरादर, वो अवहेलना जो उन्हें पिछले कई वर्षों में लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जैसे भटकने पर मजबूर करता रहा, आज उनके हृदय को क्षण-भर के लिए भी निरुत्साह नहीं कर पा रहा था |
— कवि अपनी इच्छाशक्ति को समेटकर अंततः पहुँच गए अपने ईप्सित स्थान पर अर्थात जिसे सब राजधानी स्वर्णपुरी लंका के नाम से जानते हैं |
— यही क्या वह लंका है जहां कभी महापराक्रमी राक्षसराज रावण राज किया करते थे ? क्या यही वह लंका है जिसे रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्र ने अपने चरणधूलि से धन्य किया था | क्या यहीं कहीं किसी अशोकवाटिका में सीता की क्रंदनध्वनि आज भी प्रतिध्वनित होती है?…..कवि की कल्पना तरंगें शब्दों का आकार लेने लगती हैं | यहीं वह सुरम्य स्थान हैं जहां की प्राकृतिक सुषमा का बिना देखे ही कवि ने कभी अपनी कल्पना में स्थान दिया था और जिन्हें श्लोकों में परिवर्तित होने में अधिक समय नहीं लगा था | कवि की स्मृति में वह श्लोक अनायास झाँकने लगा, जब रावण-वध के पश्चात श्रीराम सीता जी को लंकापुरी से पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या वापस ले जा रहे थे | तब उस आकाशयान से आँखों देखी समुद्र तट की प्राकृतिक शोभा का वर्णन कवि ने इस तरह से करवाया था |
‘दुरादयश्चक्र्नीमस्य तन्वी
तमालतालिवानराजिनीला|
आभाती वेला लवणाम्बुराशे—
धारानिवद्धेव कलंकरेखा ||”
इसी तरह अतीत की सुखस्मृति में खोए कवि द्रुतगति से चले जा रहे थे |
तभी अचानक किसी पथिक से टकरा गए और उनकी स्मृतियों का जाल छिन्न भिन्न हो गया | पथिक ने चिढ़कर कहा—
— ‘देखकर नहीं चल सकते ?
— ‘क्षमा कीजिएगा महोदय| क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मुझे यहाँ आश्रय कहाँ मिल सकता है ?’
— आश्रय ? भिक्षुक को आश्रय? वह भी विदेशी भिक्षुक ? पथिक व्यंग्य करते हुए आगे बढ़ गया |
— हाय ! नियति का यह क्रूर परिहास ! भारतवर्ष का राजकवि आज आश्रयहीन ! नहीं-नहीं-नहीं- मुझे निराश नहीं होना है | लक्ष्य मेरे निकट है | कवि ने सोचा |
× × ×
‘सूर्यास्त हो चुका है | आज रात के लिए यदि आश्रय मिल जाए, कल दिन के समय नगरों में कहीं न कहीं कुछ व्यवस्था कर लूँगा |’ कवि की सोच में बाधा पड़ गई | सामने ही एक द्विमंजिला अत्यंत प्रशस्त अट्टालिका और उसके ऊपरी तल पर बरामदे में खड़ी एक अपूर्व रूपवती रमणी उन्हें ही देख रही थी | कवि को असहाय दृष्टि में कोई मूक कातर अनुरोध था जिसे संभवतः वह स्त्री पढ़ पायी थी | वह विचलित होकर नीचे उतर आई और कवि को अपने भवन में आने का निमंत्रण दिया |
कवि तब तक इतना अधिक थक चुके थे कि भीतर तक चलकर आने की भी उनमें शक्ति बाकी नहीं थी | सुंदरी रमणी ने अपनी दासी से उन्हें अंदर ले आने को कहा | फिर कवि को आसन पर बिठाकर बोली—“क्या आप अस्वस्थ हैं?”
कृतज्ञता से कवि का कंठ भर आया | उनकी आँखों में वही द्युति लौट आई | पर वे कुछ कह नहीं पाए | रमणी ने अपने अतिथिगृह में उनके रहने की व्यवस्था की और दासी से उन्हें पौष्टिक आहार देने को कहकर भीतर चली गई|
कवि अतिथिगृह में अपने कक्ष में पहुँचकर कुछ देर अचेत अवस्था में पड़े रहे | उन्होंने अनुभव किया जैसे उनका अंतिम समय आ गया है | थोड़ी देर स्पंदनहीन पड़े रहने के पश्चात उन्होंने अपनी आँखें खोली | सामने एक चौकी पर दासी जतन से रखकर गई थी— फल, गरम दूध और कुछ मिष्ठान्न !
दो दिन का उपवासी पेट सामने सजी हुई थाली देख जैसे रो उठा |
— अचानक कवि की चेतना लौटी| अपने आस-पास किसी उन्माद कि भांति कुछ ढूँढने लगे | तभी उनकी नजर कक्ष के कोने में रखी उस पोटली पर पड़ी !
— नहीं, वह रमणी केवल सुंदर और दयालु ही नहीं थी, बुद्धिमान भी है | ऐसी मलिन पोटली वह दासी से कहकर फेंकवा सकती थी | पर ऐसा उसने नहीं किया | संभवतः वह समझ गई थी की यह पोटली ही उसके अतिथि का सर्वस्व है | धीरे से कवि उठ बैठे | कक्ष के एक कोने में एक दीपक टिमटिमाकर जल रहा था | कुछ देर विश्राम के पश्चात अब उनमें थोड़ी बहुत ऊर्जा वापस आ गई थी | काँपते हाथों से कवि ने दुग्धपात्र को उठाकर दूध पी लिया | फिर फलाहार ग्रहण करने के पश्चात कवि थोड़े स्वस्थ अनुभव करने लगे | आज, हाँ आज ही ! आज ही अंतिम अध्याय की रचना करनी होगी | गत कई वर्षों का परिश्रम तब जाकर सफल होगा | तभी कवि के निष्क्रिय होने के आरोप का खंडन होगा | आज वास्तव में बहुत खुशी का दिन है | यह सोचते ही कवि के चेहरे की खोई हुई चमक वापस आ गई |
— पोटली खोलकर कवि ने कलम और दवात निकाला | ये दोनों वस्तुएँ उनके लिए अमूल्य हैं | क्योंकि उन्हें उज्जयिनी के राजा ने प्रथम बार- राजकवि की उपाधि से भूषित करते समय इन दोनों वस्तुओं को उपहार में दिया था | ये दोनों वस्तुएँ सोने से बने हैं, इसलिए नहीं बल्कि राजसम्मान हैं, इसीलिए अमूल्य हैं | स्वर्ण-दवात का सुनहरा रंग स्याही के स्याह रंग के कारण अब काफी काला पड़ चुका है | कलम की दशा भी कुछ वैसी ही है | कवि का सबकुछ चला गया है ,पर ये दो वस्तुएँ उन्हें प्राणाधिक प्रिय हैं | इन्हें तो वे मृत्यु के साथ ही त्यागेंगे !
‘चरैवेति ! चरैवेति !!’
कवि की लेखनी अविराम गति से आगे बढ़ने लगी | वेगवती पहाड़ी झरने की तरह | सहज-सरल मधुमय छन्द में जैसे मन्दाकिनी बह रही हो | फिर कब जाने कवि की कल्पना ने सीमान्त को स्पर्श कर उसकी लेखनी को स्तब्ध किया, कवि जान भी न पाए | उनका श्रांत-क्लांत निद्रित मस्तक पाण्डुलिपि पर स्थापित रहा |वे गहरी निद्रा में डूब गए |
× × ×
रात्रि का तीसरा पहर आरंभ हुआ | नगरी के तोरण पर तीन की घण्टी बज रही थी | सहसा कवि की नींद टूटी और वे हड़बड़ाकर उठ बैठे | कुछ क्षण पश्चात वे अतिथि-कक्ष के बरामदे पर आए | वहाँ से उनकी दृष्टि दूसरी मंजिल के कक्ष के गवाक्ष के पास बैठी उस रूपवती रमणी पर पड़ी जो कुछ लिख रही थी | कवि ने देखा, रमणी लिखने के बाद पढ़ रही थी और फिर जैसे निराश होकर भोजपत्रों के टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दे रही थी |
कवि बहुत देर तक एकटक उन्हें देखते रहे | फिर कुछ सोचकर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए गृहस्वामिनी के कक्ष के द्वार के समक्ष उपस्थित हुए | क्षण भर रुकने के पश्चात उन्होनें द्वार पर हल्के से आघात किया |
— रमणी चौक उठी |
— “कौन है इतनी रात को ?”
द्वार खोलते ही सामने कवि को खड़ा देख, रमणी क्षण भर के लिए क्रोधित हो गई |
“रात्रि के तीसरे प्रहर में एक भद्र रमणी के कक्ष के बाहर आप क्या कर रहे हैं ? आपको जरा भी लज्जा नहीं आई ?”
यूँ अवांछित संबोधन सुनकर कवि मृदुस्वर में बोले, “आप क्रोधित न हों देवी | गवाक्ष से आप को बहुत विचलित होकर कुछ लिखते और फिर उन भोजपत्रों को टुकड़े करते मैंने देखा, तो मुझे लगा आप किसी समस्या से विचलित हैं | यदि मैं किसी काम आऊँ, यही सोचकर मैं यहाँ चला आया |”
आश्रित भिक्षुक का यह साहस देख गृहस्वामिनी का मुखमंडल रक्तिम वर्ण हो उठा | उन्होंने कर्कश कण्ठ से कहा–‘चले जाओ यहाँ से इसी क्षण | मेरी समस्या का समाधान करना तुम्हारे सामर्थ्य के बाहर है | पुनः यदि मेरे द्वार के सम्मुख तुम्हें देखा तो उसी क्षण मेरे गृह से तुम्हें विताड़ित करने को बाध्य हो जाऊँगी |’
गृहस्वामिनी की तिरस्कार भरी बातें सुन कवि नतमस्तक अपने कक्ष में लौट आए | पर उनके हृदय की व्याकुलता और बढ़ गई | आँखों से निद्रा जैसे कोसों दूर चली गई | जो पीड़ा उन्होंने गृहस्वामिनी की आँखों में देखी थी, उससे वह परिचित थे | वह सृजन की पीड़ा थी | रमणी केवल सुंदरी नहीं विदुषी भी थी | यह सोचते हुए कवि पुनः गृहस्वामिनी के द्वार पर वापस लौट गए | कुछ क्षण पूर्व किया गया अपमान वह भूला चुके थे | उन्हें सामने खड़ा देख रमणी दासी को पुकारने ही वाली थी कि कवि की आँखों का स्वच्छ, वासनाहीन अविचलित भाव ने उसे अपने निर्णय को बदलने के लिए बाध्य किया | कुछ सोच के उसने कवि को भीतर आने के लिए संकेत किया | आसन पर बैठने को कहकर उसने पूछा , ‘ब्राह्मण ,आप सत्य कहिए, आप कौन हैं ?’
— मैं एक आश्रयहीन असहाय पथिक हूँ ,देवी |
— क्या आप काव्य-रचयिता हैं ?
— मुझे कविता से प्रेम है | मैंने अपने युवावस्था में कई काव्य-ग्रंथ कंठस्थ किए थे | आप चाहें तो सुना सकता हूँ |
— यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है | अपना परिचय दीजिए | क्या आप कवि हैं ?
कवि ने झिझकते हुए कहा, ‘कुछ-कुछ लिख लेता हूँ एकाध छंद भी कभी मिला लेता हूँ |’
रमणी तब उदास होकर बोली, ‘तुमने सही समझा था | मैं एक समस्या का समाधान नहीं कर पा रही हूँ | पिछले तीन दिनों से एक श्लोक पूरी करने की कोशिश कर रही हूँ, पर सफल नहीं हो पा रही हूँ | क्या तुम इसे एक बार देखोगे ?
फिर उसने अपने श्लोक की पहली पंक्ति सुनाई –
‘‘कमलात् कमलोत्पत्ति: श्रुयते न च दृश्यंते….’
श्लोक का अंत होते न होते कवि के मुंह से दूसरी पंक्ति अनायास निकल आई –
‘बाले तव भुखांभोजे कथम इन्दिवर द्वय !’
यह क्या ? वीणापाणि (सरस्वती) की वीणा का अपूर्व झंकार है क्या ? गृहस्वामिनी को ऐसा ही लगा | कुछ क्षण निस्पन्द, निर्वाक वह देखती रही कवि को | प्रौढ़ता के बावजूद कवि की आँखों की द्युति, प्रशस्त ललाट, घुँघराले केश, तीक्ष्ण नासिका और सौम्य मुखमंडल एक असहाय आश्रयहीन पथिक का नहीं बल्कि कुछ और ही परिचय दे रहा था | काव्य का यह सुललित वाक्य-विन्यास वीणा की झंकार से कम न था | उसने पुनः कवि से कातर अनुरोध किया –‘पुनः आवृत्ति करो |’
कवि के मधुर पर गंभीर स्वर में श्लोक पुनः ध्वनित हुआ –
‘कमलात् कमलोत्पत्ति: श्रुयते न च दृश्यंते |
बाले तव भुखांभोजे कथम् इन्दिवर द्वय !!’
उत्तेजना से भरकर वह बारंबार श्लोक की आवृत्ति करने लगती है | वह इतनी प्रसन्न हुई कि कवि को धन्यवाद देना भी भूल गई | ऐसे में कब कवि कक्ष त्यागकर अपने कक्ष में जाने के लिए रवाना हुए, रमणी को पता भी न चला | जब श्लोक कि पूर्ति की उत्तेजना थोड़ी कम हुई, रमणी को कुछ स्मरण हो आया | वह त्वरित गति से सीढ़ी उतरकर अपने अतिथि के पास पहुँची और पूछी, ‘अतिथि, हो न हो कोई बड़े कवि हो, मुझे इतना बता दो श्लोक को इतनी शीघ्रता से तुमने कैसे पूरा किया ?’
कवि ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘पृथ्वी पर सर्वाधिक सुंदर भाव क्या है, जो किसी को कवि बना दे ?’
— रमणी ने आश्चर्य से भरकर पूछा, ‘क्या है ?’
— कवि ने द्वार बंद करते हुए कहा, ‘प्रणय !’
× × ×
रमणी अपने कक्ष में लौट आई थी ,काफी समय बीत चुका था | उसके मन में उथल पुथल मची हुई थी | एक अशुभ चिंता जन्म ले रही थी उसने सोचा , कल सिंहल राजसभा में राजकवि का निर्वाचन है | इतने महीनों से इसी की तैयारी में मैं लगी हुई थी, श्रेष्ठ श्लोक जिसका होगा ,कल उसी का राजकवि के रूप में चयन होगा | आज मेरे जिस श्लोक को मेरे आश्रित अतिथि ने पूरा किया है ,उसकी तुलना हो ही नहीं सकती | इसलिए कल के सभा में मेरी जीत निश्चित रूप से होगी | परंतु यदि यह विदेशी कवि ही वहाँ उपस्थित हो जाए, उसकी प्रतिभा के आगे सब फीके पड़ जाएंगे | मैं भी अपने श्लोक को अपना कह नहीं पाऊँगी | हो न हो, मेरा यह अतिथि कल की प्रतियोगिता में भाग लेने ही आए हैं |
एक अज्ञात भय ने रमणी के हृदय के स्पंदन को तेज कर दिया |
‘हाँ, मैं अपने अतिथि को उसके कक्ष में ही बंद करके बाहर से सांकल चढ़ाकर राजसभा चली जाऊँगी | उन्हें कल भर के लिए घर पर ही आराम करना पड़ेगा |’ यह सोचते ही रमणी का सुंदर मुखमंडल कुटिल मुस्कान से क्षण भर के लिए विकृत हो उठ| |
तभी सामने दर्पण में अपनी छवि देख वह चौंक उठी| “छिः! छिः! यह कैसे बुरे विचार आ रहे हैं मेरे मन में! उसका प्रभाव मेरे चेहरे पर भी पढ़ रहा है |”
पर फिर भी दूसरे ही क्षण पुनः राजकवयित्री बनने का स्वर्णिम स्वप्न उसके विवेक को ग्रास करने लगा | इस प्रकार शुभ और अशुभ का द्वंद्व मन में लिए वह अपनी शय्या पर लेट गयी और कब उसकी आँखें बंद हो आई, उसे पता भी न चला |
बंद आँखें और विचलित हृदय दोनों नें मिलकर कुछ सुखद दृश्य रचे जो इस प्रकार थे | रमणी अपने गृह में नहीं, राजभवन के नन्दन-कानन में घूम रही थी | वह अब केवल राज्य की राजनर्तकी नहीं थी, राज्य द्वारा निर्वाचित राजकवयित्री रत्नमाला थी | उसके पास अब धन, मान, यश किसी वस्तु की कमी नहीं थी | पर अब भी वही एक समस्या थी | जब भी कोई श्लोक पूरा करने बैठती, अंतिम पंक्ति में आकर रुक जाती | वह अपरिचित कवि की तरह कुछ रचना चाहती | पर अंतिम पंक्ति में वह इप्सित काव्य-सौन्दर्य या रस व्यक्त नहीं हो पाता | आज भी वह उन्माद की भांति अंतिम पंक्ति के सटीक शब्दचयन में लगी हुई थी पर उसकी आँखें बारंबार किसी को खोज रही थी, संभवतः कवि को | तभी पीछे से किसी ने उसके कंधे की धीरे से स्पर्श किया | चौंक कर उसने पीछे देखा, तो उस अपरिचित कवि को खड़ा पाया |
— कविवर ! आपकी ही खोज में लगी थी मेरी आँखें, मेरी सहायता कीजिए |इस श्लोक का पादपूरण कीजिए|” कहकर उसने भोजपत्र पर अधूरा श्लोक दिखाया |
— मुझे क्या दोगी ?
— स्वर्णमुद्रा, आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र, जो चाहिए |
— देवी, तुम अपूर्व रूपवती हो, कुशल नर्तकी, काव्य प्रतिभा भी कुछ है, पर तुम्हारे पास हृदय नहीं है | तुम मस्तिष्क का प्रयोग अधिक करती हो हृदय का नहीं |
–हृदय नहीं तो हर्ष, विषाद, भय ये भाव कैसे आते हैं ? कवि नें हँसते हुए कहा, “हाँ, पर प्रणय का अभाव है | रमणी, तुमने कभी प्रेम नहीं किया |”
रमणी इस वाक्यवाण को सह नहीं पाई और विषाद और क्रोध दोनों से भरकर जैसे ही मुड़ी, आँखें खुल गयी और निद्रा टूट गई | आँखों में अश्रु भरकर वह स्वप्न के बारे में सोचने लगी | सच ही तो है, उसके जीवन में सारे भाव हैं, पर प्रेम का सदैव अभाव रहा है |
× × ×
स्वर्णपुरी सिंहल की सुविख्यात राजधानी श्रीलंका के राजदरबार को आज विशेष रूप से सजाया गया है | श्रेष्ठ कवि या फिर कवयित्री का सम्मान आज किसे मिलेगा, यह जानने के लिए राजधानी के हर नागरिक के मन में अनंत कुतूहल की लहरें हिलोरें मार रही थी | विजय-माला जिसे मिलेगी आगामी एक वर्ष के लिए राजकवि या कवयित्री बनकर राजभवन में ही निवास करेंगे वे | धन ,सम्मान ,यश सब मिलेगा उन्हें | अतः आज देश-विदेश के अनगिनत कवि उपस्थित हो चुके हैं वहाँ, स्वरचित काव्य-पाठ के लिए | इस वर्ष इस समागम में एक विशेष आकर्षण यह है की पहली बार राज्य की राजनर्तकी ,एक अपरूप सुंदरी स्त्री इस काव्य-प्रतियोगिता में भाग ले रही है | इससे पूर्व किसी स्त्री ने कभी इस समारोह में भाग नहीं लिया था |
धीरे-धीरे एक-एक कर सभाकक्ष में सभी कविगण अपना-अपना आसन ग्रहण कर चुके हैं | भारतवर्ष से ही सर्वाधिक कवि आए हैं | इनमें से कई अत्यंत प्रतिभाशाली एवं विख्यात हैं | तभी घोषक सिंहलराज कुमारदास रत्नालंकारा के सभाकक्ष में प्रवेश की घोषणा करता है | महाराज के आसन ग्रहण करने के पश्चात आरंभ हुआ मंगलाचरण | मंगलाचरण समाप्त होने पर सभा का कार्यक्रम आरंभ हुआ | पहले गत वर्ष के राजकवि ने अपनी विदाई पर भाषण दिया और महाराज के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया | फिर धीरे-धीरे प्रत्येक कवि ने अपने-अपने काव्य का वाचन किया | सभाकक्ष में जैसे एक के पश्चात एक शब्दों की रंगोली बनाई जा रही थी | सुमधुर शब्दों की झंकार से झंकृत होने लगा था सभास्थल | राजसभा में उपस्थित प्रत्येक नागरिक श्रोता एवं कविगण भी काव्य की रसधारा में अवगाहन करने लगे |
इसी सभा के एक ओर अब तक नीरव बैठी थी हमारी परिचित गृहस्वामिनी, राजनर्तकी तथा कवयित्री देवी ‘रत्नमाला’ | घोषक ने अंतिम प्रतियोगी के रूप में उनके नाम की घोषणा की तथा उनका परिचय यूं दिया –‘अब अंतिम प्रतिभागी के रूप में अपना काव्य-पाठ करने आ रही हैं, सिंहल राज्य की अपरूप सुंदरी, सर्वजनप्रिय, नृत्य-गीत में कुशल, विदुषी, काव्यप्रिया, सुरसिका ‘रत्नमाला देवी’ | सभाकक्ष करतल ध्वनि से मुखरित हो उठा | देखा गया उसकी काव्यप्रीति के बारे में वहाँ के नागरिक भी जानते थे |
रमणी धीरे-धीरे अपने सुमधुर कण्ठ से काव्य का पाठ करने लगी | सभाकक्ष बिल्कुल निस्तब्ध! श्लोक के एक-एक शब्द नहीं जैसे वीणा के तारों का झंकार था | तो क्या यह रमणी ही होगी इस वर्ष की राज-कवयित्री ? उपस्थित सबके मन में चरम उत्सुकता विराज रही थी | राजा की घोषणा के लिए सभी प्रतीक्षा कर रहे थे | तभी राजा सिंहासन त्यागकर उठ खड़े हुए और उत्तेजित स्वर में बोले, ‘भद्रे! कृपया और एकबार श्लोक की पंक्तियों का वाचन करें |’
रत्नमाला ने राजाज्ञा मानकर पुनरावृत्ति की | राजा ने पुनः उसे वही करने की कहा | अबकी बार थोड़ा भयभीत होकर रत्नमाला ने श्लोक की पुनरावृत्ति की | फिर राजा ने स्वयं पाठ किया –
‘कमलात् कमलोत्पत्ति: श्रुयते न च दृश्यंते |
बाले तव भुखांभोजे कथम् इन्दिवर द्वय !!’
‘देवी, यह किसकी रचना है ? सत्य कहिए | क्या वास्तव में आपने इस श्लोक की रचना की है ?’
रत्नमाला के मुखमंडल का मानो रंग उड़ गया | ऐसा प्रश्न कोई कर सकता है, इसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी नहीं की थी |
राजा ने पुनः प्रश्न किया– ‘आप नीरव क्यों हैं? बोलिए भद्रे, यह श्लोक आपके द्वारा रचित है ? इसका पादपूरण क्या आपने किया है?
रत्नमाला ने किसी तरह कहा, ‘मैंने ही किया है महाराज | पर क्यों ?’
राजा ने संदेह व्यक्त करते हुए कहा, ‘पर यह कैसे हो सकता है | असंभव ! आपके श्लोक में जैसे प्रतिध्वनित हो रही है उनकी वाणी! उनकी असाधारण प्रतिभा! आप सत्य कहिए, क्या पंक्तियां आपके द्वारा रचित है ?’
कवयित्री के चेहरे और भंगिमा में निराशा के चिह्न उभर आए | पर उसने छिपाते हुए क्षीण कण्ठ से कहा, ‘यह मेरी ही रचना है | पर क्या मैं जान सकती हूँ कि महाराज को संशय क्यों हो रहा है ?’
राजा ने उत्तेजित स्वर में कहा, ‘ऐसा अभिनव श्लोक, विशेषतः अंतिम पंक्ति, जिसे पादपूरण कहा जाता है, मेरे मित्र भारत के कवि-सम्राट का ही प्रयास हो सकता है | यह शैली मेरी अत्यंत परिचित है और वे ही ऐसी रचना कर सकते हैं –
‘बाले तव भुखांभोजे कथम् इन्दिवर द्वय !!’
उनसे जब अंतिम बार उज्जयिनी में मेरी मुलाकात हुई थी, मैंने उन्हें कम से कम एक बार मेरी सभा में आने के लिए आमंत्रण दिया था | उन्होंने कहा था कभी वैसी आवश्यकता पड़े कि मातृभूमि त्यागना ही पड़े तो अवश्य मेरे यहाँ ही आएंगे | हाय ! एकबार यदि उनके दर्शन मिल जाते तो मेरी अब तक की प्रतीक्षा सफल हो जाती !’
सिंहल-राज कुमारदास की काव्यप्रीति सर्वविदित थी | वे केवल काव्य-रसिक ही नहीं थे, स्वयं भी सिंहल के एक ख्यातिमान कवि थे | उनके द्वारा रचित ‘जानकी-मंगल काव्य’ के कारण उन्हें अत्यधिक ख्याति एवं प्रशंसा मिली थी | राजा के हर शब्द में वेदना का प्रकाश था | ऐसा लग रहा था जैसे उनकी आशा; हताशा में परिणत हुई | फिर भी अपने को संभालते हुए उन्होंने कहा, ‘भद्रे, जब आप बार-बार कह रही हैं तो फिर आपने ही इसकी रचना की होगी | मुझे ही संभवतः समझने में कहीं भूल हुई है | आप ही अगले एक वर्ष के लिए राजकवि का आसन अलंकृत करेंगी|’
यह सुनते ही रत्नमाला और अपने आप को रोक न पायी | अपने मिथ्या भाषण के कारण उसका हृदय ग्लानि से भर उठा था | उसे लगा प्रौढ़ कवि का वचन ‘तुम्हारे पास हृदय नहीं है’,सत्य हो गया | उसका हृदय उसे धिक्कारने लगा | वह विदुषी थी, काव्य के प्रति एक तीव्र आकर्षण था उसके मन में | राजनर्तकी के रूप में, स्त्री होने का सम्मान जिसे एक दिन के लिए भी मिला नहीं था,वही सम्मान, एक कवि के रूप में अपने-आप को प्रतिष्ठित कर वह लोगों के आँखों में देखना चाहती थी| पर राजा की आँखों में वह अविश्वास, संशय देखकर उसे इतनी ग्लानि हुई कि वह पश्चाताप की अग्नि में झुलसने लगी | अनजाने में उसने एक बड़ी भूल कर दी थी | वह व्यक्ति जो एक महाकवि था, कवि-सम्राट था, सिंहलराज जैसे कवि और काव्य-प्रेमी जिसके दर्शन के इतने दिनों से अभिलाषी थे, उसने अज्ञानता के अंधकार में, लोभ के वश में आकर उस महाकवि को ही चारदीवार के बीच बंदी बना रखा था और उसी की काव्य-पंक्ति को अपनी कहकर मिथ्या- भाषण कर रही थी|
रत्नमाला अपने को और न रोक पायी | उसने सिंहलराज के समक्ष पिछली रात की सारी घटनाओं का वर्णन किया और कवि द्वारा श्लोक के चाहपुरण की वास्तविक कहानी सभी को बताई | यह सुनकर सिंहल-राज की मन की अधीरता कई गुणा बढ़ गई | उन्होंने कहा,‘प्रतिहारी, सर्वप्रथम नगर द्वार बंद कर दो | मंं आज कवि-सम्राट के दर्शन कर पुनः धन्य हो जाऊंगा | वह मुझे पुनः छोड़कर न चले जाएँ| महामंत्री आप शीघ्र कवि को सम्मानित करने की सारी तैयारियां शुरू कर दीजिए | मैं स्वयं जा रहा हूँ उन्हें ले आने के लिए | अगले एक वर्ष क्यों, भारत के सर्वकालीन श्रेष्ठ कवि को मैं कई वर्षों तक यहाँ से जाने नहीं दूंगा|’ सिंहलराज का कंठ भावावेग से थरथरा रहा था |‘आज सिंहल और सिंहलवासी दोनों धन्य होंगे–’ यह सोचते हुए रत्नमाला को साथ लेकर रथ पे चढ़कर वे उसकी अतिथिशाला में पहुंचे |
अतिथिशाला के कक्ष का द्वार बंद था | वह अज्ञात कवि किसी तरह राजसभा में न पहुंचे, इसकी पूरी व्यवस्था रत्नमाला ने राजसभा जाने से पहले की थी | ताकि विजयमाला उसी के गले में पड़े | कक्ष का हर गवाक्ष भी बंद था | बाहर एक प्रहरी खड़ा था | राजा ने गंभीरतापूर्वक प्रहरी को द्वार खोल देने के लिए कहा | भयभीत प्रहरी ने शीघ्रता से द्वार खोला | बाहर से सूर्य की किरणों ने राजा और रत्नमाला के साथ कमरे में प्रवेश किया |
सबने देखा कक्ष के बीच शय्या पर सोए हुए हैं वह अपरिचित अतिथि | आँखें बंद !! चिरशांति की गोद में जैसे आश्रय लिया था उन्होंने | उनके समस्त मुखमंडल पर एक शांति और संतुष्टि की आभा जैसे छाई हुई थी, और वक्ष पर रखी थी एक पाण्डुलिपि, जिस पर मोती जैसे हस्ताक्षरों में लिखा हुआ था–
‘रघुवंशम्
श्री श्री कालिदास विरचित् |’
****
प्रोफेसर सोमा बंद्योपाध्याय,
वाइस चांसलर
वेस्ट बंगाल युनिवर्सिटी आफ टीचर्स ट्रेनिंग, एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन।
इसके पहले हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय की अध्यक्षा तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय की कुलसचिव रही है। विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में
हिन्दी, बांगला एवं अंग्रेज़ी में कहानियाँ प्रकाशित। ” सदी का शोकगीत” ( हिन्दी), “कोलाज” ( बांगला) कहानी संग्रह प्रकाशित। अनुवाद के लिए 2013 साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad