(सुरेश सेन निशांत)
दूसरी बात यह कि इस सदी को बाजार ने गहरे प्रभावित किया इस बाजार की खासियत यह रही कि यह अब आपके घर में यहाँ तक कि शयन कक्ष में भी प्रवेश कर गया – इस बाजार समय में हर चीज बेची और खरीदी जाने लगी। इस बाजार ने जो सबसे नाकारात्मक काम किया वह कि उसने मूल्यों की जगह पैसे को स्थापित किया। अब पैसा ही सबसे बड़ा मूल्य था। यह तथ्य है कि साहित्य अनगिनत समय से मूल्यों को बचाने के लिए लड़ रहा है – इस सदी में भी मूल्यों के बचाने की लड़ाई उन कवियों ने ही पुरजोर तरीके से लड़ी जो अपनी जमीन और अपनी माटी से जुड़े हुए थे। इस बाजार ने कुमार विश्वास जैसे बिकाऊ और तथाकथित सेलिब्रिटी कवियों को पैदा किया तो उस बाजार के दबाव ने ही केशव तिवारी, कुमार अनुपम, मनोज कुमार झा और अदनान काफिल दरवेश जैसे कई प्रतिबद्ध कवियों को भी जन्म दिया। यहाँ कवियों की भी दो जमात देखी जा सकती है – एक जिन्हें बाजार ने अपने जैसा बना दिया और दूसरे जो इस बाजार और बाजारवाद के खिलाफ आद्यन्त लड़ने के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं।
सोशल मिडिया का आना इस सदी की एक खास परिघटना है। कविता के संदर्भ में यह और अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह अभिव्यक्ति के एक सहज उपलब्ध माध्यम के रूप में विकसित हुआ। हमारी पीढ़ी ने जब लिखना शुरू किया था तो इस तरह के सहज उपलब्ध मंच नहीं थे इसलिए हमें कविताएँ छपने का महीनों इंतजार करना पड़ता था – साथ ही कविताओं को टाइप कराकर डाक से भेजना भी एक श्रमसाध्य और खर्चीला काम था – शायद यही वजह था कि कविताएँ लिखने के बावजूद मैंने किसी पत्रिका को कविता न भेजी। यह तभी संभव हो पाया जब मैं बेरोजगार न रहा। बाद में सोशल मिडिया से जुड़ाव हुआ – अपने संकोची स्वभाव के कारण जिन कवियों से मैंने बातें तक न की थीं उनसे बात भी हुई। मुझे याद आता है कि राजेश जोशी, उदय प्रकाश, कुमार अंबुज आदि वरिष्ठ कवियों से पहली बार मेरी बात सोशल मिडिया पर ही हुई। यह सोशल मिडिया का एक साकारात्मक पहलू जरूर है लेकिन इस मिडिया ने कवियों की बाढ़-सी ला दी, इस बाढ़ में कचरे के ढेर अधिक इकट्ठे हुए। तुरत प्रतिक्रिया को भी कविता कहा और माना जाने लगा – सोशल मिडिया ने कवियों को जरूरी धैर्य और आवश्यक मिहनत से दूर किया। लोगों ने अपने-अपने ब्लॉग बना लिए और कुछ भी लिखकर स्वयं को कवि मानने लगे। कई लोगों ने तो अपने नाम के आगे कवि को श्री और श्रीमती की तरह जोड़ लिया। कुल मिलाकार यह कि कविता लेखन के लिए जिस गंभीरता, दायित्वबोध और धैर्य की जरूरत होती है – सोशल मिडिया ने उसको नष्ट किया। लेकिन मेरे जैसे संकोची और चुपचाप रहने वाले लोगों के लिए इस मिडिया ने यह किया कि हमें एक बड़े पाठक वर्ग से जोड़ा। हमारे अंदर के डर और उपेक्षाबोध को तिरोहित कर इसने हमारे अंदर आत्मविशावास भरा। इसे इस तरह से भी देखे जाने की जरूरत है।
सोशल मिडिया की बदौलत ही कई लोगों ने कविता पर हाथ आजमाना शुरू किया – कुछ लोग जिनकी कविताएँ अपनी डायरी तक ही सीमित थीं वह अब फेसबुक और ब्लॉग पर चमकने लगीं। इसके कारण कविता और कवियों की एक बहुत ही नई और अभूतपूर्व पीढ़ी सामने आई – जाहिर है कि इनमें कई लोग ऐसे हैं जिन्हें रेखांकित भी किया गया। वीरू सोनकर, रश्मि भारद्वाज, कल्पना झा और शायक आलोक जैसे कवि पहले फेसबुक पर छपे बाद में इन्हें पत्रिकाओं में जगह मिली- यह चमत्कार से कम नहीं था।
इन कवियों की भीड़ में कुछ ऐसे कवि भी सामने आए जिनके पास अपनी माटी की गंध थी – जिनके पास अपने लोक-अनुभव का एक समृद्ध संसार था। इन कवियों ने अपने लोक अपनी माटी और अपने लोक को कविताओं में जगह दी। मिथिलेश कुमार राय गाँव में रहते हुए जमीन से जुड़ी कविताएँ लिख रहे हैं – नील कमल ने भी लोक जीवन को आधार बनाकर कुछ अच्छी कविताएँ लिखी हैं – ये ऐसे कवि हैं जिके पास अपनी जमीन है ये शब्दों के मार्फत कोई पहेली रचने वाले कवि नहीं हैं और न ही बुझव्वल बुझाने वाले अतिशय कलावादी कवि। ये ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं जमीन से पैदा होकर आसमान को संबोधित हैं। ये अंग्रेजी साहित्य घोंटकर विश्व कविता की उल्टी करने वाले कवि तो कतई नहीं हैं।
यहाँ यह फिर दुहराने की जरूरत है कि जिन युवा कवियों के पास अपनी जमीन है उनके पास एक खास तरह की विचारधारा भी काम कर रही है – अनुज लुगुन की कविताओं की पहचान इसलिए है कि वे आदिवासी समाज के प्रतिनिधि युवा कवि के रूप में सामने आते हैं, उसी तरह केशव तिवारी, महेश चंद्र पुनैठा, बहादुर पटेल, सिद्धेश्वर सिंह जैसे कवि अपनी लोक संपृक्ति के कारण लोकप्रिय और विश्वसनीय कवि बन सके हैं। यहाँ इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि कवियों की एक पीढ़ी ऐसी भी है जो कला का इस्तेमाल कर कालजयी कविताएँ लिखने के लिए मरी जा रही है – यह ऐसे कवियों की जमात है जिसके लिए घनानंद कह गए हैं – लोग हैं लागि कवित्त बनावत। तो यह पीढ़ी शब्दों के पैंतरे और कहन की अद्वितीयता सिद्ध करने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगाए दे रही है लेकिन इन्हें कौन समझाए कि ‘ट्रू’पोएट्री के लिए खुद भी ‘ट्रू’ होना पड़ता है। अपने व्यक्तिगत जीवन में इमानदार हुए बिना, संसार को सुंदर बनाने की विचारधारा को खून में शामिल किए बिना बड़ी कविता लिखी ही नहीं जा सकती।
यह ठीक है कि कला का प्रथम लक्ष्य आनंद प्रदान करना है – लेकिन आनंद और मनोरंजन ही कला का अंतिम उद्देश्य मान लेना कला को सीमित और संकुचित बना देना है। ठीक उसी तरह कला को सिर्फ विचारधारा का वाहक बना देना भी खतरनाक है। कविता अन्य कलाओं से इस मायने में भिन्न है कि वह बहुत जल्दी हृदय में प्रवेश करती है और उसका असर भी तीव्र होता है – क्या यही कारण नहीं है कि पुराने जमाने में जब योद्धा थककर निराश हो जाते थे तो कविता उनमें नए जोश और उमंग का संचार करती थी – यह एक अटपटा उदाहरण भले हो लेकिन इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि संगीत और नृत्य या पेंटिंग और फिल्म से अधिक ताकत कविता में है। यहाँ यह भी कहना जरूरी लगता है कि कविता जब इतनी ताकतवर विधा है तो उसे सकारात्मक प्रतिरोध और रचनात्मक आन्दोलन का हथियार जरूर बनाया जा सकता है। लेकिन कविता यह काम तभी करेगी या कर सकती है जब वह ईमानदार हृदय से निकले और आम लोगों तक इसकी पहुँच बने।
लेकिन यह कविता का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि नई सदी की चकाचौंध रोशनियों और तेजी से बदलते हुए समय के बीच जोर-जोर भागते आम मनुष्य के बीच कविता के लिए बहुत ही कम जगह बची है। यह जरूर है कि सोशल मिडिया के आगमन के बाद एक नए तरह का पाठक वर्ग पैदा हुआ है लेकिन वह भी कितना गंभीर है यह विमर्श का मुद्दा है। रही बात आलोचकों के बीच नई सदी की कविता के मूल्यांकन की तो यह काम एक तरह से अनछुआ ही है। अकादमिक तबके के लोग निराला और केदार से होते हुए कुछ एक स्वनामधन्य कवियों तक ही पहुँच पाए हैं। कवियों की एक बड़ी जमात है जो चुपचाप अपना काम कर रही है लेकिन वह लगभग अनालोचित ही है। यह व्यर्थता की बात नहीं है। अनोलोचित होकर न कवि व्यर्थ हो सकता है और न कविता। उसी तरह किसी कवि या कवियों की जमात का मुल्यांकन न कर भी आलोचना व्यर्थ नहीं। आलोचना के पास और भी जरूरी काम हो ही सकते हैं लेकिन अब डेढ़ दशक के बितने के बाद नई सदी की कविता का समग्र मूल्यांकन होना चाहिए और यह इस तरह होना चाहिए कि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय। निश्चय ही यह कार्य एक जरूरी इमानदारी की माँग भी रखता है।
आलोचक और आलोचना के बिना भी कविता की जो जगह समाज में है वह बनी ही रहेगी। जिस तरह हम रोना और हँसना नहीं छोड़ सकते उसी तरह कविता के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता है – कविता समाज में कई-कई शक्लों में मौजूद है – कहीं प्रत्यक्ष तो कही परोक्ष रूप में। किसी समाज में कविता का बचा होना मनुष्यता के बचे रहने का प्रमाण है यह बात हमें याद रखनी चाहिए।
सच कहा कविता बची रही है स्वार्थ और स्वार्थगत बाज़ार में तो तय है कि जीवन के साथ सच्ची कविताएँ भी बची रहेंगी… I
सच्ची कविता लिखने के लिए कवि को सच्चा होना ज़रूरी है.. सारगर्भित और सुंदर आलेख. बधाई बिमलेश भाई