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Home कविता

अंकिता रासुरी की लंबी कविता

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
A A
2
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 अंकिता रासुरी उन कुछ युवतर कवियों में हैं जो अनुभव और स्मृतियों को उम्दा कविता में ढालती हैं। इस प्रक्रिया में वे जाहिर तौर पर अपने अध्ययन और चिंतन का भी इस्तेमाल करती हैं – इसी कारण यह नोट किया जाना चाहिए कि इनकी कविताओं में जरूरी इमानदारी बची रहती है। ये ऐसी कवि हैं जो कविता को अपने भीतर छुपाकर रखती हैं, उसे पालती-पोसती हैं और ठीक समय पर उसे दर्ज करती हैं। कविता के प्रति यह बर्ताव जब दुर्लभ होता जा रहा है, अंकिता रासुरी की कविताओं को पढ़ना हमें एक अलग तरह के उद्वेलन से भर देता है।

इस कवि की कविताएँ पहले भी हमने अनहद पर पढ़ा है – यहाँ उनकी एक लंबी कविता पक्षधर से साभार प्रस्तुत की जा रही है।
सपनों का अधूरा इतिहास
मेरे खत्म होने से पहले तुम यहाँ नहीं हो
मैं मर जाना चाहती हूँ
एक बार फिर तुम चले गए
फिर कभी नहीं आओगे लौटकर जिंदगी में 
और अब मैं भी इस दुनिया में लौटकर नहीं आना चाहती
उफ्फ पर मैं किसी के लिए मरना क्यों चाहती हूँ?
मैंतो बस होजाना चाहती हूँ प्रेम कविता…
पर मैं अभी अपने जंगल में नहीं
शहरी बाग में हूँ
लोधी गार्डन की एक प्यारी शाम
नहीं, अभी शाम नहीं है
पर मेरे लिए तो शाम है
तुम मेरे ठीक बगल में हो,या हुआ करते थे, पता नहीं
देखो ना ये घुघूती आज भी यहाँ है
सामने गिरता हुआ फव्वारा देखती हूँ
अच्छा लगता है तुम्हारी काली देह की तरह
तुम याद आ रहे हो
तुम जी रहे हो, तुम मर रहे हो
एक ही साथ मेरे वजूद में
एक सूखा सा पत्ता फिर गिर आया है मेरे बालों के कोनों में
पर मेरे लंबे जुल्फ नुमा बाल तो नहीं
जो कोई इन्हीं में अटका रहना पसंद करे।
अभी एक देखी हुई फिल्म याद आ रही है
साथ-साथ याद आ रहा है और भी बहुत कुछ
तुम्हारे साथ प्रेम की एक लंबी दूरी
सिमटती क्यों नहीं?
देखो ना मैं जल रही हूँ
देखो ना मैं बुझ रही हूँ
देखो ना मेरी सांसे अटक रही हैं
फिर से एक बार मैं याद कररहीहूँ तुम्हें
तुम्हारे साथ गुजारे हुए एक-एक चुंबन मुझे जला रहे हैं
बच्चे आज भी खेल रहे हैं
छुट-पुट प्रेमी जोड़े बैठे हुए हैं
ये जी रहे हैं प्रेम
जो कभी नहीं होगा इतिहास में दर्ज
शायद ये नहीं जानते
कभी ये भी मेरी ही तरह बैठेंगे बिल्कुल अकेले
जो देखनहीं सकते एक बार भी मेरा बौरायापन
शायद मैं दो साल बाद लौटूं
और फिर कब पता नहीं।
तुम-तुम्हारी अपनी दुनिया
घर.. परिवार… इज्जत.. उफ्फ.. उफ्फ
नहीं… नहीं… नहीं ….
दुनियाएँ यूँ खत्म नहीं हो सकती
घसियारिनों के गीतों से जब भी होगा कोई कंपन
कोई झरना बह रहा होगा मेरे घर की ओर
और वो घर, घर नहीं होगा
पूरा जंगल होगा मेरे लिए
जहाँ झाडियों में ठहरी हुई बर्फ होगी
एक फूल रहेगा फ्यूँली का
जिसमें एक प्यारी सी लड़की रहेगी जिंदा हमेशा
अपने अनगढ़ प्रेम के साथ
खेतों में मैं रोपा करूंगी धान
इस दुनिया के लिए
बहुत कोलाहल है यहाँ जिंदगी का
हर ओर होगे सिर्फ तुम
मेरी उलझनें घटने-बढने लगेंगी
तुम पास होते हो
तोसिर्फ पास होते हो
और मैं मरती चली जाती हूँ इस दुनिया के लिए
क्योंकि मैं जी रही होती हूँ तुम्हारे लिए
फूलों की फसलें लह-लहा रही हैं
दूर से आता बसों का शोर छनता जा रहा है
मेरे कानों में वो डोखरों का पानी सनसना रहा है
तुम जानते हो ना
इन आवाजों से आजकल
मैं डरने लगी हूँ
मेरी दुनिया खत्म होने की कगार पर है
और मैं फिर से करने लगती हूँ प्रेम
मैं लौट रही हूँ
तुम मेरे बगल में हो
मैं तुम्हारे आलिंगन में
ठीक सामने के पेड़ के पीछे
फिर से है हमारा एक जोड़ी प्रेम
तुम आते हो
और फिर से चले जाते हो मुझे छोड़कर
अपनी दुनिया में
तुम्हारी यथार्थ की दुनिया
पर मेरी दुनिया का क्या
जो हो चुकी है यूटोपिया तुम्हारी ही तरह
मैं होती हूँ
तुम भी हर जगह होते हो
मेरी दुनिया फिर से लुटती–पिटती चली है कोसों दूर।
साँझ होते ही कंपकंपाने लगती हैं उँगलियां
मैं एक आकाश देखने लगती हूँ
उस आकाश के नीचे मेरे घर की छत है
फिर मैं देखती हूँ एकपहाड़ीचाँद
उसी चाँद के नीचे तुम भी कहीं होते हो
मैं दौड़ती हुई पकड़ लेना चाहती हूँ तुम्हें
डाँडों को पार करते हुए
चढ़ने–उतरने लगती हूँ खेतपहाड़
             
खेतों के पानी में उतर आता है वही चाँद
और मैं डूबने लगती हूँ, मैंधँसने लगती हूँ
मेरा रोपा हुआ धान नष्ट होने लगता है
और देखती हूँचाँद तो वहीं हैं, पहाड़ी के ऊपर
चीड़ पर लड़खड़ाता हुआ
मैं चढ रही हूँचढाइयाँ
चीड़ आने लगता है पास
औरचाँद दूर-दूर–दूर..
खेतों की मेड़ों पर उग आई है घास
फिर होने लगी है शाम
इस शाम के होने तक कुछ भी नहीं है पास
तुम आओ ना जिंदगी,
इतनी दूर क्यों हो ?
क्यों तुम्हारे सपने मेरे जागते ही आते हैं ?
मेरे सोने के बाद मरने लगती है नींद
बहुत से पंछी लौटने लगे हैं आकाश के विस्तार में
एक दुनिया फिर होने लगी है खत्म….
मैं होना चाहती हूँ जिंदगी, प्रेम
मैं होने लगी हूँ नौकरी…..
मैं तुम्हारे इंतजार में हूँ
तुम्हारे भी और तुम्हारे भी
न जाने क्यों कौवे भी अच्छे लग रहे हैं
घास में लिपटी मेरी देह पर
उग आया है एक फूल
इन फूलों में जंगल है
तितलियां हैं
सूखी पत्तियों की नुकीली धूप
फाल्गुन का महीना है और हल्की ठंड है।
तुम कहाँ हो
देखो ना वो फोटोग्राफर ले रहा है हमारी तस्वीर
अरे हाँ, तुम तो हो ही नहीं
तुम्हारी खाली जगह को मैं भर रही हूँ अपने ही सपनों से
तुम कोई बेनाम से पत्ते हो
और उसके फूल उग रहे हैं झाडियों में
उन झाड़ियों से कोई माँग रहा है तुम्हारे आंखों का स्पर्श…
नहीं…नहीं…वो चाहता है तुमसे और भी बहुत कुछ
उस बहुत कुछ में तुम भी शामिल हो
और तुम्हारे शब्द भी।
याद कर रही हूँ एक कवि के शब्द
और उन शब्दों से उतरता जीवन
जो गोल गोल घूमते हैं तुम्हारी ओर
तुम्हारी साँसे हर ओर जागती हैं
और फिर पानी गुजरता है मेरे कदमों को पार करते हुए
नदी तुम से बस कुछ कदम दूर रुक जाती है
तुम मुझ में होते हो
मुझमें घुलने लगती है तुम्हारी भिन्नता…
मुझे फिर इंतजार है शाम का
उस शाम को फिर पिघलने लगेगी आग
और उस आग से उगने लगता है फिर से एक जंगल
उस जंगल में आने लगती हैं हिलाँसों की छाँव
उस छाँव में फिर से होता चला जाता है विस्तार प्रेम का।
जिंदगी के साथ है माँ की जिंदगी भी
फिर भीमैं हौले से बिठा लेती हूँ
मौत को ठीक बगल में
और माँछज्जे पर बैठकर कर रही होती है इंतजार
मेरा सपना लेता जा रहा है विस्तार
घर से भागी हुई मैं कर रही हूँ इंतजार
उस प्रेम का
जो कभी लौट ही नहीं सकता
क्यों नहीं आ सकते तुम?
तुम्हारे वो विचार और तुम सच में कितने दूर हो मुझसे ?
और एक वो आदमी है
जो बेच रहा है चना मसाला
वो भी पहुंच जाना चाहता होगा शायद अपनी प्रेमिका के पास
या इसी तरह कहीं काम करती हुई पत्नी के पास
मिट्टी की नमी
फिर से देह को सोख रही है
मैं यहाँबैठी तुम में भर रही हूँरँग
और मेरा सपना फैलता जा रहा है
मैं डर रही हूँ जितने रँग बचे हैं कूचियों में
उतने तक ही ना सिमट जाए जिंदगी…
और तुम हो कि टहलते हुए करने लगे हो प्रवेश मेरे भीतर
खुद के लिए कोना तलाशने वाले
आज हम तलाशने लगे हैं जीवन।
तुम्हारी देह का स्पर्श आज भी यहीं है
यहीं है दुनिया और अनंत
प्रेम लेने लगता है आकार
और फिर आता है नौकरी का ख्याल
ठीक इसी वक्त था इंटरव्यू
और जेब में बचे हुए चंद नोट
मैं कुछ भी नहीं करना चाहती याद
पर माँ का इंतजार भरा चेहरा
भूला ही नहीं जा सकता…
लेकिन अभी मैं एक और दुनिया में हूँ
जो किसी भी वक्त हो सकती है खत्म
मैं बना रही हूँ धरती-आसमाँ
और दो चार चांद
जिसमें हम सो सकेंगे पलकों के बंद होने तक
और उन सपनों का एक अधूरा इतिहास है
जैसे कि युद्धों के बाद के दुखों से होता है पूरा
लेकिन उस इतिहास में क्यों दर्ज नहीं है कि
गिलहरियां भी इस सन् में
दौड़ती हुई प्रेम में मर चुकी हैं
इस इतिहास में सिर्फ राजा है
उसका जीना-मरना, हंसना-रोना
कुछ नहीं तो कम से कम सेक्सकरना
और उन स्त्रियों का क्या?
इस तरह मुर्दा लोगों से कब तक जिंदा रह पाएगा इतिहास?
ओह मैं तो भूल ही गई
मेरे पाँव के नीचे दबी जा रही है गिलहरी
और उस गिलहरी के पाँव में काँटा है
उस कांटे मैं है कोई पौधा
सब कुछ गडमडाता जा रहा है
दूर छप्पर पर लटक रहे हैं गुलदाउदी के फूल
और तुम बढ़ा रहे हो कदम उस से दूर
मैं तुम में हूँ और इन घुघूतियों में भी हूँ
मैं हूँ कि सिर्फ तुम्हें देख रही हूँ
कहीं कोई आवाज भी नहीं
पेड़ लौट रहा है
और उड़ रही है बारिश
और मैं जी रही हूँ
मैं सपने देख रही हूँ
सपनों की एक लंबी किस्त
सिकुड़ती जा रही है
तुम सब से आखिर में खड़े हो
दो कदम की दूरी पर ही..
मेरे कदम तुम तक नहीं हैं
तुम मुस्कुराते हो एक मीठी सी हँसी
एक लंबी साँस बन जाती है हवा
और तुम मुझे बेसाख्ता दौड़ाते हो
अब कुछ भी नहीं
इन परतों की दुनिया का भ्रमजाल है
ना तुम हो पाते हो मेरे एहसास
और ना मेरा एहसास ले पाता है साँस तुम में अब
पर तुम हो
अब तुम्हारी आँखें दौड़ रही हैं
मुस्कुरा रहीं हैं
एक लंबी उम्मीद जी रही हैं…
मैं हूँ कि, फिर भी तुम हो
और खूब बातें कर रही हूँ।
यहाँ बची हैं प्रेमियोंकी आहटें
और मैं तुम्हारे शब्दों को याद कर रही हूँ
मिट्टी से सने मेरे हाथों में उर्वरता की नई जमीन खड़ी है
और इसमें खूब टपकते हैं आंसू…
तुम आ चुके होगे नई दिल्ली स्टेशन
और मैं यहाँ बैठी हूँ…
फिर कोई आता है याद
मंडी हाउस में हाथ हिलाते हुए,
बेंच, डस्टबीन, फूल और लोग
क्या मैं यहाँभी हूँ?
तुम कहाँ हो?
लौट आओ ना
जिंदगी कह रही है अलविदा
पर अभी फ्यूलियाँ भी कहाँजी पाईं जी भर
मेरा दिल-मन सब कुछ बचे हैं थोड़ा-थोड़ा।
यहाँ कोई भी अकेला नहीं है
मैं भी नहीं
ये हवा-पानी अब कहाँ मुझे छोड़ते हैं अकेले
एक मन फिर से है परेशान
एक दुनिया पटरी पर लौट रही है
सिर चकरा रहा है
किसी की हँसती हुई आवाज
और बेतरतीब से तुम्हारे शब्द
कहाँ हो तुम
कह क्यों नहीं देते?
तुम यहाँ नहीं हो
मैं पागल होती जा रही हूँ
और तुम
तुम क्या हो बताओ ना ?
तुम्हारे काले चेहरे पर से चमकते दांतो की हँसी याद आ रही है
याद आ रहे हैं चढ़ते-उतरते खेत
और इन खेतों में बची है मेरी दुनिया 
मैं रो सकती हूँ बेतहाशा, पर अब नहीं
माँग सकती हूँ प्यार इन आंखों के लिए
पर दिल पर कोई स्पर्श नहीं।
पीले गुलाबों का रँग उड़ने लगा है  
मैं इस पर से उड़ा लेना चाहती हूँ शब्द
डरती हूँ मेरी जिंदगी तो नहीं हो जाएगी खत्म….
सपना गहराते-गहराते लोट-पोट हो जाएगा
मेरे शब्द बिखरने लगेंगे
और मैं शब्द भर ही तो रह गई हूँ
जो फिर गायब होकर रह जाएगीबस एक आवाज
जो खत्म नहीं होती
पर बचती भी तो नहीं
कि पहचान सके कोई एक लंबे होश में…
चीलें मंडरा रही हैं
और इन गाड़ियों की आवाज बादल बनकर उभर रही है
सपनों की दुनिया कहीं भीड़ हो चुकी है…
मैं लौट रही हूँ अपनी दुनिया में
इन पेड़ों पर प्रेमियों के नाम अब भी बचे हैं साथ-साथ
जो अब ना जाने हो चुके होंगे कितनी ही दूर
मैं परेशान हूँ उतनी ही
जितने कि तुम
तुम्हारे साथ गुजारा हुआ वक्त
साथ-साथ चलता चला जाता है
एक लंबी कतार में प्रेमियों की
और मैं इन सब से अलग हूँ
धूप-छाँव सब कुछ हैं यहाँ
और तुम भी
मेरा सिर भन्ना रहा है
सब कुछ चलता चला जा रहा है
मैं खत्म हो रही हूँ
हमारी दुनिया खत्म हो रही है
एक पूरी दुनिया, एक आधी दुनिया ।
तुम्हारे सपने, प्रेम, जिंदगी और कविता
सच में कैसे जिंदा हैं मेरे बगैर?
तुम्हारे साथ इस पत्थर पर गुजारा हुआ एक-एक दिन आता है याद
पर अबतुम खुद दरख्त बन चुके हो
एक सूख चुके दरख्त…
मैं भी अब इस पत्थर से उठकर जाने लगी हूँ
पर अब मैं रो नहीं रही
बस उदास हूँ…..।
***
अंकिता रासुरी
पत्रकारिता में शोध कार्य
मो. नं.-8860258753
ईमेल-ankitarasuri@gmail.com
पता-सावित्री बाई फुले गर्ल्स हॉस्टल,
म.गां.अं.हिं.वि. वर्धा, महाराष्ट्र-442001

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 2

  1. praveen singh says:
    5 years ago

    खूबसूरत कविता है। पूरी इमानदारी से दर्ज किया गया एक बयान।

    Reply
  2. रेगिस्तानी चिट्ठियाँ says:
    5 years ago

    बेहतरीन रचना

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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