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मनोज कुमार पांडेय |
मेरे लिए वे कथाकार बाद में हैं – दोस्त पहले हैं। 2004 में दोस्ती तब शुरू हुई थी जब मेरी कहानी पढ़कर फोन किया। तब से कई मुलाकाते हैं और कई बाते हैं। लेकिन गौरतलब बात यह है कि इस बीच बंदे ने खूब उम्दा कहानियाँ लिखीं और चर्चित भी हुए। मुझसे एक कहानी का भी वादा था, जो आज एक बहुत उम्दा कहानी के साथ पूरा हो रहा है – और वादे और करार हैं वे भी पूरे होंगे। यह दोस्ती तो उम्र भर की है।
जेबकतरे का बयान
मनोज कुमार पांडेय
आप बहुत अच्छे आदमी हैं। अभी आपकी एक आवाज पर मेरा कचूमर निकल गया होता पर आपने बस मेरा हाथ पकड़े रखा। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि आप या तो लेखक हैं या पत्रकार। नहीं भी हैं तो आपके भीतर एक कलाकार का दिल धड़कता है। नहीं तो बताइए कि मैं आपका पर्स मारनेवाला था और आप मुझे यहाँ मेरी पसंदीदा जगह पर बैठाकर बीयर पिला रहे हैं। आपने एक थप्पड़ तक नहीं मारा मुझे। कैसे आदमी हैं आप? आजकल इतना भला आदमी होना भी ठीक नहीं।
वैसे आपने बहुत अच्छा किया जो वहाँ पर शोर नहीं मचाया। मैं भीड़ की तलाश में ही दिल्ली आया था। भीड़ बचाती भी है और भीड़ मार भी देती है। पूरे दो बार भीड़ बस मेरी जान ही ले लेने वाली थी। पहली बार इलाहाबाद में लक्ष्मी टाकीज में पर्स उड़ाते हुए पकड़ा गया। इतनी मार पड़ी कि महीनों उठने का होश नहीं रहा। पर इसी के साथ मेरा डर भी खतम हो गया। हमेशा के लिए। शुरू में बस एक दो मिनट तक दर्द हुआ, हालाँकि यह दर्द इतना भीषण था कि आज भी उसे याद करके काँप जाता हूँ। पर बाद में मैं किसी भी तरह के दर्द के एहसास से मुक्त हो गया। जब मुझे लोग लात घूँसों से मार रहे थे, मेरी हड्डियाँ तोड़ रहे थे तो मैं उन्हें उन्हीं नजरों से देख रहा था जिन नजरों से वहाँ मौजूद तमाशाई इस सब को देख रहे थे। बाद में तो खैर मुझे इसका भी होश नहीं रहा।
वह तो कहिए पुलिस आ गई नहीं तो आपको यह कहानी कोई और ही बैठकर सुना रहा होता। भीड़ का जवाब भीड़ ही होती है। वहाँ इलाहाबाद में इतनी भीड़ नहीं थी। भीड़ की तलाश में मैं मुंबई चला गया। मुंबई लोकल, जिसके बारे में मुंबई का एक अखबार पहले ही पन्ने पर एक कोना छापता है, कातिल लोकल के नाम से। जिसमें छपता है सात मरे, सत्रह घायल। उसी लोकल में मेरा कारोबार चल निकला पर जल्दी ही मेरे मौसेरे भाइयों ने मुझे पकड़ लिया और बहुत मारा। पिटना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी पर यह बात मुझे बहुत बुरी लगी कि वे मारते हुए मराठी में गालियाँ दे रहे थे। मुझे किसी ऐसी भाषा में गाली खाना बहुत बुरा लग रहा था जो मैं नहीं समझता था। मुझे पता होना चाहिए था कि मुझे कौन कौन सी गालियाँ दी जा रही हैं जिससे कि कभी मौका मिलने पर मैं उन्हें सूद समेत वापस कर सकता।
जब आप मेरे धंधे में होते हैं तो आपको हमेशा मौके की तलाश में रहना पड़ता है। और तब पता चलता है कि मौकों की कोई कमी नहीं है। हर कोई आपको मौका देना चाहता है। लोग बहुत दयालु हैं। वे नहीं चाहते कि आप भूखे रहें या कि दिन भर में आपको बीयर की एक बोतल तक नसीब न हो। जैसे अभी एक दिन सुबह से खाली हाथ भटक रहा था कि राजीव चौक में विज्ञापन के लिए लगाई गई एक स्क्रीन पर ब्ल्यू फिल्म चलने लगी। अब बताइए ब्ल्यू फिल्म आजकल कोई ऐसी चीज है जिसे यूँ देखा जाय पर लोग इस तरह से डूब कर देखने लगे कि जैसे जीवन में पहली बार देख रहे हों। कई तो वीडियो बना रहे थे। मैंने डेढ़ मिनट के अंदर दो लोगों की पर्स उड़ा ली।
इस धंधे में धैर्य सबसे जरूरी चीज है। जरा सी भी जल्दबाजी जानलेवा हो सकती है। मुझे भी यह बात धीरे धीरे ही समझ में आई। जब मैं इलाहाबाद से मुंबई के रास्ते दिल्ली आया तो दूसरी जो चीज मुझे साधनी पड़ी वह धैर्य ही थी। पहली चीज थी दिल्ली की मैट्रो। शुरुआत में मैट्रो मुझे किसी दूसरी ही दुनिया की चीज लगती थी। मैट्रो स्टेशन पर ऊँची ऊँची बिजली से चलने वाली सीढ़ियाँ मुझे डरा देतीं। बहुत पहले मैंने किसी अखबार में पढ़ रखा था कि दिल्ली एयरपोर्ट पर एक छोटी सी लड़की इन सीढ़ियों में फँसकर चटनी बन गई थी। मैं इन सीढ़ियों में अक्सर खुद को फँसा हुआ देखता और मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती। कँपकँपी होती। ऊपर से मुंबई और दिल्ली की भीड़ में भी बड़ा अंतर था। मुंबई में लोग जब भाग रहे होते तो लगता कि वह किसी का पीछा कर रहे हैं जबकि दिल्ली की भीड़ इस तरह भागती दिखाई देती जैसे उसका कोई पीछा कर रहा हो। खुशी की बात यह है कि मेरे लिए दोनों ही स्थितियाँ शानदार थीं। दोनों ही स्थितियों में मेरे जैसों पर कोई नजर भी नहीं डालता था।
मैं आपकी बात बात नहीं कर रहा हूँ। पर सच यही है कि मेरे जैसों पर कभी कोई ध्यान नहीं देता। आपको पता है, मैंने पीएचडी कर रखी है! कई प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होते होते रह गया। फिर करीब पंद्रह लाख रुपये उधार लेकर दरोगा बनने के लिए रिश्वत दी। रिजल्ट आता उसके पहले ही मामला कोर्ट चला गया। बीच में दो सरकारें आईं और गईं। अभी पता चला है कि फिर से परीक्षा ली जाएगी। मेरे पास इतना समय नहीं था। मैं उन लोगों से मुँह छुपाते हुए भाग रहा था जिनसे मैंने उधार लिया हुआ था। भागते भागते पहले मुंबई पहुँचा और फिर एक दिन दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरा एक दोस्त था जो एक राष्ट्रीय अखबार में मुख्य संवाददाता था और ऑफिस में बैठकर प्लास्टिक पीटा करता था। अभी थोड़ी देर में वह भी आ रहा होगा। बीयर पीने और मिलने बैठने के लिए यह जगह हम दोनों की फेवरेट है।
वह न होता तो मैट्रो मुझे और डराती। जब स्वचालित सीढ़ियों पर पाँव रखने में मैं हकबका रहा होता वह हाथ पकड़कर ऊपर खींच लेता। धीरे धीरे मुझे भी मजा आने लगा। बिना मेहनत किए ऊपर पहुँच जाना भला किसे नहीं अच्छा लगता। फिर तो लाइफ इन ए मैट्रो शुरू हो गई। भीतर तरह तरह के लोग थे। पूरी दुनिया को ठेंगे पर रखते हुए एक दूसरे में डूबे लड़के-लड़कियाँ, मैं उनमें अक्सर अपनी इच्छाओं को जी रहा होता। बुरे से बुरे समय में भी मैंने उन पर हाथ साफ करने की कोशिश कभी नहीं की। बल्कि कई बार तो मैं उन्हें छुप-छुपकर इतने लाड़ से देख रहा होता कि अपने असली काम पर से मेरा ध्यान ही हट जाता। पर धीरे धीरे मैंने खुद पर काबू पा लिया, शो मस्ट गो आन। तब जो दुनिया मेरे सामने खुली वह मुझे कई बार अभी भी अचंभित करती है।
मैट्रो में ज्यादातर लोगों को एक दूसरे से कोई मतलब नहीं था। हालाँकि वे एक दूसरे को देखकर मुस्कराते, आँखों में पहचान का एक हल्का सा इशारा उभरता और गुम हो जाता। इसके बाद तो कानों में ठुँसा हुआ स्पीकर था। तरह तरह का गीत-संगीत था, डांस था, शार्ट फिल्में थीं, कामेडी वीडियो थे, बाबाओं के प्रवचन थे, यू ट्यूब पर चलने वाले धारावाहिक थे और भी न जाने क्या क्या था। मैट्रो में घुसते ही लोग मैट्रो को भूल जाते थे और स्मार्टफोन में घुस जाते थे। मुझे बहुत दिनों तक इस बात पर भी अचरज होता रहा कि इसके बावजूद लोग उसी स्टेशन पर उतर पाते हैं जिन पर उन्हें उतरना होता है। जो लोग स्मार्ट फोन से बचे थे वे अमूमन अंग्रेजी की सस्ती किस्म की किताबें पढ़ते दिखाई देते। यह एक साथ अपने अंग्रेजी जानने का प्रदर्शन और सुधारने की कोशिश थी। चेतन भगत ऐसे लोगों का शेक्सपीयर था।
पर यह तो कमउम्र या कि युवाओं की बात थी। अधेड़ कई बार राजनीतिक चर्चाएँ कर रहे होते। एक राजनीतिक दल के सदस्य यात्रियों के रूप में मैट्रो में चढ़ते और जल्दी ही पूरे कोच को राजनीतिक अखाड़े में बदल देना चाहते। डिब्बे का तापमान बढ़ जाता। मेरे लिए ऐसी स्थिति हमेशा काम की होती जब लोगों के सिर गर्म होते। वे भी शिकारी थे, मैं भी। वे अनजाने ही मेरे संभावित शिकारों का ध्यान राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों पर ले जाते और लोग जूझने लगते। जब मैं अपना शिकार चुन रहा होता तो तो पाता कि कई और दूसरे भी शिकार में लगे होते। कई अधेड़ इस तरह से मोबाइल में आँखें गड़ाए होते जैसे वह किसी बहुत गंभीर चीज में मुब्तिला हैं और उनकी स्क्रीन पर सामनेवाली लड़की की छातियाँ या टाँगें दिख रही होतीं। कई हाथों में माला फेर रहे होते और उनकी लोलुप निगाहें उन किशोर-किशोरियों पर फिसल रही होतीं जो पूरी दुनिया को भूलकर एक दूसरे में डूबे होते। इस सब के बीच कभी कभी दिखने वाले वे लोग बहुत ही पवित्र लगते जो प्रेमचंद, शरत या दोस्तोएव्स्की पढ़ रहे होते। मैं मौका पाकर भी उन्हें छोड़ देता।
दिल्ली मैट्रो का पूरा भूगोल समझ लेने के बाद मैंने राजीव चौक, कश्मीरी गेट, मंडी हाउस या इंद्रलोक जैसे एक्सचेंज स्टेशनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसके बाद इफ्को चौक, नोएडा सिटी सेंटर जैसी जगहें थीं। वे सारी जगहें मेरे काम की थीं जहाँ भीड़ थी और लोगों का ध्यान अपने से ज्यादा गाड़ी पकड़ने पर था। इसके बाद इसमें कोई अचरज की बात नहीं थी कि उनमें से किसी का पर्स मेरी जेब में पहुँच जाता। लोगों को तुरंत पता ही न चलता। कई बार पता चल भी जाता तो लोग इस तरह से ठसाठस भरे होते कि उसकी समझ में न आता कि वह किस पर शक करे। सबसे बुरी बात यह होती कि वे शक भी करते तो उन पर जो गरीब दिखते। मैं तो आप देख ही रहे हैं कि किस तरह से टिपटाप रहता हूँ। लोग धोखा खा जाते हैं। असल बात यह है कि वे धोखा खाते रहना चाहते हैं। वे खुद को बदलना नहीं चाहते।
इसके बावजूद कभी लगे कि शक मुझ पर भी जा सकता है तो सामने वाला अपना शक जाहिर करे उसके पहले ही मैं भी खुद को शिकार घोषित कर देता हूँ। सामने वाले ने जैसे ही कहा कि अरे मेरा पर्स कि पाँच सेकेंड बाद मैं भी चिल्ला पड़ता हूँ अरे मेरी घड़ी…। जबकि मैं घड़ी कभी पहनता ही नहीं। टाइम देखने का काम मोबाइल से चल जाता है। वैसे भी मेरे धंधे में टाइम का कोई वांदा नहीं। असली बात है धैर्य। बार बार टाइम देखने वाला तो शर्तिया पकड़ा ही जाएगा। पर कई बार मेरे जैसे लोग भी पकड़ ही लिए जाते हैं। आखिर आज आपने पकड़ ही लिया। यह अलग बात है कि आप बहुत ही शरीफ व्यक्ति हैं और मुझे बैठाकर बीयर पिला रहे हैं।
जानते हैं जैसे लोग तरह तरह के होते हैं वैसे ही उनकी पर्स भी। कामयाबी से हाथ साफ करने के बाद अगला काम पर्स को ठिकाने लगाना होता है। रुपये के अलावा उनमें तरह तरह के कार्ड्स, परिचय पत्र, तसवीरें, पते, फोन नंबर, कंडोम, आई पिल्स या अनवांटेड-72 जैसी गोलियाँ, शाम को घर ले जानेवाले सामानों की लिस्ट और कई बार चिट्ठियाँ भी। तमाम लोग अपनी अपनी आस्था के हिसाब से देवी-देवताओं की तसवीरें, तांत्रिक त्रिभुज या शुभ चिह्न रखते। तरह तरह के फूल, अभिमंत्रित धागे, कचनार या कि समी की पत्तियाँ। यह अलग बात है कि इसके बावजूद उनका पर्स मेरे हाथ में होता और मैं इन सबको निकाल बाहर करता। पर एक ऐसी चीज है जिसे मैं कभी नहीं फेंक पाता। तसवीरें फेंकते हुए मेरे हाथ काँपने लगते हैं।
आपको भरोसा नहीं होगा पर मेरे कमरे पर कई फाइलें उड़ाई गई पर्सों से प्राप्त तसवीरों से भरी पड़ी हैं। मुझे अपने कारनामों का हिसाब रखने का कोई शौक नहीं पर तसवीरें पता नहीं क्यों मैं नहीं फेंक पाता। नहीं मैं ईश्वर या देवी-देवताओं वाली तसवीरों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तो उन तसवीरों की बात कर रहा हूँ जो मेरे द्वारा शिकार किए गए व्यक्तियों के प्रिय व्यक्तियों की होती है। बच्चे, पत्नी, प्रेमिका, किसी दोस्त या फिर माँ या बाप की तसवीर। मैं उन तसवीरों पर वह तारीख और जगह लिखता हूँ जहाँ से वे मेरे पास आईं। खाली समय में मैं अक्सर उन तसवीरों को निहारते हुए पूरा पूरा दिन बिता देता हूँ। काश कि वह तसवीरें मैं कभी उन्हें वापस कर पाता जिन्होंने उन्हें सँजोकर रखा हुआ था। मैं भी उन्हें उतने ही प्यार से अपने पास रखना चाहता हूँ।
कई बार मैं उन तसवीरों में गुम होकर उदास हो जाता हूँ। कौन हैं वे लोग? उनका उस व्यक्ति से क्या रिश्ता रहा होगा जिनका मैंने शिकार किया। तब मेरे भीतर एक बहुत ही बेसब्र इच्छा जोर मारती है कि मैं कभी उन लोगों से मिल पाऊँ। उनसे अपने किए की माफी माँगूँ कि मैंने उन्हें उस व्यक्ति से दूर कर दिया जो उन्हें इस तरह से अपने कलेजे से लगाकर रखता था। यह सब सोचते हुए कई बार मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। कमाल की बात यह है कि शुरुआती दिनों के अलावा मैंने अपने शिकारों के बारे में कभी नहीं सोचा। यह साधने में थोड़ा वक्त जरूर लगा मुझे पर यह मैंने कर लिया। आप पढ़े-लिखे व्यक्ति लग रहे हैं। आपको देखकर ही पता चल जाता है कि आपके भीतर एक कलाकार छुपा हुआ है। आप बताएँगे कि वह तसवीरें आज तक मैं फेंक क्यों नहीं पाया?
अरे नहीं, उन लोगों का उधार मैंने अभी तक नहीं चुकाया है। आप सोचेंगे कि अब तो मेरे पास बहुत सारे पैसे होंगे, चुका क्यों नहीं देता पर यह सच नहीं है। मेरे पास कई बार अगले दिन की चाय का भी पैसा नहीं होता। जो कमाता हूँ सब खर्च हो जाता है। आजकल वैसे भी लोग पर्स में भला कितने पैसे रखते हैं? और कभी हो भी गए तो भला क्यों चुकाने जाऊँगा। आप उन लोगों को नहीं जानते। वे मेरे ऊपर इतना ब्याज लाद देंगे कि उसे चुकाने के लिए मुझे डकैती ही डालनी पड़ेगी। यहाँ सब कुछ शांति से चल रहा है। मैं चाहता हूँ कि सब कुछ इसी तरह से चलता रहे। आज तो आप भी मिल गए और इतने इत्मीनान से बैठकर मेरे साथ बात भी कर रहे हैं। मैं बता नहीं सकता कि मैं अपने धंधे से कितना खुश हूँ। यह न होता तो भला आप आज कैसे मिलते।
देखिए मैंने आपको अपनी पूरी आपबीती सुनाई। आप पुलिस नहीं है अच्छे आदमी हैं। कलाकार हैं। पुलिस होती तो मैं दूसरी कहानी सुनाता। एक बार तो मैंने पुलिस को भी ऐसी कहानी सुनाई थी कि दो पुलिसवाले थे और दोनों ही इमोशनल हो गए। कहानियाँ अभी भी असर करती है बस उन्हें नई और अनोखी और अविश्वसनीय होना चाहिए। लोग अविश्वसनीय कहानियों पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। खैर छोड़िए आज का पूरा समय तो आप को अपनी रामकहानी सुनाने में बीत गया। यह पहली बार है कि मैंने किसी पर्स को हाथ लगाया और वह अब भी वहीं मौजूद है जहाँ उसे नहीं होना चाहिए था। कम से कम एक बोतल बीयर तो और पिलाते जाइए। शरीफ कहे जाने वाले लोग तो हर मोड़ पर चार टकराएँगे। आपने कभी किसी जेबकतरे के साथ बैठकर बीयर पिया है? आप पैसे खर्च करें तो मैं थोड़ी और देर तक आपको यह मौका देने के लिए तैयार हूँ।
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मनोज कुमार पांडेय – 8275409685
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
मनोज भाई, आपकी इस कहानी को पढ़ने के बाद कमलेश्वर की कहानी 'बयान' याद आयी। जेबकतरे की मानसिकता को बड़े संतुलन से बुना है आपने। बाँधने वाली कहानी। अब ये जेब कतरा है या विद्रोही नायक जो प्रेम करनेवालों, अच्छा साहित्य पढ़नेवालों को छोड़ देता है लेकिन उन लोगों को नहीं जो सबसे खेलते हैं। यह एक प्रेमी और विद्रोही है, जिसे व्यवस्था ने अमानवीय बनाने का कार्य किया है लेकिन जीने के लिए वह जेबतराशी का धंधा अपनाने के बावजूद ज़िंदा है, नष्ट नहीं हुआ। इसलिए वह एक ऐसा जेबकतरा है जो विद्रोही की भूमिका में है। यह याद रहने वाला चरित्र आपने बनाया है। बधाई इसके लिए। – आनंद पांडेय
मज़ेदार. कुछ निरीक्षण बेनमुन. जेबकतरे का मित्र पत्रकार !! क्या विधान है !!☺☺
अच्छी लगी कहानी। तस्वीरे सम्भल कर रखने वाला जेबकतरा। जिस व्यक्ति के नाम से हम सिर्फ कतई हुई जेब की कल्पना करने लहते हैं जेहन में एक काइयां से आदमी आता है वह भी संवेदनशील हो सकता है। सुंदर
जेबक़तरे का यह रूप बहुत ही आश्र्चर्यकारक है ।इस बारे में पहले कभी मैने सोचा भी नहीं था।बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
बहुत सुंदर…