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Home कविता

अदनान कफ़ील दरवेश की नई कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
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अदनान कफ़ील दरवेश

अदनान कफ़ील दरवेश की बहुत कम कविताएं अब तक हमारे सामने आई हैं लेकिन उन कविताओं के ताप ने हमें गहरे कहीं छुआ है। महज़ 22 साल की उम्र में अदनान बड़ी कविताएँ लिख रहे हैं । पिछले दिनों नीलांबर कोलकाता द्वारा आयोजित एक साँझ कविता की -3 में अदनान ने अपनी कविताओं से श्रोताओं को न केवल चमत्कृत किया था वरंच उद्वेलित भी किया था। सच कहूँ तो पहली बार मैं अदनान की कविताएँ सुन रहा था और सुनते हुए इस कवि की बेचैनी को भीतर तक महसूस कर रहा था। कहना चाहिए कि अदनान अपनी कविताओं में गंगा-जमुनी संस्कृति के वाहक अकेले युवतर कवि हैं। भोजपुरी अंचल से आने वाले इस कवि में न केवल अपने अंचल की माटी की गंध है बल्कि एक अलग और नये तरह का हिन्दुस्तान भी आकार ले रहा है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में हम महसूस कर सकते हैं कि कवि का संसार कितना बड़ा है और एक नूतन उम्मीद से भरा हुआ भी।
यह बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि अभी कल ही अदनान को अनुनाद सम्मान दिए जाने की घोषणा प्रिय कवि शिरीष कुमार मौर्य ने की है – वे सम्मान की घोषणा करते हुए लिखते हैं – “अदनान पिछले एक वर्ष से लगातार गंभीर कविकर्म में संलग्न हैं। उनके पास वैचारिक ताक़त और नई ऊर्जा है। अदनान की कविता को ध्यान में रखते हुए आज़ादी के बाद की कविता के पूरे सिलसिले को याद करें तो एक मुकम्मल दृश्य बनता है, जहां हिंदी कविता में दोआबे की वही आंच भरी ज़ुबान बार-बार लौटती है – यह केवल भाषा का सिलसिला नहीं, बच रही मनुष्यता का सिलसिला भी है, हमारे कितने ही कवियों के नाम इस सिलसिले में शामिल हैं। इस सिलसिले के बिलकुल नए नाम अदनान कफ़ील दरवेश के रचनाकर्म को लेकर मैं उत्सुक हूं, हमेशा उन पर निगाह टिकी रहेगी। उन्हें अनुनाद सम्मान देते हुए निर्णायक मंडल आश्वस्ति और हर्ष का अनुभव कर रहा है।”
आइए पढ़ते हैं अदनान की कुछ नई कविताएँ। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
—-

गायें

सुबह होती है
और गायें खूँटों पर बँधी रंभाती हैं और चारा मांगतीं हैं
गायें दिन-दिन भर चरवाहे के साथ चरने जातीं हैं
और शाम को लौट आती हैं अपने खूँटे पर
और रंभाती हैं।
दुधारू गायें दुहती हैं और पूजी जाती हैं।
गायें मुँह उठाये देखती हैं रास्तों की तरफ
मनुष्यों को गुज़रते हुए देखती हैं गायें
गायों ने देखा है कितने-कितने मनुष्यों को
कितनी-कितनी बार गुज़रते हुए
गायों ने देखा है युद्ध नायकों और सैनिकों को
कितनी-कितनी बार गुज़रते हुए
गायों की एक झपकी में समय का
पूरा लश्कर गुज़र जाता है
चुपचाप।
गायें सानी खाती रहती हैं
और मध्यप्रदेश में एक मुसलमान
गोकशी के जुर्म में मार दिया जाता है !
गायों के गले में बँधी घंटियाँ बजती हैं
गायें सुनती हैं राजस्थान में
गोकशी के जुर्म में मारे गए एक मुसलमान के बारे में
गायें अपनी पूँछ से मच्छरों को हाँकती हैं
अपने खुर पटकती हैं
पिटती हैं कोई खाने की चीज़ झपटते हुए बाज़ारों में
मंडियों में अपने पुट्ठों पर ज़ख्म लिए
फिरती हैं गायें
बूढ़ी गायें अपने डांगर शरीर लिए धीरे-धीरे चलती हैं
कभी कूड़े के ढेर में खाने की कोई चीज़ तलाशती हुई
कभी दीवार में देह रगड़ती हुई।
गायें सुनती हैं एक मुसलमान की सार्वजनिक हत्या की ख़बर
गायें अपनी नाद में मुँह घुसाये चारा खाती हैं
बैठ कर पगुरी करती हैं।
गायें गायों से मनुष्यों के बारे में नहीं पूछतीं
गायें गायों से मुसलमानों के बारे में नहीं पूछतीं
गायें मनुष्यों से मनुष्यों के बारे में कोई सवाल नहीं करतीं
बस एक दिन गायें
स्वयं उठकर चली जाती हैं
बूचड़खानों की तरफ़…
(रचनाकाल: 2017)
दिल्ली

फूल और तितली
जब मैं छोटा था
बेहद छोटा  
महज चार या पांच बरस का
तो गेंदे का फूल अपनी जेब में रखके घूमता था
और वक़्त-ब-वक़्त उसे सूंघता था
मुझे तितलियाँ बहुत लुभाती थीं
मैं घंटों उनका पीछा करता
और उन्हें छकाता
और कभी-कभी
एक दो को पकड़ भी लेता
एक दिन मैंने अपने दोस्तों की तरह ही
लपटा और काग़ज़ से
तितली का छोटा आशियाना बनाया
और उसमें तितली को बंद कर दिया
मैं बहुत ख़ुश था
अगले दिन वो तितली मर गयी
और मैं रोने लगा
मैंने अपनी नन्हीं तितली की छोटी कब्र खोदी
और उसमें उसे दफना दिया
वो तितली आज भी कभी-कभी मेरे सपने में आती है
मैं आज भी बहुत रोता हूँ उसके लिए
उस दिन के बाद
मैंने कोई तितली नहीं पकड़ी
कोई फूल नहीं तोड़ा
उस दिन से मैं ढूंढ-ढूंढ कर
हर लपटे के घर तोड़ देता…
(रचनाकाल: 2015)
दिल्ली
अपनी आत्मा से
अपनी पीड़ा की नुमाइश करके
बेहिसाब तारीफें बटोरीं
ऐ मेरी आत्मा
मेरे निकट आ
और मुझपर थूक दे !
(रचनाकाल: 2015)
दिल्ली
प्रतीक्षा
आज
जबकि मैं तुमसे
कविता में संवाद कर रहा हूँ
तो मेरी प्रतीक्षा में
समुद्र की नीलिमा
और गहराती जा रही है
और गहराता जा रहा है
गुलाब का चटख लाल रंग
रात की सियाही को
और गहराता देख रहा हूँ
मेरी भाषा के सबसे भयावह शब्द
एक घुसपैठिए की तरह
उतरना चाहते हैं मेरी कविता में
आज मैं उनसे दूर भागना चाहता हूँ
दूर बहुत दूर
जहाँ वो मेरा पीछा न करते हों
मैं इस कविता को बचा ले जाना चाहता हूँ
ठीक वैसे ही जैसे बचाता आया हूँ तुम्हारा प्रेम
जीवन के हर कठिन मरुस्थल में भी
प्रिय !
मैं अपने आप को बचाते-बचाते
अब बहुत थक गया हूँ
मेरी ये थकी प्रतीक्षा मेरे प्रेम की आखिरी भेंट है
इसे स्वीकार करो
और अंतिम बार मुझसे वहाँ मिलो
जहाँ सफ़ेद घास अब और नरम हो गयी है
और जहाँ बकरियाँ घास टूंग रही हैं……
(रचनाकाल: 2015)
सर्दियों में एक यात्रा के दौरान-1
धुंध में डूब रही है सड़क
जितनी डूबती है उतनी ही दिखती भी है
इसके यूँ डूबने और उग आने में
एक कराह शामिल है
जिसे सुनकर आँखे भर आती हैं
कितने लाचार हैं हम जो
ठीक इस सड़क की तरह ही
अपने समय में आधे धँसे और
आधे उभरे हुए हैं…
सर्दियों में एक यात्रा के दौरान-2

सड़क जानती हैं
कि हमें कहाँ जाना है
इसीलिए तो बूढ़ी पहाड़न–सी
अपने पीठ पर गट्ठर–सा लादे हुए
हमें ढो रही है
सड़क ने बहुत लंबी यात्राएँ कर लीं हैं
उसे मालूम है सारे ख़तरनाक मोड़
हमें अपनी ढलान से आगाह करती हुई
बूढ़ी सड़क हमें और ऊपर ले जा रही है
कभी–कभी तो लगता है कि हम
सड़क के ऊपर भी और सड़क के भीतर भी
यात्राएँ कर रहे हैं
वो लंबी यात्राएँ जिन्हें तय कर चुकने के बाद
हम वो जान पायेंगे
जिन्हें सड़क ने हमसे बहुत पहले ही
जान लिया है !
फिसलन
यहाँ बहुत फिसलन है साथी
चलो कहीं दूर चलते हैं
अपनी चमकीली चप्पलें उतार
धरती के किसी अपरिचित छोर पर
जहाँ धरती हमारे क़दमों के लिए
अपनी हथेली
ख़ुद-ब-ख़ुद आगे बढ़ाती हो ….
(रचनाकाल: 2015)
दिल्ली
बहुत अँधेरा है यहाँ
मैं इन्सान हूँ या कोई प्रेतात्मा
नहीं कह सकता
मैं भटकता रहता हूँ
यूनान, मेसोपोटामिया और हिंदुस्तान के खण्डहरों में
दजला के तट की घास
कोटला फिरोज़शाह की भसकी दीवार
इमामबाड़े की मुलायम सीढ़ी
मैं ही तो हूँ
मैं कोई बेचैन प्रेतात्मा हूँ
जिसकी छलांग समय की हथेली-भर है
सुनो ! मैं एक कलमा हूँ
जो तुम्हें किसी खोह में तड़पता मिलेगा
मैं एक गीत हूँ जो अभी गाया नहीं गया
मैं एक पीड़ा हूँ जो अभी पैदा नहीं हुयी
इतिहास के काले अक्षर
मेरे जिस्म के हर हिस्से पर
गरम भाले की नोक से खुदे मिलेंगे तुम्हें
मैं एक औरत की जली हुई लाश हूँ
जो हर सभ्यता के मुहाने पर मिलेगी तुम्हें
मेरा संस्कार अभी बाक़ी रहा गया तुमसे
पीसा की झुकी मीनार-सा मेरा अस्तित्व
रात के ढाई बजे
तुम्हें पुकारता है
सुनो !
एक कंदील जला दो
बहुत अँधेरा है यहाँ
बहुत अँधेरा है यहाँ ……
(रचनाकाल: 2015)
हम मारे गए
जब दुःख रिस रहे थे हमारी आत्मा
के कोनों–अँतरों से
हम पागलों की तरह सर धुनते थे
हम स्वप्न में भी भागते
और बार–बार गिर पड़ते
हम अँधेरे द्वीपों के किनारों पर
खड़े विलाप करते
हमारा अंत हमें मालूम था
आप बस इतना ही समझिये
कि हम कवि थे
और कविता के निर्मम बीहड़ एकांत में
मारे गए !
(रचनाकाल: 2016)
 ****
कवि परिचय:

नाम: अदनान कफ़ील दरवेश

उम्र: 22 साल

जन्म स्थान: ग्राम गड़वार ज़िला बलिया उत्तर प्रदेश

शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में B.Sc(H)

प्रकाशन: हिंदी की पत्र पत्रिकाओं और वेब ब्लॉगों पर कविताएँ प्रकाशित

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

Anhadkolkata

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जन्म : 7 अप्रैल 1979, हरनाथपुर, बक्सर (बिहार) भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी कविता संग्रह : कविता से लंबी उदासी, हम बचे रहेंगे कहानी संग्रह : अधूरे अंत की शुरुआत सम्मान: सूत्र सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, युवा शिखर सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंस अवार्ड

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Comments 4

  1. Pooja Singh says:
    5 years ago

    अच्छी कविताएँ बेहद सटीक और सच्ची अदनान कफील को बहुत शुभकामना l

    Reply
  2. nafis alam says:
    5 years ago

    उत्कृष्ट, सुंदर, और शानदार रचनाएं।

    Reply
  3. अनिल जनविजय says:
    5 years ago

    बेहद अच्छी कविताएँ। शुभकामनाएँ।

    Reply
  4. शहंशाह आलम says:
    4 years ago

    नये स्वाद,नये तेवर, नये अंदाज़ की कविताएँ।

    ● शहंशाह आलम

    Reply

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