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भरत प्रसाद |
भरत प्रसाद ने कविता, कथा और आलोचना तीनों ही विधाओं में लागातार श्रेष्ठ लेखन किया है। किसी भी रचनाकार की लागातार सक्रियता मुझे बेहद आकर्षित करती रही है। भरत जी न केवल लागातार सक्रिय हैं वरन् महत् लेखन भी कर रहे हैं। उनकी कविताओं में अपनी जड़ो के प्रति आसक्ति तो है ही समय की जटिलताओं की पड़ताल करने की क्षमता भी है। वे एक ओर गंगा से संपृक्त हैं तो दूसरी ओर वर्तमान समय की त्रासदियों से रूबरू हैं।
अनहद पर हम उनकी कविताएं पहली बार पढ़ रहे हैं। आपके साथ और सार्थक राय से हमें बल मिलेगा। हम आपकी प्रतिक्रियाओं का शिद्दत से इंतजार करेंगे।
गंगा का बनारस
(‘जन-जन में श्रद्धा से गंगा मैया कही जाने वाली नदी का चेहरा आज पहचानने लायक नहीं रह गया है।)
पछाड़ खा-खाकर
रात-दिन,
खून के आँसू रोती
अँचरा पसार कर प्राण की भीख मांगती
जहर का घूँट पी-पीकर
मौत के एक-एक दिन गिनती ;
गूंगी पराजय की मूर्ति बन गयी है गंगा
अरे ! तुम्हारे छूते ही गंगा का पानी
काला क्येां हो जाता है ?
तुम्हारे पास जाते ही
गंगा कांपने क्यों लगती है ?
तुम्हारे नहाते-नहाते
गंगा के विषाक्त हो जाने का रहस्य
अब समझ में आया,
तुमने कैसा प्रेम किया ?
कि भीतर-भीतर सड़ गयी है गंगा
तुमने कैसी पूजा की ?
कि जन्म-जन्मान्तर के लिए दासी बन गयी,
तुमने कैसी श्रद्धा की ?
कि मर रही है नदी
कितना भयानक साबित हुआ, तुम्हारा उसे माँ कहना ?
कितना उल्टा पड़ गया, गंगा का माँ होना ?
सिद्ध हो चुका है तुम पर, नदियों की हत्या का इतिहास
यह नदी है या कोई और ?
जो मात खा-खाकर भी
धैर्य खोने का कभी नाम ही नहीं लेती,
पी जाती है हलाहल अपमान,
सह जाती है, अपने पानी का ‘पानी उतर जाना’
छिपा जाती है तरंगों में, हाहाकारी विलाप
आखिर यह है कौन ?
जो मर-मिटकर भी
करोड़ों शरीर में प्राण सींचती है ;
सदियों से गंगा बनारस के लिए जीती है,
काश, गंगा के लिए बनारस चार दिन भी जी लेता
बनारस बसा हुआ है, गंगा की आत्मा में
मिट्टी में घँसे हुए बरगद के मानिंद
मगर देखो तो
बनारस के लिए गंगा की हैसियत
अहक-अहक कर जीती हुई
बीमार बुढ़िया से भी बदतर है
समूचे शहर का दुख-दर्द धो डालने के लिए
गंगा के पास आँसू ही आँसू हैं,
मगर बनारस की आँखों में
गंगा के लिए आँसुओं का अकाल ही अकाल
रो सको तो जी भर कर रो लेना,
शायद तुम्हारे माथे पर लगा हुआ
गंगा की हत्या का ऐतिहासिक कलंक
थोड़ा-बहुत धुल जाय।
पहला जागरण
अनगिनत इंसानों का ऋण नजर आता है
अपनी शरीर पर उगा एक –एकरोवां
हैरान हूँ , हतप्रभ हूँ , अवाक् कि
अपने पास अपना कुछ भी नहीं
कितना झूठा , भ्रम है
अपने जीवन को अपना जीवन कहना
कैसे कह दूँ ?
कि मेरी शरीर , मेरी शरीर है
माँ की हंसी की तरह
भीतरखिलने लगा है-मिट्टी का चेहरा
कौन कहता है ?
केवल औरत ही माँ होती है
कहीं मिट्टी के महामौन में
बैठ तो नहीं गयी है
हमारे पतन की गहन उदासी ?
मेरे लिए तो कुछ भी साधारण नहीं इस दुनियाँ में
न आग , न पानी , नअन्न, न ही बीज
न छाया , नधूप
न रोना , न सोना
यहाँ तक कि जूता –चप्पल भी नहीं
कहता हूँ सुबह
तो घूम जाता है –शताब्दियों से नाचती
एक स्त्री का चेहरा ,
कहता हूँ –मैं
तोमन की न जाने कितनी गहराई से
उठने लगती है सम्पूर्ण सृष्टि की गूँज
पुकारता हूँ आकाश
तो प्रेम जैसा कुछ झरने लगता है ह्रदय में
मुझे तो भ्रम होता है
कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ
अपने बल पर चलता हूँ
अपने बूते उठता हूँ
अपने दम पर जीता हूँ
मुझे बार –बार भ्रम होता है |
पहरेदार हूँ मैं
अगर कातिल के खिलाफ कुछ भी न बोलने की
तुमने ठान ली है
अगर हत्यारों को पहचानने से इन्कार करने पर
तुम्हें कोई आत्म ग्लानि नहीं होती
अगर लुटेरों को न ललकारने का
तुम्हें कोई पक्षतावा नहीं
अगर अन्धकार में जीना तुम्हें प्यारा लगने लगा है
तो जरा होश में आ जाओ
मेरे शब्द चौकीदार की तरह
तुम्हारे चरित्र के एक –एक पहलू पर रात –दिन पहरा देते हैं
तुम्हारीकरतूतों के पीछे घात लगाए बैठे हैं वे
तुम तो क्या , तुम्हारी ऊँची से ऊँची
धोखेबाज कल्पना भी
उनकी पकड़ से बच नहीं पायेगी
परत –दर-परत एक दिन खोल –खालकर
तुम्हें नंगा कर देंगे मेरे शब्द |
तुम दोनों हाथों से बर्बादी के बीज बोते हो
पता है मुझे
तुम्हारी दोनों आँखों को
बेहिसाब नफरत करने का रोग लग चुका है
तुम्हारे पैरों में रौंदने की सनक सवार है
तुम्हारी जीभ से हर वक्त ये लाल –लाल क्या टपकता है ?
तुम्हारी सुरक्षा के लिए सत्ता ने पूरी ताकत झोंक दी है
आज तुम सबसे ज्यादा सुरक्षित हो
तुम्हारे इर्द –गिर्द हवा भी
तुम्हारे विपरीत बहने से कांपती है
तुमने इंच –दर-इंच
अपने बचाव के लिए दीवारें तो खड़ी कर दी हैं
फिर भी …. फिर भी ….. फिर भी …..
अपनी आसन्न मौत के भय से
सूखे पत्ते की तरह हाड़–हाड़कांपते हो
पता है मुझे |
यहाँ –यहाँइधर, सीने के भीतर
रह –रहकर लावा फूटता है
नाच –नाच उठता है सिर
तुम्हारे खेल को समझते –बूझते हुए भी
जड़ से न उखाड़ पाने के कारण
अन्दर –अन्दर लाचार धधकता रहता है |
अपने पेशे के माहिर खिलाड़ी हो , लेकिन….
अपने मकसद में कामयाब रहते हो लेकिन …
घोषित तौर पर विजेता जरूर हो , लेकिन….
विचारों की मार भी कोई चीज होती है
सच की धार भी कोई चीज होती है
तुमसे लड़ –लड़करमर जाने के बाद
मैं न सही
मेरी कलम से निकला हुआ एक –एक शब्द
तुम्हारी सत्ता और शासन के खिलाफ
मोर्चा –दर –मोर्चा बनाता ही रहेगा |
जड़ों की महानता का गीत
जैसे शब्द शब्द में छिपा है
ह्रदय में बरसते अर्थों का जादू
जैसे वाणी में छिपी है
असीम वेदना की ऊँचाई
जैसे शरीर , हर माँ की कीमत सिद्ध करती है
वैसे ही हर माँ से उठती है
पृथ्वी जैसी गंध
वृक्षों से झरती है , जड़ों की महानता
गूंजती है कल्पना में
सृष्टि की महामाया
धूल – मिट्टी में
अपने प्राणों की पदचाप सुनाई देती है
दाने –दाने में जमा है
अनादि काल से बहता हुआ
आदमी का खून
उतरना फसलों की जड़ों में
तुम्हें विस्मित कर देगी
खून –पसीने की बहती हुई
कोई आदिम नदी ,
पूछो तो किस पर नहीं लदा है
रात –दिन का कर्ज ?
सोचो जरा कौन जीवित है
सूरज के नाचे बिना ?
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संपर्क : एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,
शिलांग, 793022 (मेघालय)
फोन :मो.न.09863076138/ 09774125265
मेल :deshdhar@gmail.com/bharatprasadnehu@gmail.com
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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अंतिम कविता अच्छी लगी ।
Bahut shukriya
स्तरीय।
स्तरीय।
बेहतरीन कविताएँ।भरत दा को पढ़ता रहा हूँ।उनकी कविताएँ मुझे बहुत प्रिय है।
अच्छी कविताएँ। कविताओं का आवेग, आवेश और रोष सहज ही मन को कहीं गहरे छू जाता है।
अच्छी कवितायें
अच्छी कविताये