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शेखर मल्लिक |
युवा कथाकार एवं प्रलेसं से जुडाव
हंस, प्रगतिशील वसुधा, अन्यथा, परिकथा, कथादेश, पाखी, जनपथ, शुक्रवार, दूसरी परम्परा, लमही,संवेद, रचना समय आदि में कहानियाँ. एक कहानी संग्रह (अस्वीकार और अन्य कहानियाँ) नई किताब, दिल्ली से,
उपन्यास “कालचिती” किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित
संपर्क–बीडीएसएल महिला महाविद्यालय, घाटशिला, पूर्वी सिंहभूम 832303. झारखण्ड.
शेखर मल्लिक
अगर कहा जाय कि आज किसी कस्बे की औरतों के किस्से सुनाये जायेंगे, तो ज्यादातर लोगों के दिमाग में यह आयेगा कि चलो, कुछ नंगी, भरपूर मांसल इश्कबाजियों, अवैध संबंधों की रसभरी बातें तबियत बनाने को बतायी जाने वाली हैं ! लेकिन इस पूर्वाग्रह का मतलब फिर यही होगा कि आप कस्बे की औरतों को ठीक से नहीं जानते… उनके अंदाज़ –ऐ–हयात को समझने की कूबत आपमें है ही नहीं… फिर आप इन किस्सों का लुत्फ़ नहीं उठा सकते…! किस्से के अंत में आप कुछ निजी निष्कर्षों, पूर्वाग्रहों और दोषारोपणों के साथ चुपचाप किस्सों और किरदारों को भूल जायेंगे… इसलिए एक आग्रह है, कि ऐसे लोग इस पूर्वकथन के बाद आगे ना बढ़ें (पढ़ें) !
किस्से का प्लाट – कस्बाई औरतों के किस्से, केवल सही–गलत मुहब्बत या अवैध संबंधों के किस्से नहीं होते, बल्कि अमूमन… जिंदगी के कुछ वाकये ऐसे होते हैं, जिनके बारे में कोई नहीं जानता ! ये कस्बे की औरतें थोड़ा और तरह से जीती हैं, लड़ती हैं, प्रेम करती हैं… ये थोड़ा ‘और‘ या ‘अलग‘ तरह क्या है, इसी बात को किस्सों की शक्ल में बुन लिया गया है…
थीम – किस्सा है तो, ‘थीम‘ होगी ही ! तो ‘इश्क‘ से ज्यादा मुफीद थीम क्या हो सकती है ?
इन किस्सों में एक क़स्बे की अनेक स्त्रियों में से कुछ स्त्रियाँ हैं… इन्हें इन किस्सों के ‘किरदार‘ कहा जाय !… मुख्य किरदार… कस्बे के अलग–अलग हिस्सों के प्रतिनिधि किरदार…
नंबर एक – मधु, जिसकी उम्र अभी पिछले जून में सोलह के पार हुई है. सरकारी स्कूल में दसवीं तक किसी तरह पहुँच गई. मगर दो बार की कोशिशों के बावजूद मेट्रिक का बाड़ा न लांघ पाई… पढ़ाई छोड़कर घर पर रहती है. एक परिचित दर्जी की बीबी से सिलाई सीख रही है… दुनिया जहान के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती… टेलीविजन उसका प्रशिक्षण केन्द्र है… जहाँ निजी चैनलों की धारावाहिकें उसकी मानसिकता का संसाधन करती हैं ! भावुक है, दबंग है, अपने स्तर पर चालक और सपनी सीमा में बेहद बुद्धू… ! फिर भी आप उसे देखकर इन सब बातों का अंदाज़ा नहीं लगा पायेंगे… और कस्बे के जिस हिस्से में मधु का उद्भव और विकास हुआ है, वहाँ आम लड़कियाँ या आमतौर पर लड़कियाँ इसी कोटि की पाई जाती हैं. मधु आम कस्बाई लड़की है, फिल्मों और फ़िल्मी गानों की शौकीन है. मधु की फितरत में एक संक्रामक चीज है, खुलकर हँसना… और दोस्त बनाना… इस उपक्रम में ‘लड़कों‘ को वह तरजीह देती है. ठीक से कहा जाय तो लड़कों पर बिना गंभीरता से सोचे, गंभीर रूप से आसक्त होना उसकी आदत है…
किरदार नंबर दो – शालिनी उपाध्याय, उम्र मधु के बराबर, मगर दृश्य–बोध के मुताबिक आपको बीस इक्कीस की मालूम पड़ेगी. मधु अपढ़ रह गई, किन्तु शालिनी केन्द्रीय विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा है. अपने ढंग की तेज तर्रार… उसकी खूबसूरती कस्बाई लड़कियों से कुछ जुदा है… इसके बारे में आगे विस्तार से मालूम पड़ेगा…
तीसरे नंबर की किरदार – मधु की माँ. तैंतालीस के आसपास उम्र. लंबी दुबली, सांवला रंग, तेज जुबान… वैसे तो हरदम फिट मगर पता नहीं क्यों अक्सर बुखार से पीड़ित रहती है… मजदूरी करती हैं… पति सीधा सा आदमी है, कस्बे में सब्जियां बेचता है. दोनों की साझी कमाई से घर चलता है, ऐसा पूरे यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनका एक दूसरा घर भी है… उस परिवार में उनकी दूसरी दो बेटियों सहित दूसरी बीबी भी हैं !
एक और किरदार भी है, शालिनी की ‘मम्मी‘. इनकी उम्र का अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वे इसे ताजा बनाये रखने के तमाम तरीके इस्तेमाल करती हैं, और बा–कामयाबी करती हैं ! वे ‘मार्डन‘ हैं. इस कस्बे की नहीं हैं, कुछ अर्से पहले इस कस्बे में उनका पदार्पण हुआ था… इसलिए वे कस्बे की औरतों से थोड़ी ‘डिफरेंट‘ लगती हैं…
इन किरदारों के किस्से बेतरतीब हैं !… बिलकुल इनकी जिंदगियों की तरह, जिसमें कई लोग और स्थितियाँ आपस में उलझी हुई होती हैं… लोगों की तरह परिस्थितियां भी कहीं भी, कभी भी औचक पैदा हो जाती हैं ! हम वहाँ से किस्से बुन सकते हैं !… चूँकि इतनी बेतरतीबी है, तो शुरुआत किरदार नं २ , यानि शालिनी से…
शालिनी, मिस् पामेला और मम्मी वाया सीमोन
शालिनी अपनी माँ से बहुत बोलती है… मम्मी के साथ हँसती रहती है… वह और उसकी छोटी बहन, दोनों मम्मी से ‘दोस्तानी’ हैं ! छोटी बहन तो मम्मी से ‘चिपकू’ ही है… छोटी है, इसलिए ! पर शालिनी समझती है कि वह बड़ी हो गई है. क्योंकि, उसके साथ मम्मी ‘बड़ी लड़की’ के साथ रहने जैसा रहती हैं ! ऐसी सब बातें जो अक्सर दोस्तों से कही जा सकती हैं, मगर गार्जियन से नहीं, शालिनी सूचनाओं की तरह मम्मी से ‘शेयर’ करती है… ऐसा गाँठविहीन मातृत्व वाली माओं के साथ हो सकता है ! मम्मी भी उसके साथ खूब हँसती हैं, उसके साथ कई हल्की और सीरियस बातें भी डिस्कस करती हैं… लिपस्टिक के कलर के बारे में , हैंड बैग के डिजाइन के बारे में , और पापा के बारे में भी…
लेकिन श्रीमती उपाध्याय की तरफ से देखें तो, वे अक्सर उसे समझने की कोशिश करती हैं… कई बार अनायास समझ जाती हैं, कई दफ़े सायास समझ नहीं पातीं ! कभी–कभी ऐसा होता है, कि श्रीमती उपाध्याय अपनी बेटी को लेकर ‘कॉन्फिडेंट’ रहती हैं, कि वे बेटी से ‘क्लोज्ड’ हैं ! पर कई ऐसी बातें हैं, जब शालिनी उनकी सोच को धता बताकर उन्हें नए निष्कर्षों तक पहुँचा देती है… ‘जेनेटिक्स’ के अनुसार, बेटी माँ की छाया होती है… शालिनी मम्मी की छाया तो है ही, एक स्वतंत्र काया भी है… और मम्मी को उसमें ‘परकाया प्रवेश‘ करना पड़ता है…
एक रविवार की रात खा चुकने के बाद श्रीमती उपाध्याय बालकिनी पर देर तक खड़ी रहीं… दोनों बेटियाँ भी वहीं थीं. शालिनी माँ से दोपहर को देखी फिल्म के बारे में, स्कूली दोस्तों और प्रसंगों के बारे में, कल की फरमाईशी टिफिन–बॉक्स के बारे में उनसे बतिया रही थी… श्रीमती उपाध्याय ने पीछे मुड़कर दीवार–घड़ी देखी और उससे कल के स्कूल बैग की पैकिंग के बारे में पूछा…
“मेन इज डिफाइंड एज अ ह्यूमेन बींग एंड वीमेन एज अ फीमेल . व्हेनेवर सी बीहेव्स एज अ ह्यूमेन बींग ,सी इज सेड टू इमीटेट द मेल.” सीमोन द बोउआर
शालिनी ने अपनी अंग्रेजी की कॉपी में यह टीपा हुआ था… श्रीमती उपाध्याय, जो कभी कभी ही बेटी की किताब–कॉपी में झाँक पाती हैं, ने बैग में किताब–कॉपियाँ डालना स्थगित कर शालिनी को देखा, “यह क्या लिखा है ?”
“कुछ नहीं…” शालिनी ने कॉपी बंदकर दूसरी कॉपियों के साथ मिलाकर बैग में रख दिया.
“क्या पढ़ती है ?”
“ये हमारी टेक्स्ट बुक का नहीं है.”
“फिर…?
“पामेला मिस् ने बोला था, मैंने लिख लिया.”
“इसका क्या मतलब है ?”
“भूल गई, लेकिन ये याद है कि, वे बोली अभी नहीं लाइफ में आगे समझ में आ जायेगा. बस याद रखना. मैंने याद रखने के लिये नोट कर लिया…”
“ऐसी टीचर्स होती हैं ! बिना समझाए कुछ भी पढ़ा दिया ?”
“मम्मी, उनके बारे में मत बोलिए. वह बहुत अच्छी मिस् हैं. मुझसे बहुत प्यार करती हैं…इन्फेक्ट वे हमारी ग्रुप की सभी लड़कियों को बहुत पेम्पर करती हैं… लड़के कुछ करें ना, तो हम उन्हीं के पास काम्प्लेन करती हैं… मिस् हमलोगों को हमेशा डिफेंड करती हैं. उनका स्लोगन है, ‘ट्रीट देम, द वे दे ट्रीट यू !” शालिनी ने मम्मी की कुहनी को छुआ और वहीं से उन्हें अपनी ओर घुमा कर कहा, “आप विलीव करेंगीं ? जितना मैं आपसे करती हूँ ना, उससे बहुत ज्यादा मिस् से शेयर करती हूँ. मन करता है. ”
श्रीमती उपाध्याय बेटी को देखती रही, एक गहरी साँस उनके नथुनों से निकली… हओह…! आज की बच्चियाँ तो एकदम ‘छूट’ किसी से कुछ भी पूछ – बता देती हैं, बोल देती हैं… वरना श्रीमती उपाध्याय के वक्त की लड़कियाँ अपनी माँ तक से माहवारी की बात करने में सकुचा जाती थीं ! और आज की शिक्षिकाएँ भी कितनी पर्सनल और स्ट्रेट फॉरवोर्ड हो गई हैं !” उन्हें अपने भीतर एक खुशी लहकती हुई लगी.
श्रीमती उपाध्याय शालिनी के बारे में, मिस् पामेला के बारे में और खुद के बारे में सोचने लगीं… पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ती थीं, तो घर की गली से कॉलेज तक, बाज़ार, सड़क…पड़ोस और रिश्तेदारी, हर जगह घात लगायीं हुई कामुकता थी… मौखिक छेड़छाड़ से लेकर वक्ष पर हाथ लगाना… जानबूझकर उनकी देह से सटना, घिसना… अनगिनत छद्म प्रणय पैगाम, अर्ज़ियाँ और उनके नाम पर प्रचारित–प्रसारित फैंटेसियां… घटिया वाल राइटिंग ! वे जानती थीं कि, उनको घर–बाहर की औरतें बेहया, लड़के ‘मस्ती’ कंडोम के रैपर पर छपी मॉडल और बाप–दादा तुल्य मर्द ‘कामसूत्र की सोलह–कला संपन्न नायिका’समझते थे ! उन दिनों उनके ही एरिया में एक लड़की को अगवाकर मार डाला गया था, और उसकी नंगी लाश पार्क में फेंक दी गयी थी, तो उनकी क्लासमेट ने उन्हें सावधान रहने की सामान्य हिदायत दी थी. उन्होंने उससे बहस करते हुए कहा था कि, क्यों हर कोई मुझे ही नसीहत देता है ! मेरे साथ ऐसा इसलिए हो सकता है न कि, मैं आकर्षक हूँ, केयरफ्री हूँ ! इसलिए सब मुझे बदचलन मानते हैं ! मुझे परवाह नहीं कि ये सब आंटियाँ क्या क्या बोलेंगी, लेकिन मैं वही करुँगी जो उनके बेटे मेरे साथ करते हैं. वह बोली थी, “यू केन. लेकिन लड़कों को ‘इमोशनल’, ‘ओरल’ और ‘फिज़िकल’ लिबर्टीज है. बट लड़कियाँ अगर वही लिबर्टी ले लें तो… वी वुड बी डिक्लेयर्ड चीप गर्ल्स ! ”
कस्बाई औरतें , प्रेमी , मोबाइल और माँ …
मधु ने ब्लाउज पीस की कटिंग माप के हिसाब से कैंची से काट ली और नज़र उठाई तो देखा, बलवंत की बेवो और रेहाना की अम्मी नुक्कड़ वाले हैंडपम्प से पानी लेकर भरी बाल्टियों और गगरे के भार से होंठ दाबे गुजर रही हैं…
“चाची !” उसने पुकार लगाई.
औरतें ठहर गयीं…
“.ये देख, हम ब्लौज कटिंग सीख गए“
बलवंत की बेवो हमेशा हर बात पर तंग रहा करती थी. चिढ़ कर बोली, “ऐ… येही बात के लिये रोका है क्या ? यहाँ मेरा दम फूल रहा और इसको…”
बलवंत की बेवो और कुछ कहती कि मधु का मोबाइल बजा. ताज़ी फ़िल्मी गीत का सिंग्टोन ‘मरीज आदमी की धडकन बढ़ा देने लायक शोर से‘ बजने लगा…
“एक मिनट चाची, फोन आ रहा है.” मधु ने हाथ बढाकर रोकते हुए मोबाइल को कान से चिपका लिया.
बलवंत की बेवो ने गाली निकाली, “मरजानी, फोन फोन फोन ! रात–दिन मोबाइल… यही लोग का भतार बात… ! कुत्तिया !”
बलवंत की बेबो ‘कुतिया‘ प्यार से बोलती थी. कस्बे के इस हिस्से वाले क्षेत्र में ‘कुत्ती, कुतिया‘ जैसे शब्द ‘श्लेशालंकार‘ से युक्त होते थे. वे गाली और प्यार–लाड़ दोनों के संबोधन थे और स्थिति के अनुसार प्रयोग में लाए जाते थे ! यहाँ की भाषा का व्याकरण शुरू में परेशान करता था, मगर फिर आपको सुनने की आदत पड़ गई तो स्वाभाविकत: आप की चेतना में ये शब्द अपनी व्यंजकता और अर्थ वैचित्र्य सहित पैठ जाते थे.
दोनों औरतें आगे बढ़ गयीं… मधु ने उनको टलते देखा तो अपनी धीमी आवाज़ को ऊँचा उठाते हुए बात करने लगी… “ऐ, कल काहे नहीं आया ?…”
माँ आई. देखा कि मधु कोने में बैठी मोबाइल पर मुस्कुरा रही है… चूल्हे पर चढ़ी भात की हांड़ी में से माड़ उफनकर चूल्हे में जा रहा है. स्टोव की लौ झकपक कर रही है… सेकिंड हैंड सिलाई मशीन, जिसे अपनी मास्टरनी से मांग लाई है, के इर्द गिर्द कपडों की चिन्दियाँ बिखरी हुई हैं.
“ऐ सूअर…!”
मधु मोबाइल छोड़कर तनकर खड़ी हो गई.
फिर याद आया तो झुककर बिस्तर से मोबाइल उठाया और कॉल काटा…
मधु ने अपनी माँ को लोगों से लड़ते देखा था, झगड़ा ऐसा कि आठ–आठ घंटे खड़े होकर हाथ चमका–चमका कर गालियां और कोसने बकी जा रही हैं. ये कौशल और दम–ख़म भी अब कस्बे की नई पीढ़ी में कम होता जा रहा है… ऐसी ऐसी गालियां जिसे ‘शरीफ़‘ लोग सुन भी नहीं सकते. भले ही गोपनीय या निर्लज्ज ढंग से व्यवहार में चरितार्थ करते हों ! गलियों – सड़कों पर जा रहे लोग, खड़े लोग सुनते हुए जा रहे हैं, खड़े हैं… मुस्कुरा कर जा रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं… और इधर औरतें हैं कि घमासान मचाये हुए हैं… एकदम मौखिक ‘हल्दीघाटी‘ ! मर्द रोकते हैं, खींचते हैं तो भर–ताकत अड़ी हुई हैं. घसीट ले गए तो पलट कर पघा तुडाई गऊ की माफिक फिर मोर्चे पर आ डटती हैं. इसके बाद मर्द को और कोई तरीका नहीं सूझता… वहीँ दरवाजे पर, सड़क पर या गली में, जहाँ कहीं भी मोर्चा खुला हो, वहीँ पर औरत की कुटाई शुरू…!
माँ ने मधु को डांटा है, कच्ची गालियाँ दी हैं, मगर थोड़ी बड़ी हो जाने के बाद से उसे कभी मारा–पीटा नहीं है. मधु माँ से उतना डरती है, जितना उसे माँ को इज्जत देना है… वरना ‘पलट–जवाबी‘ से उसने माँ को कई बार चुप कराया है… और माँ से मुहब्बत…? वो तो उतना ही, जितना हर लड़की करती है…
मधु उन एक चौथाई कस्बाई लड़कियों में से नहीं थी, जिनकी जिंदगी में गैस–चूल्हा, इंडक्शन कुकर, फ्रिज, स्कूटी वगैरह की वज़ह से सहूलियतें आ गई थी. वह उन लड़कियों–औरतों में से थी, जिनके पास कम से कम सस्ता मोबाइल तो आ ही गया था… उन लड़कियों में से थी, जिनके ‘पुरुष–मित्र‘ ही इन मोबाइलों में सिम कार्ड भरते और रिचार्ज करने की जिम्मेदारी बदस्तूर उठाया करते…’प्रेम‘ निभाने का यह एक नियम सा बन गया था… या जरूरत !
कस्बे की लड़कियों ने मोबाइल क्रांति को अपनी व्यक्तिगत आजादी की क्रांति बनाया. कुछ बेहतर मध्यम वर्ग में जिस तरह स्कूटी क्रांति हो गई, वैसे ही साधारण वर्ग के लिये मोबाइल क्रांति ! मोबाइल ने लड़कियों को अचानक अपनी स्वैच्छिक गोपनीयता में स्वच्छंद होने का मौका दिया… ऐसा कस्बे ही क्यों, शायद विश्व में हर कहीं हो रहा था, जहाँ स्त्रियों के स्वैच्छिक होने पर पहरे थे…! अवकाश ना था, छूट न थी…
तो, मोबाइल आ जाने से वे एकाएक एक अलग तरीके से मौजूदा वक्त में, क्रमश: स्वाधीन, ताकतवर और निर्भय हो गई थीं ! आज़ादी को अख्तियार करने की शैली में बहुत परिवर्तन आ गया था… मधु की माँ ने अपने दौर में, खुद पर छोकरों के फिकरे कसे जाने का लुत्फ़ उठाया था… तो मधु इक्कीसवीं सदी की ऐसी कस्बाई लड़की थी, जो खुलेआम दावा करती थी, कि ‘मैंने घाट–घाट का पानी पिया है, एक दो का नाम लेकर मेरी बेईज्ज़ती मत करो !”
मधु की माँ गौरैया थी !…
ज्यादातर लड़कियाँ अपनी उम्र के एक खास हिस्से में अल्हड़ होती हैं… चाहे वे कस्बाई हों या महानगरीय ! उम्र के उसी हिस्से में मधु की माँ भी गौरैया थी… वैसे भी, १९७० के दशक में लड़कियाँ चिड़ियों की तरह हुआ करती थीं… पिंजरे में कैद, बस अंगडाई भर लेने को पंख खोलने वालीं… सड़कों पर बिना पारिवारिक संरक्षक के घूमना और फ़िल्में देखने जाना इन्किलाबी कदम माना जाता था, और बदस्तूर इस तरह की हरकतों पर सेंसरशिप चस्पां थी… घरवालों का कट्टरपन इस मामले में लड़कियों को इतना आतंकित करता था, कि वे अपने आप के साथ भी अकेली होने से डरती थीं !
कस्बे के लोगों के लिये हर कस्बे में टाकीज़ नहीं हुआ करते थे, आज भी नहीं हैं… मगर इस कस्बे में एक पुरानी टाकीज़ थी, जिसका नाम ‘लाईट हाउस‘ था. रेलवे क्रासिंग के उसपार होने के कारण एक तरह से यह अलग–थलग सा था और रात के शो के लिये लोगों को वहाँ जाना विचारणीय लगता था ! उस वक्त यह सिनेमाघर जहाँ बसा था, कस्बे के उस हिस्से में आबादी घनी नहीं थी. अकेली कोई लड़कियाँ दोपहर के मैटिनी शो में किसी ख़ुफ़िया करवाई की मानिंद वहाँ से फ़िल्में देख आती थी… लेकिन ऐसा कहना सामान्यीकरण होगा, असल में यह एक अपवाद जैसा था, जो कभी कभार उपस्थित हुआ करता था…किसी जबरदस्त ‘हिट‘ फिल्म के आकर्षण के दबाव में !
वैसे, मधु की माँ के लिये हालांकि यहाँ हो आना उतना मुश्किल नहीं था, क्योंकि ना आगे नाथ, ना पीछे पगहा… दूसरी सहूलियत इससे थी कि, उसकी छोटी बहन का पति सिनेमा हाल के काउंटर पर टिकटें काटता था…
जब वह लौटती तो, एक खास जगह पर कुछ लोग बकायदा खड़े पाए जाते और कोशिश करते कि उनकी तमाम फब्तियां, फिकरे और उंसास भरे उवाच उस तक भली भांति संप्रेषित हो जायें… और उनकी कोशिश कामयाब हो जाती, जब मधु की माँ आदतन एक मुस्कान भेंट करती… फिर कुछ गालियों से नवाजती हुई बढ़ जाती… और उससे कुछ ‘और‘ की चाहना किए वे लोग इस पुनरावृति से उब कर रह जाते…
कस्बाई लड़कियों और हाल हाल में औरत बनी स्त्रियों के लिये यह हँसी ८०–९० के दशक तक आते आते किसी हद तक खुली, जिद्दी और थोड़ी ढीठ हुई, जिसे ‘माडर्न‘, ‘अडवांस्ड‘ या ‘फॉरवर्ड‘ होना कहा गया…
मधु और माँ की अनुवांशिक समानता पर एक निष्कर्ष
मधु नहीं जानती कि, उसकी माँ के वे तमाम संस्कार बराय जींस उसके भीतर भी मौजूद हो गए हैं…. ठीक है कि उसकी माँ का वक्त उतना ‘प्रोग्रेसिव‘ या ‘अग्रेसिव‘ नहीं था. अपने वक्त के मुताबिक मधु की माँ उतनी ही ‘फॉरवर्ड‘ हो सकती थीं, जितनी वे थीं… लेकिन बगैर जाने मुक्ति और आज़ादी क्या होती है, वे मुक्त और आज़ाद थीं ! मधु भी मुक्त और आज़ाद है… यही बात दोनों में समान हैं.
शालिनी के किस्से में स्कूटी …
और मधु एक दोस्त की तरह दाखिल होती है…
शालिनी का बाप हद दर्जे का दब्बू, रीढ़हीन आदमी जैसा लगता था, और शायद था भी ! किसी सरकारी स्कूल का मास्टर था वह. उसकी बीबी, यानि शालिनी की मम्मी, भरे बदन वाली, मोहल्ले में प्राय: सभी मर्दों को ‘मादक‘ लगने वाली, गोरी और हर वक्त मेकअप जैसा कुछ चेहरे पर पोते रहने वाली स्त्री थी, जिसके गालों पर कृतिम लाली पुती रहती थी, जिसके साथ मोहल्ले के दो लड़कों का नाम जोड़ा जाता था. श्रीमती उपाध्याय उन लड़कों को जाहिराना तौर पर ‘लिफ्ट‘ देती थीं, मगर जो ज़ाहिर नहीं करती थीं, वह यह कि इन लड़कों को वह ‘उपयोग‘ में लाती थीं. उनको यदि मर्द ‘उपभोग‘ की वस्तु समझते थे तो वे मर्दों को ‘उपयोग‘ की वस्तु‘ मानती थीं ! बहुत मंजी हुई खिलाड़िन की तरह या पकी हुई दुनियादारिन की तरह…
उपाध्याय मास्टर साहब से सिवाय नौकरी के कुछ होता नहीं था. इतना निस्पृह और निरीह सा आदमी पता नहीं कहीं दूसरा भी होगा या नहीं ! घर–गृहस्थी से इस कदर निरपेक्ष जैसे अनचाहे ही कोल्हू में बाँध दिया गया हो ! और जिसे बिना मुँह उठाये केवल उस कोल्हू को पेरते जाना है… अब इसकी वज़ह, मोहल्ले की औसत बौद्धिकता के स्केल पर एक तो यह मान लिया गया कि पति पत्नी के बीच में कुछ भी तरल नहीं है… और इस सुखाड़ की वज़ह भी पत्नी यानि श्रीमती उपाध्याय ही हैं, जो अपने भयानक ‘मोर्डनपने‘ के कारण पति की आँखों से उतर गई हैं !
तो, पत्नी भी उनसे उम्मीद नहीं रखती होगी… ऐसी पृष्ठभूमि में शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित होती हुई संतान में वक्त से पहले, यानि परिपक्वता से पूर्व फैसले करने या अपना पक्ष पकड़ लेने की प्रवृति मजबूरन या जबरन घर कर जाती है. शालिनी और उसकी छोटी बहन दोनों, जो अब भी पिता की ओर कुछ थी, ने माँ का पक्ष अघोषित रूप से ले लिया था.
शालिनी, जिसका बदन माँ की तरह गदराया हुआ था, जो बारह–तेरह की उम्र में ही इतना पुष्ट हो गया था कि वो जवान दिखने लगी थी. वो अपनी माँ की तरह ‘फैशनेबुल‘ थी, जो इस छोटे से कस्बे में एक ध्यानाकर्षित करने वाला उपक्रम तो था ही, भौंड़ी राय बनाने की उर्वर कार्यवाही थी ! वह अब स्कूटी पर स्कूल जाने लगी थी. स्कूटी पर परिवहन करती खुले बालों वाली लड़कियाँ कस्बों में ‘विशिष्ट‘ दिखाई पड़ती हैं… शालिनी का पूरा बाह्य व्यक्तित्व इस ‘विशिष्टता‘ का विज्ञापन था ! इस स्कूटी को किसी अग्रवाल साहब ने श्रीमती उपाध्याय को ‘तोहफा‘ स्वरुप नज़र किया था, मोहल्ला इस पर भी बात कर चुका था ! और उपाध्याय साहब को ‘हिजड़ा‘ करार दे चुका था…
नाबालिग और ‘स्टायलिश‘ शालिनी इसी स्कूटी पर ‘फुर्र–फुर्र‘ उड़ा करती और कस्बे के लौंडे, जिन्हें उसकी ‘वर्जिनिटी‘ पर कतई आस्था नहीं थी, उसे तकते हुए वर्जित बातें सोचते…
इसी शालिनी से मधु की दोस्ती हो जाना दो विपरीत धुर्वों के परस्पर मिल जाने जैसा असम्भव तो था, मगर दुनिया में बहुत कुछ ऐसा घट गुजरता है, जिसे आम तौर पर असंभव ही माना जाता है ! शालिनी से मधु की दोस्ती तब हुई जब, मधु ने हनुमान मंदिर चौक पर स्कूटी समेत सड़क पर गिर गई शालिनी को उठाया था. शालिनी व्यस्त सड़क पर हडबडा जाने से स्कूटी को संभाल ना सकी और गिर पड़ी थी. मधु ने अपने मोबाइल से, चूँकि शालिनी का मोबाइल इस दुर्घटना स्वरुप सड़क पर गिर जाने से बंद हो गया था और बैटरी निकाल कर फिर लगाने के आम मैकेनिकल जुगत पर भी चालू ना हुआ, शालिनी की मम्मी का नंबर लगाकर दिया. शालिनी के गिर जाने के दौरान अस्त–व्यस्त हो गए कपड़ों के फाँकों से सड़क पर गुजरते और मौजूद तमाशबीन मर्दों की चोर आँखों को घुसते देख, कपड़ों को दुरुस्त किया था.
इतनी मदद कस्बे में मिल जाती है, अगर आपका दिन ज्यादा खराब न हो… फिर भी शालिनी ने मधु का आभार माना, और उसे दोस्त भी मान लिया. ये घटना अकस्मात हुई थी, इसलिए उन दोनों ने इस पर यह नहीं ख्याल किया कि, अरे ये तो कुछ फ़िल्मी जैसा हो गया है !…
जब मधु को फिर ‘प्यार‘ जैसा कुछ हो गया था…
और चूँकि, उसे प्यार हो गया है, इसका ‘इन्ट्यूशन‘ इससे पहले कई दफ़ा हो चुका था, सो मधु को कुछ नया नहीं लगा. यानि पहली बार का उद्दाम आवेग जैसा कुछ.. मगर उसने हर पूर्व घटित प्रेम जैसी प्रतिबद्धता की प्रत्येक नवप्रेमाचार में पुनरावृति की थी, यहाँ भी ऐसा ही था.
यह लड़का, जिसे वह मोबाइल पर ‘जानू‘ कह कर संबोधित किया करती थी, हमेशा की तरह उसे उसपर एकदम टूटकर मर–मिटने वाला… तन–मन और सबसे महत्वपूर्ण धन से न्यौछावर, हर ख्वाब–ओ–ख्वाहिश को पूरी करने वाला लगा. वैसे इसके पूर्व के प्राय: सभी प्रेम प्रसंगों में उसे ऐसा ही लगता रहा था. और जब ऐसा लगना बंद हो गया तो उन प्रसंगों का अवसान घटित हुआ !
वह पुन: अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ इस लड़के पर समर्पित हो गयी… इस टटकी मुहब्बत का छुप–छुपकर मज़ा लेने लगी… जबकि मधु की माँ ने इस लड़के को विश्वासपात्र मान रखा था… इस लड़के की पहुँच मधु के एक कमरे के घर तक थी… फिर भी वो मुकम्मल इश्क ही नहीं, जिसमें दुनिया (मधु के मामले में उसकी माँ) से डरने का मज़ा ही ना हो ! माँ इस इश्क–बाज़ी से उसे बचाती थी, डरती थी, मगर सब कुछ जानती भी थी… वह वहाँ उसे छूट देती थी, जहाँ इस प्यार के खेल का ‘कैरियर‘ बन सकने की संभावना हो !
मधु पता नहीं कब, इस लड़के से ‘प्यार‘ करने लगी, जिसके बाप और भाई की कस्बे के सब्जी बाज़ार में एक स्थाई दूकान थी. और जहाँ, मधु का ‘जानू‘ भी कभी कभार उनकी अनुपस्थिति में पारिवारिक वाणिज्य का दायित्व संभालता…
मधु के चरित्र को लेकर कोई भी टिप्पणी आत्मघाती हो सकती है, क्योंकि अगर खुद आप ये सब मधु से कहें तो वह पूछ सकती है, कि क्या आपने उसे ठीक से समझा है ? ऐसे सवाल पर आप सिर्फ़ मुँह बाये खड़े रह सकते हैं या फिर अपने भौंडेपन पर शर्मिंदा हो सकते हैं… क्योंकि आपके पास मधु जैसी कस्बाई लड़कियों पर टिप्पणी करने का अधिकार और नैतिक आधार क्या है ?
मधु को जिस भी लड़के ने ‘उस नज़र‘ से देखा… ज्यादातर उससे, या फिर जिसमें उसे कुछ आकर्षक संभावनाएं दिखाई पड़ीं, उससे ‘फंस‘ गई ! भले ही फंसे और मुक्त होने के बीच की अवधि साप्ताहिक, मासिक हो…
मुहब्बत जैसी चीज का इस उम्र में क्या ठीक से अंदाजा होता… पर उसे लड़के पसंद थे ! यारबाशी का मज़ा महसूसने लगी थी. अब मधु क्या करे, अगर लड़के उसे देखकर … मर–मिटते हैं… एक किस्सा खुद मधु ने शालिनी को बताया था… ‘हम जब चौदा (चौदह) के थे, गाँव गए थे. तब मेरे रिश्तेदारी में एक शादी में जाना था. वहाँ हमारा मुंहबोला भाई की शादी थी, जिस लड़की से शादी हो रही थी, उसका दो भाई था. बड़ा वाला सुधीर और छोटा मिहिर. हम उन दोनों को पसंद आ गए ! अब ये बात उस टाइम तो हमको मालूम नहीं पड़ा. सुधीर तो मेरे लिये पागल ! उससे बात करो तो एकटक मुँह देखता रहेगा. हंसेगा और बोलेगा, मधु तुमसे शादी करेगा. हमसे चार साल बड़ा था. हमको मज़ा आता था. उसने अपना छाती पर मेरा नाम का अक्षर लिख लिया… कांच टुकड़ा से खुरच कर…!
फिर हम तो गाँव से आ गए, इधर वो जिसको छोड़ कर गाँव गए थे… वो ऐसे तड़प रहा था कि फिर सुधीर उधीर का याद नहीं रहा. अभी सालभर हुआ वही भाभी बताई कि उसका कैसे करके मौसा मासी शादी कराये, वहीँ गाँव में. हम गए उसका शादी में. अब देखो क्या हुआ, इस बार हम आये तो उधर से भाभी फोन की कि मिहिर बोल रहा है कि तुम्हीं से शादी करेगा. तुम्हारे लिये ज़हर खाने जा रहा… बोलो हम थोड़ी कुछ किए. ये लड़का सब ही हमारा ऊपर मर रहा !’
शालिनी की बड़ी बड़ी आखें गोल हो जाती थीं, जब मधु अपने ‘लवर्स‘ की फेरहिस्त का खुलासा करती. कोई भी किस्सा कुछ महीनों से लंबा नहीं चला. सिर्फ़ यह राजू… जिसके साथ वह पिछले डेढ़ साल से है.
यह सिर्फ़ कस्बे की एक अदना सी लड़की का प्रेम–मार्गीय चरित्र नहीं है, यह हर जगह, हर वक्त मौजूद रहने वाली सर्वकालिक मानवीय आकांक्षा है, जिसे कुछ लोग नकार देते है और अनेक नकार नहीं सकते ! प्रेम में प्रतिदान की चाह जैसा कोई मुहावरा यहाँ सक्रिय नहीं है, या हो सकता ही है, क्योंकि यहाँ बहुत सारे संबंध प्रेम नहीं हैं, केवल दान हैं, और दान का प्रतिदान अपेक्षित होता है…
बहरहाल यहाँ, मधु के प्रेम की परिकल्पना की शल्यक्रिया करने का गैर–औपचारिक और निजी प्रयास छोड़ दिया जाय तो बेहतर ! क्योंकि तर्क उसके भी हो सकते हैं… दृष्टि उसकी भी हो सकती है. असल बात यह है कि, मधु लड़ सकती है, पलटवार कर सकती है, रो सकती है, गा सकती है… कस्बे के कम–अक्ल या बद–अक्ल लड़कों को चरा सकती है ! बहुत सी लड़कियाँ ये नहीं कर सकतीं…
मधु, शालिनी और ओवरब्रिज : फ़र्क नमक और महुआ का
दोपहर ढलान पर थी. सूरज एक मोटे से स्याह बादल की आड़ में हो गया था, फिर उसके दरम्यान से निकल आया था… पतझड़ लग चुका था और सड़कों पर धूल के साथ सूखे पत्ते उड़ उड़ कर जगह बदल रहे थे…
मधु ने सड़क के बगल में अपनी साइकिल खड़ी की, सड़क लांघकर परली तरफ की मनिहारी की दूकान में दाखिल हुई और करीब बीस मिनट बाद वहाँ से मात्र एक आर्टिफिशियल कनफूल लेकर निकली ! जबकि दुकान लगभग तनहा थी, और युवावस्था छोड़ता हुआ वह दुकानदार, जिसे वह ‘मामू‘ कहती थी, एकदम फुर्सत में…
मधु को सिर्फ़ समय काटकर वक्त के उस पहर तक पहुँचना था, जब राजू ने उससे मिलने का टाइम दे रखा था. राजू का सन्देश था कि ट्यूशन के बाद वह उससे मिलेगा. नाले के ऊपर बने नए पूल पर, शाम को छह: बजे. उसने मधु के संकट का समाधान करते हुए उसके मोबाइल का रिचार्ज भी करा दिया था. आज राजू में उत्साह बहुत था, और मधु के अंदर भी बेचैनी ठाठें मार रही थी. सात–आठ दिनी विरह के बाद आज यह मुलाकात होने वाली थी. राजू कस्बे के बाहर गया हुआ था.
शालिनी ने उसे चौक पर देखा, तो स्कूटी रोक दी. मधु की साईकिल को जबरन साइकिल मरम्मती की दूकान के आगे खड़ा कराया और उसे स्कूटी पर बिठा लिया. स्कूटी मेन रोड पर तेजी से दौडती चली गई… और शालिनी ने उसे ओवरब्रिज पर ले जाकर खड़ा कर दिया. मधु शालिनी के ‘कभी भी, कुछ भी‘ वाले एटीच्यूड से हमेशा विस्मित रहा करती थी. लेकिन इस वक्त तो उसे राजू से मिलने की हड़बड़ी भी थी, सो शालिनी का उसे यहाँ दूर ले आना और ऐसे यहाँ खड़ा कर देना विस्मय से ज्यादा झुंझलाहट पैदा करने वाला कारोबार लगा !
“यहाँ क्यों रोका?”
“यार, थोड़ी हवा तो खाने दे. यहाँ कितना खुला खुला सा है.” शालिनी ने बालों का हेयर–बैंड खोला और सिर को झटका दिया. रेलवे ओवरब्रिज की इस ऊँचाई पर पछुआ हवा का असर अच्छा था. शालिनी के कन्धों तक कटे हुए बाल लहराने लगे!
“और बता, तेरा चक्कर… मस्त चल रहा है ना?” शालिनी का मुस्कुराता हुआ चेहरा उसकी तरफ मुड़ा.
“हाँ. आज मिलेगा, बोला है. मगर हम यहाँ क्यों रुके हैं ?” मधु ने दूर तक बिछी पटरियों पर नज़र दौड़ाते हुए कहा.
शालिनी चुप रही. हवा उसके चेहरे पर बालों को उड़ा कर लाने की मटरगश्ती करती रही. और वह उन बालों को अपनी उंगलियों से कान के पीछे खोंस देती …
मधु ने शालिनी के भरे–पूरे बदन को देखा. भरी–भरी, उठान ली हुई छातियाँ, गोरा रंग, बढ़िया जींस–टॉप, कलाई घड़ी, ऊँची हिल्स की सैंडिल, गले में सोने की पतली चैन… कमनीय चेहरा… कस्बे की ‘आयटम‘ टाइप की लड़की… शालिनी ! और उसकी तुलना में वह क्या है ? खुद को देखे तो, गहरा सांवला रंग… लगभग सुखा जिस्म, छातियों का उभार बस नाम–मात्र का, सस्ते और भडकाऊ कपड़े… कस्बे की ज्यादातर लड़कियाँ क्यों मेरी जैसी हैं, और बहुत कम क्यों शालिनी जैसी ? शालिनियाँ अपनी जगह पैदा होती हैं, और मधुयें अपनी जगह… बस इसी से यह फ़र्क है ! भरसक कोशिश करके भी वह शालिनी जैसी सुन्दर नहीं, चाहे दोनों का कद एक जैसा हो… लड़कपन एक जैसी हो ! मुक्ति की घोषणा करने वाली बंद मुठ्ठी एक जैसी हो…
शालिनी में ‘नमक‘ है तो मधु में ‘महुआ‘… ! मधु को लगा कि वह बेकार ही शालिनी और अपना अंतर कर रही है. शालिनी शालिनी है, और वह वह है !
“कोई मिलेगा क्या यहाँ ?” उसने उकता कर शालिनी से पूछा.
“हाँ, भानु. इसी टाइम बोला था… यार, ये लड़के टाइम का वेल्यु नहीं समझते.” शालिनी ने लटों को फिर पीछे हटाते हुए कहा… उसने स्टेशन की तरफ से आने वाली सड़क पर आखें जमा रखी थीं. मधु को अटपटा सा लग रहा था. यहाँ, ओवरब्रिज पर कभी लड़कियाँ ऐसे खड़ी नहीं होतीं. लड़के ही इक्का–दुक्का रेलिंग पर बैठे मिल जाते हैं. वह भी गर्मियों में…
“भानु से कब हुआ ?” मधु ने शालिनी को गौर से देखते हुए पूछा. शालिनी एकाएक नहीं समझी, “मतलब ?”
“तुम्हारा पहले किसी और से था ना?”
“अरे यार !” शालिनी जोर से हँसी, “मेरा भानु एक ही है. और पहला ही है. तेरी तो सेंचुरी हो गई होगी, तो क्या सबकी…?” वह हँसती रही.
मधु भी हंस पड़ी…
बाइक से गुजरते लड़के उन्हें खड़े देखकर ‘हो–हो‘ की भद्दी आवाजें निकलते हुए गुजर गए.
मधु ने कुछ मिन्नत से कहा, “चल ना. हमको लेट हो रहा.”
“रुक ना, भानु अभी आ जायेगा. रुक उसको कॉल करती हूँ.” शालिनी ने मोबाइल निकाला.
“आ रहा है, बस दो मिनट…” कॉल काटकर शालिनी ने मधु को तसल्ली जैसा दिया.
मधु को राजू के गुस्से का मालूम था. प्यार उसके लिये हक़ जाताना, धौंस देना और शिकायत करना था. इसके बगैर वह प्यार को समझता नहीं था. “पूरा पोजेसिव ऐनिमल है तेरा राजू.” शालिनी ने कई बार मधु की बातें सुनकर कहा था. “इग्नोर किया कर. इतना भाव क्यों देती है ?”
मगर मधु को राजू का ऐसा रूप ही पसंद था. कम से कम उसे इसकी गारंटी तो मिल रही थी कि, राजू सिर्फ़ उसी के प्यार के लिये ऐसा करता–बोलता रहता है. वो प्यार ही क्या जिसमें हक़ ज़माने की अदा ना हो !
अब मधु का मोबाइल बजा. राजू का ही था, “कहाँ है तू ?”
“आ रहे हैं.”
कहाँ है बता ?”
“अरे बाबा, आ रहे हैं. रुक जा.”
…इसके बाद मधु के मोबाइल पर राजू वार्ता–प्रकरण तब तक जारी रहा, जब तक वह नाले वाले पुल पर खड़े राजू के सामने नहीं पहुँच गई. शालिनी उसे वापस साइकिल रिपेयर की दुकान पर उतार कर चली गई थी.
राजू का पहला सवाल था, “किसके साथ थी?”
“शालिनी के साथ. क्यों, तुमको मेरा विश्वास नहीं है ?”
नहीं, राजू को नहीं था विश्वास. लेकिन अगर ऐसा ही सवाल मधु उससे पूछ रही होती तो क्या वह गलत साबित कर पाता उसका अविश्वास !… मगर मर्द अपना सात खून माफ़ ही समझता है ! लेकिन मधु इतनी गहराई से नहीं सोचती. शालिनी के शब्दों में राजू उसके लिये बहुत ‘पजेसिव‘ है… पजेसिव का मतलब जाने बिना ही मधु को यह सुनना अच्छा लगता है, बस…
दीदी के किस्से में माँ या वह खुद भी ,सिर्फ़ गौरैया नहीं थी !
मधु को मालूम था कि माँएं भी लड़कियाँ रही होंगी. क्या माँओं ने भी ऐसे नहीं किया होगा, अविश्वास की डोर पर इश्क का करतब !!! कस्बे की लड़कियाँ जानती हैं कि उनकी माँओं की प्रेम कहानियाँ या तो वक्त के साथ जमींदोज कर डाली गई हैं, या फिर कोई कोई खुले घाव की तरह सामने गंधाती रहतीं हैं…
शालिनी की मम्मी के किस्से जिंदा थे… लेकिन वे गंधाने वाले किस्से नहीं थे ! लुत्फ़ उठाने वाले किस्से थे ! मधु की माँ के किस्से ज़मीन्दोज हो चुके थे, मगर यदा–कदा कोई पुराना आदमी उनकी गंध का हवाला देकर उन्हें सतह के उपर ला देता था. और यहीं मधु को बहुत अटपटा लगता… कोई उससे कभी भी झगडे के दौरान कह सकता था, “तेरी माँ रंडी थी, तू भी वो ही…” मधु लड़ जाती… और एक कमरे के अपने घर के कोने में बैठ कर रोती, जिसे कोई नहीं देखता था.
मधु की हिम्मत क़स्बा जानता था, मधु की कमजोरी वो खुद जानती थी, माँ जानती थी, और कभी बड़ी दीदी जानती रही थी.
दीदी ने मधु को बहुत कुछ बताया था. माँ के बारे में. कस्बे के बारे में. खुद मधु के बारे में… दीदी कस्बे की रग को अच्छी तरह जानती थी. कौन आदमी ‘आदमी‘ है, और कौन ‘सुअर‘ ! दीदी ने भी एकाधिक मुहब्बतें कीं… और हर मुहब्बत पर रवायत की मानिंद, यकीन किया. फिर एक वक्त ऐसा आता जब वह मधु, जो बहुत से मामलों में उसकी संदेशवाहक, ‘इवेंट मेनेजर‘ आदि थी, को रात में रो–रोकर बताती थी कि ‘हम को धोखा हुआ बुनू (छोटी बहन को वह प्यार से बुनू पुकारती थी).’ बार–बार दीदी ये ‘धोखा‘ नामक अनुभव अर्जित करती थी और बार बार खुद को सम्भावित धोखाघड़ी के लिये मजबूर पाती थी ! फिर उसे इन धोखों के इस दुश्चक्र से निर्वाण प्राप्त हुआ… एक दबंग मौसी ने उसकी इन कारगुजारियों पर आपत्ति दर्ज करते हुए मधु की माँ से मशवरा किया और एक लड़के को पकड़ कर दीदी की शादी करवा दी. लड़का उस वक्त ‘तारनहार‘ लगा था… बाद में उसके ऐसे ऐसे ऐब बेपर्दा हुए कि ‘किसका दोष कहें, करम का ही दोष‘ कह कर सबने अफ़सोस व्यक्त किया. लड़की पिट कर मायका लौटती और मायका उसकी हालात पर दो बूंद आंसू ढरका कर भी वापस उसे ‘अपने आदमी‘ के पास भेज देता… शराब पीकर कपड़े उतारना और इंकार पर बेरहमी से मारना… दीदी दो बार पेट से हुई और दो बार गर्भपात !
दीदी की जब शादी हो गई, मधु धूप और बारिश में बगैर छतरी के रह गई ! मगर मधु दीदी की तरह ना तो अपने ‘मुहबतों‘ में कमज़ोर थी, ना ही उस पर किसी की दंबगई चल सकती थी. आप–पास की हमउम्र लड़कियाँ शादी कर कस्बे को अलविदा कहती रहीं. मगर मधु अपनी जगह कायम… अपने जीने के लुत्फों के साथ, शिकवों के साथ…
माँ को अच्छी तरह से मालूम था कि मधु क्या कर रही है. राजू तो बकायदा घर भी आया जाया करता था. खुद मधु की माँ उससे मदद लेती थी. कभी कभी वह काम से घर लौटती तो पाती कि राजू उसकी गैर मौजूदगी में यहाँ से होकर गया है. थोड़ा असहज लगता, मगर राजू में ‘दामाद‘ की संतोषजनक संभावनाएं दिखतीं उसे और बेटी का चयन सही नज़र आता… मधु अपनी दीदी से इस मामले में ‘चालाक‘ तो है… ! उसी दबंग मौसी का, जो खुद को ‘उस स्कूल की हेडमास्टर हैं, जिसमें तुम अभी ‘क‘ से कबूतर सीख रही हो‘ का दावा कर रही थी, यह अनुभव से अर्जित मंत्र था कि प्यार मुहब्बत ठीक है, मगर उसी से करो जो तुमको कार, फ्लैट का सुख दिलाये.
मधु की माँ के ख्वाब चाहे कार, फ़्लैट के ना हों, मगर उसके ख्वाब जो इस मंत्र की मूल भावना से इत्तेफ़ाक रखते थे, उन तिक्त अनुभवों से बदले की कार्यवाहियां थीं, जो उसे अपनी ज़वानी में हासिल हुई थीं ! क्योंकि दीदी ने बताया था, अतीत में कभी उसी नाले के पुराने पुल पर बैठे लड़कों का झुण्ड माँ पर निशाने लगाता, “ऐ… हेमा मालिनी !” कभी उसे गुस्सा आता और कभी वह चिढ़ने के बजाय इन पुकारों का लुत्फ़ उठाती हुई गुजर जाती. कस्बे में जिस औरत ने प्यार किया, वह प्यार जैसा कम, ‘जमा योजना‘ जैसा ज्यादा था. कुछ जमा रखकर आशातीत प्राप्ति की अवधारणा पर आधारित ! पुल पर बैठे ये आवारा लड़के, जो अब अधेड़ से आगे की उम्र पार कर चुके हैं… कुछ किसी लकड़ी मिस्त्री के पास मजदूर, कुछ किसी ट्रक के ड्राइवर… कुछ ठेका मजूर… उस वक्त मधु की माँ को सिवाए दिलकश आवाजों और लोलुप इच्छाओं के क्या दे सकते थे ! मधु की माँ ने ठेकेदार चौरंगी शर्मा के पुकार का ज़बाव दिया था, लगा… रेजा की जिंदगी से कुछ ऊपर उठ पायेगी. बेहतर खायेगी, बेहतर पहनेगी…
चौरंगी ठेकेदार को जो रेजा आँख में भा जाती, वह उसे कुछ दिन औरों से विशिष्ट महसूस कराता. फिर उससे साड़ी देकर कहता, “शादी करेगा तुमसे…”
माँ को भी ऐसी ही प्रक्रिया से बाँध लेने के बाद जब “शादी करेगा तुमसे” वाला वचन उसको प्रतिबद्धता से दूर लगने लगा और चौरंगी ठेकेदार उसके शरीर को हासिल कर भी दूसरी रेजाओं को मुँह मारने लगा तो एक बार फिर मधु की माँ के सामने “हर मर्द कुत्ता होता है” वाली कस्बाई अवधारणा मूर्त रूप में प्रकट हुई.
मधु के किस्से में राजू : औसत कस्बाई लड़का उर्फ ‘बास्टर्ड‘ !
मधु ने राजू से हमेशा वादा किया, कसमें खाई… राजू का यकीन मधु के लिये एक बहुत जरूरी और अज़ीज़ कोई वस्तु था, मगर राजू ने कभी अपना यकीन मधु के आगे साबित करने की जरूरत नहीं समझी ! राजू कस्बे की दूसरी लड़कियों, जिनमें अधिकांश जो उसके साथ ट्यूशन जाया करती थीं… मोहल्ले में रहती थीं… के साथ अक्सर सड़क या बाज़ार में घूमता हुआ पाया जाता… बस मधु को नहीं दिखना चाहिए था… मधु नहीं देखती थी ! मधु को यह सब नहीं मालूम होना चाहिए था और मधु नहीं जानती थी कि ऐसा कुछ हो रहा है. दोनों के बीच लड़ाईयां होतीं… सुलह होते… लड़ाइयों का प्रभाव जितने दिन रहता, मधु उदास और कम बोलने वाली लड़की बन जाती, मगर कोई इतना नहीं जान पाता… वहीं राजू के लिये ये दौर दूसरे विकल्पों के साथ आराम से काटने का वक्त होता… मेले में वह आराम से किसी लड़की के कंधे पर हाथ रखकर झूले में हँसते हुए झूल सकता था, मौज कर सकता था, सड़क पर घूम सकता था… मगर उसी वक्त मधु अपने एतबार और राजू की हिदायतों के साथ घर में चुपचाप अपना काम करती या टीवी देखती…
हर बार झगड़े का असर और तीखापन खत्म होने के बाद मिलने की उग्रता–व्यग्रता दुगुनी होती. इस बार भी एक लड़ाई के अंतराल के बाद राजू का ही कॉल आया, “आ जायेगी… हम वहीं मिलेंगे. मिस् काल पर निकलना.”
और मधु मिस्ड काल आने पर दबे पाँव दरवाजा उढ़का कर बाहर निकल गई. राजू कस्बे के फूटबाल मैदान में एक पेड़ के नीचे खड़ा था… रात के ग्यारह बज चुके थे… माँ को हवा तक ना लगी और मधु ‘अभिसार‘ को बाहर…!
राजू पहले तो हिचकिचाया… मानों परख रहा हो… मानों मधु के समर्पण को भाँपना है… लेकिन अगर वह इस समय उसके बुलावे पर घर से इतनी दूर आ गई है तो, उसके समर्पण पर सवाल का सवाल ही नहीं उठता ! उसने मधु को जोर से चूमा… उसकी देह के संवेदनशील हिस्सों पर उसके हाथ चलने लगे… मधु का अनुभव यहाँ तक था ही, वह चुपचाप खड़ी रही… किन्तु राजू कुछ और आगे बढ़ रहा था… इसका मधु को प्रथम अनुभव हुआ… उसे शर्म भरी उत्तेजना आई, फिर पता नहीं क्यों उसकी छाती धड़क उठी.
“राजू, छोड़…!” मधु अलग होने के लिये कसमसाई.
“अरे ?” राजू ने उसे छोड़ने के बजाय और जोर से कसता रहा…
“राजू, मत कर ये सब.”
“काहे ?”
“काहे ! इसीलिए बुलाया था ?”
“हाँ, काहे, बुरा लग रहा है हम छुए…”
“ये सब खराब है… अभी मत कर… माँ को…”
“जानू… तुमपे मेरा हक़ है कि नहीं ?”
“है… लेकिन… समझो ना बात को…” मधु ने जोर से अपने को उससे खींचा और अलग होकर हाँफने लगी.
“माँ को क्या…” राजू की आवाज़ ऊँची हो गई, “ तेरी माँ कौन सी शरीफ़ है !”
“राजू… ठीक से बात कर… नहीं तो हम जा रहे हैं…”
मधु सन्नाटे में कस्बे की गलियों से होकर घर जा रही थी… राजू भी उसकी माँ को ऐसा ही समझता है… मर्दखोर… ! वह भी उसे उसकी माँ के जैसा मानता है… हर समय हर किसी के लिये…! छि: कितना गन्दा सोचता है राजू…
मधु सोच रही थी कि शालिनी ने उसे उस रात की बातें बताई थीं, जब उसे अपने सहपाठियों ने स्कूल के बाद अपने साथ फांस लिया था. एक समय आया जब, शालिनी में उन लड़कों को एक थप्पड़ भी मारने की हिम्मत नहीं बची ! फिर वह डर गई और वह सब करने को मजबूर जो उन लड़कों ने उससे करने को कहा…
यह एक अन्य आख्यान है, जो शालिनी से जुड़ा है. एक बार रात के नौ–साढ़े नौ बजे तक कस्बे से कोई सात किलोमीटर दूर स्कूल से वह लौटी नहीं थी. और मोहल्ले में यह अफवाह चलने लगी कि “उसके साथ ‘केलि–क्रीडा‘ कर डाली गई है. वो लड़की है ही ऐसी कि उसके साथ…
यह शालिनी के चरित्र को लेकर मोहल्ले का स्थायी निष्कर्ष था.
…शालिनी को आखिरकार श्रीमती उपाध्याय के ‘प्रियजनों‘ में से एक लड़के ने रात को घर पहुँचाया था. सुरक्षित…! शालिनी को स्कूल की वर्दी में देर रात घर लौटते किसने देखा, पता नहीं… मगर दूसरी सुबह मोहल्ले में इस घटना की फुसफुसाहट जारी थी.
“लेकिन हम तो भानु को लव करते थे… बहुत लव करते थे… वो मेरी जान था…” शालिनी रोई थी, उस दिन. “अभी मन करता है मधु, साले का मर्डर कर दें… हरामी, बास्टर्ड !”
मधु ने उस समय उसे सांत्वना देते हुए माँ का एक कथन याद करके बोला था, “ये लोग सब दोगला होता है. मुँह में कुछ, भीतर से कुछ.”
आज मधु को लगा कि राजू के लिये भी वह ऐसा कह सकती है… ‘दोगला !’
मगर श्रीमान उपाध्याय सब समझते थे… वे भी आखिर ‘मर्द‘ ही थे !
शालिनी की मम्मी मोहल्ले के एन बीचों बीच वाले चौक जैसी खुली जगह पर टखने के ऊपर नाईटी उठा कर अपनी चोट की जगह बताने लगी… मदन ने अचानक सचेत होते हुए रोक दिया था, ‘भाभी‘ को… दरअसल श्रीमती उपाध्याय मदन के साथ बाइक पर कहीं से लौटते हुए… कहीं अर्थात, बाज़ार वगैरह से… कहीं सड़क पर गिर गई थीं… और उन्हें पैरों में टखने के पास कुछ चोट आई थी. उन्होंने मदन के ‘प्रतिबंध‘ पर आश्चर्य से उसे देखा और आँखों में कहा, ‘क्या होता है इससे… तुम तो गज़ब हो. चोट ही तो दिखा रही थी !’ इस पर मदन ने भी आँखों से कहा, ‘आप भी हद करती हैं भाभी. देख नहीं रहीं, कैसे सब आपकी नंगीं टांगों को घूरने लगे…’
बिंदास होना और दकियानूस होना, जिसे शालिनी की मम्मी ‘ओर्थोडोक्सपने की लिमिट‘ कहती थीं, जीने के दो ऐसे द्वि–ध्रुवीय तरीके थे जो आदमी के अपने फैसले पर निर्भर हैं. शालिनी ने माँ के व्यक्तित्व से उनका ‘खुलापन‘ ले लिया था… श्रीमती उपाध्याय ने अपने स्कूल – कॉलेज लाइफ की आज़ादी को शादी के बाद भी खोने नहीं देने का प्रयास किया था और ससुराल में संयुक्त रूप से रहते हुए उन्होंने पाया था कि ‘पूर्ववत मुक्त‘ रहने के लिये लड़ाई करनी पड़ती है. अपनों से लड़ाइयाँ कई बार खेद और पछतावे पैदा करती हैं… यह जानते हुए भी भी कि आप गलत नहीं हो, आपको यह एहसास होने लगता है कि आपने अपने लोगों से ज्यादती कर दी है. इस द्वंद में अक्सर आप सही होते हुए भी, लड़ाई छोड़ देते हैं… फिर सब कुछ सपाट… उसी पुरानी लीक पर… ! लेकिन पति का स्थानान्तरण इस कस्बे के नज़दीक के इलाके में स्थित स्कूल में होने से उपाध्याय परिवार यहाँ आ गया और श्रीमती उपाध्याय ने खुली हवा में जी भर भर के सांसें लीं…!
लेकिन एक दिन यानि यह मदन की बाइक से गिरने के दिन, शाम को कस्बे के उस मोहल्ले में अचम्भा विकार का संक्रमण हुआ. क्योंकि श्रीमान उपाध्याय ने मोहल्ले को गलत साबित किया और मोहल्ला अपने गलत होने पर खुश हुआ…
कस्बे में किसी को यकीन तो कतई नहीं होता, अगर कोई कहता कि श्रीमान उपाध्याय ने श्रीमती उपाध्याय पर हाथ उठाया… मगर कोई यह भी नहीं मानता कि, उन्होंने उनपर ‘जुबान‘ उठाया ! उस शाम, श्री उपाध्याय ने अपनी बीबी से ऊँचे नहीं सपाट आवाज़ में कहा, “आपको हम कुछ नहीं बोलते. मगर यह मत समझिए, हमको कुछ दिखाई नहीं देता. छूट दिए हैं तो उसका हद मत पार कर दीजिए… गलत फायदा मत लीजिए… आप कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की नहीं हैं…” श्रीमती उपाध्याय की नज़रों में ठहरे अविश्वास और प्रश्न को साफ़ करते हुए आगे बोले, “मोहल्ले में चार लड़कों से नाम जोड़कर आपने अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल किया है ? क्या लिबरेशन का यही एक मतलब है ? आपके बारे में तो जो सोचते हैं, हैं… पता नहीं लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगें…”
शालिनी ने मधु को अपने घर के इस गतिरोध के बारे में मधु को बताया था… मधु ने कहा कि उसे परेशान नहीं होना चाहिए. बीच बीच में ऐसी लड़ाइयाँ होती हैं. उसके घर में भी होता है… कस्बे में किसी ना किसी के घर में होता है… तभी हमको, और हमसे ज्यादा उनको ये लगता है कि घर में वे हैं… उनकी भी कोई बात सुनता है… उनकी भी कोई ताकत है…! चिल्ला लेने दो.
अब ये समझना होगा कि, कस्बे की बहुत सी लड़कियों और औरतों ने अपने अपने पसंदीदा पुरुषों के साथ दैहिक संबंध बनाये हैं… और बहुत से मर्दों ने अपने पसंद की लड़कियों और औरतों को मजबूर, अगर वे प्रलोभनों से राजी न् हुई तो, करके ऐसे संबंध बना रखे हैं ! ये तह के नीचे वाली सच्चाई सिर्फ़ बाहर वालों के लिये है, कस्बे की रीत–नित जानने वाले तो सब जानते हैं… और देखिये कि किसी के आड़े वक्त पर उन्हें इन्हीं संबंधों के नाम पर गालियाँ देकर बेईज्जत करते हैं… अपने मन की जलन को शांत करते हैं…! किसी के घर में इन्हीं बातों से आग लगी हो तो परम संतुष्टि महसूसते हैं… अद्भुत !…
कस्बे में नाजायज़ संबंधों का अपना तर्क है… स्त्रियों की ‘जरूरत‘ है, ‘मजबूरियां‘ हैं… ‘रोज़गार गारंटी कानून‘ जैसा है… घर का चूल्हा और बदन की साड़ी… गाढ़े वक्त पर मदद की लौ, इन्हीं अवैध रिश्तेदारियों से कहीं अधिक निश्चित और ठोस रूप में आती हैं…
घर के मर्द या तो इन सबसे से अनभिज्ञ रहते हैं, या सबकुछ जान–समझकर भी बर्फ़ बने रहते हैं… वे अपनी अक्षमताओं से उत्पन्न कलह–क्लेश की आँच से डरा करते हैं… ! कभी कभार अपवाद की तरह कोई ‘मर्द‘ चीख–चिल्ला ले तो जीवन चर्या या दिनचर्या में क्या फ़र्क पड़ता है !
एक बात और, कस्बे में सामान्य अथवा विवाहेत्तर प्रेम या संबंधों की हिंस्र परिणति भी आत्महत्या और कभी कभार हत्या में होती है. कस्बे में जब मधु या शालिनी जैसी लड़कियाँ पैदा नहीं हुई थीं, उस वक्त भोंथरे चाकू से कई बार गोदकर अपने बच्चों के सामने ही जिस औरत की दिन–दोपहर हत्या हुई थी, जो कस्बे के लोगों को अब भी याद होगी… इसी प्रकार के विवाहेत्तर प्रेम के अंतर्गत, मर्द के पैसा मांगने पर देने से मना करने के कारण हुई थी. हत्यारे ने आत्मसमर्पण किया, चौदह साल की सज़ा काटी और वापस कस्बे की जिंदगी में लौट आया था… देखने पर अब वह आदमी अधिक ‘मानवीय‘ लगता है ! उसे देखकर आज कोई नहीं कह सकता है, कि इसने ऐसी नृशंस हत्या की थी.
कस्बे के बीच से गुजरने वाली दक्षिण–पूर्व रेलवे की पटरियों पर औरतें ही नहीं, कई मर्दों ने कटकर ख़ुदकुशी कर ली ! उन्हें अपने पुरुष या अपनी स्त्री या स्वयं के प्रेम संबंधों के कारण जो आश्चर्य का झटका, असहनीय असंतोष, असहज लज्जा, ग्लानि, पछतावा और शिकायत हुई, उसका निवारण मृत्यु में दिखा !
किसी भी तरह का प्रेम आदमखोर हो सकता है, ये भी इस कस्बे ने साबित किया है.
अभी इस किस्सों के सारे किरदार अपनी तरह से व्यस्त हैं…
उन्हें नहीं पता कि , वे जीते –जी किन्हीं किस्सों के हिस्से बन चुके हैं ! जैसे वे नहीं जानते कि वे ऐसे ‘विशिष्ट‘ क्यों हैं ? इतने आकर्षक कि उनपर किस्से कहे जांय ! यूँ कि उन्हें जान लेने पर उनके बारे में बताने को दिल मचले…
अगर अभी दिलचस्पी बनी हुई हो तो फिर यह सिलेसिलेवार बताया जा सकता है कि इन किस्सों की,
किरदार एक – मधु ने कपड़े की दूकान पकड़ ली है. माहवार दो हज़ार देता है मालिक… सस्ते कपड़ों की एक दूकान, जो स्टेशन रोड पर है, वहाँ पर सेल्स गर्ल का काम करके अपनी कमाई से चाइनीज मोबाइल लिया है… जिस पर गाने और रिंगटोन बहुत जोर की आवाज़ से बजते हैं… आजकल उसका स्वास्थ्य गिरने लगा है. अचानक बीमार हो जाती है. मुसीबत ये है कि, कस्बे में फिर किसी ने ‘अफवाह‘ फैला दी है कि एक लड़की जो कपड़े की दूकान में काम करती है, अपने बगल के एक टूरिस्ट लाज में काम करने वाले लड़के के साथ पकड़ी गई थी और पुलिस ने उसकी बहुत फजीहत की है… ये लड़की मधु मानी जा रही है !
किरदार दो – शालिनी की दसवीं की परीक्षाएं आन पड़ी हैं, और वह तैयारियों में मुब्तिला है… ‘भानु प्रसंग‘ उसने उसी तरह से भुला दिया है, जैसे मधु ने अपना ‘राजू प्रसंग‘…!
तीसरी किरदार – मधु की माँ ने किसी कैटरिंग वाले को साध कर शादी–ब्याह की पार्टियों में पकाने वाली का काम पकड़ लिया है, और अकसर कस्बे से बाहर ऑर्डर पर रहती हैं… उन्हें अपने संपर्कों का लाभ उठाना आता है… ! कभी कभार रेजा का काम आ जाये तो वह भी कर लेती है. ऑर्डर पर रहना भले ‘मौसमी‘ हो, पर रेजागिरी से ज्यादा कमाई हो जाती है.
चौथी किरदार – श्रीमती उपाध्याय ने श्रीमान उपाध्याय की बातों को ज्यादा दिल पर नहीं लिया है… उनके प्रसंग कस्बे में सक्रिय बने हुए हैं…!
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad