सुशांत सुप्रिय |
यह गाँव के कुत्तों का विलाप नहीं
गिरवी पड़े खेतों का रुदन है यह सूखी नदी नहीं
दर्द का आख्यान है यह बरबाद खेती नहीं
निष्ठुर त्रासदी है यह किसान का योगासन नहीं
उसके गर्दन तक दलदल में
धँसे होने की
छटपटाहट है यह कविता नहीं
मर्मांतक पीड़ा है यह मरघटी शांति नहीं
प्रजातंत्र का क्षरण है …
इस त्रासद वेला में
त्रासदी-सा यह काल
कालिख़-पुते-से ये नीति-नियंता और मैं जैसे
मिट्टी से भर दिया गया कुआँ
जिसके सीने में धड़कती है अब भी
मीठे जल की स्मृति
जिगरी यार से मिलना
जिगरी यार से मिलना जैसे
मीठे पानी के कुएँ पर
प्यास बुझाना जैसे
सूख रहे खेत का
फिर से लहलहा जाना जैसे
हाँफते हुए फेफड़ों में
फिर से ताज़ी हवा भर जाना जैसे
फिर से बचपन में
लौट कर
कंचे खेलना
रंग-बिरंगी पतंगें उड़ाना जैसे
पशु-पक्षियों
पेड़-पौधों
फूलों-तितलियों
चाँद-सितारों से
फिर से बतियाना बहुत दिनों बाद
जिगरी यार से मिलना जैसे
तन-मन का
सूरजमुखी-सा खिलना भूल-सुधार
एक बहुत पुरानी संदूक में से
निकली थीं मेरे बचपन की
कुछ किताबें-कापियाँ
जिन्हें विस्मित हो कर
देख रही थीं
मेरी अधेड़ आँखें कि अचानक
अपनी बनाई किसी
बहुत पुरानी पेंटिंग पर
अटक गई मेरी निगाहें वहाँ बीच सड़क पर कड़ी धूप में
मौजूद थे बरसों के थके कुछ लोग उनकी बोलती आँखों से
मिली मेरी आँखें
और स्तब्ध रह गया मैं —
‘ तुम्हारी बनाई इस पेंटिंग में
कहीं कोई छायादार पेड़ नहीं
बरसों से इस भीषण गरमी में
झुलस रहे हैं हम … ‘ अक्षम्य भूल —
सोचा मैंने तभी मेरी सात बरस की पोती ने आकर
बना दिए उस पेंटिंग में
कुछ छायादार पेड़
कुछ रंग-बिरंगी चिड़ियाँ इस तरह
बरसों बाद कुछ थके राहगीरों को
छायादार ठौर मिल गई चौबीस घंटों में
और सुबह की स्फूर्ति भी पतंगें कट कर लौट गई हैं
धरती की गोद में
विजेता बच्चों के चेहरों पर हैं मुस्कानें
हारे हुए बटोर रहे हैं
बिखरी उदासी के धागे मेरे ज़हन के संगणक में
दर्ज़ हैं दिन के सभी प्रहर
मेरी देह साक्षी है
प्रहरों के रंगों-ख़ुशबुओं की
स्मृति के कलश में भरे हैं
समय के अनगिनत क़िस्से
धीरे-धीरे सूख कर चटख हो रही है
दिन की पेंटिंग मछली की आँखों में बसी है
आकाश की नीलिमा
समय के अथाह जल में
एक गुड़ुप्-सा हूँ मैं चौबीस घंटों के अनगिनत दोहराव से
बनी दुनिया में प्रहरों को
बीतते हुए देखता हूँ मैं
तैयार करता हूँ अपने परों को
नयी उड़ान के लिए चाहता हूँ कि
मेरी धरती की हर सुबह
स्वर्णिम हो
पर यह कैसा तलछट है
जो जम गया है
मेरे समय की रेत-घड़ी में
ये कौन-से मुँहझौंसे प्रहर हैं
जो लगातार उलीच रहे हैं
बाज़ार का काला अँधेरा
मेरी सभ्यता के क्षितिज पर ?
किसान आत्महत्या
कर रहे हैं
दलितों का उत्पीड़न
हो रहा है
मुसलमानों को फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में
मारा जा रहा है
स्त्रियों के साथ
बलात्कार हो रहा है
दरअसल
बौड़मदास की सीनरी में
इस देश का नक़्शा धरा है
जो गाँधीजी के स्वप्न
में से गिर कर
रसातल में पड़ा है
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०———— सुशांत सुप्रियपरिचय
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बधाई अनहद को। अच्छी कविताओ को परोस रहे हैं आप । सभी कविताए अच्छी हैं। चयन करना कठिन है कि कौन सर्वश्रेष्ट है, फिर भी बौड़मदास की सीनरी,भूल-सुधार, ध्यान से देखो कविता मे कवि की विविधता मे अतुल्य है …..।
आभार पूजा सिंह जी। आपके साथ से अनहद को बल मिलता है।
अनहद और सुशांत सर को बधाई ऐसे आप जैसे संवेदन शील कवियों के बल पर साहित्य जिंदा है