हेमन्त देवलेकर |
यह सुखद संयोग था कि नीलांबर कोलकाता द्वारा साल 2016 आयोजित एक साँझ कविता की – 2 में हेमन्त दा से मिलने और उनकी कविताएँ सुनने का मौका मिला। सहज ही यकीन करना मुश्किल हुआ कि कोई इतना सहज-सरल कैसे हो सकता है। शायद कवि-कलाकार होने का यही नेमत है – वरना हम इस बात पर कभी विश्वास न करते कि कला भी इंसान को बदलती है। वह एक शाम थी जिसमें यह अभिनेता डूबकर गीत गा रहा था – यह हुगली का एक किनारा था जहाँ आशुतोष दुबे के साथ मैं भी एक श्रोता था – मुझे कहना चाहिए कि एक कलाकार को लेकर जिस तरह की सहजता की चाहना मेरे जेहन में है – वह हेमन्त दा ने पूरी की और यकीन हुआ कि हिन्दी कविता का भविष्य सुरक्षित है।
दशहरी आम
लगभग धड़ी भर आम आए थे
उस दिन घर में
मालकिन ने कहा था उससे
कि जल्दी-जल्दी हाथ चला
रस ही निकालती रहेगी
तो पूड़ियाँ कब तलेगी
भजिए भी निकालने हैं अभी
और सलाद काटकर सजाना है तश्तरी
वह दशहरी आमों का रस निकालती रही :
अस्सी रुपए किलो तो होंगे इस वक़्त
” माँ – माँ !! हमें भी खिलाओ न रस
देखें तो कैसे होते हैं दशहरी आम
जब नए-नए आते हैं मौसम में
हम भी खाएँगे आम
हमें भी दो … रस “
उसे लगा रस की पतीली के इर्द-गिर्द
बच्चे हड़कंप मचा रहे हैं
फिर उसने कनखियो से घूरा
दायें-बाएँ
और उन्हें चुप होने का किया इशारा
फिर कोई जान न पाया उसके हाथों की ऐय्यारी को
मालकिन भी नहीं
उसके हाथ आमों पर
अब उतने सख्त नहीं थे
वह छिलकों और गुठलियों में
बचाती जा रही थी थोड़ा-थोड़ा रस
एक थैली में समेट लिए उसने
सारे छिलके और गुठलियाँ
– ” जाते-जाते गाय को खिला दूँगी “
मालकिन से कहते हुए
वह सीढ़ियाँ उतर गई ।
तानपूरे पर संगत करती स्त्री
पहले – पहल
उसी को देखा गया
साँझ में चमके
इकलौते शुक्र तारे की तरह
उसी ने सबसे पहले
निशब्द और नीरव अन्तरिक्ष में
स्वर भरे और अपने कंपनों से
एक मृत – सी जड़ता तोड़ी
उसे तरल और उर्वर बनाया
ताकि बोया जा सके – जीवन
वह अपनी गोद में
एक पेड़ को उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए
वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ “राग” उड़ान भरता है
हर राग तानपूरे के तहखाने में रहता है
वह उँगलियों से उसे जगाती है
नहलाती है , बाल संवारती और
काजल आँजती है , खिलाती है
उसने हमेशा नेपथ्य में रहना ही किया मंजूर
अपनी रचना को मंच पर
फलता – फूलता देख
वह सिर्फ हौले-हौले मुसकुराती है
उसे न कभी दुखी देखा ,
न कभी शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे पृथ्वी का ही कोई बिम्ब है
अपने अस्तित्व की फ़िक्र से बेख़बर
उसने एक ज़ोखिम ही चुना है
कि उसे दर्शकों के देखते-देखते
अदृश्य हो जाना है ।
दस्ताने
मैं गरम कपड़ों के बाज़ार मे था
मन हुआ
कि स्त्री के लिए
हाथ के ऊनी दस्ताने ले लूँ
पर ध्यान आया
कि दस्ताने पहनने की फुर्सत
उसे है कहाँ
गृहस्थी के अथाह जल मे
डूबे उसके हाथ
हर वक़्त गीले रहते हैं
तो क्या गरम दस्ताने
स्त्री के हाथों के लिए बने ही नहीं…?
” ये सवाल हमसे क्यों पूछते हो…”
तमाम गर्म कपड़े
ये कहते , मुझ पर ही गर्म हो रहे थे
कंधे
तराज़ू के दो पलड़े हैं कंधे
एक पर अस्तित्व का बाट
दूसरे पर उत्तरदायित्वों का भार
तुला-दान में खर्च होता है जीवन
हताशाओं से उबारने की जड़ी
कंधों के पर्वत पर उगती है
किसी के गले लग कर देखिये
सबसे सुकून भरे पर्यटन स्थल हैं कंधे
उनके कारण ही हम जान पाते
कि छत्तीस का आँकड़ा
विरोध का नहीं, प्रेम का प्रतीक है
आदमी का संघर्ष
जितना रोटी के लिए
ज़्यादा उससे
मददगार कंधों के लिए
वैकुंठ को ले जाने वाला विमान
कोई मिथक नहीं
कंधों में रूपांतरित यथार्थ है
देखना सबसे पहली घटना है
प्रेम –
विश्वास जगाने की सहज क्रिया है
अचानक हम पाते
कुछ विशिष्टता अपने भीतर
और ‘साधारणता‘
इन बदलावों को देख
अचंभित खड़ी रहती
– मसलन उल्टे हाथ की सबसे छोटी उंगली में
आ जाती है पहाड़ ठेलने की ताक़त
त्वचा के भीतर
इच्छाशक्ति की कोशिकाओं में
होने लगते हैं ऐसे करिश्मे
जब पता चलता
कि कोई है जो अपनी हथेली पर
आपके नाम का पहला अक्षर
लिखा करता है अक्सर
और आप ‘चमत्कार‘ की तरह घट जाते हैं
किसी के जीवन में
प्रायश्चित
इस दुनिया में
आने – जाने के लिए
अगर एक ही रास्ता होता
और नज़र चुराकर
बच निकलने के हज़ार रास्ते
हम निकाल नहीं पाते
तो वही एकमात्र रास्ता
हमारा प्रायश्चित होता
और ज़िंदगी में लौटने का
नैतिक साहस भी
प्रेम की अनिवार्यता
बहुत असंभव-से आविष्कार किए प्रेम ने
और अंततः हमें मनुष्य बनाया
लेकिन अस्वीकार की गहरी पीड़ा
उस प्रेम के हर उपकार का
ध्वंस करने पर तुली
दिया जिसने, सब कुछ न्योछावर कर देने का भोलापन
तर्क न करने की सहजता
और रोने की मानवीय उपलब्धि
प्रेम ने हमारी ऊबड़-खाबड़, जाहिल-सी
भाषा को कविता की कला सिखाई
और ज़िंदगी के घोर कोलाहल में
एकांत की दुआ मांगना
संभव नहीं था प्रेम के बिना
सुंदरता का अर्थ समझना
प्रेम होना ही सबसे बड़ी सफलता है
कोई असफल कैसे हो सकता है प्रेम में…?
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
सच्ची बात । सारी कविताएँ अच्छी है प्राकृतिक हैं मुझे सबसे प्यारी लगी " प्रेम "जिसकी लाइन खास कर "कोई है जो अपनी हथेली पर आपके नाम का पहला अक्षर लिखा करता है अक्सर और आप चमत्कार की तरह घट जाते हैं किसी के जीवन में "।दूसरी जिसमे कहा– "सुकून भरे पर्यटन स्थल हैं कंधे उनके कारण ही हम जान पाते कि छत्तीस का आँकड़ा विरोध का नहीं, प्रेम का प्रतीक है"।
स्त्री के नेह की लाइने — "गृहस्थी के अथाह जल मे डूबे उसके हाथ हर वक़्त गीले रहते हैं तमाम गर्म कपड़े ये कहते,मुझ पर ही गर्म हो रहे थे"।
बधाई शुभकामनाएँ..।पूजा
बहुत आभार पूजा। शुभकामनाएँ।
Very nice and simply meaningful poem. I just love hemant da's nature and their personality as a good human being. It was very special those day in which i attends vihaan theatre workshop & learned lots of things like confidence, always be happy etc. These things is very nessary in ur theatre journy . Thank you so much Hemant Da..😃