थोड़ी सी ज़मीं, थोड़ा आसमां…
– जयश्री रॉय
( लमही से साभार)
वीलो के एक अधझड़े पेड़ की छांव के परे धूप का वह मीठा टुकड़ा बिछा था- गर्म और चमकीला! उसी के घेरे में लकड़ी की वह आत्मीय निमंत्रण से भरी छोटी-सी बेंच! हिमालय उस पर जा कर बैठ गया था- भूख लगी है, सैंडविच खा ले! आज इतबार है और उसका डे ऑफ. एक दुर्लभ दिन, पल-पल कीमती! उसे जीना है इसे धीरे-धीरे- पूरे वजूद से.
सामने ऐल्बे नदी की बर्फीली लहरों में दोपहर का सूरज पिघल कर बह रहा है. सतह पर चांदी दमक रही है. हाम्बोर्गा हाफ़ेन! जर्मनी का विश्व प्रसिद्ध बंदरगाह. प्राचीन और विशाल. जब भी फुर्सत मिलती है, हिमालय यहां चला आता है. यहां का माहौल उसे बहुत पसंद है. कहीं से आश्वस्त करता हुआ कि वह अकेला नहीं है, विस्थापित नहीं है, आश्रित नहीं है. हैमबर्ग एक कॉस्मोपॉलिटन शहर है. यहां पूरी दुनिया है. हर देश, मज़हब, नस्ल के लोग. हिमालय सिल्बर फॉयल हटा कर धीरे-धीरे अपना सैंडविच कुतरता है. पीछे दायीं तरफ सीढ़ियों से भीड़ रंगीन पानी की तरह उतर रही है. कितने रंग, कितने चेहरे- नदी के किनारे-किनारे क्यारियों में खिले मिले-जुले मौसमी फूलों की तरह. छुट्टी का दिन हो और धूप हो तो यहां का शायद ही कोई व्यक्ति घर में बैठता है. सब निकल पड़ते हैं अपनी-अपनी सहुलियत के हिसाब से. आज ऑटोभान में गाड़ियां ही गाड़ियां. कैराभान भी. किसी की गाड़ी के पीछे साइकल लगी है तो किसी के कैराभान की छत पर बोट. साथ में घोड़े भी अपनी विशेष गाड़ियों में चल रहे हैं. सब कुछ सुंदर और अदभुत!
दस साल पहले जब वह यहां आया था, उसकी आंखें चौंधिया गईं थीं. वह जवाहर टनल की लम्बी, अंधेरी सुरंग पार करके कश्मीर से दुनिया के इस छोर में आया था, पॉलिटिकल असायलम की उम्मीद में. अपनी गतिविधियों की वजह से वह लम्बे समय से जेहादियों के निशाने पर था. उस पर कई बार जानलेवा हमले हो चुके थे. आखिरी बार जम्मू के जगती ईलाके में आतंकवादी हमले के बाद वह किसी तरह हिन्दुस्तान से बाहर निकल आया था. वह समझ चुका था, जम्मू में तो क्या, वह देश के किसी भी हिस्से में इन लोगों से बच नहीं सकता. जो देश खुद सुरक्षित नहीं वह अपने नागरिकों की क्या रक्षा करेगा! तो वह जेब में अपने वतन की मुट्ठी भर मिट्टी और चनार के पत्ते लेकर यहां चला आया था उजाले की तलाश में. पीछे मैले-सांवले दिनों की अनगिन कतारे थीं और था एक डर- हार-मज्जे में धंसा हुआ. रुह में गहरे तक जज्ब. ये डर उसे- उसकी जाति को विरासत में मिला है- किसी आनुवंशिक रोग की तरह. जिस डर में वह रात-दिन थरथराता है, उसी डर में उसके पूर्वज पीढ़ियों से जीते-मरते रहे हैं. इस डर से मुक्ति नहीं. ये डर उनके डी एन ए में है. ये डर है अल्प संख्यक होने का, अपने आततायियों से संख्या में कम होने का, कमज़ोर और असहाय होने का. इस डर से बड़ा कोई डर नहीं जिसमें हर क्षण अस्तित्व का संकट बना रहता है.
वर्षों रात-दिन भय और अवसाद में रह कर हिमालय और उसके जैसे लोग भयभीत पशु से चौकन्ने और डिफेंसिव हो गये हैं. उन्हें हर जगह खतरा नज़र आता है, साजिश की बू आती है. वे अक़्सर अपनी परछाई से डर जाते हैं. कल रात एक अंधेरी गली से गुज़रते हुये हिमालय को भ्रम हुआ था अपना पीछा किये जाने का. अचानक उसने मुड़कर गुलाबों की झाड़ियों पर अंधाधुंध पत्थर चलाया था. पेड़ों पर सोये पंछी जाग गये थे. ईमारतों के पीछे से कहीं-कहीं से झांकती सफ़ेद चांदनी में चमकते हुये पेड़ उसे नक़ाबपोश-से लगे थे. ये डरावने साये सदियों से उनका पीछा कर रहे हैं. ये स्मृतियां, विभ्रम जीवन के पार से है- कई जन्मों के! वह भागते हुये सात समंदर पार चला आया, मगर इनसे पीछा नहीं छूटा. ये डर कब तक, ये दौड़ कहां तक, हिमालय, हिमालय जैसे लोग थक गये हैं. उन्हें अपनी ज़मीन चाहिये, अपने हिस्से का आकाश चाहिये जो हो कर भी नहीं है. एक उम्मीद का किसी तरह ना मरना, हर हाल में बने रहना उन जैसों की त्रासदी है.
अपनी अधखायी सैंडविच बगल में बेंच पर रख कर हिमालय ऐल्बे नदी की पारे-सी कौंधती धार को तकता रहा था. टेम्स उसे अपनी वितस्ता की याद दिलाती है. वही चमक, वही रवानगी, गर्मी में रेशमी दुपट्टे-सी सरसराती, ठंड में बर्फ बनती बोझिल और फिरोज़ा से शनै:-शनै सफ़ेद होती हुई… पाईन की गंध में, सुलगते चिनार में, स्टाबेरी की सुर्ख लतरों में कश्मीर की याद है, याद जो एक ही साथ उसे सुख और दुख से भर देती है. अपनी ज़मीन अपनी भीतर ले कर वह वर्षों से जी रहा है, मगर बेघर, बेवतन है! हर बार, जब भी वह यहां, ऐल्बे के किनारे घूमने आता है, इसके पानी को छू कर अपनी वितस्ता से वादा करता है- वह- वे- जल्द लौटेंगे उसके पास, उसकी पवित्र लहरों में दीये फिराने के लिये, उसे अंजुरी में भरकर सूरज को अर्घ्य चढ़ाने के लिये. ठीक अपने पूर्वजों की तरह जो आज भी उनके तर्पणों के लिये प्यासे कंठ भटकते हुये उनकी राह देख रहे हैं…
अपने ख़्यालों में डूबा हिमालय ना जाने कब तक उसी तरह एकटक नदी की तरफ देखता हुआ बैठा रहा था. तंद्रा तब टूटी थी जब एक युवती उसके बगल में बेंच पर आ कर बैठी थी- गुडेन टाक! आज मौसम कितना खूबसूरत है! हिमालय ने उसे उचटती निगाह से देखा था- दुबली-पतली, बादामी आंखों और सुनहरे बालों वाली बीस-बाईस साल की युवती. ’गुडेन टाक’ कह कर हिमालय फिर से पानी की तरफ देखने लगा था. उसे अपने में होने की, निरंतर बने रहने की आदत पड़ गई है. वह- उस जैसे लोग अपने भीतर की दुनिया के बाशिंदे हैं. जिस मिट्टी से बेदख़ल किये गये उसी मिट्टी में हर सांस बसे रहने की पागल ज़िद्द… उन्हें अपनी दीवानगी से रिहा नहीं होना. ये दीवानगी उन्हें रास आ गई है. स्मृतियों में बसे घरों की नींवें दिल में गहरी पैठी होती हैं. पाताल में उतरी हुई जड़ें…
थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस युवती ने शायद संवाद शुरु करने के ईरादे से फिर कहा था- इस नदी में ऐसा क्या है जो इस तरह देख रहे हो? जवाब में ना चाहते हुये भी हिमालय ने कहा था- इस नदी में मेरी नदी की स्मृति है…
सुनकर वह युवती अचानक से थोड़ी देर के लिये चुप हो गई थी और फिर जाने कैसी आवाज़ में कहा था- सब के भीतर कोई न कोई नदी होती है, पहाड़, मरुभूमि और समंदर भी… मेरे भीतर भी है मृत सागर- ब्लैक सी!
उसकी बातों ने हिमालय में उसके प्रति उत्सुकता जगाई थी. उसने अब उसे कुछ ध्यान से देखा था- मृत सागर! आप कहां की हैं? जवाब में उस युवती की आंखें बुझ गई थीं- कहीं की नहीं! मैं यहूदी हूं! हिमालय को उसकी बातें, जुबान, आंखों की उदासी- सब पहचानी हुई लगी थी. वह उन जैसी है- अपनी ज़मीन की तलाश में सदियों से भटकती हुई रुहें! उसने इस बार आत्मीय लहज़े में उसक नाम पूछा था. उसने अपना नाम लिज़ा बताया था. बात करते हुये दोनों जहाज पर चढ़े थे. यह जहाज शैलानियों को दो घंटे तक घुमायेगा. जहाज के डेक पर खड़े होकर दोनों नदी के किनारे खड़ी ऊंची, विशाल ईमारतों को देखते रहे थे. कितनी पुरानी और गंभीर! पानी में लंगर डाले हुये जहाज, दूर मछलियों पर झपटते सी गल और आसपास से गुज़रते हुये जहाज, याच और नावें… आकाश खुला था इसलिये ठंड भी तेज़ थी. हवा चाकू की तरह धारदार! अपने हाथ एक-दूसरे से रगड़ते हुये हिमालय ने लिज़ा की दुबली बाहों में उभरते सुर्ख दानों को देखा था. उसने इस समय टी शर्ट के ऊपर एक बांह कटा हल्का स्बेटर पहना हुआ था. वह अंदर जाकर रेस्तरां से दो ग्लु वाईन ले आया था जिसका एक गिलास उसने आभार के साथ स्वीकारा था. गर्म लाल वाईन से धुआं उठ रहा था. कांच के गिलास को घूमा-घूमाकर हाथ सेंकते हुये दोनों ने साथ-साथ वाईन पिया था. वाईन की गर्मी थोड़ी ही देर में नसों में सुखद ताप की तरह फैल गई थी. हिमालय को कांगड़ी की याद हो आई थी. चिलेकलां के बेरहम चालिस दिनों के दौरान यही उनका सम्बल हुआ करती थी. फिरन के भीतर हीरे-मोती की तरह लोग उन्हें छिपाये फिरते थे. सर्दी से पहले ही कांगड़ी के लिये चिनार के पत्ते इकट्ठा करने की धूम पड़ जाती थी. यहां के मटमैले, ठिठुरे हुये सर्द दिन बार-बार उसे उस ज़मीन की याद दिलाती है जहां नाल के साथ-साथ उनकी जान भी गड़ी है… एक गहरी सांस के साथ उसने सोचा था, उन स्मृतियों से रिहाई नहीं! चाहे वह दुनिया के किसी कोने में चला जाय.
लिज़ा के सूखे, सुनहरे बाल हवा में बेतरतीव उड़ रहे थे. आंखों में आकाश का नील नीलम की तरह चमक रहा था. इतने उजले दिन में भी उसकी त्वचा और पूरी सख़्शियत में उदासी कोहरे की तरह जमी हुई थी. वह मुस्कराती थी, बोलती थी मगर जाने क्या था जो उसमें नहीं था. उस कुछ ना होने ने ही शायद उसे भीड़ से अलग कर दिया था. एक परछाई की तरह सबके साथ हो कर भी वह कहीं नहीं होती थी. दूर पानी की सतह पर चिल्लाते और गोल-गोल चक्कर लगात हुये जल पंछियों की ओर देखते हुये उसने अन्यमनस्क भाव से बताया था, रुस में उसका जन्म हुआ और वही पली-बढ़ी. फिलहाल एक प्रायमरी स्कूल में बच्चों को चित्रकला सीखाती है. शादी हुई थी मगर तीन महीने में ही टूट गई…
हिमालय ने पूछा था, वह घूमने के लिये जर्मनी ही क्यों आई? जवाब में लिज़ा ने गहरी सांस ली थी- अपने पुर्खों से मिलने आई हूं… फिर थोड़ी देर बाद रुक-रुककर बोली थी- उनके कब्र तो नहीं मिले मगर इस देश की ज़मीन पर जहां भी पैर रखती हूं, उनकी धड़कनों को महसूस करती हूं. मेरे अपनों के खून और आंसू से यहां की मिट्टी सात पर्तों तक गीली है. एक छोटी चुप्पी के बाद फिर वह कुछ हैरत से बोली थी- जाने इस देश को नींद कैसे आती है!
लिज़ा की बातें हिमालय के भीतर आग़ की तरह कौंधी थी. जिस मद में डूबकर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से घृणा करता है, उसे सताता, प्रताड़ित करता है, उसी मद में चूर हो कर वह सोता है. जैसे उनके हमवतन सो रहे हैं, ये जागे हुये लोगों की नींद है इसलिये शायद कभी ना टूटे! वर्ना बाईस साल बहुत होते हैं जागने के लिये.
जहाज से उतर कर स्टेशन की तरफ बढ़ते हुये लिज़ा ने कहा था- अच्छा हिमालय! सोचो तो, अगर ये चींटियों की कतार की तरह उतरते इन्सानों के चेहरे, कपड़े, भाषा, क़द-काठी एक जैसे होते तो कैसा लगता? दुनिया कितनी बदसूरत और उबाऊ होती ना? फिर क्यों लोग दूसरों को बदलने की क़ोशिश करते हैं, उन्हें अपनी तरह बनाना चाहते हैं! आई टेल यु, इट्स वर्स्ट काइंड ऑफ वायलेंस! लिज़ा की बातों ने हिमालय को जाने क्या-क्या याद दिला दिया था… अपनी ही मिट्टी के लोग आंखों में अंगार भर कर चिल्लाते हुये- अल जेहाद! अल जेहाद! अल जेहाद! ! उन नफ़रत के ज़हर उगलते फेनिल होंठों ने उन्हें कितना त्रस्त, कितना अकेला कर दिया था कि कुछ ही दिनों के भीतर लाखों पंडितों ने अपनी जन्नत, अपना कश्मीर छोड़ दिया था. हिमालय ने थकी हुई आवाज़ में कहा था- ये बातें रहने दो… जाने कब से भाग रहे हैं हम इस नफ़रत से. इतिहास के पन्ने पलट कर देख लो, यह सातवां विस्थापन है हमारा! अपनी रुह, अपनी पहचान, आस्था, पवित्र क़िताबों की हिफाज़त के लिये बस भाग रहे हैं- आज भी! पीछे-पीछे वही फतवा- या रलिव, या गलिव, या चलिव… या तो हम में विलीन हो जाओ, या ख़त्म हो जाओ या इस ज़मीन से दफा हो जाओ… इन्हीं तीन विकल्पों के बीच हम भट्ट लोग वर्षों से जी या मर रहे हैं!
लिज़ा को शायद उसकी बात समझ नहीं आई थी. उसने असमंजस से कहा था- तुम क्यों भागोगे? तुम्हारा वतन है, तुम्हारे लोग हैं, तुम हिन्दुस्तानी हो! उसके सवाल पर हिमालय चुपचाप उठ खडा हुआ था. वह लिज़ा को क्या बताता या समझाता. यही तो उनका क़सूर था- हिन्दुस्तानी होना-हर अर्थ में! निर्दोष होना शायद सबसे बड़ा गुनाह है इस दुनिया में. इसकी सज़ा कभी माफ नहीं होती! उनकी ट्रेन आ रही थी. अब तक वे स्टेशन की एक बेंच पर बैठकर बात कर रहे थे. उन्हें हैम्बर्ग से वेन्टॉर्फ जाना था. वही हिमालय एक जर्मन बूढ़िया के यहां पेइंग गेस्ट की हैसियात से रहता है एक कमरा लेकर. लिज़ा राईन्बेक में अपनी एक आंटी के यहां ठहरी है. उसकी आंटी एक यहूदी स्कूल चलाती है यहां के यहूदी बच्चों के लिये. हैम्बर्ग से ट्रेन वेन्टॉर्फ तक सीधी नहीं जाती. इसके लिये हिमालय को राईन्बेक या बैरगेडर्फ से बस पकड़नी होती है. वेन्टर्फ के एक पिज्ज़ारिया में वह काम करता है. अस्थायी काम. विगत दस सालों में उसने शायद यहां पचास नौकरियां की है, हर तरह की- अधिकतर ब्लैक में. एशिया के और प्रवासी हिन्दुस्तानियों के यहां. शोषित तो हुआ मगर किसी तरह जीने की जुगाड़ भी होती रही. एसाइलम की लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद अब कही जा कर उसे काम करने का परमिट मिला है. सिर्फ अस्थायी नौकरी के लिये. मगर यह भी कम नहीं उसके लिये. वह ख़ुश है. जिन्दा रह पाना उन जैसों के लिये सबसे बड़ी लक्ज़री है, एक तरह से अय्याशी ही.
उसके निमंत्रण पर लिज़ा उसके साथ उसके कमरे में चली आई थी. हिमालय ने उससे कहा था ’अगर यकीन कर सको तो…’ उसकी बात पर लिज़ा खूब खुल कर हंसी थी- यकीन नहीं तभी डर भी नहीं! हम लोग दुख-दर्द, डर से इम्युन हो गये हैं. खोने के लिये हमारे पास कुछ भी नहीं! उसकी बात पर हिमालय भी हंसा था- तब ठीक. देने के लिये मेरे पास भी कुछ नही.
हिमालय बूढ़िया के घर के तहखाने यानी ’केलर’ में रहता है. यहां धूप नहीं आती, हवा नहीं आती. कमरे के बाहर की गैलरी के ऊपर लगी जाली पर से या तो रात-दिन गुज़रते हुये लोगों के पांव दिखते हैं या मटमैला, धूसर आकाश. इसी कमरे में मुफ्त रहने के लिये हिमालय को बूढ़िया के हज़ार काम करने पड़ते हैं- उसके लॉन की घास छिलना, कचरा फेंकना, बाज़ार करना, हर तरह के बिल भरना. फिर भी बूढ़िया ख़ुश नहीं रहती उससे. हर समय बड़बड़ाती है. वह उसके लिये ’आउस लैंडर’ यानी विदेशी है जिन्हें यहां सब शक और अवज्ञा की नज़र से देखते हैं. हिमालय को अब इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. वह वर्षों से बेघर है, शरणार्थी है. इन अजनबी, नफ़रत भरी आंखों की उसे आदत हो गई है. देश में भी, यहां भी. वह यहां की दीवारों पर लिखे नारे- ’आउस लैंडर, राउस’ यानी विदेशी यहां से निकलो- पढ़कर चुपचाप आगे बढ़ जाता है, बद्तमिज़ पंक और उद्दंड किशोरों के बीच की अंगुली के अश्लील एशारों को अदेखा कर देता है. उसकी अपनी ज़मीन पर भी उनके लिये ऐसी ही तहरीरे लिखी होती थीं- पंडितों! कशमीर छोड़ों!
उसके कमरे में आ कर लिज़ा गंभीर हो गई थी- तुम्हारा यह कमरा मुझे कॉन्सेंट्रेशन कैम्पों की याद दिला रही है- तंग, अंधेरी कोठरियां… एक-दूसरे से चिपकी माचिश की डिबियों की तरह, हवा, उजाले, धूप से वंचित… मेरी दादी कहती थी हमारे ’घेटो’ खुले हुये कचरा पेटी की तरह गंदे और तंग हुआ करते थे. कंटीली तारों से घिरी ऊंची दीवारों के पीछे की खूबसूरत दुनिया को यहूदी एक तरह से भूल ही चुके थे. कभी किसी ने इन्हें पार करने का दु:साहस किया तो उन पर सेफर्ड डॉग्स छोड़ दिये गये! कहते हैं वे यहूदियों की बोटियां नोच-नोचकर भेड़ियों की तरह आदमखोर बन चुके थे. ओह! वे कॉन्सेंट्रेशन कैमप्स, घेटो, किलिंग सेंटर, लेबर कैम्पस… पूरे युरोप में फैले हुये. पोलैंड में जर्मनी ने पहला घेटो १९३९ को बनाया था. जानते हो हिमालय, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने एक हज़ार घेटोस का निर्माण जर्मनी अधिकृत पोलैंड और सोवियत युनियन में किया था. घेटोस के नरक में लाखों यहूदियों को क़ैद कर नाज़ी उन्हें पूरे युरोप से मिटा देने का कुचक्र रच रहे थे जिसे वे ’फाईनल सॉल्युशन’ कहते थे.
कहते हुये लिज़ा सिगरेट के कश जल्दी-जल्दी लेती है. बिना रुम हिटर के इस ठंडे कमरे में भी हिमालय उसके माथे पर पसीने की बूंदे देखता है. उसे जम्मू के शरणार्थी कैम्प याद आते हैं- घेटोस! किसी नाज़ी जर्मनी में नहीं, अपने देश भारत में! विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में! मुट्ठी कैम्प के वे अवसाद भरे दिन… उसे भी सिगरेट की तलब होती है. बिना पूछे वह लिज़ा के हाथ से सिगरेट ले कर पीने लगता है. लिज़ा कुछ नहीं कहती. वह समझती है जलावतन हुये लोगों का डर, ये उनके साझे का है.
हिमालय फ्रिज से रेड वाईन की एक बोतल और पिज्ज़ा के चार टुकड़े निकाल लाया था. बोतल आधा खाली था. लिज़ा टुना फिश पिज्ज़ा के वे टुकड़े अवेन में गरम कर लाई थी. कमरे में एक ही पूराना सोफा था जिसका एक पैर टूटा होने की वजह से वह एक तरफ झुका हुआ था. उसी पर बैठकर दोनों ने वाईन के साथ पिज्ज़ा खाया था. हिमालय ने गौर किया था, लिज़ा स्वभाव से बहुत सीधी-सादी लड़की थी. उसकी अंग्रेज़ी टूटी-फूटी थी और और बोलने का लहज़ा रशियन. हिमालय को उसका यूं मिलना और सहज घुल-मिल जाना बहुत अच्छा लगा था. एक तरह से वह एकदम अकेला था यहां. जिस पिज्ज़ारियां में वह काम करता था, वहां उसके कुछ दोस्त ज़रुर थे जिनमें पाकिस्तान का जमील ख़ास था. वह सिया मुसलमान था और कहता था कि सिया मुसलमानों के लिये पाकिस्तान वैसा ही है जैसे यहूदियों के लिये नाज़ी जर्मनी. मुहर्रम के दौरान हुये एक मज़हबी दंगे में अपना सब कुछ गंवाकर वह यहां भाग आया था. दूसरा था यशपाल. वह अफगानिस्तान में युद्ध के दौरान राजनीतिक एसाइलम ले कर यहां आ गया था. अक़्सर मज़ाक में कहा करता था, भला हो इन जेहादियों का, मुझे इस जन्नत में आस्ताना मिल गया! वर्ना जो लोग बुद्ध की मुंडी मरोड़ देने से बाज नहीं आते वे हमारी गर्दनों का क्या हश्र करते! सुनकर हिमालय को कश्मीर के टूटे हुये शिवालय याद आते. इस दुनिया ने भगवान को भी बेघर कर दिया है. कड़ोरों लोगों के साक्षात भगवान दलाई लामा भी शरणार्थी हो कर धर्मशाला में बैठे हुये हैं. फिर उसकी- उसके जैसे लोगों की औकात क्या! यशपाल जर्मनी में एक दिन अपना रेस्तरां खोलने का सपना देख रहा था. इसके लिये एक जर्मन लड़की से पेपर मैरिज करने के लिये वह पैसे जमा कर रहा था. पेपर मैरिज यानी इस देश में रहने के सारे कानूनी अधिकार पाने के लिये यहां की किसी लड़की को पैसे दे कर उससे नाम मात्र का काग़जी विवाह! ख़ैर! इन्हीं दोनों के साथ उसका विशेष सम्पर्क था, वर्ना वह अकेला ही था.
उसे हर पल अपनी पैसठ साल की बूढ़ी मां की याद आती है जो आज भी जम्मू की जगती में बनी नई कॉलोनी की एक छोटी-सी कोठरी में बैठकर अपनी बेटी की लूटी हुई अस्मत और लूटे हुये डेजिहोर के जोड़े के लिये रोती रहती है. उसे नालायक मानती है और भगोड़ा भी. उसके एकलौते बेटे ने इस बुढ़ापे में उसका साथ न दिया. पति भी ऐसा ही था- भगौड़ा! गांधरबल ईलाके के वंदहामा गांव में आतंकवादियों ने कत्ले आम किया तो २५ पंडितों के साथ वे भी मर कर उससे जान छूड़ाई! एक बार भी नहीं सोचा, जालिमों के निज़ाम में जवान होती लड़कियों को चील-कौये नोंच खाते हैं…
लिज़ा खा-पी रही है, उससे बोल भी रही है मगर अपने में है- अपने भीतर की किसी दुनिया में. इस एक दुनिया में सबकी जाने कितनी-कितनी दुनिया है! नक़्शे पर दुनिया के जिस्म पर खींची बदसूरत लकीरों को देखकर वह सोचता है, सारा खेल इन लकीरों का है. लकीरें खींचते-खींचते इंसान खुद में भी कई-कई टुकड़ों में बंट गया है. फिर भी इन लकीरों को विराम नहीं! चल रहे हैं दिलों पर, ज़िन्दगी पर, मुहब्बत और यकीन पर… सोचते हुये हिमालय बोझिल हो उठता है. पिज्ज़ा के टुकड़े समेत प्लेट उठाकर सिंक में रख आता है. लिज़ा उसके सी डी कलेक्शन से ढूंढ़ कर एल्विस प्रेसली का गीत लगाती है- सम वन बिल्डिंग कैंडी हाउस फॉर मै स्वीट सिक्सटीन… हिमालय की तरफ हाथ बड़ा कर कहती है- डांस? हिमालय सी डी का वॉल्युम कम करके उसके साथ नाचता है-रोमियो-जुलियट आज भी तेज़ संगीत की धुन पर नाच नहीं सकते… ये वही जर्मनी है लिज़ा! ’हूं’ लिज़ा अपनी बुझी आंखों में चमक भरने की क़ोशिश करती है- अल्वेयर कामू ने हम जैसों की ही कहानी लिखी है न…
लिज़ा की देह से बासी परफ्युम, वाईन और पिज्ज़ा की गंध आ रही है. उसकी त्वचा की रंगत उबले हुये अंडे की तरह धूसर सफ़ेद है मगर छूने में बेहद नर्म और रेशमी. शायद इसीलिये हिटलर यहूदी स्त्रियों की खाल से जूते बनवाने के लिये वैज्ञानिकों से प्रयोगशाला में प्रयोग करवा रहा था!
हिमालय ख़ुश होना चाहता है, इस पल को, एक स्त्री देह के सानिध्य को महसूसना चाहता है मगर… स्त्री देह के नाम से उसे अपनी बहन जान्हवी का उघड़ा हुआ शरीर याद आता है- असंख्य नील-लाल दाग़ों से भरा बीच बाज़ार पड़ा हुआ. सुजकर एकदम ढोल! हिमालय के हाथ अनायास लिज़ा की कमर के इर्द-गिर्द शिथिल पड़ जाते हैं. वह वापस सोफे पर जा कर बैठ जाता है. बेहद थका, शर्मिंदा-सा. लिज़ा कुछ नहीं कहती और वह भी आकर उसके क़रीब बैठकर अपने गिलास में बचा हुआ वाईन पीने लगती है.
थोड़ी देर बाद हिमालय ने सफाई देने के-से अंदाज़ में कहा था- जब एक मन:स्थिति प्रखर रहती है तब दूसरी इच्छायें शिथिल पड़ जाती हैं. वर्षों अवसाद में रह कर हमारी सहज-स्वभाविक इच्छायें नष्ट-सी हो गई हैं. आंकड़े बताते हैं, हम ख़त्म हो रहे हैं…
लिज़ा अपनी आवाज़ में चहक भरने की क़ोशिश में नाकाम होती हुई कहती है- मैं इन ज़र्द मौसमों में रंगीन तितलियां ढूंढ़ती फिरती हूं. हमें अपनी क़ोशिश ज़ारी रखनी है हिमालय, ख़ुशियों पर से, ज़िन्दगी पर से अपना दावा कभी नहीं छोड़ना है. हिमालय उसकी आंखों में वाईन की फैलती लाली देखता हुआ चुप बैठा रहता है. अचानक उसे लग रहा है वह बहुत थक गया है. कल से फिर वही दस घंटे की कमरतोड़ ड्युटी! रात-दिन इस रफ़्तार से गुज़र रहे हैं मगर वक्त उसके लिये वही ठहरा रह गया है- कश्मीर की वादियों में! वह आगे बढ़ना चहता है मगर हर क़दम पीछे की ओर लौटता है, वही, उसी ज़मीन पर जहां वे अपना आप वर्षों पहले छोड़ आये थे.
लिज़ा उससे कहती है, बड़ा अनोखा है तुम्हारा देश! वहां दुनिया के हर कोने से लोग आते हैं और शरण पाते हैं. पारसियों की पवित्र आग़ जो वे ईस्लामी जेहाद के दौरान ईरान से बचा ले आये थे, आज भी तुम्हारे देश में अक्षुण्ण जल रही है… अल्प संख्यक समुदाय जैसे सिख, जैन, पारसी समृद्ध और सुरक्षित हैं… लिज़ा हिन्दुस्तान के विषय में अच्छी जानकारी रखती है यह उसकी बातों से समझ आता है. हिमालय उसकी बात चुप रह कर सुनता है, कुछ कहता नहीं. कहता भी तो क्या? यही कि जिस देश में पूरी दुनिया के लिये जगह है, जहां करोड़ों की संख्या में पड़ोसी देशों से आये शरणार्थी हैं, उसी देश में उसकी अपनी संतानों के लिये जगह नहीं है! कैसा विरोधाभास है! हिमालय बातों का रुख बदलना चाहता है क्योंकि यह प्रसंग बहुत अप्रिय है उसके लिये- जहां इस समय हम बैठे हुये हैं, उस देश ने तुहारी जाति के साथ बहुत अन्याय किया है, नहीं? लिज़ा उसकी बात अनसुनी करके देर तक बैठी रहती है फिर उठ कर सिंक पर पड़े बर्तन धोने लगती है. उसने देख लिया था, इस छोटे-से कमरे में कोई डिश वासर नहीं है. थोड़ी देर प्रतीक्षा करके हिमालय ने फिर अपना प्रश्न दोहराया था और इस बार एप्रोन में अपने हाथ पोंछती हुई लिज़ा एक बार फिर उसके क़रीब आ बैठी थी- सच है नाज़ी जर्मनी ने हमारी कौम के साथ बहुत बुरा किया मगर यह भी सच है कि सिर्फ इन्होंने ही हमारे साथ बुरा सलूक नहीं किया. बहुतों ने किया. यहूदी जाति के साथ बर्बरता और घृणा का व्यवहार बहुत पहले शुरु हो चुका था, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में. जानते हो हिमालय, सारे यहूदियों को चरित्र से हमेशा एक माना गया और इसी लिये सब को बराबर सज़ा का हकदार माना गया- एक दूध मुंहे बच्चे ले कर एक सौ साल के बूढ़े तक को! पूर्वाग्रह की हद समझ सकते हो. और यह सब खुद को सभ्य और सुसंस्कृत समझने वाली पश्चिमी दुनिया करती रही है हमारे साथ!
कहते हुये लिज़ा की आवाज़ और सांसें तेज़ हो गई थी मगर बिना रुके वह कहती रही थी- एंटी सेमिटिस्म यानी यहूदियों के प्रति घृणा इस दुनिया की एक बहुत पुरानी और खतरनाक बीमारी है. मगर इस बीमारी का नामाकरण पहली बार १९ वीं सदी में जर्मनी ने किया. यहूदियों के विरुद्ध पहला तथाकथित जेहाद १०९६ में हुआ. फिर १२९० को उन्हें इंगलैंड से निकाला जाना, स्पेन के यहूदियों का सामूहिक हत्या १३९१ को, फिर वहां से भी उनका निष्कासन १४९२ को… यातना, उत्पीड़न का एक लम्बा इतिहास है हिमालय! कहां तक गिनाऊं! युक्रैन में भी कोसाक नर संहार, दी होलो कॉस्ट, रशिया में यहूदी विरोधी तरह-तरह के सरकरी फरमान… इन सबके साथ यहूदियों का ईस्लामी तथा अरब देशों से निकाला जाना तो है ही!
’हूं’! कहते हुये हिमालय उसे सुनता रहता है. बीच में कुछ कह कर वह उसकी सोच की प्रवाह, तारतम्य को तोड़ना नहीं चाहता. वह चाहता है कि लिज़ा आज बोले… खुद को हल्का करे. ये बोझ इंसान को भीतर ही भीतर दफ्न कर देता है. वह स्वयं इस घुटन का वर्षों से शिकार है. लिज़ा के भीतर की उत्तेजना उसके चेहरे पर है. वह अपनी मुट्ठियां बांधे कमरे में टहल रही है- किस तरह एक सभ्य, सुसंस्क्रुत दुनिया एकदम सुनियोजित तरीके से एक अल्प संख्यक जाति को बदनाम, प्रताड़ित और नि:शेष करने की साजिश रचता है! यहूदियों से नफरत करने के सौ कारण वे ईजाद करते हैं- यहूदियों की नस्ल आर्य नस्ल से कमतर है, उसके खून में नीचता है, वह पूरी दुनिया के लिये दुर्भाग्य का कारण है, वह किसी का वफादार नहीं होता, जिसकी शरण लेता है, उसी की बुराई करता है, नमकहराम, देश द्रोही, येसू का हत्यारा… हिमालय को ये शब्द जाने-पहचाने लगते हैं. वह लिज़ा के भीतर की खौल को महसूस करता है. उसकी आंच उसके जिस्म तक पहुंच रही है. अपने भीतर इतनी आग़ समोये वह जिन्दा कैसे है! अब तक राख कैसे नहीं हो गई! ये चलते-फिरते जिस्म, मुस्कराते चेहरे वास्तव में कब्रिस्तान हैं. इनके भीतर ज़िन्दगी नहीं, बस मौत है, लाशें हैं सड़ती-बसाती हुयी.
लिज़ा जैसे एकालाप किये जा रही है, खुद में बड़बड़ाती हुई- बुद्धिजीवियों की बुद्धी का भी सदुपयोग देखो- साहित्यकार, इतिहासकार, चित्रकार, संगीतकार- सभी अपनी कला के माध्यम से यहूदियों के खिलाफ जन साधारण के मन में नफरत पैदा कर रहे थे. कोई अख़बार निकाल रहा था, कोई पैमप्लेट छाप रहा था तो कोई पर्ची बांट रहा था. यहूदियों की वजह से सबके धर्म, संस्कृति, अस्मिता खतरे में पड़ गये थे. जाने कितनी क़िताबें यहूदियों की कारस्तानियों पर लिखी गईं. उस समय हमारे समुदाय को ले कर हर जगह तरह-तरह के चुटकुले प्रचलित थे. फिल्मों में दिखाये जाने वाले अधिकतर खल पात्र भी यहूदी ही होते थे. हमारी जाति शैतान की जाति है. हम एक दिन पूरे विश्व का धर्मांतरण कर सबको यहूदी बना देना चाहते हैं… संक्षेप में सारी बुराई, तकलीफ, फसाद की जड़ में हम यहूदी ही थे. इसलिये हमें इस दुनिया के नक़्शे से मिटा देना सबका परम कर्तव्य बन पड़ा था. इन बातों के माध्यम से तुम समझ ही सकते हो, यहूदी जाति के प्रति घृणा लोगों के डी एन ए में है. इसे मिटाना इतना सहज नहीं!
उसकी बातें सुनते हुये हिमालय एक नयी सिगरेट सुलगाता है. बाहर मकान मालकिन का कुत्ता ऊपर की बैल्कनी में रह-रहकर भौंक रहा है. मकान मालकिन मिसेज़ वॉल्टर्स उसे डांट रही है. उसने शायद बैल्कनी की लाईट भी जला ली है. हिमालय जानता है, वह खब्ती किस्म की महिला है. उसे चिंता हो रही है. यहां बहुत सावधानी से रहना पड़ता है. युवा लड़के, ख़ासकर एशियन और अफ्रिकन लड़के हमेशा शक की नज़र से देखे जाते हैं. कभी रात को काम से लौटते हुये देर हो जाय तो खाली पड़े स्टेशनों में कभी हुड़दंगी लड़के परेशान करते हैं तो कभी सुनसान सड़कों पर पेट्रोलिंग पर निकली पुलिस रोक कर पूछ्ताछ करती है.
बाहर के शोरगुल से लिज़ा का ध्यान हटाने के लिये हिमालय लिज़ा से दूसरा प्रश्न पूछता है- और पूर्वी देशों में? जहा तुम लोगों की उत्पत्ति हुई…
लिज़ा भी बाहर की आवाज़ों को सुन रही थी. फिर भी खुद को सहज दिखाते हुये वह बात करती रही थी- हर जगह वही दुर्व्यवहार, उत्पीड़न… धार्मिक अल्प संख्यक होने की वजह से हर जगह हमें बहु संख्यक समुदाय से शोषित और अपमानित होना पड़ा. येसू मसीह की हत्या का कलंक और सज़ा हमारी हर पीढ़ी को सहनी पड़ी, हालांकि येसू हमारी ही तरह खुद भी एक यहूदी थे.
लिज़ा की बातें हिमालय को अनायास अपने देश की ओर धकेल ले चलती हैं. कश्मीर में वे यानी पंडित समुदाय भी अल्प संख्यक थे. उन्हें भी हर पल आतंक में गुज़ारना पड़ता था, चुप रह कर सब कुछ सहना पड़ता था. उसे याद आता है १९९२- आतंकवाद के शुरुआती दौर में मां का धीमे स्वर में गायत्री मंत्र पाठ करना, शाम ढलते ही पूरे परिवार का दरवाज़ा बंद कर घर के भीतर बैठ जाना, छोटी बहन जान्हवी का सर से पैर तक खुद को ढक कर स्कूल के लिये घर से निकलना. कोई धार्मिक अनुष्ठान, सांस्कृतिक कार्यक्रम. राजनीतिक गतिविधि वे खुलकर नहीं करते. बहुत लो प्रोफाइल रखते ताकि किसी की नज़र में ना आये, ना खटके. पड़ोसी देश के साथ कारगिल का युद्ध हो, सीमा पर तनाव हो या क्रिकेट मैच हो, उनकी स्थिति शोचनीय हो जाती. हिन्दुस्तान के किसी भी तथाकथित अपराध या ग़लती का दंड उन्हें ही भरना पड़ता. देश के किसी हिस्से में दंगे भड़कते, साम्प्रदायिक तनाव होता, वे सूख कर काट हो जाते. कोई उन्हें हिन्दुस्तान का जासूस समझता तो कोई सरकारी पिट्ठू! बिना किसी ज़ुर्म को अंजाम दिये जाने वे किस ज़ुर्म के गुनाहगार थे. छोटी-मोटी झड़प में भी युवकों, बच्चों का उसकी मां-बहन को चिढ़ाना- भट्टिनी-भट्टिनी दोदयय मस… यह सब कुछ बहुत अपमान जनक था.
सोचते हुये उसकी आंखें एक गीली चमक से भर गई थीं शायद जिसे देख कर लिज़ा ने उसके कंधे पर हाथ रखा था- हम सब के अवचेतन मन में एक समूह मन भी होता है जो अपनी जाति और पूर्वजों के सुख-दुख, करुणा, संत्रास की स्मृतियों में सुप्त भाव से जीता है. तभी तो कभी-कभी सुख में हम दुखी हो जाते हैं और दुख में भी सुख के अबुझ भाव से भरे रहते हैं. वास्तव में हर इंसान के भीतर कई-कई इंसान होते हैं… युगों पहले प्रताड़ित मेरे पूर्वज मेरे भीतर भी रोते हैं, उच्छवास भरते हैं और रातों को मैं सो नहीं पाती. मैं जानती हूं कॉन्सेंट्रेशन कैम्पों में, घेटोस में, किलिंग सेंटर में, लेबर कैम्पों में भूख से, अत्याचार से, बीमारी से मरने वाले लाखों यहूदियों की मैं आत्मा हूं. हर यहूदी के साथ हर बार, बार-बार मैं ही मरती हूं. मेरे जिस्म में अनगिनत अदृश्य दाग़ हैं जिन्हें मैं ही देख सकती हूं, कोई और नहीं. जानते हो, कोई रार-रात भर मेरे सरहाने बैठ कर रोता है, मुझे बच्चों की चीखें सुनाई देती हैं. सपनों में मास ग्रेव्स दिखते हैं. लाश ही लाश… ज़मीन खून से लाल, हवा में सड़ते इंसानी जिस्म की बदबू… ओह! बहुत भयावह है यह सब! असह्य! वर्षों से अवसाद में हूं, नींद की अनगिन गोलियां भी अब काम नहीं करतीं…
“इन सब से बाहर आओ लिज़ा! बहुत ज़रुरी है यह…” उसकी बातें सुनते हुये हिमालय ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था. तो यह नर्क उसके अकेले का नहीं है! इस नर्क के बाशिंदे पूरी दुनिया में फैले हैं.
“क़ोशिश करती हूं हिमालय! मगर खुद से छुट कर भी कहां जाऊं! बाहर भी तो वही सब है. नये मुखौटे के नीचे दुनिया वही पुरानी है. जानते हो, कितनी बार हमारे स्कूलों पर हमले होते हैं? सीनागॉग- हमारे मंदिर- तोड़े जाते हैं? एक छिपा हुआ, प्रच्छन्न पूर्वाग्रह, घृणा तो है ही दिलों में. ये रक्तबीज की संताने हैं, कभी मरेगी नहीं. युरोप में अरब देशों के लोग हमारे विरुद्ध हेट क्राईम करते हैं. फिलहाल सबसे बड़ा खतरा उन्हीं से है हमें.
इसके बाद एक लम्बी चुप्पी में समय गुज़रता रहता है. उस छोटे-से ठंडे, सिले कमरे में दो शरणार्थी एक-दूसरे के हाथ पकड़ कर मोम के पुतलों की तरह स्तब्ध बैठे रहते हैं. उनके चेहरों पर जाने कितनी लकीरे हैं, कुछ कांपती हुयी, कुछ बेजान… शब्दों के परे उनकी यंत्रणा अभिव्यक्ति के नये मार्ग ढूंढ़ रहे हैं. आंसू, उच्छवास भी अब पुराने हो चुके, अभिव्यक्ति में असमर्थ हो चुके…
लिज़ा अचानक बेचैन हो उठती है- थोड़ी ताज़ी हवा चाहिये थी, दम घुट-सा रहा है! हिमालय खिड़की खोलता है. खिड़की के बाहर गैलरी की जाली पर पत्ते ही पत्ते बिखरे हैं. उनमें से झांक रहा है एक टुकड़ा आकाश, नीला, मटमैला… हल्की बहती हवा में सूखे पत्ते खड़खड़ा रहे हैं. दीवारों पर झुलती लतरों पर दूध के छींटे जैसे नन्हें सफ़ेद फूल खिले हैं. उनकी धीमी, मादक गंध हवा में है. हिमालय लिज़ा को खिड़की के पास आने का संकेत करता है- इस समय रास्ते पर टहलना ठीक नहीं होगा. इतने-से आकाश से काम चला लो… लिज़ा कुछ नहीं कहती. बस सूखी, चमकती आंखों से आकाश की ओर देखती रहती है. जाने क्यों वह यकायक बहुत बेचैन हो गई है! उसे याद आ रही है अपनी दादी से हज़ार बार सुनी हुई एक कहानी- उनके पूरे परिवार का नाज़ी जर्मनी से भाग कर हंगरी में आश्रय लेने की कहानी. उसकी ९९ साल की दादी सालों से पागल है और रात-दिन बस एक यही कहानी सुनाती रहती है. हर बार जब भी लिज़ा पागल खाने में जाती है उनसे मिलने, उनसे यह कहानी सुनती है और रोती है. साथ में दादी भी रोती है. दादी अपने बेतरह कांपते सर और हाथों को हिला-हिलाकर विस्फारित आंखों से कहती हैं- वो एक बहुत सर्द रात थी. चारों तरफ खेत-खलिहानों में पाला पड़ा हुआ था. जिधर देखो, पेड़, जंगल, ज़मीन सफ़ेद. जैसे कफन में लिपटी हो. नाज़ियों के अत्याचार से बचने के लिये हम तीस यहूदियों का एक दल हंगरी की ओर रात के अंधेरे में भाग रहे थे. तब तेरा बाबा पांच साल का रहा होगा और हमारी जुड़वा बेटियां तीन साल की. हमारे कपरे गीले थे, बर्फ की तरह ठंडे. तेरे दादा के पैरों की सभी उंगलियां ठंड से मर कर काली पड़ चुकी थी. बच्चों के फटे होठों से खून रिस रहे थे. भूख, प्यास और नींद से बेहाल जाने कैसे और कितने दिनों में नाज़ियों से छिपते-छिपाते हम हंगरी पहुंचे थे. मगर वहां भी अंतत: हम कुछ ही दिनों में पकड़ लिये गये थे और एक भीड़ भरे घेटो में बंद कर दिये गये थे. वहां से तेरे दादा को किसी लेबर कैम्प में ले जाया गया था, जहां से वे कभी नहीं लौटे… कहते हुये दादी पहले खूब ज़ोर से हंसती फिर हिलक-हिलक कर रोती. अपने आंसू पोंछती हुई लिज़ा उनके शांत होने का इंतज़ार करती रहती और अचानक दादी शांत हो भी जाती और निर्लिप्त ढंग से कहानी सुनाने लगती- उस कैम्प में हमारी हालत जानवरों से भी बद्तर थी. किसी बात की सुविधा नहीं थी. छोटी-छोटी कोठरियों में लोग ढोर-डंगरों की तरह ठूस-ठूस कर रखे जाते. यहूदी पुलिस के द्वारा ही यहूदियों पर कड़ी निगरानी रखवाई जाती. हर दूसरे-तीसरे दिन बूढ़े और बीमारों को मारने के लिये चुन कर किलिंग सेंटर भेजा जाता. कभी किसी काम को करने से मना करने पर इन यहूदी पुलिस वालों को भी खुले आम गोलियों से उड़ा दिया जाता…
दादी कहती जाती और लिज़ा सांस रोक कर सुनती जाती. उसे यकीन नहीं होता… ऐसा भी हो सकता है! दादी बीच में तालियां बजा कर झूम-झूम कर गाने लगती- ओ जर्मनी! नाज़ी जर्मनी… सबका प्यारा-दुलारा जर्मनी… और फिर थू-थू कर थूकने लगती.
उस कहानी को सुनने लिज़ा बार-बार दादी के पास जाती, उनका मान-मनुहार करती. कभी दादी महीनों नहीं बोलती और कभी अचानक से बोलना शुरु कर देती- उस कैम्प में लाशें नालियों में दिनों तक पड़ी रहतीं, बच्चे सड़कों में पड़े धीरे-धीरे मरते, आकाश में चीलों, गिद्धों का जमघट लगा रहता… हर तरफ भूख, बीमारी, अमानवीय अत्याचार… नरक था वह! जीवित नरक!
लिज़ा बिल्कुल चुप रहती. कुछ कह कर वह दादी का ध्यान भंग नहीं करना चाहती थी. एक बार वे बिदक गई तो फिर महीनों मुंह नहीं खोलेगी. कभी-कभी दादी के चेहरे की रेखायें नर्म पड़ती, एक उजली हंसी से उनकी काया भर उठती- उन शैतानों में एक भला आदमी भी था- डॉक्टर मिल्कमान! बच्चों से ख़ास लगाव था उन्हें. जब भी कैम्प आते, बच्चों के लिये मिठाई, खिलौने ले आते. मेरे बच्चे उन्हें ’आर्ज़्ट ऑंकेल’ कह कर पुकारते थे.
लिज़ा को दादी की कहानी सुन कर तसल्ली मिलती- चलो! इस दुनिया में कुछ अच्छे इंसान भी होते हैं. दादी अबाध बोलती जाती- एक दिन वह डॉक्टर, जब मैं कहीं गई हुई थी, मेरी दोनों बच्चियों को उठा कर ले गया और ऑपरेशन के द्वारा उन्हें एक-दूसरे की पीठ से जोड़ दिया! सुन कर पहली बार लिज़ा सन्न रह गई थी- जोड़ दिया! “हां, जोड़ दिया…” कहते हुये अब दादी के चेहरे पर उन्माद के भाव दिखने लगते- कुछ ही दिनों में उनके घाव पक गये थे. उनकी पीठ से खून, मवाद बहता रहता और वे बच्चियां हलाल किये हुये जानवरों की तरह रोती-चिल्लाती रहती. मैं उन्हें तड़पते हुये देखती मगर कुछ नहीं कर पाती. उनके जख़्मों में कीड़े पड़ गये थे… वे कीड़े मेरी बच्चियों को खोद-खोद कर खा रहे थे… मैं यह सब बर्दास्त नहीं कर पा रही थी. उन दिनों मैं मुट्ठियां भींच-भींच कर अपने ईश्वर जेहोबा को कोसती रहती थी. कमज़ोर भगवान की संतानों को सब सताते हैं. “फिर? दादी फिर?” पूछते हुये लिज़ा को प्रतीत होता उसकी सांस रुक रही है. दादी अनमनी-सी कहती- फिर मुझे एक दयालु नर्स मिल गई. उसने मुझे थोड़ा मॉरफिन दिया. मैंने वह मॉरफिन खिला कर दोनों बच्चियों को ज़िन्दगी से निजात दिलाई… अपनी कहानी ख़त्म करके दादी फिर झुम-झुम कर गाने लगती- ओ हिटलर… हेर हिटलर… मायने हिटलर! लिवलिंग हिटलर!
खिड़की पर खड़ी लिज़ा अचानक ज़मीन पर ढहने-सी लगती है. हिमालय उसे लपक कर सम्हालता है. लिज़ा निरंतर बड़बड़ा रही है, जाने क्या… हिमालय अपनी बांहों में लिज़ा के कांपते हुये शरीर को समेटे खड़ा रहता है. सामने की दीवार घड़ी में रात के बारह बजे हैं. पूरे मुहल्ले में सन्नाटा छाया हुआ है. शनिबार को लोग पार्टियां करते हैं, देर रात तक जागते हैं, मगर रविबार को जल्दी बिस्तर में चले जाते हैं. दूसरा दिन सोमबार होता है- भाग-दौड़, व्यस्तता का दिन. पहले हिमालय रातों को टहलने निकल जाता था मगर कई बार पेट्रोलिंग पुलिस से सामना होने के कारण अब नहीं निकलता. हज़ार तरह के सवाल करते हैं, कागज़ात देखना चाहते हैं. यह सब परेशान तो करती ही है, साथ ही अपमान जनक भी है. बहुत देर बाद थोड़ी शांत हो कर लिज़ा कहती है, सारा झगड़ा किस बात का है, पता है? पूर्वाग्रह का! जो हमारी तरह नहीं दिखता, हमारी भाषा नहीं बोलता, हमारे ईश्वर को नहीं पूजता वह ग़लत है, अपराधी है, पापी है. पूरी दुनिया एक-दूसरे को ’कंवर्ट’ करने में लगी हुई है. किसी को वह जो है, उसी रुप में ना स्वीकारना एक बहुत बड़ी हिंसा है. दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमें किन-किन बातों के लिये सताती रही, सज़ा देती रही. किसी को हमारे बाल, मूंछ और जुल्फों से आपत्ति थी तो किसी को हमारे पहनाबे से. किसी को हमारी भाषा पसंद नहीं तो किसी को हमारी टोपी. पूजा स्थल तो हमेशा निशाने पर रहे. हमें अपमानित करने के कितने तरीके ईजाद किये गये. अछूतों की तरह हमारी बस्तियां शहर से बाहर होतीं, हमें शहर के भीतर आने की इजाज़त नहीं होती. पहचान के लिये हमें बाहों में पट्टा या बैज बांधना होता, हमारे घर भी चिन्हित किये जाते ’स्टार ऑफ डेविड’ से. हंगरी के बुदापेस्ट में हमारे लोग जाने कितने अर्से तक ऐसे घरों में रहे. हर जगह हम दागी लोग थे. ऐसे लोग जिन पर यकीन नहीं किया जा सकता, जिन्हें वे कॉसमिक इवल पुकारते थे.
हिमालय उसकी बातें सुनता है और अपने दर्द में डूबता है. ये बातें जानी-पहचानी है, एक हद तक उसका जिया-भोगा भी है. साम्प्रदायिकता, जातीय हिंसा, पूर्वाग्रह का शिकार हो कर ही आज उनका समाज अपने ही देश में शरणार्थियों का अपमान जनक जीवन बाईस सालों से जीने पर बाध्य है. वह दुनिया को समझा नहीं पाता कि जिस देश में लोग अपने धर्म की रक्षा के लिये शरण लेने आते हैं उसी देश के मूल निवासी साम्प्रदायिकता का शिकार हो कर कैसे दर-ब-दर भटकने के लिये विवश हो सकते हैं. वोट और तुष्टिकरण की राजनीति शायद उनकी समझ से परे है. लोकतंत्र का यह एक काला पक्ष है. सोचते हुये वह अपनी हथेली पर पिघले मोम की गर्म बूंदों की तरह टपकते लिज़ा के आंसुओं को महसूस करता है. उसके भीतर भी एक पिघलाव है, लिज़ा की कहानी सुन कर वह अपने दुख में नम हो रहा है. सबके सुख का स्वाद अलग-अलग होता है, मगर दुख की अनुभूति एक-सी. नसों में धीमे-धीमे घुलते ज़हर की तरह, कच्चे कब्र की तरह उदास बहता हुआ…
लिज़ा बाथरूम से अपना चेहरा धो आती है. उसकी आंखें और गाल, नाक की नोंक लाल है. बाल भी भीग कर माथे से चिपक गये हैं. उसके साफ, धुले चेहरे की तरफ देखते हुये हिमालय को अहसास होता है, लिज़ा आकर्षक है. किसी और परिस्थिति में वह दोनों मिलते तो न जाने कैसी कहानी बनती. मगर आज तो उसे सुख-दुख बांटने वाला कोई दोस्त चाहिये था. आज उसके पिता की बरसी थी. उन्हें गये हुये इक्कीस साल हो गये… और जान्हवी को? वह सोचना नहीं चाहता. जान्हवी के साथ सतरुपा भी आ खड़ी होती है. जाने उसके पीछे इस लड़की का क्या हुआ! कभी-कभी जानने की इच्छा होती है मगर सम्पर्क करने की हिम्मत नहीं होती. एक दिन उसे छोड़ कर चुपचाप भाग आया था. क्या बताता उसे! उस समय यही लगा था कि अपने साथ उसकी ज़िन्दगी बर्वाद करके क्या होगा. उसे भूल जाय, इसी में उसकी भलाई है.
लिज़ा को फ्रिज से पानी निकाल कर पीते हुये हिमालय कुछ देर देखता है और फिर अचानक पूछता है- हम इतना बर्दास्त क्यों करते हैं लिज़ा? हमारे पास खोने के लिये अब कुछ नहीं है, फिर किस बात का डर!
“शायद इसलिये कि हमारा प्रतिरोध सिर्फ आत्म हत्या साबित होगा… ऐसा नहीं कि हमने प्रतिरोध नहीं किया. प्रतिरोध किया था हमने, अपने तरीके से जबर्दस्त किया था. सशस्त्र संघर्ष! तुमने पढ़ा होगा १९४३ में वार शॉ के सशस्त्र विद्रोह के बारे में. और भी कई घेटो में. बूढ़े, बच्चे, जवान, औरतें… सब! मगर क्या हुआ? नाज़ियों ने हमें कुचल कर रख दिया. दूसरों के देश में, ज़मीन पर सम्मान के साथ जीया नहीं जा सकता हिमालय. अपने देश क महत्व, घर का महत्व क्या होता है, हम यहूदियों से पूछो! इसलिये तो हम ईसरायल के लिये अपनी जान देते हैं.
कहते हुये लिज़ा ने उठ कर फिर से गाने का सी डी लगा दिया था- खूब मना लिया शोक हमने जीवन का, चलो अब थोड़ा जीते हैं! लैम्प की पीली रोशनी में लिज़ा का मुस्कराता चेहरा सुनहरा दिख रहा है, त्वचा मसृन और मोतिया आब से भरा. हिमालय उठ कर उसकी कमर के इर्द-गिर्द अपनी बांहें लपेटता है और दोनों संगीत की मादक धुन पर थिरक उठते हैं. हल्के उजाले में लिज़ा की बोलती हुई-सी नीली आंखें सितारे-सी चमक रही हैं. उनकी तरफ देखते हुये हिमालय के भीतर जाने क्या घटता है और वह धीरे से लिज़ा के चेहरे पर झुक आता है और ठीक तभी कमरे के बाहर कुछ आहट होती है और कोई दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक देता है. दोनों बेतरह चौंक कर एक-दूसरे से अलग होते हैं और हिमालय सशंकित हो कर दरवाज़ा खोलता है. बाहर पुलिस खड़ी थी. साथ ही मकान मालकिन कुछ पड़ोसियों के साथ. ऊपर बैल्कनी में उनका कुत्ता लगातार भौंक रहा था. बूढ़ी मकान मालकिन पुलिस से कह रही थी- मैंने इसे कई बार चेतावनी दी, मगर इसी तरह रातों को अपने आवारा दोस्तों के साथ मिल कर यहां हुड़दंग मचाता है, तेज़ संगीत बजा कर पड़ोसियों की नींद ख़राब करता है. दूसरे पड़ोसी भी उसकी हां में हां मिला रहे थे. सबकी बातें सुनते हुये पुलिस अफसर ने लिज़ा को घुर कर देखते हुये उसका नाम पूछा था और पूरा नाम सुन कर कुछ कौतुक से भर कर बोला था- यहूदी! लिज़ा का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था. मकान मालकिन लगातर चिल्ला रही थी- इसे कह दीजिये मेरा कमरा खाली कर देने के लिये, कल ही! पुलिस अफसर ने उसे चुप कराके बहुत तीखे लहज़े में हिमालय से कहा था कि उसका ऐसा असमाजिक व्यवहार बर्दास्त नहीं किया जायेगा, यह बात वह अच्छी तरह समझ ले और अपने दोस्तों को भी समझा दे. फिर कॉमप्लेन मिलने पर उस पर कानूनी कारवाई की जायेगी. इसके बाद सब चले गये थे. जाते हुये कोई हंस रहा था, कोई सीटी बजा रहा था. ’आउस लैंडर’, ’इंडिस’, ’युडे’(यहूदी) जैसे शब्द हवा में उछल रहे थे.
सबके जाने के बाद दोनों देर तक स्तब्ध-से खड़े रह गये थे फिर हिमालय ने लिज़ा से कहा था- चलो, तुम्हें तुम्हारी आंटी के घर पहुंचा दूं. लिज़ा बिना कुछ कहे उसके साथ चल पड़ी थी.
रात एकदम स्याह और ठंडी थी. ओस में भीगे स्ट्रीट लैम्पस की रोशनी सफ़ेद धब्बे की तरह दिख रही थीं. रास्ते के किनारे खिले गुलाबों की खूशबू से हवा तर थी. बस स्टॉप पर बस का इंतज़ार करते हुये भी दोनों बिल्कुल चुप रहे थे. जैसे उनके बीच की सारी बातें एकदम से ख़त्म हो गई हों. अपनी-अपनी सांसों के भाप में घिरे दोनों ठंड में ठिठुरते खड़े रहे थे. एक लगभग खाली बस में बैठ कर दोनों बैरगेडर्फ रेल्वे स्टेशन पर पहुंचे थे. स्टेशन भी लगभग खाली था. एक कोने में कुछ पंक किस्म के लड़के कैन से बीयर पीते हुये हुड़दंग मचा रहे थे. दो अफ्रिकन लड़के बीयर के खाली कैन को ही फुटबॉल बना कर खेल रहे थे. उन्हें देख कर लिज़ा अपने आप में और सिमट गई थी. उसका यूं सहमना देख हिमालय जाने क्यों भीतर ही भीतर ग्लानि से भर उठा था. इस समय लिज़ा की डरी हुई आंखें उसकी बहन जान्हवी की तरह दिख रही हैं. वह हमेशा इतना मजबूर क्यों है!
ट्रेन हमेशा की तरह एकदम समय पर आई थी. लिज़ा ने डिब्बे में खड़ी होकर जाने उसे किस नज़र से देखा था- फोन करना… हिमालय ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से कहा था- तय कर लिया लिज़ा, अपने वतन लौट जाऊंगा, अपनी ज़मीन के लिये लड़ते अपने लोगों का मुवमेंट ज्वाइन करुंगा… बहुत भाग लिया… सच, भगोड़ों का कोई वतन नहीं होता! उसकी बात सुन कर लिज़ा मुस्करायी थी- तुमने मेरे मन की बात कह दी… चलो, अपने घर लौटते हैं! फिर वहां जो मिले…
घोषणा के साथ ट्रेन के दरवाज़े झटके से बंद हुये थे और थोड़ी दूर तक धीरे-धीरे सरक कर अचानक तेज़ गति से चल पड़ी थी. कांच की चमकीली खिड़की पर लिज़ा के हिलते हुये हाथ की तरफ देखते हुये हिमालय अचानक से हल्का हो आया था- उसका वनवास पूरा हुआ. वह अपने घर, अपने वतन लौट रहा है. मां को यह ख़ुश ख़बरी दे दे… सोचते हुये उसने जेब से अपना मोबाइल निकाल लिया था.
***
जयश्री रॉय
जन्म : 18 मई, हजारीबाग (बिहार)
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय
प्रकाशन : अनकही, …तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह),
औरत जो नदी है, साथ चलते हुये, इक़बाल (उपन्यास),
तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)
प्रसारण : आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान : युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
संप्रति : कुछ वर्षों तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन
संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा – 403 517
मो. : 09822581137
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad