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Home कविता

संजीव बख्शी की लंबी कविता – बस्तर का हाट

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
5
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कवि-कथाकार संजीव बख्शी पिछले कई दशकों से कविता में सक्रिय रहे हैं। उनके लागातार आ रहे संकलन कविता में उनकी गहरी सक्रियता के प्रमाण हैं। संजीव जी की कविताएं सहज होने के साथ जमीन के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं। संजीव की यह खास विशेषता उनकी कविता ही नहीं उनके हालिया प्रकाशित उपन्यास भूलन कांदा में भी लक्षित की जा सकती है।

एक लंबे अंतराल के बाद अनहद पर हम उनकी लंबी कविता पढ़ेंगे। अब अनहद पर सुचारू रूप से सामग्रियां आती रहेंगी। आपकी प्रतिक्रियाएं और सहयोग हमेशा की तरह हमारे उत्साह को चौगुना करती रहेंगी।
बस्‍तर का हाट

–         1 –
बस्‍तर का हाट
दो घंटे का हाट
यह हफते का हाट
शहर से आए हैं मंझेाले व्‍यापारी
हर हफते आते हैं व्‍यापारी
मेटाडोर में आते हें भर कर
सारा सामान और सामान पर बैठकर
सामान की तरह ये व्‍यापारी
इन्‍हें मंझोला कहे जाने पर कोई एतराज नहीं
कोई भी हो मौसम
जमीन पर चटाई बिछाकर छांव के लिए एक पाल डालते हैं
उधार भी देते हैं विश्‍वास का एक अहसास भी
इनसे ही जानते हैं ये लोग
कैसे होते हैं शहरी
तोहमत इन पर यह कि ये
चिरोंजी के बदले नमक देते थे कभी
तोहमत तो और भी कितने
पर आते हैं ये बिना नागा
शादी हो या कोई  और अटका
सब कुछ मिल जाता है यहां
एक ही मेटाडोर में सारा कुछ
दूर दूर से लोग आएंगे
क्‍या कया इन्‍हें चाहिए खूब जानते हैं व्‍यापारी
मेटाडोर में भर कर लाते हैं मीठे बोल
लाते हैं एक हंसमुख चेहरा भी
–         2 –
गांव ,घर ,खेत , जंगल की छुट़टी
यह छुटटी मनाने का उत्‍सव है
सामान खरीदना एक जरूरत तो हैपर
आपस में मिलना और एक दूसरे के सा‍थ्‍ बंटना यह उत्‍सवहै
घर से निकल कर हाट तक चल कर आने का उत्‍सव
आते हैं तो अधिकतर पैदल ही
हाथ में छेाटी बडी  तुमडी लिए
किसी के सिर पर एक लौकी तो किसी के सिर पर बांस की टोकरियां
कोई एक चटाई लिए तो कोई मिटटी का घडा कांवड पर उठाए
पर चल कर सब आते हैं साझा ही
सब एक चाल से ,सब तेज चाल से
गोद का बच्‍चा साडी में कस कर लपेटी हुई स्त्रियां
सबसे अव्‍वल
सजते हैं चेलिक ,सजती हैं मोटियारिनें
सजती हैं नई नई साइकिलें
लगते  हैं उस पर रंग रंग के फूल प्‍लास्टिक के
हाट में एक ओर खडी होती हैं लाईन से ये साइिकिलें
साइकिलें खडी की हैं कि जैसे कार खडी है
देखिए कोई नई साइ‍िकिल और देखिए
इनके चेहरे पर खुशी
–         3 –
एक पपीता लिए बैठी है
उसे बेचने
एक बाला
बैठी है उकडू सुबह से
सामने गमछा बिछा कर उस पर रखा है एक पपीता
कोई एक कटहल लिए बैठा है
क्‍या है यह ,जो मेरे लिए एक पहेली से कम न था
आम के पेड की लाल चीटियों के दोनें ,कहते हैं इससे
बनाई जाती है चटनी और बडे चाव से खाई जाती है
बांस्‍ता है,करील है बांस के ये कच्‍चे कच्‍चे छिले हुए टुकडे
तो दूसरी ओर
दोने में मधुमक्ष्‍ख्‍ी के शहद भरे छत्‍ते के टुकडे
बस इसे खरीदना था और चूस चूस कर खाना था पर यह
क्‍या है का कोई जवाब नहीं था
छुई मुई सा मुस्‍कुराना ही एक तरह का जवाब था
यह जवाब हर वो बेचने वाले के पास था
जो एक गमछे पर घर से लाया कुछ बेच रहा था
यह छुई मुई सा चेहरा
एक बाला का ही नहीं था एक युवक का भी था
यह किसी का भी चेहरा था
किसी भी उम्र का चेहरा
यह बाजार में उत्‍सवित हो जाने का चेहरा था
*******
संजीव बख्शी

कविता संग्रह ‘तार को आ गई हलकी सी हंसी, भित्ति पर बैठे लोग , जो तितलियों के पास है , सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था । चुनी हुई कविताएं । मौहा झाड् को लाइफ टी कहते हैं जयदेव बघेल । तथा कविता पुस्तिकाएं किसना, जैसे सब कुछ समुद्र, हफते की रोशनी,
एक उपन्‍यास भूलन कांदा अंतिका प्रकाशन दिल्‍ली से

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 5

  1. Harihar Vaishnav says:
    10 years ago

    संजीव बख्शी जी के रचना-कर्म का साक्षी बनने का सौभाग्य मुझे मिला है। उनकी कविताओं में शब्द शब्द नहीं रह जाते, वे चित्र बन कर आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूमने लगते हैं। गहरा प्रभाव छोड़ते हैं पाठक के मनोमस्तिष्क पर।
    कोंडागाँव और फिर काँकेर (बस्तर, छत्तीसगढ़) में उनकी पदस्थिति के दौरान हम लोग लगातार गोष्ठियाँ करते रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी कई कविताओं के परिमार्जन में श्री बख्शी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। उनका उपन्यास "भूलन काँदा" तो उम्दा से भी उम्दा है।
    हमारी बातचीत पिछले दिनों इस उपन्यास के नाम और इस काँदा के प्रभाव को ले कर भी होती रही है। सचमुच! उत्कृष्ट उपन्यास। विष्णु खरे जी ने इस उपन्यास के विषय में किसी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। बख्शी जी से आपने बातें की नहीं कि समझ लीजिये कि आपके सारे गम दूर जा पड़ेंगे। मेरे साथ तो ऐसा ही होता रहा है। मेरे सींकिया शरीर में जान आ जाती है, उनसे बातचीत कर।

    Reply
  2. विमलेश त्रिपाठी says:
    10 years ago

    आभार भाई…..

    Reply
  3. Harihar Vaishnav says:
    10 years ago

    संजीव बख्शी जी के रचना-कर्म का साक्षी बनने का सौभाग्य मुझे मिला है। उनकी कविताओं में शब्द शब्द नहीं रह जाते, वे चित्र बन कर आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूमने लगते हैं। गहरा प्रभाव छोड़ते हैं पाठक के मनोमस्तिष्क पर।
    कोंडागाँव और फिर काँकेर (बस्तर, छत्तीसगढ़) में उनकी पदस्थिति के दौरान हम लोग लगातार गोष्ठियाँ करते रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी कई कविताओं के परिमार्जन में श्री बख्शी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। उनका उपन्यास "भूलन काँदा" तो उम्दा से भी उम्दा है।
    हमारी बातचीत पिछले दिनों इस उपन्यास के नाम और इस काँदा के प्रभाव को ले कर भी होती रही है। सचमुच! उत्कृष्ट उपन्यास। विष्णु खरे जी ने इस उपन्यास के विषय में किसी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। बख्शी जी से आपने बातें की नहीं कि समझ लीजिये कि आपके सारे गम दूर जा पड़ेंगे। मेरे साथ तो ऐसा ही होता रहा है। मेरे सींकिया शरीर में जान आ जाती है, उनसे बातचीत कर।

    Reply
  4. Harihar Vaishnav says:
    10 years ago

    संजीव बख्शी जी के रचना-कर्म का साक्षी बनने का सौभाग्य मुझे मिला है। उनकी कविताओं में शब्द शब्द नहीं रह जाते, वे चित्र बन कर आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूमने लगते हैं। गहरा प्रभाव छोड़ते हैं पाठक के मनोमस्तिष्क पर।
    कोंडागाँव और फिर काँकेर (बस्तर, छत्तीसगढ़) में उनकी पदस्थिति के दौरान हम लोग लगातार गोष्ठियाँ करते रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी कई कविताओं के परिमार्जन में श्री बख्शी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। उनका उपन्यास "भूलन काँदा" तो उम्दा से भी उम्दा है।
    हमारी बातचीत पिछले दिनों इस उपन्यास के नाम और इस काँदा के प्रभाव को ले कर भी होती रही है। सचमुच! उत्कृष्ट उपन्यास। विष्णु खरे जी ने इस उपन्यास के विषय में किसी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। बख्शी जी से आपने बातें की नहीं कि समझ लीजिये कि आपके सारे गम दूर जा पड़ेंगे। मेरे साथ तो ऐसा ही होता रहा है। मेरे सींकिया शरीर में जान आ जाती है, उनसे बातचीत कर।

    Reply
  5. Harihar Vaishnav says:
    10 years ago

    संजीव बख्शी जी के रचना-कर्म का साक्षी बनने का सौभाग्य मुझे मिला है। उनकी कविताओं में शब्द शब्द नहीं रह जाते, वे चित्र बन कर आँखों के सामने किसी चलचित्र की भाँति घूमने लगते हैं। गहरा प्रभाव छोड़ते हैं पाठक के मनोमस्तिष्क पर।
    कोंडागाँव और फिर काँकेर (बस्तर, छत्तीसगढ़) में उनकी पदस्थिति के दौरान हम लोग लगातार गोष्ठियाँ करते रहे हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी कई कविताओं के परिमार्जन में श्री बख्शी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। उनका उपन्यास "भूलन काँदा" तो उम्दा से भी उम्दा है।
    हमारी बातचीत पिछले दिनों इस उपन्यास के नाम और इस काँदा के प्रभाव को ले कर भी होती रही है। सचमुच! उत्कृष्ट उपन्यास। विष्णु खरे जी ने इस उपन्यास के विषय में किसी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। बख्शी जी से आपने बातें की नहीं कि समझ लीजिये कि आपके सारे गम दूर जा पड़ेंगे। मेरे साथ तो ऐसा ही होता रहा है। मेरे सींकिया शरीर में जान आ जाती है, उनसे बातचीत कर।

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