पर्वतारोहण,यायावरी तथा लोकवार्ता मे दिलचस्पी .कश्मीरी कहावतों,मुहावरों, कसमों, गालियों पर लेख चर्चित। हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं मे कविताएँ, लेख, कहानियां प्रकाशित।
हिंदी लेखक पुरस्कार ,गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार,सूत्र -सम्मान से सम्मानित(जवाहर टनल पर)
वर्ष 2010 का जम्मू -कश्मीर अकादमी का इक्यावन हज़ार रुपये की राशि का पुरस्कार मुख्य-मंत्री के हाथों लेने से लेखकीय प्रतिरोध के रूप मे अस्वीकार किया। रचनाएँ कई भारतीय भाषाओँ मे अनूदित।
सन 1990 से मातृभूमि कश्मीर से निर्वासित‘।
संपर्क: .e-mail :agnishekharinexile@gmail.com मोबाइल : 09419100035
हंसूंगा मैं कहोगे भरा था भावों से, जड़ों से
भविष्य के सपनों से,
अपनों से
हंसूंगा मैं कहोगे प्रेमी था, कवि था, निडर था
महान था
हंसूंगा मैं क्या वक्ता था, लड़ता था,
पिटता था,
हँसता और हँसाता था
हंसूंगा मैं क्या पति था ,पिता था,भाई था,
बेटा था ,दोस्त था
योगी था
भोगी था
लम्पट था ,
हंसूंगा मैं पूछो मत हंसूंगा क्यों इन बातों पर
हंसूंगा मैं
(
जवाहर -टनल से )दस्तानो मे छिपे हैं
हत्यारों के हाथ
एक दिवंगत आदमी कह रहा है
हर किसी के सामने जाकर ये दस्ताने
मेरी खाल से बने हुएहैं खुश हैं हत्यारे
कि सभ्यलोग नहींकरते हैं
आत्माओं पर विश्वास
हम लौटते हैं स्मृतियों मे
और कभी स्मृतियों की स्मृतियों मे
और क्या बचा है हमारे समय मे
कोई विचार ..
कोई शब्द..
कोई अक्षर .
कोई कवि..
कहाँ जाया जाये क्या आप कोई ऐसी जगह जानते हैं
जहां पहुँचता हो
कोई रास्ता
कोई गली
कोई पगडण्डी
फिलहाल हम लौटते हैं स्मृतियों मे
इसे आप कह सकते हैं
मेरा प्रतिरोध
या विरोध उनका
जो लूट रहे हैं
या लुटने दे रहे हैं
हमारी स्मृतियाँ
हमारा दिक् और काल
हमारा होना
घर का एक एक कोना
गनीमत है
जब तक हैं बची हुई स्मृतियाँ
हम हैं…
छिपने को आतुर स्वयं में
कभी हिचकोले
कभी लहर सी लौट आती वापस क्षुब्ध इतनी तुम
समय से
दिक् से अपने
या कि युगों से .. मैं ले आया
तुम्हे तुम्हारे मायामय अतल से
बाहर
अज्ञात विस्मय के इस पहर में
ओ पृथ्वी मेरी
बरसों से बंद देवालय की
सीढ़ियों पर
की खुल गए कपाट गर्भ-गृह के
गूढ़ से गूढ़तर पहेली जैसे फिर भी अनमनी तुम
विश्वास और संशय के बीच
खड़ी अकेली
वंहा दिखी सीढ़ियों पर
बैठी एक बूढी स्त्री जैसे अनंतकाल से
तुम्हे दिए उसने
पूजा के फूल
मुझे वत्सल मुस्कान मैंने तुम्हारे अभिभूत नेत्रों से
देखा खुद को
अपने श्वेतवराहमन को
फिर तुम को ..
(
दो)ओ श्वेतवराह, मेरे मन
मै विषमय अंधेरों को फाड़ते
खींच लाया
अपने उज्जास में
पृथ्वी प्रियतमा को नहीं भूलता
सिमटना बांहों में
रूप, रस, शब्द ,गंध का
बदलना तुम्हारा
बल खाती हुई सीलहरों मे
उतरना अदभुतकविताश्रृंखला का
जैसे कागज़ पर ओ श्वेतवराह ,मेरे मन !
तुम्ही जानते हो
आकाश के पालने मे
यह चन्द्रमा
हमने जना है..
दूर दूर हैं बच्चे
सूने घरों मे यदा कदा
बजाते हैं फोन
जैसे बूढों की खांसी
किसी वृद्ध -आश्रम मे ..
(
२)बच्चे फ़ोन पर रोज़
पूछते हाल चाल
टलती आशंकाएं
बूढ़े जिंदा हैं फिलहाल…
(
३)बरामदे पर धूप मे
ऊंघ रहे हैं बूढ़े
फर्श पर पड़ी हुई
जैसे पुरानी चिट्ठियां …
बह रही है
स्मृतियों की नदी ओ मातृभूमि !
क्या इस समय हो रही है
मेरे गाँव में वर्षा
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
sabhi kavitaye bahut achchhi hai !
sundar prastuti
बहुत अरसे बाद अपने समय के महत्वपूर्ण कवि को पढ़ने का सुयोग हुआ. विमलेश जी इसके लिए आपको कोटिशः धन्यवाद. तीन-चार साल पहले अग्निशेखर जी से अमरकंटक में मिलने और कविता सुनने का सौभाग्य हुआ था.
विस्थापन का दर्द उनकी रचनाओं का केन्द्रीय स्वर होता है.विस्थापन का अर्थ विस्तार कवि के यह बहुत व्यापक है.यह आत्म से लेकर दुनिया के स्थूल तक जाता है.मातृभूमि कश्मीर के लिए उनका संघर्ष किसी से छुपा हुआ नहीं है.ये कविताएँ बहुत सधे हुए स्वर में हमसे अपने भीतर झांकने को कहती हैं.ये हमसे एक ऐसी ज़गह की तलाश करने को कहती हैं जहाँ से प्रतिरोध का एक सधा हुआ प्रयास शुरू किया जा सके.
बेहतरीन .जमाने के दुःख दर्द ने इन कविताओं की निजता को उजाडने की जगह और गाढा -तीखा बनाया है . यहाँ एक सिम्फनी की तरह एक साथ अनेक स्वरों की अनुगूँज सुनायी पड़ती है . कविता गद्यात्मक होते हुए भी गद्यनुमा होने से इनकार करती है .
अच्छी अद्भुत तरंग से लिप्त कवितायें हंसुगा मै सर्वाधिक छुती है दुसरी भी बहुत छुती मन को ,..आभार आपका ।
पहेलीनुमा व विचारों से आक्रांतित कविताओं के दौर में सहज,सुंदर और प्रासंगिक कविताएँ अपने आप में मुकम्मल है…. कवि को हार्दिक बधाई
विमेलेश दा को सादर धन्यवाद!
बेहद जीवित रचनाएँ, जो एक चित्र बनाती है मन-मष्तिष्क पर …बधाई
भाई अग्निशेखर बेहद संवेदनशील कवि हैं और मुझे लगता है कि उनकी कविताओं में समूची मनुष्यता के विस्थापन का दर्द आकार लेता है…वैसे भी इस दुनिया की करीब आधी आबादी किसी न किसी रूप में विस्थापित है और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी ताकतों के संहारक कारनामों ने इस दर्द और संत्रास को बढाया ही है… इन कविताओं को पढ़ते हुए जो बेचैनी होती है, वही कवि का लक्ष्य है। शुभकामनाएं।
बेहद जीवंत और संवेदनात्मक धरातल की हैं ये कवितायेँ …बधाई आपको
Shekhar ki kavitayen hamesa mughe byathit karti han. Aaj unke sath 3 dino ki biking khajuraho. Panna ki ghatiyan yad aa rahi ha.unhö ne khajuraho aur meri nadi ken per bad men kawitayen likhi ak pyara dost anokha kawi.
– Keshav Tiwari