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Home कविता

नील कमल की एक गज़ल

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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6
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उसका नाम सरस्वती था । यह बात उसे भी ठीक से पता नहीं थी । वह अपना नाम सुरसतिया या सुरसती ही बताती । नालन्दा के आस पास की रहने वाली । मैथिली बोलती थी । वह ब्याह कर कलकत्ते आई और पति के साथ मेहनत मजदूरी करते हुए जिन्दगी गुजार दी । पति का नाम महावीर । कलकत्ता शहर ने न जाने कितने ऐसों को अपने पाश में जकड़ रखा है । मजदूरी या मजबूरी कौन जाने । बहरहाल इन्हें हम पारबती की माई के नाम से ही जानते थे । हम क्या, जानने वाले सभी इन्हें इसी नाम से पुकारते थे । पारबती यानि पार्वती, इनकी बेटी का नाम ।

ये हमारे घर सहित और भी कई घरों में घरेलू नौकरानी का काम करती थीं । मेरी माँ की स्नेहभाजन थीं ये । इन पर भरोसा किया जा सकता था । इतना कि सोने का कलश भी उलटा पड़ा हो तो ये उधर देखेंगी भी नहीं । परिवार इनका बड़ा था , जैसा कि होता है । गरीबी भी अजीब है । परिवार की चिन्ता में ये बराबर घुलती रहतीं । कमाई से मुश्किल से घर का राशन जुटा पाती होंगी । इनके इस त्याग भाव को इनके घर वाले कभी समझने को तैयार न थे । यहाँ तक कि जिनके लिए ये दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत करतीं उन्हें लगता कि घर–घर काम करती है खाना तो इसे मिल ही जाया करता होगा । लिहाजा अपने घर में इन्हें भोजन भी मुश्किल से ही नसीब होता था । संसार माया का जाल है , यह इनका जीवन दर्शन था ।
मेरी माँ से इनका रिश्ता कुछ इस तरह का था कि वे एक दूसरे से अपने दुख –सुख बाँट सकती थीं । हमारे घर खाना इस हिसाब से बनता कि कुछ अतिरिक्त बचा रहे । माँ इस बात का विशेष खयाल रखतीं । माँ की रसोई में कभी कुछ खास व्यंजन पकता तो क्या मजाल कि पारबती की माई बिना खाए चली जाए । अक्सर हम बच्चों से भी पहले उन्हें माँ खिला देतीं । हम इसके लिए नाराज़ भी होते । होश सँभालने की उम्र से लेकर मेरी पढ़ाई , नौकरी और शादी तक ये हमारे घर से जुड़ी रहीं ।)
 यह एक ऐसा चरित्र था जो बारहाँ कविता में आने के लिए मासूम बच्चे की तरह जब–तब हाथ ऊपर करता रहता । इस स्त्री का समूचा जीवन संघर्ष का पर्याय है । जीवन की लड़ाइयाँ और कैसी होती होंगी । देखा जाए तो एक कर्मयोगी का जीवन । आज देर से ही सही यह कविता पारबती की माई के लिए।
लेकिन यह मानना ही चाहिए कि कविता में हम एक विषय अथवा चरित्र को कितनी भी सावधानी के साथ समाने की कोशिश क्यों न कर लें , वह थोड़ा सा हमारे हाथ से फ़िसल ही जाता है । कोई बात अब भी अनकही रह जाती है । यहीं से दूसरी कविता के लिए जमीन तैयार होती है । जो बात एक कवि से छूट जाती है कई बार उसे कोई दूसरा कवि पूरा करता है । और उस तरह कविता की अनन्त यात्रा चलती है ।
                                                                                                                          — नील कमल

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नील कमल


कोलकाता के चर्चित युवा कवि नील कमल की एक गज़ल

_________________________________

    पारबती की माई 

पौ फटते ही काम पे जाती पारबती की माई 
सुरसतिया था नाम बताती पारबती की माई 

इनके घर झाड़ू-पोछा तो बरतन-बासन उनके
हाड़ तोड़ कर करे कमाई पारबती की माई 

पेट काट कर पाले बुतरू सिल कर रक्खे होंठ 
दुनिया माया जाल बताती पारबती की माई 

अति उदार मन हृदय विशाला कठिन करेजे वाली 
महाबीर की एक लुगाई पारबती की माई 

हाथ और मुँह के बीच तनी रस्सी पर चलती जाये 
अजब नटी है गजब हठी है पारबती की माई 

______________________________________________________
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 6

  1. मनीष says:
    14 years ago

    सरल शब्दों में सहज अभिव्यक्ति…
    बहुत ही सुन्दर…
    अपनी मिट्टी अपने गाँव की याद दिलाती रचना…

    Reply
  2. Brajesh Kumar Pandey says:
    14 years ago

    badhiya ghajal ,prastuti hetu badhai vimlesh bhai !

    Reply
  3. RAJESHWAR VASHISTHA says:
    14 years ago

    बहुत अच्छी रचना है…पर इसे ग़ज़ल कहने की कोई विवशता नहीं है।

    Reply
  4. Patali-The-Village says:
    14 years ago

    बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति| धन्यवाद|

    Reply
  5. Anonymous says:
    14 years ago

    भावपूर्ण आभिव्यक्ति !

    Reply
  6. ranjeet thakur says:
    14 years ago

    बहुत सुन्दर!!!

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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