बत्तीस की उम्र में कुँवारापन
कुँवारेपन की इस उम्र में
बंद सपने नहीं आते
आकाश की तरह खुले
और तेज बरसात में धुली सड़क की तरह
साफ और हद से ज्यादा चिकने सपने आते हैं
इस उम्र में देह का शेष
‘अवशेष’ में तब्दील होने की कल्पना मात्र से
स्खलित हो जाता है शीघ्र
इस उम्र तक आते-आते
रोशनी के परकोटे में ‘ब्लैक होल’ के ख्याल
मन को झुँझलाने लगते हैं, बावजूद इसके
दर्शन या अध्यात्म की ओर
एक अनचाहा झुकाव भी महसूसती है आत्मा
लेकिन वह किसी आत्मा-वात्मा की आवाज को
नहीं मानता/नहीं जानता
फिर भी अन्दर ही अन्दर एक खामोश डर तो होता है
अपने लगातार कम होते बालों की फिक्र के साथ
कभी मन कहता – ‘छोड़ दे उम्मीद’
मगर जानता है, उम्मीद उसे नहीं छोड़ेगी
कम से कम इस उम्र में तो बिल्कुल नहीं।
अँधेरे में हाँक
अँधेरे में एक लम्बी हाँक लगाता हूँ
और प्रतीक्षा करता हूँ
कोई आवाज लौटकर नहीं आती है
अपनी आवाज भी नहीं।
फिर हाँक लगाता हूँ
फिर प्रतीक्षा करता हूँ
फिर अफसोस …
लौटकर नहीं आती कोई आवाज
अपनी आवाज भी नहीं
हैरानी है!
कहाँ खो जाती हैं आवाजें ?
कौन खा जाता है आवाजों को ?
क्या अँधेरा ? क्या सड़कें ?
अँधेरे के लिए खाने को क्या
सिर्फ आवाजें ही बची है!
सड़कें क्या
इतनी भुक्कड़ हो चुकी हैं अब!
कोलाहल के लिए कुख्यात
इस इलाके में
अँधेरे में
आवाजों का इस तरह गायब होना
क्या हैरान नहीं करता है?
कविता की चाह
चाहती तो यह भी हूँ कि
चखकर देखूँ जायका माटी का
थोड़ा-सा असभ्य होते हुए
चाहती तो ये भी हूँ कि
रात के दुःखी चेहरे को
पारदर्षी और पवित्र हँसी की उम्मीद दूँ
चाहती तो ये भी हूँ कि
ऊब की ऊँटनी से उतरकर
चलूँ साथ तुम्हारे कुछ दूर तक
चाहती तो ये भी हूँ कि
पोत दूँ दुनिया को
किसी खिले-खिले रंग से
चाहती तो बहुत कुछ हूँ
मगर
तुम तो जानते हो
मेरे चाहने भर से अब
नींद कहाँ आती है चाँद को
रात की शीतल गोद में लेटकर भी
छिपकलियों के बहाने
छिपकलियाँ जब भूखी होती हैं
तब भी उतने ही धैर्य से
साध रही होती हैं अपनी दुनिया को
जितने धैर्य के साथ
नजर आती है अमूमन
उनके बारे में यह तय करना
मुश्किल होता है कि
कब वे भरी होती हैं ?
और कब खाली ?
खाली होने की कोई छटपटाहट या
उदग्रता नहीं दिखाती
हर समय नहीं मनाती उसका स्यापा
क्योंकि वे जानती हैं
और
पूरी शिद्दत से मानती हैं
कि खाली होना
सबसे पवित्र होना है।
एक प्रेम कविता
मैंने उम्मीद को
कनेर के फूल की तरह
खिलते और झरते हुए देखा है
मैंने खामोशी को
बीज की तरह धरती में उतरते
और फिर लहलहाते हुए देखा है
मैंने रोषनी को
तिल-तिल की मोहलत माँगते
और अँधेरे के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा है
पहाड़ों को
मंद-मंद मुस्कराते और
जंगल को सुहाग गीत गाते हुए देखा है
मैंने प्रार्थना के पवित्र शब्दों को
प्रेम की एक शाश्वत कविता में
तब्दील होते हुए देखा है
|
प्रदीप जिलवाने |
प्रदीप जिलवाने
जन्म 14 जून 1978, खरगोन (म.प्र.) में।
एम.ए. हिन्दी साहित्य (विश्वविद्यालय की प्रावीण्य सूची में स्थान), पी.जी.डी.सी.ए.।
फिलहाल म.प्र. ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण में कार्यरत।
पहला कविता संग्रह ‘जहाँ भी हो जरा-सी संभावना ’ की पाण्डुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बत्तीस की उम्र में कुँवारापन
कुँवारेपन की इस उम्र में
बंद सपने नहीं आते
आकाश की तरह खुले
और तेज बरसात में धुली सड़क की तरह
साफ और हद से ज्यादा चिकने सपने आते हैं
इस उम्र में देह का शेष
‘अवशेष’ में तब्दील होने की कल्पना मात्र से
स्खलित हो जाता है शीघ्र
इस उम्र तक आते-आते
रोशनी के परकोटे में ‘ब्लैक होल’ के ख्याल
मन को झुँझलाने लगते हैं, बावजूद इसके
दर्शन या अध्यात्म की ओर
एक अनचाहा झुकाव भी महसूसती है आत्मा
लेकिन वह किसी आत्मा-वात्मा की आवाज को
नहीं मानता/नहीं जानता
फिर भी अन्दर ही अन्दर एक खामोश डर तो होता है
अपने लगातार कम होते बालों की फिक्र के साथ
कभी मन कहता – ‘छोड़ दे उम्मीद’
मगर जानता है, उम्मीद उसे नहीं छोड़ेगी
कम से कम इस उम्र में तो बिल्कुल नहीं।
अँधेरे में हाँक
अँधेरे में एक लम्बी हाँक लगाता हूँ
और प्रतीक्षा करता हूँ
कोई आवाज लौटकर नहीं आती है
अपनी आवाज भी नहीं।
फिर हाँक लगाता हूँ
फिर प्रतीक्षा करता हूँ
फिर अफसोस …
लौटकर नहीं आती कोई आवाज
अपनी आवाज भी नहीं
हैरानी है!
कहाँ खो जाती हैं आवाजें ?
कौन खा जाता है आवाजों को ?
क्या अँधेरा ? क्या सड़कें ?
अँधेरे के लिए खाने को क्या
सिर्फ आवाजें ही बची है!
सड़कें क्या
इतनी भुक्कड़ हो चुकी हैं अब!
कोलाहल के लिए कुख्यात
इस इलाके में
अँधेरे में
आवाजों का इस तरह गायब होना
क्या हैरान नहीं करता है?
कविता की चाह
चाहती तो यह भी हूँ कि
चखकर देखूँ जायका माटी का
थोड़ा-सा असभ्य होते हुए
चाहती तो ये भी हूँ कि
रात के दुःखी चेहरे को
पारदर्षी और पवित्र हँसी की उम्मीद दूँ
चाहती तो ये भी हूँ कि
ऊब की ऊँटनी से उतरकर
चलूँ साथ तुम्हारे कुछ दूर तक
चाहती तो ये भी हूँ कि
पोत दूँ दुनिया को
किसी खिले-खिले रंग से
चाहती तो बहुत कुछ हूँ
मगर
तुम तो जानते हो
मेरे चाहने भर से अब
नींद कहाँ आती है चाँद को
रात की शीतल गोद में लेटकर भी
छिपकलियों के बहाने
छिपकलियाँ जब भूखी होती हैं
तब भी उतने ही धैर्य से
साध रही होती हैं अपनी दुनिया को
जितने धैर्य के साथ
नजर आती है अमूमन
उनके बारे में यह तय करना
मुश्किल होता है कि
कब वे भरी होती हैं ?
और कब खाली ?
खाली होने की कोई छटपटाहट या
उदग्रता नहीं दिखाती
हर समय नहीं मनाती उसका स्यापा
क्योंकि वे जानती हैं
और
पूरी शिद्दत से मानती हैं
कि खाली होना
सबसे पवित्र होना है।
एक प्रेम कविता
मैंने उम्मीद को
कनेर के फूल की तरह
खिलते और झरते हुए देखा है
मैंने खामोशी को
बीज की तरह धरती में उतरते
और फिर लहलहाते हुए देखा है
मैंने रोषनी को
तिल-तिल की मोहलत माँगते
और अँधेरे के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा है
पहाड़ों को
मंद-मंद मुस्कराते और
जंगल को सुहाग गीत गाते हुए देखा है
मैंने प्रार्थना के पवित्र शब्दों को
प्रेम की एक शाश्वत कविता में
तब्दील होते हुए देखा है
|
प्रदीप जिलवाने |
प्रदीप जिलवाने
जन्म 14 जून 1978, खरगोन (म.प्र.) में।
एम.ए. हिन्दी साहित्य (विश्वविद्यालय की प्रावीण्य सूची में स्थान), पी.जी.डी.सी.ए.।
फिलहाल म.प्र. ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण में कार्यरत।
पहला कविता संग्रह ‘जहाँ भी हो जरा-सी संभावना ’ की पाण्डुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
भाई एक साथ इतनी पढ़ना तो बड़ा मुश्किल ||
राहुल गाँधी ४१ के —
क्या राज-परिवार की वंशबेल सुख जाएगी ??
मैंने रोषनी को
तिल-तिल की मोहलत माँगते
और अँधेरे के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा है…
waah!
छिपकलियाँ जब भूखी होती हैं
तब भी उतने ही धैर्य से
साध रही होती हैं अपनी दुनिया को
जितने धैर्य के साथ
नजर आती है अमूमन
बहुत अच्छी कविताएं।
सभी कविताएँ गहन अर्थ को संजोये हैं
sabhi rachnaaye bhut sarthak abhivakti hai…