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Home कविता

राहुल सिंह की पहिलौंठी कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
9
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राहुल सिंह के बारे में यह निर्णय करना कई बार कठिन हो जाता है कि वे कथाकार अच्छे हैं या आलोचक। कथाकार के रूप में जब वे सामने आते हैं तो अपनी अभिव्यक्ति के ताजेपन (फ्रेशनेस) से हमें अपनी रचना का फैन बना लेते हैं और जब हम उनकी आलोचना से गुजरते हैं तो एक गंभीर आलोचक की सूझबूझ से रूबरू होकर उनकी तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। अभी हाल में धोबीघाट पर उनकी समीक्षा को पढ़कर लगा कि वे फिल्मों की कितनी बारीक समझ रखते हैं, यहां तक की तकनीक की बारिकियां जो अचंभित करती है।

राहुल सिंह

पेशे से प्राध्यापक युवा कथाकार-आलोचक राहुल सिंह की रचनाएं स्वयं उनका परिचय हैं। कथा और आलोचना के अलावा उन्होंने फिल्मों पर भी उम्दा लेखन किया है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि राहुल के रचना-मानस में एक बेहद संवेदनशील और इमानदार कवि की रहनवारी है!!  राहुल की इन कविताओं में एक मासूमियत और अभिव्यक्ति की इमानदारी को सहज ही लक्षित किया जा सकता है। और यह  वह खास विशेषता है जो आज की कविताओं में सिरे से गायब होती-सी दिख रही है।  बहरहाल अनहद पर इस बार  प्रस्तुत है कहीं भी पहली बार प्रकाशित हो रहीं राहुल सिंह की पहिलौंठी कविताएं…

आप लोगों की प्रतिक्रिया का इंतजार तो रहेगा ही ..। 

किताबें

(एक)

अपने जानते
किताबें तो हमने
एक ही पढ़ी थीं
परीक्षा  में पूछे गये
सवाल भी एक थे
फिर जवाब
क्योंकर
अलहदा हुए ?
अपने जानते
नहीं जानी
जो बात
कि वह एक
किताब
जिसे
तुम
मुझसे छिपाकर
सोते-जागते
पढ़ती-गुनती रही
पैताने-सिरहाने
संजोती-सहेजती रही
वही किताब थी
जिसे उठाकर मैंने
फेंक दिया था
ठीक उसी दिन
जिस दिन
तुमने कहे थे
मुझसे वह
तीन जादुई शब्द
और मैं दौड़ पड़ा था
खुशी से
और जब
लौटा था
तब
मेरे एक हाथ में
थी चाॅकलेट
और दूसरे में
आइसक्रीम
और
फिर बेसाख्ता
चूमा था
तुमने, मुझे
उस भीड़-भरी
जगह में
आहिस्ता से
मुस्कराकर
कहते हुए
लव यू
मन लट्टू
और
दिल गुड्डी
हो गया था
तब
लेकिन ठीक
उस पल
जिस पल
मैं खुशी से
दौड़ा था
वह अघट
घटा था।
तुुमने सड़क
के किनारे
फंेकी उस
किताब को
उठाया था
जिसकी कवर
पर लिखा था
‘दुनियादारी’
(दो)

इन ढ़ाई वर्षों में
सैकडों दफा याद किया है
तुम्हें
क्योंकि सैंकड़ों अच्छी किताबें पढ़ी हैं
इस बीच
जिसे तुम्हें न दे पाने
की कसक
अब भी कहीं हैं बाकी…

(तीन)

तुमने मुझे मार दिया था
खुद से अलगाकर
या शायद मैं खुद ही मर गया था
तुमसे अलग होकर
            लेकिन एक किताब
            जो थी ग्रीक मिथकों के बारे में
            पढ़ा उसमें फीनिक्स के बारे में
            और जी उठा खुद की राख से
                        उस किताब को भी
                        साझा कर पाने
की कसक
अब भी कहीं है बाकी…

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 9

  1. Anonymous says:
    12 years ago

    बहुत मासूम कविताएं…इमानदार अबिव्यक्ति…बधाई…

    Reply
  2. महेश्‍वर says:
    12 years ago

    विमलेश जी शुक्रिया!! राहुल को शुभकामनाये!!!!!!

    Reply
  3. Abha M says:
    12 years ago

    vah… kitaab saajha na kar paane ki kasak achhee hai… bahut sundar…

    Reply
  4. shanti bhushan says:
    12 years ago

    राहुल जी का यहाँ भी अंदाज़ बहुत अच्छा है…

    शेषनाथ…

    Reply
  5. Mohan Shrotriya says:
    12 years ago

    Kitaab ke ird-gird ghoomti bhaavaabhivyakti mein kaafi taazagi hai aur man ko chhoolene ki kshamataa bhi.

    Reply
  6. Harsh says:
    12 years ago

    bahut khoob

    Reply
  7. Unknown says:
    12 years ago

    sunder..

    jai baba banaras…

    Reply
  8. hamarivani says:
    12 years ago

    अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ….

    Reply
  9. rahul singh says:
    12 years ago

    aap sab ke prati aabhaar aur sab se jyada vimlesh bhai ke prati.

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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