एक
मां के सपने घेंघियाते रहे
जांत की तरह
पिसते रहे अन्न
बनती रही मक्के की गोल-गोल रोटियां
और मां सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही…
दो
इस रोज बनती हुई दुनिया में
एक सुबह
मां के चेहरे की झूर्रियों से
ममता जैसा एक शब्द गुम गया
और मां
मुझे पहली बार
एक औरत की तरह लगी….
आजकल मां
आजकल मां के
चेहरे से
एक सूखती हुई नदी की
भाप छुटती है
ताप बढ़ रहा है
धीरे-धीरे
बस
वर्फानी चोटियां
पिघलती नहीं….
मां
तुमने ही जना
प्यार और नफरत की चाबियां तुम्हारे कमर में ही लटकी हैं कहीं
एक साथ ही
आंसू और खुशियों की सीढियां
तय की तुम्हारे साथ ही
तुमने ही जना
और तुम्हारे भीतर ही ढूंढता मैं जवाब
उन प्रश्नों के
जिसे हजारों वर्ष की सभ्यता ने
लाद दिया है मेरी पीठ पर
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
एक
मां के सपने घेंघियाते रहे
जांत की तरह
पिसते रहे अन्न
बनती रही मक्के की गोल-गोल रोटियां
और मां सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही…
दो
इस रोज बनती हुई दुनिया में
एक सुबह
मां के चेहरे की झूर्रियों से
ममता जैसा एक शब्द गुम गया
और मां
मुझे पहली बार
एक औरत की तरह लगी….
आजकल मां
आजकल मां के
चेहरे से
एक सूखती हुई नदी की
भाप छुटती है
ताप बढ़ रहा है
धीरे-धीरे
बस
वर्फानी चोटियां
पिघलती नहीं….
मां
तुमने ही जना
प्यार और नफरत की चाबियां तुम्हारे कमर में ही लटकी हैं कहीं
एक साथ ही
आंसू और खुशियों की सीढियां
तय की तुम्हारे साथ ही
तुमने ही जना
और तुम्हारे भीतर ही ढूंढता मैं जवाब
उन प्रश्नों के
जिसे हजारों वर्ष की सभ्यता ने
लाद दिया है मेरी पीठ पर
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
प्यार और नफरत की चाबियां तुम्हारे कमर में ही लटकी हैं कहीं…….
अध्भुत विमलेश जी…मां होना जैसे… गहरा स्वभाव है..
मां के चेहरे की झूर्रियों से
ममता जैसा एक शब्द गुम गया
और मां
मुझे पहली बार
एक औरत की तरह लगी….(kya kathy hai… behtrin)
BAHUT ACHCHHI KAVITAYEN…
SHESHNATH…
मन छू लेनेवाली कविताएं . पहली कविता की अन्तिम पंक्ति शायद ’चुपचाप रेंगती रही’ होगी.
maa ek rahasya bhi hai aur ek avishkar bhi. is vishay par kavita likhana bahut badi chunauti hai.apko badhai.
khub bhalo laglo, aro likhun
मां के सपने घेंघियाते रहे
जांत की तरह
पिसते रहे अन्न
बनती रही मक्के की गोल-गोल रोटियां
और मां सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही..
man ko kachotne vaala ek saty ….. sundar ahasaas…..badhai aapko……
बिमलेश जी ,आपकी कवितायेँ आकाश में उड़ने कि जगह ,धरती पर चहलकदमी करती हैं,माँ के चेहरे कि सूखती हुई नदी कि महसूसियत से गांव से महानगर तक आने कि व्यथा-कथाओं तक,सरल विषयवस्तु कि सहज अभिव्यक्ति !इन शुभकामनाओं के साथ कि आपने जो ज़मीन तय कि है ,उस पर खड़े रहें ताकि जिंदगी के चेहरे करीब से देख सकें!
वंदना
आप सभी का अभार….शुक्रिया…
मां सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही…
बहुत संवेदनशील कवितायें. गहरे विश्लेषण से उपजे बोध को बताती हैं. बधाई विमलेश जी.
bahut gahre bhaav..
sunder rachnaen..
abhaar.
मन छू लेनेवाली कविताएं| धन्यवाद|