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Home कविता

नील कमल की एक कविता श्रृंखला

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
9
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नील कमल / संपर्कः 09433123379

नील कमल का काव्य संग्रह हाथ सुंदर लगते हैं हाल ही में प्रकाशित होकर आया है जिसकी खूब चर्चा भी हो रही है। नील कमल करीब दो दशकों से कविताएं लिख रहे हैं और बहुत ही महत्वपूर्ण ढंग से कविता की दुनिया में दखल दी है। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि इतने दिनों के बाद अब उनकी कविताओं की चर्चा हो रही है, जबकि यह बहुत पहले होना चाहिए था। अभी हाल ही में नामवर सिंह ने दूरदर्शन पर पर बोलते हुए और जनसत्ता में परमानंद श्रीवास्तव ने नील कमल की कविताओं पर मानीखेज टिप्पणियां दर्ज की हैं। कवि को ढेर सारी बधाईयां देते हुए अनहद पर हम इस बार उनकी ताजा कविता श्रृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं। आपकी कीमती राय की प्रतीक्षा तो रहेगी ही।

इतना भी न हुआ..
(एक कविता श्रृंखला) 
१.
जीने की तरह जीना, मरने की तरह मरना
इतना भी न हुआ..
कि बोलूं तो सुना जाऊं दूर तक
चलूं तो पथ में न आएं बाधाएं
गाऊं अपनी पसन्द के गीत कभी भी
बनाऊं कहीं भी सपनों का नीड़
इतना भी न हुआ.. न हुआ इतना भी
कि विश्वास के बदले पाऊं विश्वास
श्रम के बदले रोटी-पानी ।
२.
गहराती रात जैसी नींद से निकल
पलकों की पीठ पर
सपनों की गठरी लिए
चल पड़ूं उछलता-कूदता
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ..
बांझ कोख सी उदासी में
डूबी है दुनिया
जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
जागती आंखें झुकी रहती हैं
क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
होठों से धीमे- धीमे
निकलता है स्वर,
क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !!
कहते हैं हम एक-दूसरे से ।
३.
क्षमा हे पितरों
तार नहीं सके हम तुम्हें
मुक्त न कर सके तुमको
आवागमन के दुश्चक्र से
कुन्द पड़ चुके हमारे इरादे
कौंधते और बुझते रहे अंधेरों में
हमारी स्मृतियों की गंगा में
आज भी तैरते हैं शव तुम्हारे
जिन्हें खींच कर तट पर लाएं
यह साहस हम जुटा ही नहीं पाए ।
क्षमा हे पृथ्वी
जल पावक गगन समीर
तुम्हारी विस्फोटक रोशनी में
चमक न सके हम कुन्दन बन
कात न सके चदरिया झीनी,
मिठास बिना ही ज़िन्दगी जीनी
नागवार हमें भी गुजरती थी,
४.
क्या करें,
कि एक शीर्षक-हीन कविता थे हम
पढ़े जा सकते थे बिना ओर-छोर
कहीं से भी, बीच में छोड़े जा सकते थे हम,
ज़िल्दों में बन्द, कुछ शब्द,
हमें पता नहीं था
आलोचकों की भूमिका के बारे में
जैसे पता नहीं था पितरों को
मुक्ति का खुफ़िया रास्ता ।
एक शब्द चमक सकता था
अंधेरे में जुगनू बन
एक शब्द कहीं धमाके के साथ
फट सकता था
सोई चेतना के ऊसर में
एक शब्द को लोहे में
बदल सकते थे हम
धारदार बना सकते थे उसे
हमसे नहीं हुआ इतना भी,
इतना भी न हुआ..
५.
क्षमा ! हे शब्द-ब्रह्म, क्षमा !!
बहुत पीछे छूट चुका बचपन
ठिठका खड़ा है
अन्धे कुंए की ओट पर
विस्फ़ारित मुंह उस कुंए के
एक अधर पर धरे पांव
अड़ा है,
कहां है सुरसा मुंह कुंए का
दूसरा अधर
शून्य में उठा दूसरा पांव
आकाश में लटका पड़ा है ।
समय की तेज रफ़्तार सड़क पर
कई प्रकाश वर्ष पीछे
ठिठका खड़ा बचपन
भींगता है अदद एक
बरसाती घोंघे के बिना
गल जाती हैं किताबें
स्कूल जाने के रास्ते में
खेत की डांड़ पर
भींग जाता है किताबों का बेठन,
किताबों से प्रिय थे जिसे
इमली बेर आम चिलबिल
और रेडियो पर बजता विविध-भारती
उस बचपन से क्षमा,
कि हम अपराधी उस बचपन के
कुंए की तरह खड़े रहे हम
उसके रास्ते में
बिछ सकें नर्म घास की तरह
उभर सकें पांवों तले
ज़मीन की तरह
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ.. ।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 9

  1. अपर्णा मनोज says:
    14 years ago

    neelkamal ji ko badhai! poori shrikhala sundar hai ..

    Reply
  2. OM KASHYAP says:
    14 years ago

    किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

    Reply
  3. OM KASHYAP says:
    14 years ago

    सुन्दर अभिव्यक्ति

    Reply
  4. वंदना शुक्ला says:
    14 years ago

    bahut khubsurat kavitayen ….

    Reply
  5. Shail Agrawal says:
    14 years ago

    बेचैन और सोचने पर मजबूर करती कविताएं। अच्छी लगीं।

    Reply
  6. सुशीला पुरी says:
    14 years ago

    बांझ कोख सी उदासी में
    डूबी है दुनिया
    जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
    जागती आंखें झुकी रहती हैं
    क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
    होठों से धीमे- धीमे
    निकलता है स्वर,
    क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !!
    कहते हैं हम एक-दूसरे से ।
    ………….बहुत खूब !!!

    Reply
  7. अरुण अवध says:
    14 years ago

    एक शब्द चमक सकता था
    अंधेरे में जुगनू बन
    एक शब्द कहीं धमाके के साथ
    फट सकता था
    सोई चेतना के ऊसर में
    एक शब्द को लोहे में
    बदल सकते थे हम
    धारदार बना सकते थे उसे
    हमसे नहीं हुआ इतना भी,
    इतना भी न हुआ..

    यही तो सब कहते हैं कि–
    हम से यह भी न हुआ ……….
    ऐसे आत्म-धिक्कार में हम सब जी रहें हैं !
    लेकिन क्या कहीं कोई उम्मीद नहीं बची ?
    क्या हमारे जीने का औचित्य और सार्थकता ख़त्म हो गई ?
    नहीं , मैं इसे नहीं मानता ! जब तक धरती पर मनुष्य है,
    मनुष्यता है ,तब तक उम्मीद है !
    "कोशिश करो,कोशिश करो
    जीने की
    ज़मीन में गड़ कर भी …….." ( मुक्तिबोध )

    नीलकमल जी की कविता बहुत ही सुन्दर है ! ख़ास कर इसकी सहज भाषा जो उन्हें स्वाभाविक कवि के रूप में स्थापित करती है ! कविता निराशा के स्याह रंगों में लथपथ है और उसकी कारुणिकता उद्वेलित करती है और प्रेरित भी कि हम उचक कर किसी रोशनी की तलाश करें !

    Reply
  8. leena says:
    14 years ago

    शब्दों के भ्रमजाल से दूर विचारों की सुन्दर अभिव्यक्ति. बहुत अच्छी सुन्दर कविताएं. बधाई
    – लीना मल्होत्रा

    Reply
  9. लीना मल्होत्रा says:
    14 years ago

    phir se padhi aur maanti hoon ki yah shandaar kavita baar baar padhne yogy hai. sabhar.

    Reply

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