संजय राय संपर्क : 093316292490/9883468442 |
-अनहद
प्रेम
प्रेम
आस्मां का विस्तार है
मैं आसमान से
टहनिया तोड़ता हूं
तुम्हें देखना
बारिश में भींगते हुए
तुम्हें देखना
किसी सुंदर फूल को
खिलते हुए देखना है
आदमी दौड़ रहा है
ट्रेन चल रही है
आदमी दौड़ रहा है
ट्रेन रूकने लगी है
आदमी दौड़ रहा है
ट्रेन रूक गई है
आदमी दौड़ रहा है
एक टुकड़ा शहर
वह जब भी
जाती है बाजार
एक टुकड़ा शहर ले आती है
अपने पर्स में
मेरे भीतर टूटता है
एक गांव
हर बार
वह लड़की
एक
वह शीशा है
उसमें
खनक है
पर वह टूटती नहीं
दो
एक पांव
बढ़ाते ही
वह बाहर हो जाती है घर से
और
एक कदम पीछे हटने पर
कैद हो जाती है
उल छोटे से दमघोंटू कमरे में
उसके घर में
आंगन नहीं है
शायद वह सांस नहीं लेती
तीन
उसने जब भी
कोई सपना देखा
एक चिडिया बोली
उसका जब भी
कोई सपना टूटा
एक चिडिया बोली
अब वह
सपना नहीं देखती
लेकिन वह चिडिया
रोज उसी तरह
बोलती है
चार
वह जब भी सोचती है – ‘कविता’
शुरू होता है फूलों का खिलना
वह जब भी कहती है ‘कविता’
फूल की एक पंखुरी टूटकर
गिरती है धरती पर
वह जब भी
एक पूरे सफेद कागज पर
कहीं लिखती है – ‘कविता’
शब्द कागज पर दूब की तरह
उग आते हैं
बिल्कुल ताजे और टटके
वह लड़की
कविता नहीं लिखती।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
विमलेश जी….कविता के मूल तत्व कुछ भी रहते हों…कहीं ना कहीं….किसी पटाक्षेप हेतु…..कुछ विस्तार की दरकार उन्हें होती है..लेकिन….संजय जी की इन कविताओं में…. सहजता… संप्रेषण…और….भावों की प्रबलता…अध्भुत है…
प्रेम
आस्मां का विस्तार है
मैं आसमान से
टहनिया तोड़ता हूं……..
कमाल …आपका शुक्रिया….औ संजय जी के लिए शुभकामनाएं
संजय समर्थ कवि हैं. उन्हें पहले भी पढ़ा है. ये कवितायें अपनी तरह की हैं जो कविता-भाषा की अलग पहचान बनाती हैं. आकार में छोटी और असर में गहरी! बधाई और मंगलकामनाएं!
har kavita mai alagpan hai
bahut khub
…
बेहतर कविताएं…
बहुत बढ़िया कविताएँ… ट्रेन रूक गई है/आदमी दौड़ रहा है… हमारे समय का इससे अलग कोलाज और क्या हो सकता है… बधाई संजय…
किस किस की तारीफ़ करूँ सभी एक से बढकर एक हैं और दिल मे उतर गयी हैँ……………बेहद उम्दा और बेहतरीन्।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
hindi ki sambhavnaon ko ek samananter manch muhaiyya kara rahe hai bhai.usi kari me sanjay ke samrthya ka kuch kuch anumaan hua.sanjay ko badhai.
बहुत ही अच्छी रचनाएँ .खास कर पहली और दूसरी पसंद आयीं .
राजेश जी की बात से सहमत .
'मिलिए रेखाओं के अप्रतिम जादूगर से '
वह जब भी
जाती है बाजार
एक टुकड़ा शहर ले आती है
अपने पर्स में
मेरे भीतर टूटता है
एक गांव
हर बार
……….
वैसे तो हरेक क्षणिका पथ रोक खड़ी हो जाती है, मुग्ध भाव से बस ठिठके रह जाना पड़ता है…पर इसने तो गहरे वार किया…
लाजवाब लिखा है …लाजवाब….
"prem" aur "wah ladaki-1" bahut sundar hain.sanjay ke liye shubh kamanayen.
har kavita apne pas rukne ko kehati hai aur aap se baten karne lagti hai …. khubsurt hai yeh kaviteyan
tumhari kavitaen achchi lagi,kavita ke baare me jyada jankari nahi hai mujhe..bas padhkar sukoon sa laga…,bhari -bharkam shabdo ka bojh nahi hai tumhari kavitaon me….likhna jari rakhna.
na koi adambar na koi chamatkar fir bhi bahut prabhavshali. sahaj sampreshya aur sundar kavitaen. ane vale daur ke sahitya men alag aur mahatvapoorn pahchan rakhegi apki rachanashilta.