विमलेश त्रिपाठी
“The child is the father of a man.”
– William Wordsworth
।
तेइस साल के उस युवक की बातें एक साथ सैकड़ों बरछे की तरह उनके सीने में चूभ गईं थीं। वे इतने असंयत कभी नहीं हुए थे – जैसे सिनेमा की रील घूमकर अचानक बहुत जमाने पहले के समय में चली गई हो – समय का सीना चीरते हुए – कि समय की सिली पर कोई बेदर्द आरामशीन चला दी गई हो।
स्मृतियों के बुरादे झर-झर निकल रहे थे। समय पटरियों की तरह कई भागों में कटकर सपाट पड़ा हुआ था।
युवक के शब्द बार-बार उनके जेहन में गूंज रहे थे। उन्होंने सिगरेट सुलगाई और ताबड़तोड़ कई-कई कश खींच गए – उन्हें लगा कि एक पर एक कई कश उनके दिमागी तंतुओं को निष्क्रिय कर देगा। लेकिन गूंज थी कि बार-बार कानों में धांय-धांय बजती चली जाती थी।
घर मद्धिम अंधेरे में डूबा हुआ था। पत्नी शयनकक्ष में बेसुध सोई पड़ी होगी। उन्होंने सोचा। पता नहीं कितने समय से उसके घुटनों में असह्य दर्द था। ओम्नाकोटिल-10 की दो काली और चौकर गोलियां उन्होने अपने हाथों से खिलायी थी और नींद के लिए एक मटर जैसी गोली एलजोलम-0.25 भी दे दिया था साथ में। असंयत की अवस्था में वे कई बार बेडरूम का चक्कर लगा चुके थे – हर बार पत्नी का मुंह बेहोशी में खुला हुआ दिखा था और सांस की घरघराहट के बीच भी वे कई बार उसके चेहरे पर झुक- से गए थे। वे उसके सामने चीखना चाहते थे – अपनी बेवशी पर फूट-फूट कर रोना चाहते थे। पूछना चाहता था उनका संपूर्ण पुराना शरीर कि क्यो??? उनकी परवरिश में कहां गलती हुई – किस अपराध की सजा है यह, जो देकर चला गया वह तेइस साल का लड़का।
लेकिन हर बार वे किसी पराजित योद्धा की तरह लौट जाते थे।
और एक के बाद एक यह चौथी-पांचवी सिगरेट थी जो होठों से होती हुई मेज के कोने पर पड़ी नि:शब्द सुलग रही थी। कई बार बदहवासी में उन्होंने फ्रीज का दरवाजा भी खोला था – रोजमर्रा की चीजों के बीच बोदका की आधी खाली बोतल बार-बार आंखों में चूभ जा रही थी। लेकिन ज्यों ही उसे उठाने के लिए उनके हाथ आगे बढ़ते थे, डॉ. अरूप साहू की हिदायत कान में किसी जरूरी सूचना की तरह बजने लगती थी कि एक बूंद शराब भी आपको मौत की अंधेरी खाई में धकेल सकती है। धड़-धड़ की आवाज से खुलती-बंद होती फ्रीज और डॉ. साहू की हिदायत के बीच के किसी पतले धागे पर वे सवार हो जाते – कई-कई बार।
सचमुच की याकि आभाषी दुनिया के बीच तेइस साल का वह लड़का!!
कितना कुछ कह गया था वह – उनके आज तक के अस्तित्व को किसी गंदे कीड़े की तरह मसलता-रौंदता। कहते हुए उसके चेहरे पर शर्म और अपराधबोध की छाया तक न थी – और एक पिता का आज तक का देखा और समझा हुआ समय बेबशी की अदृश्य आंच पर धीमे-धीमे राख हो गया था।
समय ऐसे ही राख में बदल जाता है – शरीर और आत्मा की तरह!!
एक बार उन्होंने दीवार पर लटक रही अपनी पिता की तस्वीर को हताश-पराजित नजरों से देखा। उस हल्की मुस्कुराती तस्वीर के पार पीड़ा के पता नहीं कितने अदृश्य क्षण झीम-झीम जल रहे थे।
पिता समय की लंबी पगडंडियों के पार तुम्हारी पीठ पर लदी हुई एक बच्चे की देह – तुम्हारी ही देह पर लोटकर विकसित हुई – तुम्हारी ही छाया के नीचे – पिता क्या माफ कर दिया तुमने उस बच्चे को। उसे, जिसे तेइस साल का एक युवक कटघरे में खड़ा कर के निकल गया है। क्या यह तुम्ही थे आए हुए मुझसे बदला लेने। बदला?? क्या इसे महज बदला कह देना ठीक होगा पिता??
ऐसे ही राख होता है समय और मानुष के साथ मानुष होने की गंध। …..!!! मेरा निर्णय सच था पिता – तुम्हारे पितरों की करोड़ों वर्षों की मान्यताओं से अलग होकर भी – मेरा सच। वह एक मेरा सच, जिसकी आंच में तुम्हारा देखा और समझा हुआ असंख्य वर्षों का समय मोम की तरह पिघल चुका था – पानी बनकर जमीन में कही गहरे घंस गया था। ..और वह निर्णय बेहोश सी पड़ी महज उस औरत के कारण नहीं था। बल्कि एक विडंबना जिसे मेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर सकती थी और मैं एक ही साथ इतिहास, पुराण, अपने पितरों के साथ तुमसे भी लड़ रहा था सिर्फ उस औरत के लिए नहीं उन तमाम लोगों के लिए जिन्हें आज तक आदमी नहीं समझा गया। क्या इसे नहीं समझ सके तुम??…
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले – मैं तुम्हारी देह की खाक से और जलकर झांवर हो गई अस्थियों से चीख-चीख कर पूछता रहा – माफ किया पिता तुमने मुझे??
तुम न बोले थे। रूई की तरह सफेद तुम्हारी मूछों के पीछे छुपी जीभ न बोली थी। राख और हड्डियां क्या बोलतीं!!!
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले ।
और यह मेरा अपना खून क्या बोल गया वह?? उसके जन्म का कारण सिर्फ मजा…?? और क्या कुछ नहीं….।। आह, जैसे सदियों से महत्वपूर्ण रही विश्वास की कोई लकीर मिटा दी गई हो।
उनका बूढ़ा मन अतीत के पार से लौट आया था। तस्वीर वैसे ही लटक रही थी दीवार पर। माला के नकली फूलों पर धूल की परतें थीं। मटमैली दीवार के सपाट समतल के बीच मुस्कुराती – पीड़ा की आंच में झीम-झीम जलती।
मद्धिम अंधेरे की देह काली और खौफनाक रात की शक्ल में ढल गई थी।
बोदका की आधी खाली बोतल अब टेबल पर जिंदा खड़ी थी। शीशे के झक-झक सफेद गिलास का तरल सांसों के बुलबुले छोड़ रहा रहा था। सिगरेट अब भी सुलग रहा था कि समय के पृष्ठ पर स्याही के सैकड़ों निशान सुलग रहे थे साथ-साथ।
उस अंधेरे समय के बीच गिलास का पूरा जिंदा तरल कई-कई बार उनकी देह में उतरा था। बोदका का बोतल समय के किसी खास टुकड़े की तरह एकदम खाली था – खाली और अपनी पीड़ा? में एकदम बेपरवाह।
बेचैनी के एक झोंके को सम्हालते हुए जब वे उठे तो उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। लड़खड़ाते कदमों की आहट पाकर बीच में वर्षों पहले कहीं छूट गया एक लोरी का बंदिश अभी-अभी उनकी जीभ पर आकर बैठ गया था – समय की किसी पगडंडी से चलकर ..। …सो जा….सो …..जा …. सो जा मेरे मन… और उसके बाद खांय-खांय की एक रतवारू खांसी।
लोरी की बंदिश के साथ वे लड़खड़ते कदमों से उस तेइस साल के लड़के के कमरे में पहुंचे। कमरे में सन्नाटे की सांय-सांय गूंज थी। और अंधेरे में भी बड़े फ्रेम की एक तस्वीर के सामने वे मुखातिब थे।
कितनी रातें ऐसे जागकर बीती हैं बच्चे। नींद और जागरण के बीच तुम्हारी वह किलकारी और चिचियाहट बेतरह। और तुमने कहा कि मजे के लिए…………।।
उनका मन कसैला हो आया।
तस्वीर में कई चेहरे साथ थे। तेइस साल का वह लड़का तस्वीर में अधनंगा था। लड़खड़ाते कदमों वाला वह बूढ़ा तस्वीर में एक जवान हंसी के साथ एकदम जिंदा लगता था।
बच्चू!!! तुम्हारी औकात क्या है – मैने अपने इन हाथों से तुम्हारा गुह साफ किया है। – हंसी का एक कमजोर और बूढ़ा लम्हा चेहरे पर डोल गया था और इसके पेश्तर हिकारत के सैकड़ों सूअर एक साथ उनकी छाती पर दौड़ गए थे।
.. और खांय-खांय के बीच लोरी का वह खुरदरा टुकड़ा – सो…जा…सोजा मेरे मन।
उस कई शक्लों वाली तस्वीर को उन्होंने एक लाश की तरह उठाया। कांपते हाथ और लड़खड़ाते कदमों की आहट के बीच उसे पिता की पुरानी तस्वीर के साथ लटका दिया। उनकी आंखों से एक सूखती नदी की भाप छूट रही थी।
बाद इसके एक तेज खांसी उभरी थी और उसने उन्हे जोर से अंधेरे फर्श पर पटक दिया था – अचेत।
शायद उनकी बेचैन आत्मा दो साल के एक शिशु और तेइस साल के एक युवक के पीछे दौड़ कर गई थी। य़ुवक बादलों की कई परतों के बीच हवाई जहाज में बैठा किसी दूर देश को जा रहा था। बादलों की कई-कई परतों के पार स्वर्ग जैसी किन्ही जगहों के बीच दो साल का एक शिशु कि तेइस साल का एक युवक जहाज के भीतर बैठा हुआ और उसका लागातार पीछा करती एक पिता की आत्मा।
और पता नहीं कितने समय तक या कितनी सदी तक याकि कितनी सहस्त्राब्दी तक यह पीछा करने का खेल लागातार चलता रहा।
पता नहीं शायद ……..। ….??
*********
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
विमलेश त्रिपाठी
“The child is the father of a man.”
– William Wordsworth
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तेइस साल के उस युवक की बातें एक साथ सैकड़ों बरछे की तरह उनके सीने में चूभ गईं थीं। वे इतने असंयत कभी नहीं हुए थे – जैसे सिनेमा की रील घूमकर अचानक बहुत जमाने पहले के समय में चली गई हो – समय का सीना चीरते हुए – कि समय की सिली पर कोई बेदर्द आरामशीन चला दी गई हो।
स्मृतियों के बुरादे झर-झर निकल रहे थे। समय पटरियों की तरह कई भागों में कटकर सपाट पड़ा हुआ था।
युवक के शब्द बार-बार उनके जेहन में गूंज रहे थे। उन्होंने सिगरेट सुलगाई और ताबड़तोड़ कई-कई कश खींच गए – उन्हें लगा कि एक पर एक कई कश उनके दिमागी तंतुओं को निष्क्रिय कर देगा। लेकिन गूंज थी कि बार-बार कानों में धांय-धांय बजती चली जाती थी।
घर मद्धिम अंधेरे में डूबा हुआ था। पत्नी शयनकक्ष में बेसुध सोई पड़ी होगी। उन्होंने सोचा। पता नहीं कितने समय से उसके घुटनों में असह्य दर्द था। ओम्नाकोटिल-10 की दो काली और चौकर गोलियां उन्होने अपने हाथों से खिलायी थी और नींद के लिए एक मटर जैसी गोली एलजोलम-0.25 भी दे दिया था साथ में। असंयत की अवस्था में वे कई बार बेडरूम का चक्कर लगा चुके थे – हर बार पत्नी का मुंह बेहोशी में खुला हुआ दिखा था और सांस की घरघराहट के बीच भी वे कई बार उसके चेहरे पर झुक- से गए थे। वे उसके सामने चीखना चाहते थे – अपनी बेवशी पर फूट-फूट कर रोना चाहते थे। पूछना चाहता था उनका संपूर्ण पुराना शरीर कि क्यो??? उनकी परवरिश में कहां गलती हुई – किस अपराध की सजा है यह, जो देकर चला गया वह तेइस साल का लड़का।
लेकिन हर बार वे किसी पराजित योद्धा की तरह लौट जाते थे।
और एक के बाद एक यह चौथी-पांचवी सिगरेट थी जो होठों से होती हुई मेज के कोने पर पड़ी नि:शब्द सुलग रही थी। कई बार बदहवासी में उन्होंने फ्रीज का दरवाजा भी खोला था – रोजमर्रा की चीजों के बीच बोदका की आधी खाली बोतल बार-बार आंखों में चूभ जा रही थी। लेकिन ज्यों ही उसे उठाने के लिए उनके हाथ आगे बढ़ते थे, डॉ. अरूप साहू की हिदायत कान में किसी जरूरी सूचना की तरह बजने लगती थी कि एक बूंद शराब भी आपको मौत की अंधेरी खाई में धकेल सकती है। धड़-धड़ की आवाज से खुलती-बंद होती फ्रीज और डॉ. साहू की हिदायत के बीच के किसी पतले धागे पर वे सवार हो जाते – कई-कई बार।
सचमुच की याकि आभाषी दुनिया के बीच तेइस साल का वह लड़का!!
कितना कुछ कह गया था वह – उनके आज तक के अस्तित्व को किसी गंदे कीड़े की तरह मसलता-रौंदता। कहते हुए उसके चेहरे पर शर्म और अपराधबोध की छाया तक न थी – और एक पिता का आज तक का देखा और समझा हुआ समय बेबशी की अदृश्य आंच पर धीमे-धीमे राख हो गया था।
समय ऐसे ही राख में बदल जाता है – शरीर और आत्मा की तरह!!
एक बार उन्होंने दीवार पर लटक रही अपनी पिता की तस्वीर को हताश-पराजित नजरों से देखा। उस हल्की मुस्कुराती तस्वीर के पार पीड़ा के पता नहीं कितने अदृश्य क्षण झीम-झीम जल रहे थे।
पिता समय की लंबी पगडंडियों के पार तुम्हारी पीठ पर लदी हुई एक बच्चे की देह – तुम्हारी ही देह पर लोटकर विकसित हुई – तुम्हारी ही छाया के नीचे – पिता क्या माफ कर दिया तुमने उस बच्चे को। उसे, जिसे तेइस साल का एक युवक कटघरे में खड़ा कर के निकल गया है। क्या यह तुम्ही थे आए हुए मुझसे बदला लेने। बदला?? क्या इसे महज बदला कह देना ठीक होगा पिता??
ऐसे ही राख होता है समय और मानुष के साथ मानुष होने की गंध। …..!!! मेरा निर्णय सच था पिता – तुम्हारे पितरों की करोड़ों वर्षों की मान्यताओं से अलग होकर भी – मेरा सच। वह एक मेरा सच, जिसकी आंच में तुम्हारा देखा और समझा हुआ असंख्य वर्षों का समय मोम की तरह पिघल चुका था – पानी बनकर जमीन में कही गहरे घंस गया था। ..और वह निर्णय बेहोश सी पड़ी महज उस औरत के कारण नहीं था। बल्कि एक विडंबना जिसे मेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर सकती थी और मैं एक ही साथ इतिहास, पुराण, अपने पितरों के साथ तुमसे भी लड़ रहा था सिर्फ उस औरत के लिए नहीं उन तमाम लोगों के लिए जिन्हें आज तक आदमी नहीं समझा गया। क्या इसे नहीं समझ सके तुम??…
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले – मैं तुम्हारी देह की खाक से और जलकर झांवर हो गई अस्थियों से चीख-चीख कर पूछता रहा – माफ किया पिता तुमने मुझे??
तुम न बोले थे। रूई की तरह सफेद तुम्हारी मूछों के पीछे छुपी जीभ न बोली थी। राख और हड्डियां क्या बोलतीं!!!
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले ।
और यह मेरा अपना खून क्या बोल गया वह?? उसके जन्म का कारण सिर्फ मजा…?? और क्या कुछ नहीं….।। आह, जैसे सदियों से महत्वपूर्ण रही विश्वास की कोई लकीर मिटा दी गई हो।
उनका बूढ़ा मन अतीत के पार से लौट आया था। तस्वीर वैसे ही लटक रही थी दीवार पर। माला के नकली फूलों पर धूल की परतें थीं। मटमैली दीवार के सपाट समतल के बीच मुस्कुराती – पीड़ा की आंच में झीम-झीम जलती।
मद्धिम अंधेरे की देह काली और खौफनाक रात की शक्ल में ढल गई थी।
बोदका की आधी खाली बोतल अब टेबल पर जिंदा खड़ी थी। शीशे के झक-झक सफेद गिलास का तरल सांसों के बुलबुले छोड़ रहा रहा था। सिगरेट अब भी सुलग रहा था कि समय के पृष्ठ पर स्याही के सैकड़ों निशान सुलग रहे थे साथ-साथ।
उस अंधेरे समय के बीच गिलास का पूरा जिंदा तरल कई-कई बार उनकी देह में उतरा था। बोदका का बोतल समय के किसी खास टुकड़े की तरह एकदम खाली था – खाली और अपनी पीड़ा? में एकदम बेपरवाह।
बेचैनी के एक झोंके को सम्हालते हुए जब वे उठे तो उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। लड़खड़ाते कदमों की आहट पाकर बीच में वर्षों पहले कहीं छूट गया एक लोरी का बंदिश अभी-अभी उनकी जीभ पर आकर बैठ गया था – समय की किसी पगडंडी से चलकर ..। …सो जा….सो …..जा …. सो जा मेरे मन… और उसके बाद खांय-खांय की एक रतवारू खांसी।
लोरी की बंदिश के साथ वे लड़खड़ते कदमों से उस तेइस साल के लड़के के कमरे में पहुंचे। कमरे में सन्नाटे की सांय-सांय गूंज थी। और अंधेरे में भी बड़े फ्रेम की एक तस्वीर के सामने वे मुखातिब थे।
कितनी रातें ऐसे जागकर बीती हैं बच्चे। नींद और जागरण के बीच तुम्हारी वह किलकारी और चिचियाहट बेतरह। और तुमने कहा कि मजे के लिए…………।।
उनका मन कसैला हो आया।
तस्वीर में कई चेहरे साथ थे। तेइस साल का वह लड़का तस्वीर में अधनंगा था। लड़खड़ाते कदमों वाला वह बूढ़ा तस्वीर में एक जवान हंसी के साथ एकदम जिंदा लगता था।
बच्चू!!! तुम्हारी औकात क्या है – मैने अपने इन हाथों से तुम्हारा गुह साफ किया है। – हंसी का एक कमजोर और बूढ़ा लम्हा चेहरे पर डोल गया था और इसके पेश्तर हिकारत के सैकड़ों सूअर एक साथ उनकी छाती पर दौड़ गए थे।
.. और खांय-खांय के बीच लोरी का वह खुरदरा टुकड़ा – सो…जा…सोजा मेरे मन।
उस कई शक्लों वाली तस्वीर को उन्होंने एक लाश की तरह उठाया। कांपते हाथ और लड़खड़ाते कदमों की आहट के बीच उसे पिता की पुरानी तस्वीर के साथ लटका दिया। उनकी आंखों से एक सूखती नदी की भाप छूट रही थी।
बाद इसके एक तेज खांसी उभरी थी और उसने उन्हे जोर से अंधेरे फर्श पर पटक दिया था – अचेत।
शायद उनकी बेचैन आत्मा दो साल के एक शिशु और तेइस साल के एक युवक के पीछे दौड़ कर गई थी। य़ुवक बादलों की कई परतों के बीच हवाई जहाज में बैठा किसी दूर देश को जा रहा था। बादलों की कई-कई परतों के पार स्वर्ग जैसी किन्ही जगहों के बीच दो साल का एक शिशु कि तेइस साल का एक युवक जहाज के भीतर बैठा हुआ और उसका लागातार पीछा करती एक पिता की आत्मा।
और पता नहीं कितने समय तक या कितनी सदी तक याकि कितनी सहस्त्राब्दी तक यह पीछा करने का खेल लागातार चलता रहा।
पता नहीं शायद ……..। ….??
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
marmsparshee aur sundar kahanee….dhanywad bimlesh ji
कहानी में कविता। बहुत खूब.. बधाई….
कविता के माध्यम से बडी गहरी बात कह दी।
बेहद संवेदनशील कहानी…कवि की कहानी!
सुन्दर संवेदनशील कहानी!
कहानी मे कविता !
आप सभी मित्रों का बहुत -बहुत आभार…
कहानी में आपके भीतर का कवि बहुत मुखर होकर बोला है विमलेश भाई। अंत बड़ा ही मर्मस्पर्शी बन पड़ा है।
A touching story. Nicely written. need is there to
to respect elders' sentiments and their concern.
कहानी में संवेदना की महीन बुनावट है जिसमें लेखक का कवि मन भी शामिल है. बधाई
शानदार…..
behtar kahani ke liye dher sari badhaee.
’पिता’ की संवेदनाओं को बड़ी बारीकी से पकड़ती और संप्रेषित करती कहानी…..
आप सभी मित्रों का बहुत-बहुत शुक्रिया… यह कहानी अनहद, जो इलाहाबाद से भाई संतोष कु. चतुर्वेदी के संपादन में निकल रही है, उसके प्रवेशांक में आई है…इतनी अच्छी प्रतिक्रियाएं अप्रत्याशित हैं… आभार….
स्वर त सुनले रहीं, आज रउवा लेखनी के ताकत भी देख लेनी, राउर लिखल कहानी के एक एक वाक्य संवेदी आ मर्मस्पर्शी बा.
"मद्धिम अंधेरे की देह काली और खौफनाक रात की शक्ल में ढल गई थी। "
लाजवाब
सत्येन्द्र उपाध्याय "भोजपुरम"
धन्याद, सत्येन्द्र भाई…. अब गीत पर भी ध्यान दिहल जाई…
pita par gyanranjan ki ek kahani yad ati hai..wahan sirf kahani thi.. yahan kavita bhi hai aur unmukt bhasa ke mahin reshe hain.. kahani ek maulik prashn se takarati hai..yah ek aisa sawal hai jisase hum sab kabhi na kabhi mukhatib hone ke liye abhisapt hain..
संवेदनाओं को उजागर करती
अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी..
बधाई आपको विमलेश जी…
सस्नेह
गीता पंडित
.
बढ़िया कहानी , जेनेरेशन गैप के साथ साथ संवेदनाओं के टकराव को भी उकेरती .एक तरल भाषा तो कवि के पास है ही …
नील कमल भाई, गीता जी, महेश भाई… आप सबका आभार….
Very good story, rather I would say it is complete cycle of own life. I like very much.
"पिता" इस एक शब्द को , कहानी में ही सही, बाँध पाना आसान नहीं …. भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्वीकारें !आशा है ‘अनहद’ के पाठकों को भी यह इसी तरह पसंद आयेगी.
कथा-सूत्र के औपचारिक ब्यौरों को दरकिनार करते हुए पारिवारिक रिश्तों के बीच उत्पन्न होती संवादहीनता और उससे उपजे अवसाद को एक पिता-पुत्र के संकेतित संवाद के माध्यम से बयान करती यह छोटी-सी कहानी कितनी शिद्दत से हमारे समय की एक बड़ी सचाई को उजागर करती है, यह वाकई कथाकार के गहन अन्वीक्षण और अपने फॉर्म की गहरी समझ से ही संभव हो सका है शायद। बेहद मार्मिक और बेचैन कर देने वाली सुन्दर कहानी। बधाई बिमलेश।
मन के भीतर तमाम भावनाओं का उथल पुथल मचाती एक बेहतरीन कहानी .
aaj ke daur me, jabki saahitya me ras, samvedna aur auchitya ke saare srot sookh gaye hain, aisi kahaaniyaan registaan me jharne ki tarah lagti hain.
— Rakesh Ranjan
marm ko chhune wali kahani … generation gap aur pita ki manahsthiti ko bakhoobi unkera hai aapne.. badhai sweekaren!
बेहद संवेदनशील कहानी है विमलेश जी.
बड़े हो चुके पुत्र अपने पिता को अक्सर उसी समय कटघरे में खड़ा कर देते हैं जिस समय उन्हें सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. एक विचार की स्थापना का बेहद मार्मिक चित्रण किया है आपने.
शुभकामनाएं.
बहुत अच्छी संवेदनशील कहानी है.
पिता पुत्र के संबंधो को रेखांकित करती एक संवेदनशील कहानी…
आप सबका बहुत आभारी हूं…इतनी सारी प्रतिक्रियाएं और आपलोगों का स्नेह अप्रत्याशित है….बल देने के लिए शुक्रिया….
सुन्दर,किंतु यह आख्यानधर्मी कविता है कहानीपन कम है। कहानी के लिए कुछ और दरकार है। यह मेरा मत है।शायद आप सहमत हो?
अपने अन्तर्गुम्फन में कहानी जहाँ एक और पारिवारिक सहसंबंधों को व्याख्यायित करती है वहीँ दूसरी और एक पीढ़ी के मनोविज्ञान को समाजशास्त्रीय परिदृश्य में विश्लेषित भी करती है.पिता की संवेदना के महीन रेशे को छू पाना विशिष्ट है.एक कथन जिस तरह से पिता को लगातार झिन्झोरता है ,कथाकार उसी छोर को पकड़ता है और पूरी तरह निबाहता भी है .संवेदना की समझ की शिल्पगत धरातल पर ऐसी प्रस्तुति उम्मीद पैदा करती है .बधाई बिमलेश भाई.
भारतेन्दु जी… ब्रजेश भाई… आभार
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है विमलेश बाबु ….समय के लिए आपने कई नए बिम्बों का प्रयोग किया जो अच्छा लगा… कुछ मामलों में जनरेशन गैप कभी नहीं आता….