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अनहद
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Home कविता

ऋतेश की दो कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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7
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ऋतेश काफी समय तक रंगमंच से जुड़े रहे। उन्होंने ‘..और अंत में प्रार्थना’ और ‘तख्त-ओ-ताब’ जैसे सफल नाटकों का निर्देशन और मंचन किया। नीलांबर नामक साहित्यिक संस्था के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। ऋतेश को मैं बिंदास कवि कहता हूं, वह इसलिए कि वे ‘मूडी’ कवि हैं। लेकिन उनकी कविताओं में एक अद्भुद किस्म का ओज और ऊंचाई है। कविता में जिस ‘नीजपन’ के खत्म होते जाने की बात आज उठाई जा रही है, वह ऋतेश के यहां अपनी कलात्मकता के साथ उपस्थित है। ऋतेश की कहीं भी छप रही या शामिल हो रही ये पहली कविताएं हैं। 
ऋतेश  संपर्कः 09874307700
आपकी प्रतिक्रिया इस कवि के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगी।

घर जाता हूँ किसी अपराधी की तरह
(1)
अब तक, कब तक……..
हिमालय से ऊँचे–ऊँचे शब्द
पार करने की कई असफल कोशिश कर चुका था
घिरा था। खड़ा था।  हाँफता था । शून्य में ताकता था
“अरे यार तू”
एक ज़ोर की धबक पड़ी पीठ पर
और फिल्म का पूरा रील घूम गया
मैं सड़क पर था
देखा
सामने एक बहुत पुराना मित्र
“और आजकल क्या हो रहा है”
ऐसा लगा उसके मुँह से एक भयंकर अजगर निकला हो
मुझे निगल गया हो
दम घुटने लगा
अजगर के पेट में बाऊजी का चिड़चिड़ाया चेहरा दिखा
अब भी कुछ बुदबुदा रहे थे
माँ शांत कर रही थी
मेरी ओर देखती थी
उसकी आँखों में
दिख रही थी मेरी लाचारी
“अबे ओ तीसरी दुनिया के प्राणी
क्या सोचने लगा
तू बिल्कुल नहीं बदला”
“पर तुम तो सिर से पाँव तक बदल गए हो”
वह शाहरुखी मुस्कान छोड़ता रहा
“देख कुछ तो एडजस्ट करना ही पड़ता है दोस्त
अच्छा बता
तेरे सभी आदर्श किस काम के
क्या फायदा हुआ
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुच गई और तू वहीं सड़ रहा है”
मुझे लगा सचमुच मुझसे बदबू आ रही है
 “जैसा समय हो आदमी को वैसा ही होना चाहिए
बोल है कि नहीं ” वह हामी चाहता था
“सभी अपने समय के जैसे ही होते हैं
फर्क ये है कि किसी का समय जेट विमान में बैठा है
और किसी का मर गया है”
तू वही का वही….
“खैर मैं चलता हूँ
वह खीज़ गया था
वैसे तुझे नहीं बुलाया”
मैं चौंका
देखा सामने विवाह घर सजा है
बिजली की सजावट में चमक रहा है
“मनोज संग बीना”
“मनोज ने तुझे….”
“अच्छा किया । अच्छा दोस्त है मनोज
समझदार है और…….”
चेहरे से उसके असमंजस झाँक रहा था
मैंने चुप्पी तोड़ी
“जाओ अब मैं भी घर जाऊँगा”
(2)
कोई नहीं था दूर –दूर तक
वीरान सुनसान
थीं तो केवल कट चुकी फसलों की खूटियाँ
और झाड़ झंखाड़
कि अचानक एक विशाल
गरूड़ मुझ पर झपटा
उस पर दिख गया वही पुराना दोस्त
अपनी शाहरूखी मुस्कान के साथ
मैंने बचने की कोशिश की
कि पैर एक खूँटी से टकराया
दर्द हुआ
मुंह से आह निकली
देखा सड़क पर ईंट से पैर टकरा गया है
आस पास देखा
घर करीब था
मैं घर की तरफ बढ़ा
जैसे कोई अपराधी जेल की तरफ बढ़ता हो।
समय के साथ चलो
समय के साथ चलो, समय के साथ चलो
सब समझाते रहें
मैंने भरपूर कोशिश की
समय की गति समझने की
और हर बार खुद को
पीछे बहुत पीछे हाँफता हुआ पाया
अब जब वर्षों बाद
यह समझ चुका हूँ
कि
समय के साथ चलना
यानि जो है वैसा नहीं दीखना
जो है वैसा नहीं कहना है
तब हाथ में समय नहीं है
पर
आप यह ना समझें कि मैं पछता रहा हूँ
नहीं
वास्तव में मैं इसी जद्दोजहद में हूँ
कि अपने लड़के को
इस मुहावरे का अर्थ समझाऊँ या नहीं
जबकि
अब और भी ऊँची आवाज़ में लोग यह मुहावरा
दुहरा रहे हैं
अपने बच्चों का भविष्य
सँवार रहे हैं
मैं सोचता हूँ
और सोच-सोच डरता हूँ
कहीं मेरा लड़का मुझे धिक्कारेगा तो नहीं

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 7

  1. Anonymous says:
    12 years ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं ऋतेश जी की। बधाई और अनहद का आभार….

    Reply
  2. प्रशान्त says:
    12 years ago

    समय के साथ चलो ने एक बेहद प्रासंगिक स्वाल उठाया है कि हम अपने बच्चे से ये कहें या न कहें..समय के साथ चलने के मायने हमेशा ही खुद से दूर जाने में ही हैं और ये तय कर पाने में कि ’चलें या न चलें’ अगर देर की तो अक्सर हम पीछे छूट जाते हैं भले ही खुद के पास, खुद के साथ रह जायें..
    अच्छी कविताएं…… ऋतेशजी को और आप को साझा करने के लिये धन्यवाद.

    Reply
  3. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    shukriya Prashant bhai….

    Reply
  4. Arpita says:
    12 years ago

    बेरहम हो चुके समय का एहसास सभी को…इसकी सच्चाई तो अक्सर लोग बयां करते हैं….पर कुछ ही हैं जो समय को जीते हैं…बधाई ऋतेश जी को उनकी रचनायें पहली बार सब के सामने आयी…शुभकामनायें!!!!!!

    Reply
  5. Pooja Anil says:
    12 years ago

    An-Emoticon से सहमत हूँ, समय के साथ चलो, आज की पीढ़ी और कल की पीढ़ी दोनों के लिए सवाल है, क्या वास्तव में हम समय के साथ चल पाते हैं? क्या इतनी गति से चल पाना भी संभव है? क्या एक मरीचिका के पीछे भागते रहना ही समय के साथ चलना कहलाता है ? बहुत अच्छी रचना है ऋतेश जी.
    घर जाता हूँ किसी अपराधी की तरह भी कुछ इसी थीम पर है, अतः वही प्रश्न सम्मुख रखती है. विश्लेषणपरक लेखन के लिए बधाई .
    ऋतेश जी को शुभकामनाएं और विमलेश जी को उनकी रचनाओं से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद.

    Reply
  6. neel kamal says:
    12 years ago

    achchhi kavitayen.

    Reply
  7. Anonymous says:
    12 years ago

    बेहतरीन कविताएं….

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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