हकीकत और सपना फड़फड़ाते हैँ
एक ही धागे से चिपक कर ;
महजिद से बँधे रंगीन
कागजी झंडोँ की तरह।
अचानक सब कुछ लगने लगता है–
अलग–अलग सा।
खड़बिद्दर रास्तोँ पर धीमेँ
रिक्शे की दचकन
कसे हुए बस पे पिछली सीट पर
दबी हुई सी जगह
घड़ी की सुइयोँ की नोक पर दौड़ते शहरोँ के
चमचमाते दुकानो के लम्बे– लम्बे आइने
पीछे –पीछे आने वाली
संगीत की कोई मद्धम धुन
सफर मेँ किसी पुल के लम्बे अंधेरे मेँ
डूबा कोई लम्हा
तालाब के किनारोँ पर तैरते शैवालोँ को
खाती हुई नन्ही मछलियां
बाँस के किसी कुंज मेँ छिपते
किसी पीले साँप
को देख कर लगने वाला डर
या ऐसी ही बहुत सी चीजोँ का असर
वैसा नहीँ होता , जैसा होता है।
अक्सर ऐसे समय मेँ
कमजोर हो जाते हैँ दिल मेँ बैठे जानवर के
पैने दाँत और नाखून
अल्लाह और राम के नारोँ के बीच
दिख जाता है
टूटा हुआ राम का धनुष…
कतरा भर अल्लाह के आँसू।
अचानक उकियाती हुई
कुतिया मर गई रात को।
शायद ज़हर दे दिया किसी ने…!
सुबह को फुदकते–कूदते हुए
गली का कुत्ता
उसकी लाश के पास आकर ठिठक गया
और फिर चुपचाप अकेले मेँ
सुनसान हो कर बैठ गया और
उसकी आँखो के कोरोँ मेँ सिमट आई नमकीन बूँद
क्योँकि अपने रंगीन दिनोँ मेँ उसने
उसके साथ गुजारे थे , कई हसीन लम्हे–
शाम को कुत्ता
खीँच –खीँच कर मांस खा रहा था
और कुतिया के
पसलियोँ की हड्डियाँ
सफेद –सफेद दिख रही थीँ…!
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
उम्मीद जगाती कविताऍं…।
संदीप जी
बहुत सुन्दर कवितायेँ! ''माँ ,कविता और रोटियां…अद्भुत..!..''माँ'' शब्द ही एक कविता है…महसूस किया जाये तो…!
बधाई
जीवन के अनुभवों कि सहज अभिव्यक्ति ये कविताएँ कवि की संवेदना को उद्घाटित करती हैं .आज जब खांटीपन का ह्रास हो रहा है ऐसे में संदीप कि कविताएँ आहत तो जरूर हैं लेकिन एक उम्मीद के साथ .बिना लग -लपेट के घटनाओं से संवेदित हो जाना निश्चित ही आकर्षित करता है.
आप सभी को धन्यवाद !
अच्छी कविता है
शाम को कुत्ता
खीँच -खीँच कर मांस खा रहा था
और कुतिया के
पसलियोँ की हड्डियाँ
सफेद -सफेद दिख रही थीँ…!
सांकेतिक भाषा का शानदार प्रयोग